वकीलों की जंग : Vakilon Ki Jung by Shiva Pandit
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अर्जुन त्यागी का एक और शानदार कारनामा....
कोर्ट में शायद जज के सामने भी ऐसा केस पहली दफा आया था...जिसमें एक ही जायदाद के तीन-तीन दावेदार, मृतक की वसीयत के साथ, अपना-अपना दावा प्रस्तुत कर रहे थे...और मजे की बात कि तीनों ही वसीयतें बाकायदा मृतक के असली दस्तखत से जारी की गई थी...और कानूनी रूप से सही थी...फिर सच में उस जायदाद का मालिक कौन था? आखिर क्या राज था उस वसीयत का? रहस्य-दर-रहस्य से अद्भुत दास्तान...जिसे आप अंत तक पढ़े बिना रूक नहीं पायेंगे।
वकीलों की जंग
शिवा पण्डित
जिसने उसकी जान बचाई...उसी ने उसे किसी को मारने की सुपारी दे दी...लेकिन ऐसा करके उसने अपनी ही जान को सांसत में डाल दिया।
अदालत में वकीलों की जंग, जिरह के रूप में चल रही थी तो बाहर अर्जुन त्यागी की कलाकारी काम कर रही थी। पचास करोड़ की रकम आने के चक्कर में वह इस बार हरामियों से भी हरामी बन गया था।
वकीलों की जंग : Vakilon Ki Jung
Shiva Pandit
Arjun Tyagi Series
BookMadaari
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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वकीलों की जंग
शिवा पन्डित
“कुछ लगा पता...?”
“सब पता लगा आया हूं मैं...।”
“तो फिर जल्दी से बोल...क्या रिपोर्ट है?”
“दो करोड़ की जमीन खरीदी है कांशीराम ने...।” हेमंत नाम का वह तीस साल का व्यक्ति सामने बैठे तीन आदमियों पर निगाहें दौड़ाते हुए बोला—“तीन प्रॉपर्टी डीलरों ने मिलकर वह जमीन खरीदी थी...जिनमें एक किशोर भी है। उसी से सारी बात मालूम हुई मुझे...। कांशीराम से उनका सौदा पटा पूरे दो करोड़ में...और एक लाख देकर उसने सौदा पक्का कर दिया है। कल चौबीस लाख और देकर वह बयाना लिखवा देगा।”
“यह तो सौदा पक्का होने की बात हुई।” उसके सामने बैठा जुगल बोला...जो कि हेमंत की ही उम्र का था—“अब कांशीराम के बारे में बोल...उसके बारे में क्या पता किया?”
हेमंत ने मुस्कुराते हुए पहले जुगल को देखा...फिर दायें-बायें की कुर्सियों पर बैठे राघव और आसिफ पर नजर मारी।
राघव करीब पैंतालीस साल का साधारण कद-बुत का व्यक्ति था...। चेहरे से कहीं से भी नजर नहीं आता था कि वह अंडरवर्ल्ड से सम्बन्धित हो सकता है। जबकि आसिफ शक्ल से ही क्रूर और खूंखार नजर आने वाला व्यक्ति था। उन चारों के बीच में रखी टेबल पर स्कॉच की बोतल के साथ तन्दूरी चिकन रखा हुआ था।
चारों के सामने भरे हुए पैग थे और आधी खाली हो चुकी बोतल बता रही थी कि वे दो-दो पैग पहले चढ़ा चुके थे। वे चारों ही इस वक्त होटल नटराज के एक केबिन में थे।
नटराज होटल मोहन नगर का एक साधारण-सा होटल था मगर उस छोटे से शहर के हिसाब से वह काफी रुतबे वाला होटल था...। ऐसे में अपने रुतबे को बनाये रखने के लिए होटल के मालिक ने छह महीने पहले ही फेमिली केबिन्स बनवाये थे। उन फेमिली केबिनों की वजह से होटल में आने वाले लोगों की संख्या में काफी बढ़ोत्तरी हुई।
मगर यह बढ़ोत्तरी फेमिली की नहीं थी...बल्कि अय्याश लोगों की थी। लड़का-लड़की केबिनों में घंटों गुजारते हुए कुछ का कुछ करते थे। मगर उससे होटल वालों को क्या फर्क पड़ता था। उन्हें तो अपनी कमाई से मतलब था। अब केबिन में चाहे फेमिली पर्सन बैठें या अय्याश लोग...। उन्हें तो मोटी कमाई हो रही थी।
“कांशीराम ने...।” हेमंत अपना पैग उठाते हुए बोला—“दिल्ली में कहीं फोन करके पच्चीस लाख मांगे हैं...। जो कि कल सुबह बारह बजे उसके घर पहुंच जायेंगे...और तीन बजे कांशीराम प्रॉपर्टी डीलर के ऑफिस में रुपया लेकर बयाना लिखवाने पहुंच जायेंगे।”
“पक्का...?” राघव बोला।
“बिल्कुल पक्का...। सौ प्रतिशत...।” हेमंत बोला।
“यानि अगर हम हिम्मत मारें तो वह चौबीस लाख अपना हो सकता है।” जुगल बोला।
“हिम्मत तो मारनी ही होगी...।” हेमंत बोला—“बिना हिम्मत किये तो हम एक पैसा भी नहीं कमा सकते।” कहकर उसने अपना पैग मुंह से लगा लिया।
उसकी देखादेखी बाकियों ने भी अपने-अपने पैग उठाये और उन्हें खाली करके टेबल पर रखकर चिकन खाने में जुट गये।
थोड़ी देर केबिन में चपर-चपर की आवाजें आती रहीं...फिर हेमंत बोला—“मैंने सारी जानकारी ला दी है...। अब स्कीम राघव बनायेगा। यह काम इसी का है।”
जुगल तथा आसिफ भी हेमंत की तरफ देखने लगे।
राघव कुछ देर सोचने की मुद्रा बनाते हुए खाली पैग से खेलता रहा...फिर उसने एक गहरी सांस छोड़ते हुए तीनों पर निगाहें दौड़ाईं...और अन्त में हेमंत पर निगाहें फिक्स करते हुए बोला—
“कट्टे मंगवा लिये हैं न तूने...?”
“हां...।” बोला हेमंत—“आज शाम तक पहुंच जायेंगे दो कट्टे...। दो हजार का एक कट्टा मिला है...और उसमें गोली नहीं कारतूस चलेगा...। वो भी सिर्फ एक...। उसके बाद कट्टा बेकार हो जायेगा।”
“हमें भी तो एक ही बार चलाना है। उसके बाद जरूरत ही नहीं पड़ेगी...।” राघव हँसा।
उसकी बात पर बाकी सभी हँस पड़े।
“पैग बना आसिफ...।” राघव आसिफ से बोला।
“वो तो बनाता हूं...तू जल्दी से स्कीम बता...।” आसिफ बोतल उठाते हुए बोला।
“वही तो सोच रहा हूं।” राघव ऐसे बोला...जैसे वह गहरी सोचों में डूबा हुआ हो। आसिफ ने उसके लिये...सिर्फ उसके लिये पैग बनाया और उसे उठाकर बिना कुछ कहे उसकी तरफ बढ़ा दिया।
राघव ने पैग पकड़ा और कुर्सी की पुश्त से पीठ लगाकर उसे मुंह से लगाकर दो घूंट भरे और पैग को थोड़ा ऊपर उठा उसे ऐसे देखने लगा...जैसे वह उसमें से स्कीम ढूंढ रहा हो।
तीनों...आसिफ...जुगल तथा हेमंत की निगाहें उस पर जमी हुई थीं...और वे उसके बोलने का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे।
करीब पांच मिनट तक राघव पैग को ऐसे ही घूरता रहा...फिर उसने पैग को होठों से लगाया और केबिन के ऊपरी हिस्से को देखते हुए उसे खाली करके टेबल पर रखकर हेमंत की तरफ देखा।
“घर कहां है कांशीराम का?” उसने पूछा।
हेमंत ने उसे घूरकर देखा—“अगर तेरा इरादा उसके घर डाका डालने का है तो तेरी स्कीम सुनने की भी जरूरत नहीं...।” वह बोला—“वो सुनने से पहले ही फेल है।”
“क्या मैंने तेरे को बोला कि मैं उसे घर जाकर लूटूंगा?” राघव गुर्राया।
“तो फिर घर का पता क्यों पूछ रहा है?”
“तेरे से अभी जो पूछ रहा हूं उसका जवाब दे...।” राघव बोला।
“कप्तान नगर में है उसका घर...।” मुंह बनाते हुए बोला हेमंत—“कोठी नम्बर छह सौ तीस।”
राघव ने समझने वाले अंदाज में सिर हिलाया...। बोला कुछ नहीं वह।
“मगर उसके घर में डाका डालने में क्या मुश्किल है...।” तभी जुगल बोल पड़ा—“जो तू यह कह रहा है कि स्कीम सुनने की भी जरूरत नहीं?”
हेमंत ने गर्दन जुगल की तरफ मोड़ी और बोला—
“कांशीराम के घर में इतने आदमी नहीं बसते...जितने उसने कुत्ते पाल रखे हैं। छह कुत्ते हैं उसके पास...और छहों के छहों खतरनाक नस्लों के कुत्ते हैं...। ऐसे कि उन्हें देखते ही खून सूख जाये...। ऐसे में उसके घर हल्ला बोलना सिर्फ और सिर्फ बेवकूफी ही होगी...।”
“ओह!”
“और फिर रुपया कांशीराम के पास कल सुबह पहुंचना है...। सुबह की दोपहर भी हो सकती है। यानि अगर हम कुत्तों का बंदोबस्त सोच भी लें तो भी हमें पैसा मिलने की गारंटी नहीं होगी। क्या पता जब हम हल्ला बोलें...पैसा वहां पहुंचा भी न हो...। ऐसे में उसके घर हमला करना हमारी बेवकूफी ही होगी।”
जुगल ने समझने वाले अंदाज में सिर हिलाया। हेमंत की बात उसकी समझ में आ गई थी।
“मगर...।”
“अब चुप भी करो तुम...।” तभी आसिफ गुर्रा उठा—“फालतू में बहस किये जा रहे हो। पहले राघव की तो सुन लो...वो क्या कहता है, उसके बाद भौंकना।”
जुगल ने अपने होंठ भींच लिये और नाक से गहरी सांस छोड़ी।
हेमंत भी अपने होंठ बंद कर राघव को देखने लगा...जो उन दोनों की बहस को नजरअंदाज करते हुए सोचों में डूबा हुआ था।
करीब दो मिनट बाद उसने बारी-बारी से अपने तीनों साथियों पर निगाहें डालीं तो तीनों सतर्क हो उसे देखने लगे।
कान खड़े हो गये उनके।
राघव ने पहलू बदला और निगाहें हेमंत पर फिक्स करते हुए बोला—
“कांशीराम के घर डाका मारने का मेरा कोई इरादा नहीं है...जो तू जुगल को समझा रहा है।”
“वो तो इसने बहस शुरू की थी...।” हेमंत बोला—“मैंने तो तेरे को बस यही बोला था कि कांशीराम के घर में घुसने की सोचना भी बेवकूफी होगी...बाकी यह...।”
“यार...यह क्या टॉपिक ले बैठे तुम...।” मुंह बनाते हुए आसिफ भिन्नाते हुए बोला—“मतलब की बात करो न। फालतू की बेकार बातें करके वक्त ही जाया होगा...और हासिल कुछ भी नहीं होगा।”
राघव ने आसिफ की तरफ देखा और मुस्कुरा पड़ा।
“शाम प्रॉपर्टी डीलर को जानता है तू?” वह बोला।
“हां...।” गंभीर होते हुए बोला आसिफ—“नूर वाला रोड पर शंकर चौक पर है। देख रखा है मैंने शाम प्रॉपर्टी डीलर का ऑफिस।”
“और कांशीराम का घर कप्तान नगर में है।”
“वो तो हेमंत ने बताया ही है।”
“अब तू यह बोल कि कांशीराम चौबीस लाख लेकर किस रास्ते से शाम प्रॉपर्टी डीलर के ऑफिस में पहुंचेगा...। क्योंकि कप्तान नगर से शंकर चौक तक पहुंचने के तीन रास्ते हैं। एक तो तहसील कैम्प से होकर जाता है...दूसरा जी०टी० रोड और तीसरा विचपड़ी रोड से होकर जाता है।”
आसिफ ने पल भर के लिये सोचा...फिर बोला—“मेरे हिसाब से वह उसी रास्ते से जायेगा...जिस रास्ते से आज गया था।” कहकर उसने हेमंत की तरफ देखा—“आज किधर से गया था वो...?”
“आज वो विचपड़ी रोड से गया था...और वापिस भी उधर से ही आया था।” बोला हेमंत।
“मेरे हिसाब से तो कल वह जी०टी० रोड से जायेगा।” जुगल बोल पड़ा।
तीनों की नजरें उसके चेहरे पर जा टिकीं।
“क्यों...?” राघव ने भौहें उठाते हुए पूछा—“कल उधर से क्यों जायेगा वो?”
“कल उसके पास मोटा पैसा होगा...। ऐसे में जी०टी० रोड से जाना उसके लिये सबसे सेफ रहेगा। वहां हर वक्त ट्रैफिक रहता है...और रफ्तार भी रहती है। ऐसे में वह जी०टी० रोड को सबसे सेफ मानेगा। बेशक जी०टी० रोड का रास्ता लम्बा है...मगर वह पूरी तरह से सेफ है।”
“यह ठीक कह रहा है...।” आसिफ ने जुगल की बात का समर्थन किया—“वह कल जी०टी० रोड से भी जा सकता है।”
गहरी सांस छोड़ते हुए राघव ने सिर हिलाया और बोला—“उसे अगर लूटना है तो उसे तहसील कैम्प वाले रास्ते से निकालना होगा।”
बुरी तरह से चौंक पड़े तीनों।
“ऐसे कैसे हो सकता है...? वो अपनी मर्जी का मालिक है...कोई भी रास्ता पकड़ सकता है वह। हम उसे कैसे रोक सकते हैं।”
हेमंत हैरानी से बोला।
“अगर नहीं रोक सकते तो फिर चौबीस लाख लूटने के सपने को भूल जाओ...। सिर्फ उसी रास्ते पर ही उसे लूटा जा सकता है। जी०टी० रोड या विचपड़ी रोड से उसे नहीं लूटा जा सकता।”
“कैसे?” जुगल बोला।
राघव ने पहलू बदला और बोला—
“जी०टी० रोड के बारे में तू बता ही चुका है। वहां हर वक्त रश रहता है...और रफ्तार भी रहती है। यानि जी०टी० रोड पर उसे रोकना बेवकूफी ही होगी। उसके रुकते ही जी०टी० रोड पर जाम लगना शुरू हो जायेगा...और आनन-फानन वहां पुलिस भी पहुंच जायेगी। हो सकता है वहां कोई पेट्रोलिंग कार भी खड़ी हो...ऐसे में उसके रुकते ही हम पकड़े जायेंगे।”
“मगर आगे जाकर तो वो नूरवाला रोड पर मुड़ेगा।”
“हां...वहां से नूरवाला रोड शुरू होगी...। वहां बेशक पेट्रोलिंग कार नहीं होगी...मगर रश तो होगा न...। नूरवाला रोड भी चलती रोड है। वहां लूटना खतरे से खाली नहीं।”
“और विचपड़ी रोड...।”
“वहां पुलिस चौकी है...।” बोला राघव—“बेशक यह रास्ता छोटा है...मगर वह तो हमारे लिये सबसे खतरनाक रास्ता है। हालांकि उस रास्ते पर ट्रैफिक कम रहता है...। लेकिन फिर भी किसी की नजर हम पर पड़ सकती है...और वह फौरन पुलिस को खबर कर सकता है और हमारे भागने से पहले ही पुलिस वहां पहुंच सकती है।”
“ओह!” हेमंत के मुंह से निकला।
“ऐसे तो तहसील कैम्प वाले रास्ते पर हमारे लिये सबसे ज्यादा खतरा होगा।” जुगल बोला—“वहां तो सबसे ज्यादा रश रहता है।”
“बिल्कुल रहता है...। मगर वो रश पैदल का है। फतेहपुरी चौक पर दोनों तरफ साग-सब्जियों की रेहड़ियां लगी होती हैं...और वहां सब्जी मण्डी का-सा माहौल रहता है। उससे आगे दुकानें हैं। वहां भी रश रहता है। मगर वो सारा रश लगभग पैदल का है और उस रश की हमें जरूरत है। जबकि ऐसा रश न तो जी०टी० रोड पर है...न ही विचपड़ी रोड पर। ऊपर से वहां से पुलिस चौकी तीन किलोमीटर दूर है। यानि यहां से वहां पहुंचने में पुलिस को कम-से-कम पांच-सात मिनट तो लगेंगे ही...और इतने में हमारा काम आसानी से हो जायेगा।”
गंभीरता से बोला राघव।
“तू अपनी योजना बोल...।” हेमंत बोला—“तू करना क्या चाहता है?”
“पहले जी०टी० रोड और विचपड़ी चौक का मसला तो हल हो...उसके बाद ही तो...।”
“तू अपनी स्कीम बता...।” जुगल बोल पड़ा—“अगर तेरी स्कीम फिट बैठती है तो हम उस बारे में भी सोचेंगे...। वर्ना खामख्वाह टाईम बर्बाद करना ही होगा।।”
“जुगल ठीक कह रहा है...। तू पहले अपनी स्कीम बता।” आसिफ बोल पड़ा।
राघव ने एक गहरी सांस छोड़ते हुए आसिफ को पैग बनाने के लिये इशारा किया।
आसिफ ने बिना कोई नखरा किये बोतल उठाई और सबके लिये पैग बनाने लगा।
पैग तैयार होते ही सभी ने अपना-अपना पैग उठा लिया।
राघव ने दो घूंट भरे...पैग को वापिस टेबल पर रखते हुए तीनों को देखते हुए कहने लगा—
“कांशीराम के पास मारुति ज़ेन है। वह उसी कार से बयाना देने के लिये घर से निकलेगा। तहसील कैम्प को जाने वाली सड़क तो ठीक है...लेकिन कैम्प शुरू होते ही सड़क खराब हो जाती है। जगह-जगह पर गड्ढे हैं, यानि कांशीराम को वहां अपनी रफ्तार घटानी ही पड़ेगी और आगे फतेहपुरी चौक पर तो उसे रफ्तार और भी कम करने के साथ-साथ बार-बार हॉर्न भी बजाना पड़ेगा...क्योंकि वहां रश बहुत अधिक होगा। कोई भी पैदल वहां पर आराम से उसकी कार के आगे आकर खड़ा हो सकता है।”
“तो लूटने का इरादा वहीं पर है?” हेमंत ने पूछा।
“वहां से थोड़ा आगे...जहां दुकानें शुरू होती हैं। वहां पर बायीं तरफ नाई वाली गली तो तुम जानते ही हो।”
“हां...हमने देख रखी है वो गली।”
“देख तो रखी है...म...मगर शायद तुम यह नहीं जानते होगे कि वह गली तीन अलग-अलग रास्तों से निकलती है।”
“तीन नहीं, दो रास्तों पर निकलती है। एक सनौली रोड पर जाता है...और दूसरा बाल्मीकि बस्ती में जाता है।”
“तीसरा रास्ता बस अड्डे की तरफ जाता है...और उस रास्ते का प्रयोग बहुत ही कम लोग करते हैं। क्योंकि लोगों को उसका कम ही पता है। भाई जी वाला घर है वहां...उस घर के बाहर सरकारी नल लगा है।”
“हां...।” जुगल बोल पड़ा—“मैंने देख रखा है वह नल...।”
“उस नल के ऐन सामने गली है।” राघव उसे देखते हुए बोला।
“हां है...। उस गली में सात-आठ ही मकान हैं...और वो गली बंद है।”
“वो गली बंद नहीं, खुली हुई है...गली के अंत में दायीं तरफ वाला जो मकान है...उस मकान में से रास्ता निकलता है जो कि सीधा बस अड्डे की तरफ जाता है।”
“मैंने तो वह रास्ता कभी नहीं देखा...।” हैरानी जताते हुए बोला जुगल।
“मैं तो उस रास्ते से कई बार निकला हुआ हूं।” राघव मुस्कुराया।
“तुम आगे बोलो।” आसिफ बोला—“स्कीम के बारे में बताओ।”
राघव ने पहलू बदलकर पैग उठाया...दो घूंट भरे...पैग को टेबल पर रखकर गोश्त का टुकड़ा उठाकर मुंह में डाला और उसे चबाते हुए कहने लगा—
“नाई वाली गली में बस अड्डे की तरफ जाने वाला रास्ता कोई ज्यादा दूर नहीं है। सिर्फ डेढ़ सौ कदम दूर है। अगर हम पूरी रफ्तार से भागें तो सड़क से हम उस रास्ते वाले घर में एक मिनट में घुस सकते हैं। उस घर के दूसरे हिस्से से बाहर निकलकर हम बाहर खड़ी ऑटो रिक्शा में सवार होंगे...और बस अड्डे की तरफ रवाना हो जायेंगे।”
“वो तो तभी होंगे...जब हम पैसा लूट चुके होंगे...।” हेमंत बोला—“और लूटने की स्कीम अभी तक तू बोल नहीं रहा।”
“वही तो बोल रहा हूं।” राघव गोश्त को निगलते हुए बोला।
“तो बोल भी...।”
आसिफ तुनक कर बोला।
राघव हौले से मुस्कुरा पड़ा...जैसे उसे आसिफ के भुनभुनाने पर आनन्द आ रहा हो। फिर उसने बड़े इत्मिनान से पैग उठाकर उसे खाली किया और गोश्त का पीस उठाकर उसे चबाते हुए अपने तीनों पार्टनरों को देखने लगा।
तीनों के चेहरों से ही नजर आ रहा था कि उनके सब्र का बांध टूट रहा है। सो वह उन्हें और अधिक न कलपाते हुए बोला—
“कांशीराम कार ड्राइव करते हुए जैसे ही मंडी पार करेगा...तू...।” उसने आसिफ की तरफ इशारा किया—“कार के सामने आ जायेगा। तेरे हाथ में कट्टा होगा...और तू बिना किसी बात के सीधे कार पर गोली चला देगा। ध्यान रहे, गोली विण्डस्क्रीन को तो लगे...मगर कांशीराम का कुछ नहीं बिगड़ना चाहिये...क्योंकि अगर वो मर गया तो मामला बहुत ज्यादा संगीन हो जायेगा।”
“आगे बोल...।” गंभीरता से बोला आसिफ।
“गोली चलते ही वहां चल रहे लोगों में भगदड़ मच जायेगी। सभी वहां से निकल भागने के लिये जिधर मुंह समाया...उधर भाग निकलेंगे...। उसी भागदौड़ में मैं कार के करीब पहुंच जाऊंगा...और दरवाजा खोलकर उससे रुपया हासिल करूंगा और नाई वाली गली में भाग जाऊंगा। तू मेरे पीछे-पीछे होगा।”
“और यह दोनों...?” आसिफ ने हेमंत और जुगल की तरफ इशारा किया—“यह क्या करेंगे?”
“हेमंत गली के सिरे पर खड़ा रहेगा...ऐसे जैसे तमाशाई होते हैं। हमारे भागने के बाद यह भीड़ का जायजा लेगा...जो कि लूट के बाद इकट्ठी होगी। यह वहां भीड़ में लोगों की बातें सुनेगा कि लोग हमारे बारे में क्या बात कर रहे हैं...अगर इसे कोई खतरा लगा...तो यह हमें फोन करके बता देगा।”
“और जुगल...यह क्या करेगा?”
“यह ऑटो में बैठकर आने का इंतजार करेगा। जैसे ही हम ऑटो में बैठेंगे...यह हमें बस अड्डे ले जायेगा...। जहां से हम विराट नगर की बस पकड़ेंगे...और रवाना हो जायेंगे और तू...।” उसने हेमंत को देखा—“बाद में अकेला विराट नगर पहुच जाना...।”
“विराट नगर में कहां पहुंचना है?”
“होटल नटराज...। वहां मिलेगा तू हमसे...।”
हेमंत ने सिर हिला दिया।
“लूट के वक्त हम दोनों मंकी कैप पहने होंगे...।” राघव ने आसिफ को देखा—“जिससे कि हमारे मुंह ढके होंगे...ताकि कोई हमें पहचान न सके।”
आसिफ ने सिर हिलाया और बोला—“मान लो, अगर भीड़ में से कोई बहादुर निकल आता है जो वहां से भागने के बजाये कांशीराम को बचाने में लग जाता है तो...।”
“फिर तो उसे खत्म करना हमारी मजबूरी हो जायेगी।” गहरी सांस छोड़ी राघव ने—“क्योंकि तब अगर हम घबरा गये तो पुलिस के वहां पहुंचने से पहले ही भीड़ हमारी वो हालत कर देगी कि शायद अदालत को भी हमें सजा देने की जरूरत न पड़े।”
“यानि दूसरा कट्टा तेरे पास होगा?”
“हां...उसी के बल पर ही तो लूटूंगा मैं उसे...। वैसे मुझे उम्मीद है कि कोई ऐसी बेवकूफी नहीं करेगा...क्योंकि आजकल का इंसान ऐसे लफड़ों से दूर रहना ही पसंद करता है।”
कहकर उसने हेमंत तथा जुगल की तरफ देखा—“एक ऑटो रिक्शा का बंदोबस्त करना है तुम्हें...।”
“हो जायेगा...।” दोनों एक साथ बोले।
राघव ने गहरी सांस छोड़ते हुए पहलू बदला और बोला—
“स्कीम तो बना दी मैंने...। मगर यह तभी सिरे चढ़ेगी...जब कांशीराम तहसील कैम्प वाले रास्ते से नूरवाला रोड पर जायेगा...। अगर वो विचपड़ी या जी०टी० रोड की तरफ से गया तो फिर कुछ भी नहीं हो पायेगा।”
“विचपड़ी रोड को तो रोका जा सकता है...।” तभी कुछ सोचते हुए बोला जुगल—“लेकिन जी०टी० रोड को रोकना नामुमकिन है।”
“विचपड़ी रोड कैसे रुकेगा?” राघव ने उसे घूरते हुए पूछा।
“यहां एक बोर्ड लगाकर सड़क के इस तरफ से उस तरफ तक का रस्सा लगा दिया जाये...। बोर्ड पर लिखा हो कि आगे काम चल रहा है। उससे हम कुछ देर को तो वाहनों का उधर से गुजरना बंद कर ही सकते हैं। लेकिन जी०टी० रोड पर ऐसा बोर्ड लगाना मुमकिन नहीं।”
“बात तो वहीं आ गई न।” मुंह बनाते हुए बोला राघव।
सभी सोचों में डूब गये।
हर कोई यही सोच रहा था कि ऐसा कौन-सा तरीका अपनाया जाये...जिससे कांशीराम तहसील कैम्प वाले रास्ते से नूरवाला रोड की तरफ जाये।
काफी देर तक केबिन में खामोशी छाई रही। आखिर हेमंत हौले से चीखा—“एक रास्ता है।” उसकी आवाज में जोश भरा हुआ था।
तीनों कान खड़े कर उसे देखने लगे।
हेमंत ने सब पर निगाहें डालीं...फिर राघव की तरफ देखते हुए बोला—“विचपडी रोड पर जो पुलिस चौकी है...उससे थोड़ा पहले बायीं तरफ एक सड़क है...जो विचपड़ी रोड और तहसील रोड को आपस में जोड़ती है।”
“तो...?” भौंहें उठाते हुए बोला राघव।
“अगर हम उस सड़क से आगे “रास्ता बंद” का बोर्ड लगायें तो निश्चय ही वह वहां से तहसील रोड की तरफ मुड़ेगा...। वापिस आने की जरूरत से हर कोई बचना चाहता है। कांशीराम भी वैसा ही करेगा।”
राघव ने ऐसे मुंह बनाया...जैसे उसे हेमंत की अक्ल पर तरस आ रहा हो।
“अरे, ऐसा वह तभी करेगा न...।” वह अपने माथे पर हाथ मारते हुए बोला—“जब वो विचपड़ी रोड पर चढ़ेगा...अगर वो उधर जाने के बजाये सीधा जी०टी० रोड की तरफ चला गया तो...?”
हड़बड़ा गया हेमंत...। इस तरफ तो उसने ध्यान ही नहीं दिया था।
“हमें वो तरीका सोचना है...जिससे कि वो सिर्फ तहसील कैम्प की तरफ से ही नूरवाला रोड पर जाये।” जुगल बोला।
केबिन में खामोशी छा गई।
सभी गहरी सोचों में डूबे हुए थे कि किस तरह से कांशीराम को तहसील कैम्प वाला रास्ता पकड़ने के लिये मजबूर किया जाये?
काफी देर तक सोचने के बाद भी किसी को कोई तरीका नहीं सूझा।
“लगता है अब हमें किस्मत के भरोसे रहना पड़ेगा...।” आखिर गहरी सांस छोड़ते हुए बोला जुगल—“और ऊपर वाले से प्रार्थना करनी पड़ेगी कि वह कांशीराम को तहसील कैम्प की तरफ से ही भेजे।”
“इतने बड़े काम किस्मत के भरोसे नहीं छोड़े जाते।”
तभी केबिन के दरवाजे की तरफ से एक नई आवाज आई।
बुरी तरह से उछल पड़े सभी...और उनकी गर्दनें दरवाजे की तरफ तेजी से मुड़ीं...।
दरवाजा खुल रहा था और उसमें से एक लम्बा...छरहरे बदन...स्मार्ट नजर आने वाला...निहायत ही खूबसूरत व्यक्ति भीतर दाखिल हुआ।
जी हां...ठीक पहचाना आपने।
अपने जनाब अर्जुन त्यागी जी थे वे।
उसे देखते ही चारों के रंग उड़ गये...। आंखों में हल्का-सा खौफ भर आया।
“क...कौन हो तुम...?” राघव हिम्मत जुटाते हुए बोला...लेकिन उसकी कांपती आवाज बता रही थी कि इस वक्त उसका कलेजा किस कदर धड़क रहा है।
अर्जुन त्यागी मुस्कुराया—“अपने बारे में तो बताऊंगा ही...लेकिन उससे पहले तुम्हारे बारे में बता देता हूं।”
“क्या...?” हड़बड़ाते हुए बोला जुगल।
“यही कि तुम लोग या तो पहली बार बड़ा हाथ मारने का प्लान बना रहे हो, या फिर तुम पहली बार ऐसा काम कर रहे हो।”
“क्या मतलब...?”
“अबे अक्ल के अंधों, ऐसी महत्वपूर्ण मीटिंग बंद कमरों में की जाती है...। ऐसे केबिन में नहीं...जहां पड़ोसी केबिन में बैठा व्यक्ति आसानी से तुम्हारी बात सुन ले। तुम तो ऐसे बातें कर रहे हो...जैसे पूरी दुनिया को सुना रहे हो।”
सुनकर चारों के चेहरे पीले पड़ गये।
“त...तुम ह...हमारी बातें सुन रहे थे?” हेमंत थर्राये स्वर में बोला।
“सब कुछ सुना है मैंने...। तुम्हारी प्लानिंग... कांशीराम द्वारा बयाना देने जाना...सब सुना है...और शुक्र मनाओ कि सिर्फ मैंने सुना है...। कोई पुलिस वाला सुनता तो अब तक तुम्हारी कलाइयों में हथकड़ियां पड़ चुकी होतीं...और तुम्हारी हालत यह होती कि खाया-पीया कुछ नहीं...गिलास तोड़ा बारह आने।”
चारों थूक सटकते हुए एक-दूसरे को देखने लगे। सभी के रंग बदरंग हो रहे थे।
आखिर हेमंत ने उसकी तरफ देखा—“तुम कौन हो...?”
“वो भी बताऊंगा...मगर यहां नहीं...। पहले किसी महफूज़ जगह पर चलो...वहां बात करेंगे...और वहां मैं तुम्हारी उस अड़चन को भी दूर करूंगा...जिसे तुम राम भरोसे छोड़ रहे हो।”
चारों की निगाहें एक बार फिर आपस में मिलीं। आंखों ही आंखों में उनमें कुछ इशारे हुए...फिर चारों एक साथ खड़े हो गये।
“अपनी बोतल तो खाली कर लो।” अर्जुन त्यागी ने बोतल की तरफ इशारा किया।
“कोई फर्क नहीं पड़ता...।” राघव गंभीरता से बोला—“आओ।”
अर्जुन त्यागी ने कंधे उचकाये...मुड़ा और केबिन से बाहर निकल गया।
पीछे-पीछे वे चारों भी बाहर आ गये।
बिल पे करके वे होटल से निकले और एक टैक्सी में सवार हो गये।
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Additional information
Book Title | वकीलों की जंग : Vakilon Ki Jung by Shiva Pandit |
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Isbn No | |
No of Pages | 350 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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