वन्देमातरम् : Vandematram by Sunil Prabhakar
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Description
ये उपन्यास नहीं, दस्तावेज है राष्ट्र के उन सपूतों की राष्ट्रभक्ति का जिन्होंने स्वयं को राष्ट्र हित और राष्ट्र निर्माण के लिए खुद को फना कर दिया और खुद गुमनाम रहे। राष्ट्र से अपनी भक्ति के बदले वरदान के रुप में न पद मांगा, न प्रतिष्ठा। वो ‘वन्दे मातरम्’ कहते हुए राष्ट्र के नाम शहीद हो गए और तबाह भी।
प्रस्तुत उपन्यास को पढ़ते समय आपका मन भी राष्ट्रप्रेम की धारा में ऐसा बहेगा कि आपका रोम-रोम कह उठेगा...वन्दे मातरम् !
सुनील प्रभाकर का बेहतरीन थ्रिलर उपन्यास वन्देमातरम्
वन्देमातरम् : Vandematram
Sunil Prabhakar सुनील प्रभाक
Ravi Pocket Books
BookMadaari
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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वन्देमातरम्
सुनील प्रभाकर
'योर ऑनर, ये एकदम खुला केस है—अदालत के पास ढेर सारे सबूत भी हैं और गवाहों की भी कोई कमी नहीं है—अभियुक्त भारत कुमार ने अदालत में सब-इंस्पेक्टर के होलेस्टर से रिवॉल्वर निकालकर उन गवाहों को गोली मारी थी, जिन्होंने इसके खिलाफ गवाही दी थी—फिर उसने लाखों लोगों की भीड़ के सामने ही प्रदेश के मुख्यमन्त्री समेत कई मन्त्रियों की हत्या कर डाली—जब अभियुक्त भारत कुमार ने उन लोगों को मारा था तो वहां प्रेस फोटोग्राफर थे, जिन्होंने उस हादसे के फोटो लिए थे—वहां पर दूरदर्शन की टीम भी मौजूद थी—जो कि समाचार के लिए 'हाईलाइट' की कवरेज कर रही थी। रात को समाचार में उस जघन्य हत्याकाण्ड को दिखलाया गया था—जिसे करोड़ो लोगों ने देखा था—यानी इसमें बाल बराबर भी सन्देह की गुंजाइश नहीं है कि अभियुक्त हत्यारा है—शायद ये इस स्टेट का सबसे बड़ा और जघन्य हत्याकाण्ड है—जिसकी गूंज पूरे विश्व में फैली हुई है—जिसने भी देखा और सुना, वो सन्नाटे की-सी स्थिति में रह गया—एक बार को कोई विश्वास भी नहीं कर सकता है कि कोई अकेला आदमी इतनी भीड़ और पुलिस फोर्स की मौजूदगी में प्रदेश के मुख्यमन्त्री और मन्त्रियों की हत्या भी कर सकता है—इसी बात का अन्दाजा लगाया जा सकता है कि इस शख्स को अगर खुला छोड़ दिया जाए तो—ये एक सप्ताह में सारे प्रदेश की जनता को कच्चा ही खा जाएगा—मैंने किताबों में डायनासोर के बारे में पढ़ा है...वो विशालकाय जानवर जिस भी इलाके से गुजरता था तबाही मचाता चला जाता था—ये शख्स उससे भी अधिक खतरनाक जानवर है योर ऑनर।”
सरकारी वकील पूरा उत्तेजित था—और गला फाड़कर चीखा था, इसीलिए उसकी सांसें धौंकनी की भांति ही चलने लगीं।
उखड़ी हुई सांसों को समेटने पर वो हांफते हुए बोला—“इस शख्स ने यदि हजारों निर्दोष व्यक्तियों को जान से मार दिया होता तो शायद इतना बड़ा पाप व अपराध नहीं होता—परन्तु इसने इससे भी जघन्य अपराध किया है—इसने उन लोगों की जान ली है जो कि इस प्रदेश के शासन को चला रहे थे—जनता के प्रतिनिधि थे ये लोग—उनके साथ करोड़ों लोगों की आस्था, विश्वास और भावना जुड़ी हुई थी। उन महान विभूतियों की हत्या से न जाने कितने लोगों को दु:ख हुआ होगा—न जाने कितने लोग तो मारे दु:ख के मर ही गये होंगे—जैसे गांधी के मरने पर देश की जनता रो उठी थी, उसी तरह आज भी असंख्य दिल रो रहे हैं—फिर ये प्रदेश का नुकसान भी तो है। जबकि कानून की किताबों में फांसी से बढ़कर भी कोई सजा है तो मैं उसके लिए उसे सजा की प्रार्थना करता—मैं अदालत से यही प्रार्थना करूंगा कि इस दशक के सबसे दुर्दान्त अपराधी को सख्त सजा सुनाई जाए—ताकि फिर कोई भी अपराधी ऐसा अपराध करने का मन में ख्याल भी ना ला पाए—दैट्स ऑल योर ऑनर।”
सरकारी वकील के बैठते ही अदालत कक्ष में फुसफुसाहट होने लगी, जो कि बढ़ते-बढ़ते शोर-शराबे में परिवर्तित हो गयी।
“ऑर्डर...ऑर्डर।”
जज साहब ने मेज पर मुगरी मारते हुए शान्ति का आदेश दिया।
जब सन्नाटा व्याप्त हो गया तो जज साहब कटघरे में खड़े शख्स से मुखातिब होकर बोले—“अभियुक्त भारत कुमार अदालत ने तुमसे वकील करने के लिए कहा था। परन्तु तुमने अपना वकील करने से इंकार कर दिया था। परन्तु अदालत हर किसी को अपनी सफाई देने का अवसर प्रदान करती है ताकि बाद में कोई भी ये ना कहे कि अदालत ने एकतरफा निर्णय सुना दिया। तुम पर जो अपराध लगाए गये हैं वे तुम स्वीकार करते हो? यदि नहीं तो...क्या तुम अपनी निर्दोषता का कोई प्रमाण प्रस्तुत करना चाहोगे?”
कटघरे में खड़े उस गोरे-चिट्टे शख्स ने अपना चेहरा ऊपर उठाया। उसके सिर व दाढ़ी के बाल बगुले जैसे सफेद थे। उसके चेहरे पर एक तेज-सा था। आभा थी तथा लाल आंखों में हीरे जैसी चमक थी।
चेहरे पर कोई पश्चाताप या शर्मिन्दगी नहीं थी। न ही आंखों में कोई भय अथवा चिन्ता थी।
“जज साहब!” मानो वो आवाज किसी बूढ़े शेर की थी—“मैं इस बात से कैसे इंकार कर सकता हूं कि मैंने हत्यायें नहीं की हैं। मैं अगर इनकार करता भी हूं तो इससे लाभ क्या होगा? क्या अदालत मान जाएगी कि मैं हत्यारा नहीं हूं। नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मैंने अदालत में ही आपकी आंखों के सामने उन गवाहों को मारा था। मैंने लाखों लोगों के सामने चीफ मिनिस्टर और मन्त्रियों के अलावा पुलिस अफसर को भूना था।”
“यानी तुम अपना अपराध स्वीकार करते हो?”
“अपराध?” उसकी भाव-भंगिमायें कुछ ऐसी हो गईं मानो जज साहब ने उसे कोई गन्दी गाली दे दी थी। वो कड़ी निगाहों से जज साहब को घूरते हुए खुरदरे स्वर में बोला—“किसने कहा आपसे कि अपराध किया है मैंने?”
“कमाल की बात करते हो तुम भारत कुमार—तुम एक तरफ ये भी स्वीकार करते हो कि तुमने हत्याएं कीं, परन्तु ये भी नहीं मानते कि तुमने अपराध किया है?”
“बिल्कुल नहीं मानता हूं। मैंने कोई अपराध नहीं किया है।”
“अदालत जानना चाहेगी कि तुम अपने आप को निर्दोष कैसे मानते हो?”
वो जज साहब की आंखों में झांकते हुए बोला—“मैं आपसे कुछ सवाल करूंगा जज साहब! कृपया आप ईमानदारी के साथ हां या ना में उत्तर दीजिएगा। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम ने रावण का वध किया था। प्रभु श्री कृष्ण ने कंस को मारा था, विष्णु भगवान ने नरसिंह अवतार लेकर हिरण्यकश्यप का संहार किया था, तो क्या वो अपराधी थे?”
“परन्तु वे तो...।”
“सिर्फ हां या ना में उत्तर दीजिए, जज साहब, जैसे आपके वकील साहब ने भी मुझसे सिर्फ हां या ना में जवाब मांगा था।”
“न...नहीं...किन्तु उनकी और बात थी। उन्होंने जिन लोगों को मारा था वो पापी थे, उनके अत्याचारों से जनता परेशान थी।”
“मैंने भी जिन लोगों को मारा है वो पापी थे। झूठे और बेईमान थे।” वो उत्तेजित भाव से बोलता चला गया—“मुजरिम थे वे—अपराधी थे। भेड़ की खाल में छुपे भेड़िए थे वे, जो कि चुपचाप इन्सानियत का खून पी रहे थे—समाज को बर्बादी की कगार पर ले जा रहे थे—देश की जड़ों में विनाश का बीज बो रहे थे—मां भारती की पीठ में छुरा घोंप रहे थे वे।”
“क्या तुम अपनी बात को सच साबित कर सकोगे?”
वो प्रत्येक शब्द को जैसे चबा-चबाकर बोला था—“अगर मेरे पास सबूत होता तो उन्हें अपने हाथों से मारने की जरूरत नहीं थी। घसीटते हुए अदालत में लाता और उन्हें फांसी पर चढ़ा देता।”
“माना कि वो वैसे ही थे, जैसे कि तुम बतला रहे हो—परन्तु तुम्हें सजा देने का क्या अधिकार था?”
“मुझे वो अधिकार था, जो कि देश की सीमा पर दुश्मनों को मारने का अधिकार फौजी को होता है।”
“वो सरकारी नौकर होते हैं, उन्हें इस बात का अधिकार दिया जाता है परन्तु किसी आम इंसान को किसी की जान लेने का कानून अधिकार नहीं देता है।”
“मैं आम इंसान नहीं हूं जज साहब।” वो भड़कते हुए चीखा—“आम इंसान नहीं हूं मैं। अगर मैं अपना शरीर दिखाऊंगा तो अनेक जख्म दिखलायी देंगे आपको—और वो जख्म आजादी की लड़ाई लड़ते हुए मिले थे। सिर पर कफन बांधकर आजादी की लड़ाई लड़ा था मैं। देश जब आजाद हुआ था तो मुझे राष्ट्रीय सम्मान मिला था। मुझे सत्ता सौंपनी चाही थी राजनीतिज्ञों ने, परन्तु मैंने सत्ता को ठोकर मार दी थी। ये कहते हुए कि मैंने सत्ता का सुख भोगने के लिए आजादी की लड़ाई नहीं लड़ी—मैंने अपने वतन के लिए जो कुछ भी किया है उसकी कीमत नहीं चाहिए। हां, मैंने ये कल्पना अवश्य की थी कि गांधी का सपना साकार हो। अपने देश में राम राज्य की स्थापना हो परन्तु ये भूल थी मेरी। हमने रावण रुपी अंग्रेजों को अवश्य मार भगाया था परन्तु कुछ राक्षस इन्सान की खाल ओढ़कर रह गये थे। यहां जो तन से तो हिन्दुस्तानी ही थे, परन्तु मन और आत्मा से अंग्रेजी थे। जिनकी श्रद्धा अपने वतन में नहीं थी, अपने निजी स्वार्थ में थी। ऐसे ही एक राक्षस ने आजादी के इस दीवाने के खिलाफ साजिश का चक्रव्यूह रचा। राम राज्य के सपने देखे थे मैंने, किन्तु रावण राज्य की स्थापना हो गयी थी। मैंने उस रावण राज को समाप्त कर दिया है। अदालत भले ही इसे मेरा अपराध माने, परन्तु मैंने अपनी समझ में अपने राज्य को बेच खाने वाले शैतानों को मारा है, उन्हें मारने का रत्ती भर भी अफसोस नहीं है मुझे, यदि अदालत मुझे फांसी की सजा भी देती है तो मैं समझता हूं कि मैं शहीद हो गया हूं, मुझे भी वो इनाम मिल गया है जो भगत सिंह, राजगुरु तथा सुखदेव जी जैसे क्रान्तिकारियों को मिला था।”
जज साहब भारत कुमार के शब्दों से थोड़ा प्रभावित दिखलायी पड़े तथा उससे बोले—“यदि वे लोग ऐसे थे तो तुम्हें चाहिए था कि कानून की मदद लेते। कानून के हाथों सजा दिलवाते उन्हें।”
“कानून के हाथों और उन सत्ताधारियों को सजा?” वो व्यंग भरी मुस्कान के साथ बोला—“आप तो मजाक कर रहे हैं जज साहब—भला कोई आग सूरज को जला सकती है? क्या कोई कुआं समुद्र को अपने भीतर डुबो सकता है। अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि इस देश का कानून सत्ता का गुलाम है। कानून के रखवाले नेताओं से दबकर काम करते हैं...क्योंकि उन्हें अपनी नौकरी जाने का भय तथा तरक्की करवाने का लालच होता है। भले ही आप स्वीकार नहीं करें परन्तु ये सच है कि अगर आपके पास किसी मिनिस्टर का फोन आ गया तो आप उसकी इच्छा अनुसार ही निर्णय करेंगे। मैं कानून की मदद नहीं ले सकता था क्योंकि कानून के रखवाले तो उन लोगों की जी हजूरी कर रहे थे। मुझ पर पुलिस ने उन लोगों के इशारे पर झूठा आरोप लगाकर अदालत में प्रस्तुत किया था। तभी मेरा आक्रोश फट गया था, मुझे लगा था कि अब कानून इन्साफ नहीं करेगा। उन दरिंदों को सजा नहीं देगा और उन्हें छोड़ देने का सीधा सा मतलब इस राज्य की तबाही से था—सो मुझे ही कानून बनकर अपनी ही अदालत में उन लोगों को सजा देनी पड़ी। आप जरा इतिहास की किताबें उठाइए जज साहब...भारत की आजादी वाला चैप्टर पढ़िए। उसमें मेरा भी वर्णन मिलेगा आपको। फिर आप ये सोचना कि जो शख्स सिर पर कफन बांधकर मातृभूमि के लिए लड़ा था, भला वो किन्हीं निर्दोष व्यक्तियों की हत्या कर सकता है।”
जज साहब थोड़ा सोच में पड़ गये।
अदालत कक्ष में सन्नाटा व्याप्त था। प्रत्येक दर्शक स्तब्ध भाव से कटघरे में खड़े उस व्यक्ति को देख रहा था, जो कि अब कोई देवता प्रतीत होता था।
किसी का मन उस बात को मानना नहीं चाहता था कि वो दुर्दान्त हत्यारा हो सकता है।
जज साहब के धीर-गम्भीर स्वर में ही उस नि:स्तब्धता को भंग किया—“भारत कुमार...ये अदालत सारी बातें जानना चाहती है—तुमने जिन लोगों को मारा है, वे सभी के लिए अच्छे इन्सान थे—कभी ऐसा कोई जिक्र भी नहीं हुआ कि उनमें कोई बुराई भी हो सकती है कि वो भीतर खाने-खराब व्यक्तित्व वाले हों—अदालत अपना निर्णय सुनाने से पूर्व ये जानना चाहती है कि तुम्हारा उन लोगों से क्या लिंक था तथा तुमने उनकी हत्या क्यों कीं?
“यदि अदालत चाहे तो मैं अपनी सारी दास्तान सुनाना चाहता हूं जज साहब—इस दास्तान को थोड़ा पीछे से शुरू करना चाहता हूं—जब ये देश गुलाम था—अंग्रेजी हुकूमत हम हिन्दुस्तानियों पर अत्याचार कर रही थी...।”
¶¶
अचानक ही शिव मन्दिर को घुड़सवार सिपाहियों ने घेर लिया। उन लाल वर्दी वाले सिपाहियों की पीठ पर बन्दूकें टंगी थीं तथा हाथों में चाबुक थी।
“ये ही वो जगह है सिपाहियों...।” घोड़े पर सवार अंग्रेज अफसर कड़क भरे स्वर में बोला था। “यहां पर कल हिन्दुस्तानियों ने आकर माता की जय जयकार किया था—हम फिरंगीयों को बर्बाद करने का कसम खाया था—मारो इन कुट्टों को...तभी इन हिन्दुस्तानी डॉग्स को अक्ल आयेगी—इनको समझाना मांगता है कि हमसे टकराने वाले का क्या नटीजा होटा है।”
घोड़ों की टापों तथा चाबुकों की आवाज से मन्दिर का प्रांगण गूंजने लगा।
सिपाहियों ने घोड़े दौड़ाते हुए निर्दोष लोगों पर चाबुक बरसाने शुरू कर दिए। वे ये भी नहीं देख रहे थे कि उनके अत्याचार का शिकार औरतें व बच्चे भी हो रहे हैं।
कारूणिक दृश्य तो तब बनने लगा—जब घोड़े इधर-उधर भागते बच्चों को अपने कदमों तले कुचलने लगे तथा मांयें अपने जिगर के टुकड़ों को बचाने के लिए उनके ऊपर लेट गईं।
नतीजा ये हुआ कि घोड़ों ने उन्हें भी कुचल दिया।
परन्तु तभी एक अनहोनी हो गयी।
हां—अंग्रेजों के लिए तो वो अनहोनी ही थी।
मन्दिर के चबूतरे पर एक चालीस वर्षीय आदमी प्रकट हुआ। उसने सफेद धोती-कुर्ते के साथ सिर पर टोपी पहनी हुई थी।
“रुक जाओ जालिमों...मैं कहता हूं कि ये दमन चक्र बन्द करो।” वो ललकारते हुए चीखा—“शर्म आनी चाहिए तुम लोगों को...जो एक फिरंगी के कहने पर अपने भाई बहनों पर चाबुक बरसा रहे हो—इनमें कोई तुम्हारा बाप कोई भाई हो सकता है—कोई मां, कोई बेटी तो कोई बहन हो सकती है—तुम जिन मासूम बच्चों को अपने घोड़ों की टापों से कुचल रहे हो, वो तुम्हारे भी बेटे हो सकते हैं—जमीन पर बिखरे उस खून को पहचानो संगदिलों—ये तुम्हारा अपना ही हिन्दुस्तानी खून है।”
“बकवास ना कर ओए तू...।” एक सिपाही गुर्राते हुए बोला—“हम लोग अपना कर्तव्य निभा रहे हैं—हम इस वक्त सिपाही हैं—हम जिन लोगों का नमक खाते हैं, उनके आदेश का पालन तो करना ही होगा हमें।”
“गलत बोलते हो तुम मेरे भाई...गलत सोच है तुम्हारी।” वो झुककर सिपाही की आंखों में आंखें डालते हुए बोला—“तुम लोग इन फिरंगियों का नमक नहीं खा रहे हो—ये विदेशी हमारे देश का नमक खा रहे हैं तथा हमारा ही खून बहा रहे हैं—ये धरती हमारी मां है—हमारे पूर्वजों ने इस धरती को अपने खून से रंगीन बनाया है—अपने पसीने से इसकी कोख हरी की है—परन्तु आज हम अपने ही वतन में बेगाने हो गये हैं—जिन लोगों का इस देश से कोई मतलब-वास्ता नहीं था, वो आज इसके मालिक बन गये हैं तथा हमें अपना दास बना डाला है इन लोगों ने—ये मुट्ठी भर लोग तुम जैसे ही भाईयों की मदद से हम पर राज कर रहे हैं—यदि तुम लोगों की अन्तरात्मा जाग जाए तो...इन फिरंगियों को हम एक दिन में ही इस देश से धक्के देकर निकाल बाहर करें।”
“कौन है ये बुड्ढा...।” अंग्रेज अफसर फुंफकारते हुए बोला—“जो हमारा सिपाही को भड़काता है—हमारा आदमी को बागी बनाने पर टुला है? लगटा है कि ये क्रान्तिकारी है—इसे पकड़ लो...जिन्दा ही—हम इसे टॉर्चर करेगा और इसके साथियों का पता मालूम करेगा—इसको अरेस्ट करना मांगता है हम।”
और सिपाही घोड़ों समेत ही मन्दिर की सीढ़ियों पर चढ़ने लगे।
परन्तु वो देशभक्त चबूतरे से छलांग लगाकर सीढ़ियों के मुहाने पर दीवार बनकर खड़ा हो गया तथा चिल्लाया—“रुक जाओ फिरंगियों के पिट्ठूओ, मैं बोलता हूं कि वापस लौट जाओ—तुम्हारी गन्दी आत्मा इस योग्य नहीं है कि तुम पवित्र मन्दिर की ड्योढी पार कर सको?”
परन्तु सिपाही नहीं रुके।
तब उस जवां बांकुरे ने दोनों घोड़ों की लगामें थाम लीं तथा उन्हें आगे बढ़ने से रोकने लगा।
सड़ाक...सड़ाक...।
सिपाही उस पर चाबुक बरसाने लगे।
“वन्देमातरम्...।” वो गला फाड़कर चीखा तथा उसने दोनों घोड़ों को वापिस धकेल दिया।
हिनहिनाते हुए घोड़े सीढ़ियों से लुढ़कते चले गये। उन पर सवार दोनों सिपाही पके आमों की भांति हवा में उछल कर जमीन पर गिरे थे।
इससे पूर्व कि वे उठ पाते...घोड़े उनके ऊपर से गुजर गये। दोनों का कचूमर निकल गया।
अपने दो साथियों की जान जाते देखकर अंग्रेज अफसर का बन्दर जैसा लाल चेहरा भभक उठा तथा आंखों से चिंगारियां-सी फूटने लगीं।
“शूट कर दो इस इण्डियन डॉग को...आयी से शूट हिम...।”
सिपाहियों की बन्दूकें गर्ज उठीं।
“जय मां भारती...।” उसने हवा में छलांग लगा दी तथा घोड़े पर सवार अफसर को साथ लिए हुए जमीन पर पलटता चला गया।
पति के साथ उसने अफसर की कमर में बंधी एक छोटी पिस्तौल निकाल ली तथा उसकी कनपटी पर लगाते हुए फुंफकारा—“अगर तू जरा-सा भी हिला तो मैं तेरी खोपड़ी उड़ा दूंगा विदेशी बन्दर।”
“बन्दर...यू मीन मंकी? यू इण्डियन डॉग...यू रास्कल टुम हमको मंकी बोला? हम टुमको गोली मार डेगा—सिपाहियों...इसे शूट कर डो।”
“खबरदार।” वो चेतावनी के लहजे में बोला—“यदि किसी ने भी गलत हरकत करनी चाही तो तुम्हारे इस अफसर को जान से मार डालूंगा—सभी अपने-अपने हथियार जमीन पर डाल दो।”
सिपाहियों ने अफसर को देखा तो उसने थूक-सा सटकते हुए हामी भर दी।
बन्दूकें जमीन पर आ गिरीं।
“सुनो तुम लोग...।” वो घायल हिन्दुस्तानियों से बोला—“इस फिरंगी ने तुम पर चाबुक बरसवाई—तुम्हारे अपनों की लाशें बिछाईं हैं—ये फिरंगी कमजोरों पर अत्याचार करके खुश होते हैं तथा अपने से ज्यादा ताकतवर के तलवे चाटते हैं—अभी ये तुम लोगों के सामने मेरी तलवे चाटेगा।”
मन्दिर के प्रांगण में मौजूद हर आंखों में प्रश्नसूचक भाव उतर आये। किसी को भी विश्वास ना हुआ कि वो फिरंगी तलवे भी चाटेगा।
“सुना नहीं तूने कुत्ते...।” वो फिरंगी की कनपटी पर पिस्तौल की चोट मारते हुए बोला—“यदि तूने फौरन ही मेरे तलवे ना चाटे तो मैं तुझे जान से मार डालूंगा—अपनी जान बचानी है तो मेरा कहना मान।”
अंग्रेज अफसर फुर्ती के साथ उठा तथा किसी कुत्ते की भांति ही लम्बी जीभ निकालकर उसके धूल से सने पैरों को चाटने लगा।
घायल नर-नारी अपनी पीड़ा भूलकर उस आश्चर्यजनक दृश्य का अवलोकन करने लगे।
सिपाहियों की भी आंखें फटने लगीं।
“बन्दूकें अपने कब्जे में लो तुम सब—इन लोगों से डरने की आवश्यकता नहीं है—मैं तुम्हें भोले बाबा की सौगन्ध देता हूं।”
वहां उपस्थित युवकों ने जमीन पर पड़ी बन्दूकें उठा लीं।
“घोड़ों से नीचे उतरो हिन्दुस्तानी गद्दारों।”
सिपाही मन-ही-मन कसमसाते हुए नीचे उतरे।
“इन सिपाहियों ने तुम लोगों पर चाबुकें बरसाई हैं—ये हिन्दुस्तानियों के नाम पर कलंक हैं—जिन फिरंगियों ने हमारी भारत मां को अपना गुलाम बनाया है—ये कमीने उन फिरंगियों की ताबेदारी करते हैं—उनके लिए अपने ही भाईयों पर अत्याचार करते हैं—मारो इन्हें...अपने हाथ से सजा दो।”
भीड़ को सांप-सा सूंघ गया।
कोई भी अपने स्थान से एक इंच भी आगे ना बढ़ा।
“सांप क्यों सूंघ गया है तुम लोगों को...शायद तुम ये सोचकर सहम गये हो कि बाद में फिरंगी तुम लोगों को मार डालेंगे परन्तु तुम जिन्दा ही कब हो? हम जो जिन्दगी जी रहे हैं क्या उसे जिन्दगी कहेंगे? क्या गुलामी की सांसें आजादी की मौत से बढ़िया हैं? नहीं, हमें गजगिजाते हुए कीड़े बनकर नहीं जीना है? नहीं, हम यदि जिएंगे तो स्वाभिमान भरा जीवन जिएंगे—हमारे ग्रन्थ बोलते हैं कि अत्याचार करने वाले से अत्याचार को सहने वाला ज्यादा बड़ा पापी होता है—जरा किसी कुत्ते या कुतिया के सामने उसके पिल्ले को छेड़ कर तो देखो—वो कमजोर होने पर भी बदला लेगा—हमारे सामने हमारे मां-बाप पर चाबुकें बरसती हैं—हमारे रिश्तेदारों को गोली मार दी जाती है—हमारी बहन-बेटियों की लाज लूट ली जाती है—और हम अपनी जान जाने के डर से चुपचाप तमाशा देखते रहते हैं—तो क्या हम कुत्तों से भी गये-गुजरे हो गये हैं—यदि तुम लोगों में थोड़ा-सा भी स्वाभिमान हो तो आगे बढ़ो और बदला लो—वर्ना जमीन पर पड़ा ये खून तुम्हें क्षमा नहीं करेगा—ये तेजाब बनकर तुम्हारी ही आत्माओं को झुलसा देगा—जयकारा...वीर बजरंगी...।”
“हर-हर महादेव..।” सम्वेत् स्वर।
फिर भीड़ सिपाहियों पर टूट पड़ी।
आदमी जहां अपने हाथों से काम ले रहे थे—औरतों ने अपनी चप्पलें निकाल ली थीं।
“देख रहा है तू फिरंगी...।” अंग्रेज अफसर के गाल पर तमाचा मारते हुए बोला—“हिन्दुस्तानियों को कमजोर ना समझना—जब इनका खून खौलता है तो तेजाब बन जाता है—अब तो भारत मां की जय बोल—भारत मां की जय...।”
“नो...।”
“भारत मां की जय।”
“नहीं बोलेगा...।”
धांय...।
गोली ने फिरंगी की कनपटी में झरोखा बना दिया।
उस वीर ने विदेशी की लाश पर घृणा के साथ थूका तथा भोले-भण्डारी के मन्दिर की तरफ हाथ जोड़कर चल दिया।
¶¶
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Additional information
Book Title | वन्देमातरम् : Vandematram by Sunil Prabhakar |
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Isbn No | |
No of Pages | 236 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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