टेक थ्री
‘ये सब......ये सब क्या है?’—मेरे सामने बैठे शख्स ने हड़बड़ाते हुए मुझसे पूछा।
मैं इस वक़्त बोस्निया के नयूम शहर में खड़ी एक दस मंजिला इमारत के टॉप फ्लोर पर बने एक विशाल आकार के दफ्तर में मौजूद था जिसमें बिछे प्लेटफार्म के आकार के एक ऑफिस टेबल के पीछे एक गंजा मोटा शख्स मुझे देख पसीना-पसीना हो रहा था।
बावजूद इसके कि दफ्तर—जो खुद उसी का था और मैं तो वहाँ सिर्फ एक मेहमान था—फुल ऐ○सी○ था।
हाथ में पिस्टल थामे मेहमान।
‘रमेश टिच्चकुले साहब’—मैंने बाकायदा पूरी इज्ज़त से उसका पूरा नाम लिया—‘वैसे देखा जाय तो अपने किये अनगिनत कुकर्मों के बाद आखिरकार सज़ा तो मिलनी ही है’—मैंने अपने दायें हाथ में थामी पिस्टल की नाल पर पर बाएं हाथ से साइलेंसिर रोल करते हुए सिरल स्वर में कहा—‘फिर आखिरकार हम सब ने एक दिन तो वैसे भी मरना ही है’
‘तुम मुझे ऐसे नहीं मार सकते’—टिच्चकुले—जिसका पूरा नाम रमेश टिच्चकुले था—ने अपनी घबराहट छुपाने की भरसक कोशिश की और बोला—‘ये गलत बात है।’
पिस्टल की नाल पर साइलेंसिर चढ़ाते हुए मेरे हाथ एक पल को रुके और मैंने टिच्चकुले की आँखों में आँखें डालीं।
उसकी रूह काँप गई।
मेरे हाथ फिर अपने अधूरे काम को पूरा करने लगे।
‘देखो.....देखो’—वो बोला—‘हम कोई डील कर सकते है।’
‘डील हो चुकी है।’—मैंने जवाब दिया।
‘मैं तुम्हें बेहतर ऑफर दूंगा।’—वो बोला
‘क्या?’—मेरे हाथ बिना रुके बदस्तूर अपने काम में लगे रहे।
‘बीस लाख’—वो बोला—‘बस मझे छोड़ दो’
मैंने ऐसा रियेक्ट किया जैसे कोई लतीफा सुना हो।
‘अच्छा चालीस....नहीं....पूरे पचास लाख ले लो, लेकिन मुझे छोड़ दो।’—वो गिड़गिड़ाया।
मैंने जवाब न दिया।
‘मैं एक करोड़ दूंगा’—आखिरकार टिच्चकुले ने ऊंचा दांव लगाया।
मैंने कान न दिए।
‘दो करोड़’—वो बोला—‘या फिर कोई भी रकम जो तुम बोलो’
मैंने साइलेंसिर को नाल पर फिट किया, उसे दायें-बाएं करके उसकी फिटनेस चैक की और दायें हाथ में पकड़कर मेज़ के दूसरी ओर बैठे टिच्चकुले की दिशा में निशाना लगाया।
‘ती....तीन करोड़’—वो अब बाकायदा हाथ जोड़ रहा था।
मैंने अपनी बायीं आँख बंद, पिस्टल थामे दायें हाथ के नीचे अपने बाएं हाथ की हथेली टिकाई और दूर कहीं निशाना लगाने का नाटक किया।
‘प्लीज़’—वो रोने लगा—प्लीज़’
‘टिच्चकुले साहब—ये शहर कंक्रीट का ऐसा जंगल है जो अब आपके रहने के लिए मुफीद नहीं’—मैंने वो नाटक बंद किया और अपनी विजिटर चेयर पर और ज़्यादा पसिरते हुए बोला—‘इसलिए नहीं कि यहाँ के बाशिंदे बुरे हैं बल्कि इसलिए कि कुछ लोग यहाँ ऐसे हैं जिनसे मेरे क्लाइंट को परेशानी है’
‘मुझे एक, सिर्फ एक मौका दो’—अब बुरी तरह घबराकर काँप रहे टिच्चकुले ने अपनी हथेलियाँ अपने आगे यूँ फैलाईं कि मानो आने वाली गोली को उन्ही से रोक सकता था।
मैंने टिच्चकुले की आँखों में देखा जिसमे साफ-साफ मौत का खौफ था।
‘प्लीज़’—वो अब रोने ही लगा।
मैंने निरपराध भाव से अपना असाइनमेंट पूरा किया।
¶¶
‘मेरे मन को चैन नहीं। मेरा ज़मीर मुझे कचोटता है, रातों को जगाता है और मुझे याद दिलाता है कि मैं खुद अपना गुनेहगार हूँ’—मैंने निराशा भरे स्वर में कहा—‘मैं हर पल अपने गुनाहों पर शर्मिन्दा हो रहा हूँ। मेरे किये गुनाहों के समंदर में मेरी ज़िन्दगी की किश्ती डूबती जा रही है और मुझे इससे पार पाने की कोई राह नहीं दिखती।’
मैं इस वक़्त दिल्ली में एक दफ्तर में दो लोगों के साथ बैठा था जिसमें से एक खूब पकी उम्र के शख्स—अशरफ जहाँगीर सेमनानी—उस दफ्तर के असल और मौजूदा मालिक थे।
‘तुम्हारी ये सोच बताती है कि तुम्हारे भीतर का इंसान अभी ज़िन्दा है मेरे बच्चे और यही इंसानियत है जो तुझे गुनाहों के रास्ते से हटाकर खुदा के दिखाए रास्ते पर ले जाना चाहती है’—बुजुर्गवार बोले
‘मुझे राह दिखाए सिर।’
‘बच्चे, तुझे तेरी अंतरात्मा, तेरा ज़मीर ही तुझे राह दिखाएगा’—वे बोले—‘इस पूरी कायनात में इसे बनाने वाले से बढ़कर कोई नहीं। कोई उसकी बराबरी नहीं कर सकता। कोई उस जैसा न हुआ, न होगा। जब तुम उसके दिखाए रास्ते से भटक कर चले तो भी उसी की मर्ज़ी से चले और आज जब तुम दूसरी राह लगना चाहते हो तो इसमें भी उसी की रज़ा है। इंसान-शैतान, भला-बुरा, सदाचारी-अत्याचारी-व्याभिचारी, पापी-महात्मा सब उसी की माया है। जो कुछ हुआ उसी की मौज से हुआ, जो कुछ आगे होगा वो भी उसी की मौज से होगा।’
‘मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा।’
‘मेरे बच्चे, उसकी रज़ा से—इस कायनात में होने वाले—उसके मर्ज़ी के काम, केवल वही समझता है। ये तेरी अक्ल से, तेरी समझ से बाहर है। बस इतना जान ले कि तेरे साथ नेकी-बदी, मुहब्बत-नफरत, रहमत और ज़ुल्म का ऐसा सिलसिला चला आ रहा है जिसे कोई इंसानी अक्ल नहीं समझ सकती। ये सब क्यूँ और कैसे हो रहा है इसे सिर्फ खुदावंद करीम ही समझ सकता है।’
‘लेकिन...., ये मुझे इतना भटकाव क्यूँ?’—मैंने निराशा में कहा—‘मेरे साथ आगे क्या होगा?’
‘कोई भटकाव नहीं मेरे बच्चे।’—मेरे सामने बैठे शख्स ने शांत स्वर में जवाब दिया—‘हम ज़िन्दगी को छोटे-छोटे टुकड़ों में देखते हैं और हमें न तो भूत का पता है न भविष्य का ज्ञान है। हमारा वर्तमान भी अपने में अद्भुद भेद लिए हुए है। बेसमझ इंसान खुद को खुदा से भी दो हाथ ऊपर समझता है लेकिन ये नहीं जानता कि जिस ज़िन्दगी पर वो यूँ इतराता घूमता है वो बस चन्द लम्हों की है।’
‘और मैंने शायद अपने उन चंद लम्हों का वक़्त भी गंवा दिया’—मैंने निराशा में सिर हिलाते हुए कहा।
‘तेरा ध्यान खुदा में है मेरे बच्चे और जिसका ध्यान उसमें है, उसका हाल अच्छा है, उसका आगाज़ अच्छा है और उसका अंजाम भी अच्छा ही होगा। तेरा खुदा तेरे भीतर है, उसे कहीं बाहर न ढून्ढ। उसकी रहमत है तेरे पर’
‘लेकिन मुझे चैन नहीं’
‘मिलेगा, मेरे बच्चे। जब वक्त आयेगा उसकी रजा से तेरी आत्मा को, तेरे ज़मीर को चैन मिलेगा।’
‘कहाँ? कैसे?’
‘तू खुद से आज़ाद होगा तब मिलेगा।’—बुजुर्गवार बोले—‘क्यूंकि यहाँ रहकर तेरे ख्यालों का दायरा इसी मायावी दुनिया में घूमता रहेगा और जब तक ऐसा रहेगा तू अपने भीतर छिपे इलाही भेदों को कभी नहीं समझ पायेगा।’
‘तो मैं क्या करू?’—मैंने सिर हिलाते हुए पूछा—‘अपने इन गुनाहों का बोझ लिए कहाँ जाऊं?’
‘इस गोल दायरे से निकल, इस मायावी दुनिया से निकल।’
‘कहाँ, किधर?’
‘वहाँ जहाँ तू खुद को अपने मन के वहम की रूई को अपने कानों से निकाल सके और आसमानी खुदा की तरफ से नाजिल हो रही उस आवाज़ को सुन सके—जो तुझे आगे की राह दिखाए।’
‘ये तो भागना हुआ।’
‘ये भागना नहीं खोजना हुआ मेरे बच्चे.....खुद को, खुद से, खुद में खोजना’—सामने बैठे शख्स ने अपना हाथ हवा में ऊंचा उठाया और बोले—‘ये दुनिया एक भ्रम है, एक मृग तृष्णा है जो असलियत में पानी के बुलबुले से ज़्यादा कुछ नहीं लेकिन फिर इसकी असलियत वही देख सकता है जिसका ज़मीर जिंदा हो, जिसकी अंतरात्मा की आँख खुली हुई हो। जिन्होंने ये फानी दुनिया अपनी बाहरी आँखों से ही देखनी है, उन्हें फिर सच्चा खुदा कहाँ दिखेगा; इसलिए तू यहाँ से कुछ दिनों के लिए कहीं चला जा और जाकर किसी वली के क़दमों की ख़ाक से अपनी आँख रोशन कर ले’
‘मैं क्या करू, मैं क्या करू?’
‘आराम कर, और खुद पर रहम कर’—वे बोले—‘ज़िन्दगी तेरा इम्तिहान ले रही है और तेरे ये नेक ख्याल इस बात की आमद हैं कि जल्द ही वक़्त तुझे एक मौका देगा कि जब तू खुद को खुद के गुनाहों से आज़ाद कर सकने की हालत में आ खड़ा होगा।’
‘यानि?’
‘यानि ज़िन्दगी तुझे मौका देगी, एक और मौका जो तुझे तेरे गुनाहों से आज़ाद कर देगा।’
‘क्या ये मुमकिन है?’—मैंने मानों खुद से पूछा—‘क्या ऐसा होगा।’
‘यकीनन होगा मेरे बच्चे, और जल्द से जल्द होगा।’
‘मैं समझ गया सिर’—मैंने एक गहरी सांस ली, फिर कई पल यूँ ही शान्ति में गुज़ारे, फिर हाथ जोड़े और उठ खड़ा हुआ।
मैं दफ्तर से बाहर निकला तो मेरे साथ वो शख्स—मेरे मौजूदा एम्प्लायर—भी थे जो अभी पीछे दफ्तर में बिलकुल शांत बैठे रहे थे।
‘तो—क्या इरादे हैं?’—उन्होंने मुझसे पूछा।
‘सोचता हूँ क्विट कर दूं’—मैंने धीमे स्वर में कहा।
‘हूँ....’
‘या कुछ दिनों का ब्रेक ले लूं।’
‘दैट्स एक्सीलेंट’—मेरे साथ चल रहे शख्स ने उत्साहित स्वर में कहा—‘मैं सारे इंतज़ाम करता हूँ, तुम जाने की तैयारी करो’
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