दी केस ऑफ परफेक्ट मर्डर
कंवल शर्मा
कर्नाटक को टच करता दक्षिणी गोवा में मोल्लेम (Molem) नाम का वो इलाका वैसे तो भगवान महावीर सेंचुरी और नेशनल पार्क की वजह से जाना जाता है लेकिन इस खूबसूरत पहाड़ी इलाके की एक और खूबी यह भी है कि यह गोवा में भरे पड़े सैलानियों की नजर से दूर एक शांत इलाका है।
शांत है—इसलिए कि ये सैलानियों की पसंदीदा जगहों की लिस्ट में नहीं है।
और लिस्ट में नहीं है क्यूंकि गोवा—जो अपने सुनहरे समुद्र तटों के लिए जाना जाता है—में आने वाला हर सैलानी बिलाशक किसी समंदर किनारे हाजिरी लगाता है—यहाँ के किसी जंगलात में नहीं।
क्यूंकि अगर जंगल ही घूमना हो तो बन्दा उत्तराखंड न जाए—मध्य प्रदेश—केरल न जाए।
इस हवाले से गोवा कौन जाए!
साल के आखिरी महीने के घने सर्द मौसम में चारों ओर फैली धुंध का हिस्सा बना एक इंसानी साया देर रात उस ऊंचे-लम्बे बाड़ों वाली राहदारी से गुजर रहा था। सावधानी से आगे बढ़ता साया यूँ तो बार-बार पीछे पलट कर भी देख रहा था लेकिन उसकी निगाहों का खास मरकज इस वक्त उसके पीछे नहीं बल्कि उसके दाईं ओर की बाड़ से परे एक श्रृंखला में पुर्तगाली आर्चिटेक्ट में बने कई बंगलों और उनका इंडिविजुअल बैकयार्ड था जो वहाँ से साफ दिखता था।
धीमी गति से आगे बढ़ता साया फिर आखिरकार उन्हीं बंगलों में से एक के पीछे वाले हिस्से में पहुंच उसके बैकडोर के सामने जाकर रुका। उसने अपनी दाईं हथेली आगे बढ़ा दरवाजे के मूठ को थामा और दरवाजा खोलने की प्रक्रिया में मूठ को बेहद धीमी गति से उमेठा।
दरवाजा बेआवाज खुला।
साए ने अपनी उखड़ती जा रही साँसों पर काबू किया और भीतर प्रवेश कर गया।
घने कोहरे में लिपटे बंगले में अगर कोई हलचल थी तो वो बाहर से नुमायाँ न थी। आगे अगले कई मिनट यूँ ही गुजरे।
और फिर एक विराम के बाद दरवाजा दोबारा खुला।
अँधेरे साए ने बाहर निकलकर अपने पीछे दरवाजा पुन: बंद किया और तेजी से उस गली की दिशा में आगे बढ़ा जो आगे उस चैराहे पर निकलती थी जहां एक खूब ऊंचे बिजली के खम्बे की मौजूदगी की वजह से हमेशा जगमग रहता था।
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सोहनलाल रिटायरमेंट के मुहाने पर पहुंचा एक ढलती उम्र का पुलिस कांस्टेबल था जो आजकल अपने इलाके में रात में बड़े बेमन से गश्ती की ड्यूटी भुगत रहा था। इस उम्र में उसे रात की ड्यूटी से वैसे ही दिक्कत होती थी और ऊपर से गश्त का काम। अपनी किस्मत को कोसता-कलपता वो इस वक्त एक चैराहे को जगमगा रहे खम्बे की रौशनी के गोल दायरे में खड़ा था कि जब उसने वहाँ किसी के आने की पदचाप सुनी। ख्यालों में गुम सोहनलाल ने तत्काल अपने मन में उमड़ रहे ख्यालों को झटका और आवाज की दिशा में देखा।
उस सर्द मौसम में फैली धुंध में से निकलकर एक साया—जिसने अपने दाहिने हाथ से अपने चेहरे का एक हिस्सा छुपा रखा था—आगे बढ़ता हुआ उस तक पहुंचा।
“हेल्लो ऑफिसर”—अजनबी साए ने नजदीक आकर घरघराते स्वर में कहा।
“हेल्लो” अपनी नौकरी की वजह से आदतन सतर्क रहने वाले सोहनलाल ने सशंक स्वर में जवाब दिया—“ऐसे मौसम में रात में इस वक्त!”
“मैं किसी डेंटिस्ट की तलाश में हूँ।” साए ने अपने चेहरे के एक हिस्से को बदस्तूर अपने दांए हाथ से छिपाए जवाब दिया।
“क्या हुआ?” सोहनलाल ने पूछा—“ये चेहरा क्यूँ छुपाये हुए हो?”
“दांत में दर्द है।” साए ने कराहते हुए जवाब दिया।
“दांत दर्द?”
“वो भी ऐसा कि मेरा दम निकाले दे रहा है।” साए ने पूर्ववत स्वर में जवाब दिया—“या तो इस दर्द का कोई इलाज हो या आज रात मेरी जान निकलेगी।”
“दर्द तो कोई भी बुरा।” सोहनलाल ने सहानुभूति भरे स्वर में कहा—“और कमबख्त दांत का दर्द तो सबसे बुरा।”
“मैं पागल हुआ जा रहा हूँ।” साया घरघराये स्वर में बोला।
“मैं समझ सकता हूँ।” गश्ती ड्यूटी भुगतते सोहनलाल ने जवाब दिया—“अभी पिछले महीने मैं खुद इस अलामत से बेजार था।”
“समझ नहीं आ रहा कि अब इस वक्त कहां जाऊं?” साए ने दर्द भरे स्वर में कहा।
“वैसे वहाँ दो ब्लाक पीछे ही।” सोहनलाल ने अपने दायें हाथ से साए की पीठ पीछे इशारा किया और बोला—“तुम एक डेंटिस्ट का घर छोड़ आये हो।”
“उह।” साया बोला—“मुझे पता नहीं था।”
“लेकिन कोई बात नहीं। वहाँ आगे सड़क पार दायीं ओर लाल पत्थरों वाले बंगले में एक डॉक्टर गोयल का बँगला है।” सोहनलाल ने सहानुभूति पूर्ण स्वर में बताया—“फीस जरा ज्यादा है लेकिन बुजुर्गवार अपने फन में माहिर हैं।”
“शुक्रिया।” साए ने सिर हिलाते हुए जवाब दिया और चेहरे को पूर्ववत कवर किये आगे सड़क पर बढ़ गया।
सोहनलाल की सतर्क निगाहों ने आगे बढ़ते साए को तब तक फॉलो किया कि जब तक उसने उसके बताये डॉक्टर गोयल के बंगले के मेनडोर के किनारे टंकी डोर-बेल के स्विच को न दबा दिया।
फिर सोहनलाल ने देखा कि कुछ पलों बाद दरवाजा खुला और एक चेहरा बाहर नमूदार हुआ।
“डॉक्टर साहब हैं?” साए ने पूर्ववत घरघराते हुए पूछा।
ऐन इसी वक्त बीट ड्यूटी भुगत रहे पुलिस कांस्टेबल सोहनलाल ने अपनी निगाहें वहाँ से हटाईं और पुन: अपनी गश्ती ड्यूटी पर आगे बढ़ गया।
“डॉक्टर साहब हैं लेकिन रात के इस वक्त मरीज अटेंड नहीं करते।” दरवाजा खोलने वाले शख्स—जो वहाँ बंगले में नौकर था—ने सपाट स्वर में जवाब दिया।
“मैं बेहद तकलीफ में हूँ।”
“जी—लेकिन इस वक्त यहाँ आपकी कोई मदद मुमकिन नहीं।”
“भई—एक बार डॉक्टर साहब को भीतर खबर तो करो।”
“वो रात की इस घड़ी अपने बेडरूम में हैं।” नौकर ने जवाब दिया——“इस वक्त डॉक्टर साहब को जगाना ठीक न होगा।”
“मैं दर्द से मर रहा हूँ।” साया कराहता हुआ बोला—“प्लीज।”
“लेकिन...।”
“ये...ये लो।” अजनबी साए ने एक हरा नोट सामने खड़े नौकर के हाथ में जबरदस्ती फंसाया—“उन्हें जगाओ। खबर करो कि इमरजेंसी केस है।”
नौकर ने नोट देखा—फिर एक पल हिचकिचाया।
“तुम उन्हें जगाओ।” साए ने जोर डालते हुए कहा—“अगर डॉक्टर साहब एक्ज़ामिन करना नहीं चाहते तो वो खुद मना करेंगे।”
नौकर ने एक गहरी सांस ली और दरवाजा खोल मरीज को रिसेप्शन रूम से गुजारता हुआ भीतर बने क्लिनिक में ले जाकर बैठाया। कोई पांच मिनट बाद स्लीपिंग पजामा और मैचिंग कमीज पहने डॉक्टर गोयल ने वहाँ प्रवेश किया और अपने बेवक्त के मरीज पर निगाह डाली।
“मैं बूढ़ा रिटायर्ड आदमी हूँ।” उन्होंने आते ही घोषणा की—“मुझे अजनबी वक्त अजनबी मरीजों से दिक्कत होती है।”
“मैं यूँ बेवक्त आपको तकलीफ देने के लिए माफी चाहता हूँ।” अजनबी ने जवाब दिया—“लेकिन ये दांत दर्द मेरी जान लेने पर तुला है।”
कहते हुए अजनबी की आँखें वहाँ चारों दीवारों पर फिरने लगीं और उस प्रक्रिया में एक जगह जाकर टिक गयीं। डॉक्टर गोयल ने अजनबी की आँखों का पीछा किया तो पाया कि बेवक्त का मरीज दीवार घड़ी ताड़ रहा था।
घड़ी के दो हाथ 1:53 की ओर इशारा कर रहे थे।
और ये मरीज आने का कोई आम वक्त नहीं था।
“दो बजने को हैं और मैं अभी जाग रहा हूँ।” डॉक्टर साहब बोले—“और अभी तुम से फारिग होने के बाद भी लगता नहीं कि मैं कोई ज्यादा देर सो सकूंगा।”
मरीज के चेहरे पर कई सवाल उभरे।
“भई—अब इस उम्र में अगर एक बार नींद टूट जाए तो दोबारा कहाँ आती है।” डॉक्टर गोयल ने अपनी बात का मंतव्य स्पष्ट किया—“और अगर आ भी जाए तो फौरन कहाँ आती है—लम्बी कहाँ आती है।”
“जी।”
“इसलिए आज रात तो अब क्या सोया मैं?”
“ए हार्ड डे इन दि ऑफिस।” अजनबी ने हामी भरते हुए कहा।
“कहाँ—कौन से दांत में दर्द है?” डॉक्टर गोयल मरीज के चेहरे पर आगे को झुके और पूछा।
“ये...यहाँ।” अजनबी ने मुंह खोलते हुए अपने दांतों के सेट में नीचे की रो में सामने से दायीं ओर के चौथे दांत की ओर इशारा किया और कराहते हुए बोला—“दर्द बर्दाश्त के बाहर है।”
“दाढ़ के ठीक बगल में है।” डॉक्टर गोयल ने इंगित दांत को गौर से देखते हुए सरल स्वर में कहा और फिर वहीं पास के टेबल के बगल में रखे छोटे से स्टूल पर मेडिकल ट्रे में सजे—दांतों को उखाड़ने—सेट करने—में काम आते अपने तेज धार वाले तमाम उपकरणों पर निगाह डाली।
“इसे निकाल ही दीजिये।” अजनबी बोला।
“वैसे इसका हाल कोई खास बुरा नहीं और मामूली देखभाल से ये ठीक किया जा सकता है।” डॉक्टर गोयल ने दांत एक्ज़ामिन करने के बाद आधिकारिक घोषणा की—“दांत को इस हाल में निकालना सही न होगा।”
“मेरे लिए ये दर्द बर्दाश्त के बाहर है।”
“भाई—दांत में तो मामूली कैविटी इशू है।”
“मामूली...।” अजनबी मरीज ने जवाब दिया—“इसका दर्द तो मेरी जान निकाले दे रहा है।”
अपने पेशे में खासा नाम रखते डॉक्टर गोयल ने तब पहली बार अपने मरीज में कुछ असामान्य बातों को नोट किया—“कि मरीज घबराया हुआ सा था—उसके हाथ लगातार काँप रहे थे और चेहरे पर एक अजीब-सा पीलापन था।”
“मैं समझ गया।” डॉक्टर गोयल ने एक गहरी सांस ली और बोले—“तुम्हारे दर्द की वजह वो नहीं है जो तुम समझ रहे हो।”
“क्या मतलब?”
“मतलब ये कि तुम्हारे दर्द की असल वजह दांत में हुई कोई अलामत नहीं बल्कि न्यूराल्गिया (Neuralgia) है।
“मैं समझा नहीं।” मरीज की आँखों में हैरानी के भाव आये।
“न्यूराल्गिया नसों में उठने वाला एक खास किस्म का दर्द होता है जिसके लक्षण आगे चेहरे पर खास तौर पर, साफ तौर पर, नुमायाँ होते हैं।”
“शायद वही हो, लेकिन इस दांत से मेरा पीछा छुड़ाओ।” मरीज ने कराहते हुए बताया—“ये काफी अरसे से मुझे दिक्कत दे रहा है।”
“शायद...।” डॉक्टर गोयल ने कुछ कहना चाहा।
“और मैं इसे वैसे भी निकलवाने ही वाला था।” मरीज ने उनकी बात बीच में ही काटी और जिद करते हुए कहा—“इसे निकालो—कैसे भी निकालो।”
“दांत अभी उस स्टेज में नहीं है कि इसे प्लग आउट किया जाए।” डॉक्टर गोयल ने समझाते हुए कहा—“एक मामूली फिलिंग से ये ठीक हो जाएगा।”
“नहीं होगा।”
“होगा।” डॉक्टर गोयल ने वहीं स्टूल पर रखे अपने उपकरणों के मध्य से एक बीकर में सफेद एफेरवेसेंट पाउडर डालकर उसमें एक तरल पदार्थ मिलाया और उसे मरीज की ओर बढ़ाते हुए बोले—“इस झाग वाले घोल को गटक जाओ और बताओ कि कोई फर्क पड़ा या नहीं।”
अजनबी ने—बेमन से बीकर थामा और एक ही झटके में उस फोमिंग तरल को गटक गया।
“अब पांच-सात मिनट का रेस्ट लो।” डॉक्टर गोयल ने निर्देश दिए—“अगर फिर भी कोई आराम नहीं आता और दांत निकाल देने की तुम्हारी जिद बरकरार रहती है तो फिर—करते हैं कुछ।”
मरीज ने जवाब देने के बजाय हाँ में सिर हिलाया—अपनी कमर को कुर्सी की पुश्त पर टिका अपने सिर को पीछे किया और आँखें बंद कर लीं।
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