विधवा मांगे सबूत
राकेश पाठक
खट-खट-खट-जूतों की आहट वातावरण की निस्तब्धता को रौंदते हुये आगे बढ़ रही थी। जूतों की आहट जिस भी बैरक के सामने से गुजर जाती....सभी कैदी दरवाजे पर आ जाते। एक छः फुट दस इन्च का शख्स उन कैदियों के सामने से गुजर जाता। उस शख्स के जिस्म पर सफारी सूट था। इसलिये वह जेल का अधिकारी मालूम नहीं होता था। उसकी चाल में काफी रौब था। तीस वर्षीय उस शख्स का रंग गोरा था। वह काफी सुन्दर भी था। चेहरे पर चोटों के हल्के-से कई निशान भी थे किन्तु वह अपराधी मालूम नहीं होता था। उसके चेहरे पर तेज कशिश थी। उसका व्यक्तित्व सभी कैदियों को पशोपेश में डाल रहा था। वह अपनी मस्तानी चाल में आगे बढ़ता जा रहा था। वह गैलरी को पार करते हुये ऐसे आगे बढ़ रहा था, जैसे वह जेल के चप्पे-चप्पे से पूरी तरह वाकिफ हो।
सबसे आखिरी बैरक के सामने जाकर वह ठहरा। उसने दरवाजे के सीखचों को दोनों हाथों से पकड़ा और भीतर झांकने लगा। उसकी आंखें सामने बने दो फुट ऊँचे चबूतरे पर टिक गईं उस चबूतरे पर सफेद साया लेटा हुआ था। उसका मुंह दूसरी तरफ था। दरवाजे पर खड़े शख्स ने अपने कन्धे पर किसी के हाथ का स्पर्श महसूस किया। उसने अपनी गर्दन मोड़ी। पीछे जेलर साहब खड़े थे।
“क्या यही गीता है-?” शख्स ने चबूतरे पर सोई हुई कैदी की तरफ इशारा करके जेलर साहब से पूछा।
“जी भारत साहब।” जेलर साहब बोले—“यही गीता है। सभी कैदी जाग चुके हैं लेकिन यह अभी तक सोई हुई है। सारी-सारी रात जागते हुये गुजार देती है। न जाने-क्या सोचती रहती है बेचारी। न किसी से बात करती है....न ही किसी से किसी तरह का मतलब रखती है। मैं इसे जब भी देखता हूं...तो02मुझे न जाने क्या हो जाता है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि यह बेचारी कतई निर्दोष है-इसे बिना किसी जुर्म के सजा मिली है। लेकिन मैं कर ही क्या सकता हूं? मेरा कर्त्तव्य इसको जेल में कैद रखने का है-रख रहा हूं।”
“लेकिन इसने मुझे लेटर क्यों डाला था? यह मुझसे क्यों मिलना चाहती है-?”
“पता नहीं। तीन दिन पहले ही इसने मुझसे आपके नाम पर लेटर लिखवाया था। कह रही थी कि, मुझे हिन्दुस्तान के सबसे महान जासूस भारत के दर्शन करने हैं। आप इसका लेटर पाते ही राज नगर से मेरठ आये हैं-वह बहुत खुश होगी मैं अभी वार्डन से दरवाजा खुलवाता हूं।” जेलर साहब ने कौने में बैठी वार्डन को बुलाया और दरवाजा खोलने का हुक्म दिया।
दरवाजा खुलने पर जेलर साहब धीमे से बोले—“भारत साहब....गीता का चेहरा विभत्स है। सारा चेहरा झुलसने से कुरूप हो गया है। प्लीज....आप साहस से काम लीजियेगा। अगर आपके चेहरे पर घृणा के चिन्ह उजागर हुये, तो इस बेचारी को दुःख होगा।”
भारत ने जेलर साहब के कन्धे पर हाथ रखा और मुस्करा कर बोला—“आप जाइये। अ....जरा दो कप चाय भिजवा।”
“मैं अभी भिजवा देता हूं।” जाते हुये जेलर साहब बोले-।
जेलर साहब चले गए। भारत ने बैरक में कदम रखा। वह चबूतरे के निकट जाकर खड़ा हो गया। भारत राज नगर स्टेट की जासूसी संस्था सी०डि०ओ० यानि सीक्रेट डिटेक्टिव ऑर्गेनाइजेशन (गुप्त जासूसी संस्था) का जासूस है। जो एजेन्ट स्कवेयर ट्रिपल फाईव के नाम से प्रसिद्ध है। कल की इवनिंग पोस्ट से उसे लेटर मिला था। जो मेरठ की जेल से गीता नाम की कैदी ने लिखा था। गीता ने उसे मेरठ बुलाया था। उसने लेटर में मिलने का कारण तो नहीं लिखा था लेकिन मुलाकात की इच्छा में इतनी व्यग्रता जाहिर की थी कि भारत के उत्सुकता चर्म सीमा पार कर गई। वह नाइट सर्विस एक्सप्रेस में ही सवार हो गया और सवेरा होते ही उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध शहर मेरठ में आ पहुंचा। जेलर साहब ने उसका शानदार ढंग से स्वागत किया। भारत के मन में इस बात की जिज्ञासा बनी हुई थी कि गीता नाम की कैदी को उससे क्या काम आ पड़ा है जबकि गीता को जेल में सजा काटते कंपकंपाते नौ साल हो चुके थे। उसे बीस साल की सजा हुई थी।
चबूतरे के पास खड़े भारत ने करवट लिये पड़ी गीता को देखा। गीता घुटनों को पेट से दबाये हुये सांप की तरह गोल मुण्डी खाये सो रही थी। भारत का कंपकंपाता हुआ हाथ गीता की तरफ बढ़ा। कंपकंपाता हुआ हाथ गीता के कन्धे पर टिका और साथ ही साथ हट भी गया। भारत चौंक पड़ा था। गीता का जिस्म भट्टी के समान दहक रहा था। उसे काफी तेज बुखार था।
“गीता.....गीता.....?” भारत ने उसे पुकारा।
जिस्म में कंपकंपाहट-सी हुई। पेट से सटे हुये घुटने सीधे हुये, वह उठ बैठी। उसने आंखें मलीं-दोनों बाजू फैला कर जोर से अंगड़ाई ली। पीछे से देखने पर उसका जिस्म काफी खूबसूरत नजर आ रहा था। वह पलटी। भारत के गले से खौफनाक चीख निकली लेकिन होंठों से परे ही दम तोड़ गई। भारत ने हिम्मत से काम लिया था-वर्ना वह जोर से चीख पड़ता। उसने दहशत का एक भी कीड़ा चेहरे पर रेंगने नहीं दिया। आंखों में खौफ की जरा-सी भी परछाई नहीं रेंगने दी। सचमुच....गीता का चेहरा बड़ा ही विभत्स था। चेहरे की तमाम खाल जलकर लटक-सी गई थी। एक आंख तिरछी हो गई थी। निचला होंठ मांस का सफेद पिण्ड-सा बनकर ठोडी से चिपक गया था। नीचे के दो दांत मसूड़े जलने के कारण बेहद ही भयानक नजर आ रहे थे।
भारत इस जले हुये चेहरे के पीछे छिपे चेहरे को देख रहा था। उस चेहरे को, जो जलने से पहले बहुत खूबसूरत था। वह जले हुये वर्तमान के चेहरे को देखकर भी इस बात को ताड़ गया था कि, गीता बला की खूबसूरत थी। इतनी सुन्दर होगी कि देखने वालों की भूख और प्यास गायब हो जाती होगी। गीता के चांद से आभायुक्त, सलौने से चेहरे पर सैकड़ों-हजारों लोलुप, तड़रती निगाहें चुम्बक की तरह चिपक जाती होंगी। और अब-अब कितना भयावना, घिनौना चेहरा है....जो भी देख ले, वह मारे डर के बेहोश हो जाए, या फिर घृणा से कै ही कर दे।
“कौन हैं....आप-?”
भारत के कानों में शहद-सी मीठी आवाज घुसती चली गईं। उसने चौंक कर गीता को देखा। उसने अपनी सोचों को जोरदार थप्पड़ जड़ा और मीठी मुस्कराहट के साथ बोला—“गीता जी....मैं राज नगर से आया हूं....।”
“अच्छा....तो आप भारत साहब हैं। भारत के सुप्रसिद्ध जासूस-?” गीता ने भारत की बात काटी—“मुझे पूरा विश्वास था कि आप मेरे पत्र को पढ़कर जरूर ही आयेंगे लेकिन यह विश्वास नहीं था कि आप इतनी जल्दी आ जायेंगे-आईये बैठिये।”
“तुमने मुझे लेटर क्यों डाला था?” भारत ने चबूतरे पर बैठने के बाद सवाल किया।
गीता फर्श पर पालथी मार कर बैठ गई। वह मुस्कराई। उसकी मुस्कराहट बेहद भयावनी थी। वह बोली—“आप यह तो जरूर सोच रहे होंगे कि मैंने आपको यहां क्यों बुलाया है? मैं जेल में नौ-दस सालों से हूं ?फिर अचानक ही आपको मैंने क्यों बुला लिया....आ?”
“हां मेरे मन में हयी बात है। बताओ....तुमने मुझे क्यों बुलाया है-?”
“मैंने आपको जिस कारण से बुलाया है-वह चार-पांच दिन पहले ही बना है लेकिन अगर मैं आपको चार दिन वाली बात बता भी दूं....तो आपके पल्ले कुछ भी नहीं पड़ेगा। अगर आप मुझ गरीब पर तरस खायें और मेरी कहानी सुनने का कष्ट करें तो....बड़ी मेहरबानी। फिर आपको यह भी पता चल जायेगा कि मैंने आपकों यहां पर क्यों बुलाया है।”
“मैं यहां पर तुम्हारी कहानी सुनने को ही आया हूं.....गीता जी। मेरे मन में यह जिज्ञासा बनी हुई है कि.....तुम किस जुर्म के लिये यह सजा भुगत रही हो? जेलर साहब ने तुम्हारे आचरण का जो चित्रण किया है....उससे तो मुझे भी यही लगता है कि तुमने जो भी जुर्म किया है-मजबूरी वश ही किया है।”
“नहीं।” चीखी गीता—“मैं ऐसे जुर्म की सजा भुगत रही हूं.....जो मैंने किया ही नहीं है।”
“क्या मतलब-?”
“इसीलिये तो कहती हूं....भारत साहब, कि आप मेरी कहानी सुन लें। पूरी कहानी सुनकर आपकी समझ में सारी बातें आ जायेंगी।”
“मैं तुम्हारी कहानी सुनने को तैयार हूं।”
तभी अर्दली चाय ले आया। भारत ने उसे जाने को कह दिया। भारत ने दोनों प्यालों में चाय भरी। उसने एक प्याला गीता को दिया, और दूसरा प्याला खुद ने ले लिया। उसकी आंखें गीता के कुरूप चेहरे पर ठहर गईं। उसकी कर्ण-इन्द्री गीता की कहानी सुनने को बेकरार थी। जबकि गीता के जले हुये होंठ चाय को चाट रहे थे। उसकी आंखें कोठरी की दीवारों में कुछ खोजने की कोशिश कर रही थीं। जबकि भारत ने अभी तक एक चुस्की नहीं ली थी-और गीता ने गर्म-गर्म चाय को उदर में उडेल भी लिया था। उसने सफेद सूती साड़ी से गीले होंठों को पौंछा और फिर बोली—“समझ में नहीं आता है कि मैं अपनी कहानी का श्री गणेश कहां से करूं? उन तीन दरिन्दों से....जिनकी बदौलत मैं यहां पर हूं....या उन परिस्थितियों से....जिनमें फंसकर मैं उन तीनों के पास पहुंच गई थी।”
“जब सुना ही रही हो तो....शुरू से ही सुनाओ।”
“ठीक है....सुनाती हूं लेकिन एक बात बताइये-?”
“पूछो गीता जी।”
“मैं आपके लिये अपरिचित हूं। क्या आपको मेरी कहानी पर विश्वास आयेगा-?”
“अगर मुझे तुम पर विश्वास न होता तो, यहां नहीं आता। फिर झूठ बोलकर तुम मुझसे लोगी ही क्या-?”
मुस्कराई गीता—“ठीक है....अब मैं आपको अपनी कहानी सुना सकूंगी।”
गीता का मस्तिष्क दौड़ कर अतीत की गोद में जा बैठा। वह जो भी देख रहा था-उसका बयान गीता की जुबान कर रही थी।
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