Super Computer : सुपर कम्प्यूटर
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Description
इसमें वो सब कुछ है, जो आपको रोमांचित करता है और जिसकी वजह से आप सिर्फ ‘रीमा भारती सीरीज' के उपन्यास बड़े चाव से पढ़ना चाहते हैं ।
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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सुपर कम्प्यूटर
दिनेश ठाकुर
अचानक मेरी नींद शहीद हो गई।
मैं बैड पर अस्त-व्यस्त-सी सोयी हुई थी। बैड़ की बायीं साइड़ में टेबल पर टाइमपीस रखा हुआ था।
मैंने अलसाई आंखों से ल्यूमिनस डॉयल वाले टाइमपीस पर निगाह डाली।
अभी सुबह के मात्र छः बजने वाले थे। छः बजे नहीं थे। छः बजने दस-ग्यारह मिनट शेष थे और मेरी नींद टूट गई थी, जबकि में पिछली रात मैं दो बजे के बाद सोयी थी। आधी रात गये तक तो मैं जुहू के तारा होटल में मौज मार रही थी। वहाँ रात का पहला पहर गुजरते ही मेंरे पीने—पिलाने का सिलसिला आरम्भ हो गया था, फिर मैंने रात के कोई दस बजे डटकर खाना खाया था। उसके पश्चात वहीं से अपने मनपसन्द साथी को तलाश करके उसकी बांहो में बाहें डाले डिस्कोथेक पर आधी रात गये तक मस्ती के आलम में डांस करती रही थी।
हमने एक पल भी बर्बाद नहीं किया था। मैंने अपने आपको बेहिचक उसके हवाले कर दिया था और अगले डेढ घंटे में उसने मेरा जंग-अंग तोड़कर मुझे तृप्त कर दिया था। मेंहरबान दोस्त जानते हैं कि जब मैं खाली होती थी, तो वक्त-गुजारी का मेरा यही रुटीन होता था।
थकान से चूर मैं तकरीबन दो बजे अपने फ्लैट पर पहुंची और वहाँ पहुंचते ही मैं आनन-फानन में अपने तमाम कपड़ों को तिलांजलि देकर हाथी, घोड़े, गधे, खच्चर इत्यादि सभी कुछ बेचकर बेखबर सो गई थी। यानी कि मुझे सोये हुए अभी बामुश्किल चन्द घण्टे ही गुजरे थे और उसूलन मुझे दोपहर बाद उठना चाहिये था।
परन्तु...।
मेरी नींद सुबह सवेरे छः बजे से पहले ही खुल गई थी।
आखिर क्यों?
मेंरे जासूसी दिमाग में सहसा कुछ खटकने लगा। मैंने अपने जिस्म पर पड़ी चादर एक तरफ फेंकी और यौवन से भरपूर एक मादक अंगड़ाई लेती हुई उठकर बैठ गई।
एकाएक मेंरे जेहन को तीव्र झटका लगा। सारे शरीर में सनसनाहट-सी दौड़ती चली गई। मुंह से हैरानी भरी सिसकारी निकल गई।
मैं रीमा...रीमा भारती।
भारत की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संस्था इंडियन सीक्रेट कोर अर्थात आई.एस.सी. की टॉप एजेन्ट। मां भारती की उद्दण्ड़ किन्तु लाडली बेटी। मेरी वो हालत खामखाह नहीं हुई थी। मेंरे जैसी शख्सियत की वह हालत खामखाह हो भी नहीं सकती थी।
उसकी वजह थी। बहुत माकूल वजह।
बेड के पायताने काफी खाली स्थान था। जहां उस वक्त एक ईजी चेयर पड़ी थी।
वह ईजी चेयर हालांकि मेरी अपनी थी और उसका मेंरे घर में कहीं भी पड़ी होना ऐसी भी घटना नहीं थी, जो काबिलेजिक्र होती।
किन्तु, वह काबिलेजिक्र इसलिये बन गई थी, क्योंकि मुझे खूब अच्छी तरह याद था कि रात जब मैं बिस्तर पर गई थी, तो वह कुर्सी वहां पर मौजूद नहीं थी। वो कुर्सी वहां पर मौजूद हो भी नहीं सकती थी। वो ईजी चेयर आमतौर पर मेंरे फ्लैट के टैरेस पर होती थी, जो सामने मेंने रोड की तरफ खुलता था और जब मैं तनिक रिलैक्स के मूड में होती थी, तो अक्सर टैरेस पर जाकर उस ईजी चेयर पर पसर जाती थी तथा उस पर झूलती हुई सामने खुली सड़क का नजारा करती रहती थी।
मेंरे पास वह इकलौती ईजी चेयर थी, जो कि हमेंशा मेंरे फ्लैट के टैरेस पर ही पड़ी रहती थी और यदि अन्य जगह होती भी तो कम से कम उस जगह पर तो हरगिज भी नहीं होती थी, जहां कि उस घड़ी अर्थात मेंरे पायताने वो मौजूद थी। क्योंकि उधर दोनों तरफ कमरे में दरवाजा था। जिसका एक दरवाजा टैरेस की तरफ खुलता था और दूसरे दरवाजे से कमरे में प्रवेश करने के बाद टैरेस पर जाने के लिए उसी स्थान से गुजरना पड़ता था, जहां कि उस वक्त वह ईजी चेयर पड़ी थी, जबकि उस चेयर के वहां पर मौजूद रहते यह मुमकिन नहीं था और मुझे अच्छी तरह से याद था कि रात दो बजे जब मैं वहां आयी थी, तो पायताने की तरफ से ही मैंने बिस्तर पर छलांग लगाई थी।
अर्थात इस बात में शक की कोई गुंजाइश ही नहीं थी कि उस वक्त तो कुर्सी उस जगह पर मौजूद नहीं थी।
जब मैं सो चुकी, तब उसे वहां पर लाकर रखा गया था।
इसका मतलब जब मैं बिस्तर पर बेसुध सोयी पड़ी थी, तो कोई वहां पर आया था। उसने टैरेस से ईजी चेयर उठाकर वहां बेडरूम में पायताने डाली थी, जहां कि उस घड़ी वो पड़ी थी।
मगर यह सरासर नामुमकिन था। मेरी मौजूदगी में अथवा गैर मौजूदगी में यदि कोई चोरी-छुपे मेंरे फ्लैट में दाखिल होने की कोशिश करता तो वह कभी कामयाब नहीं हो सकता था। वहां पर सिक्योरिटी के इन्तजाम ही कुछ इस तरह थे कि मुझे ऐसे वाहिद शख्स का पता लगे बिना नहीं रहता।
मैं कशमकश में भर उठी। दिमाग में संदेह के जहरीले सर्प डंक मारने लगे।
मैंने पैनी नजरों से ईजी चेयर को घूरा। मेरी तरफ चेयर की पुश्त थी। उसका अगला हिस्सा सामने दीवार की तरफ था।
अचानक मुझे अहसास हुआ कि इस समय ईजी चेयर खाली नहीं थी। उस पर कोई बैठा हुआ था, जो कुर्सी का बैकरेस्ट अत्यधिक ऊपर उठा होने के कारण मुझे ऩजर नहीं आ रहा था।
ठीक तभी।
चेयर की बैकरेस्ट के आगे से धुएं का एक छल्ला उठा और हवा में ऊपर फैलता चला गया—इस तरह मानों किसी ने सिगरेट का कश लेकर उसका छल्ला हवा में उगल दिया हो।
मैं बुरी तरह चौंकी। मस्तिष्क में धमाका-सा हुआ।
यानी कि मेरा शक दुरुस्त था। वो मेरी गलतफहमी नहीं थी। ईजी चेयर पर सचमुच कोई मौजूद था।
मेंरे दिमाग में खतरे की घन्टियां घनघना उठीं।
अगले ही पल मेंरे जिस्म में मानों बिजली भर गई।
मैं किसी स्प्रिंग लगे खिलौने की तरह उछली और मेरा हवा में लहराता जिस्म ईजी चेयर की पुश्त को पार करता हुआ ठीक उसके सामने पहुंच गया।
मेंरे पांव फर्श पर जा टिके और अब ईजी चेयर पर मौजूद शख्स मुझे साफ नजर आने लगा था।
उसे देखते ही एक पल के लिये मैं अवाक्-सी रह गई। न चाहते हुए भी आंखों में गहरा आश्चर्य उभर आया। मैं अपलक उस नौजवान को देखती रह गई जो ईजी चेयर पर इत्मीनान से पसरा हुआ था और उसकी उंगलियों के बीच एक सुलगी हुई सिगरेट दबी हुई थी।
वो एक बामुश्किल अट्ठारह साल की उम्र का नौजवान था। वह बेहद हैण्डसम और स्मार्ट था। इकहरा बलिष्ठ शरीर, छः फुट से भी निकलता हुआ लम्बा कद। सुर्ख-सफेद चेहरा। तीखे नयन-नक्श। उसकी आंखों में खिलंदड़ेपन के भाव थिरक रहे थे। किन्तु चेहरा एकदम सपाट एवं भावहीन था।
उसने मेंहदी कलर की नई जीन तथा टी-शर्ट पहनी हुई थी, जो उस पर खूब फब रही थी। पैरों में स्पोर्ट शूज थे। वो लापरवाही से अपनी उंगलियों में मौजूद सिगरेट के कश लगा रहा था।
मेरा कमान की तरह तना हुआ जिस्म तत्काल ढीला पड़ता चला गया। उसे लेकर एक ही पल में मैं न जाने क्या सोच बैठी थी। कितनी खतरनाक कल्पनायें कर ली थीं मैंने!
लेकिन वह सब सिरे से ही गलत साबित हुई थी। वह नौजवान भले ही मेंरे लिये नितांत अजनबी था, लेकिन खतरनाक वो मुझे जरा भी नहीं लगा था। दुश्मन भी हरगिज नहीं हो सकता था। यदि होता तो मेरे पायताने यूं इत्मीनन से बैठा सिगरेट न फूंक रहा होता, बल्कि उसने उसी लम्हें मेरा टेंटुआ दबा दिया होता अथवा मुझे शूट कर दिया होता, जबकि मैं उसकी मौजूदगी से बेखबर सोई पड़ी थी।
परन्तु उसकी वहां पर मौजूदगी तो फिर भी मेंरे लिये सख्त हैरानी वाली बात थी।
“गुड मॉर्निंग!” वो मेंरे हाहाकारी मांसल जिस्म को हसरत भरी निगाहों से देखता हुआ सुसंयत स्वर में बोला।
“वो तो हुई।” मैं अपलक उस फिल्मी हीरो को घूरती हुई कह उठी—”अब आगे भी बोलो।”
“कैसे बोलूं?” वो सिर से पांव तक मुझ पर निगाहें फिराता हुआ अर्थपूर्ण स्वर में बोला—”सामने जब ऐसी चलती-फिरती कयामत ऐसी खुल्लम-खुल्ला हालत में साक्षात खड़ी हो तो बोलने के लिये कहां कुछ रह जाता है?” उसने लापरवाही से सिगरेट का कश लगाकर धुंए की फुहार मेरी तरफ उड़ा दी।
“मैंने अपने बारे में तुम्हें बोलने के लिये नहीं कहा प्यारेलाल। तुम्हारे अपने बारे में बोलने के लिये कहा है। कौन हो तुम और अलाद्दीन के चिराग वाले जिन्न की तरह यहां कैसे प्रकट हो गये?” मैं पूर्ववत उसे घूरती हुई बोली। मेंरे चेहरे पर सख्ती उभर आयी थी।
“ओह!” उसने पुनः सिगरेट का कश लगाया तथा वैसी ही लापरवाही से ईजी चेयर का झूलना शुरू कर दिया—”तुमने मुझे मेंरे बारे में बताने के लिये कहा है। अपने बारे में नहीं पूछा। राइट?”
“राइट।”
“मेरा नाम अमित है।” उसने इतनी शराफत से बताया कि मेरा संदेह दोबाला हो गया। हैरानी बढ़ गई—”अमित सक्सेना!”
“मैंने तुम्हारा असली नाम पूछा है।”
“मेरा असली-नकली बस यही एक नाम है, जो मैंने तुम्हें बताया है। जहां तक यहां प्रकट होने की बात है तो बस स्वीटहार्ट, तुमसे मिलने का मूड हुआ और टहलता हुआ इधर निकल आया।”
“टहलते हुए?”
“हां, भई। यह तो मुझे यहां आऩे के बाद ही मालूम हुआ कि तुमने अपने इस पैंतीस लाख रुपये के फ्लैट पर भी अपनी सिक्योरिटी के कुछ इन्तजाम कर रखे थे।”
“हूं।”
“जैसे भीतर से बोल्ट होने की सूरत में यदि तुम्हारे फ्लैट के किसी भी खिड़की-दरवाजे को छुआ जाये तो केवल छूने भर से ही यहां पर लगा एक अलार्म कानफोङू आवाज के साथ चीख उठता है और यूं भीतर घोड़े बेचकर सोने वाला भी चौकन्ना हो जाता है, जो खुद तुम्हीं हो सकती हो, क्योंकि तुम्हारी गैरहाजिरी में तो यहां उल्लू बोल रहे होते हैं...क्योंकि तुमने कोई शादी-वादी रचाकर एक साथ दर्जन भर बच्चे तो पैदा किये हुए नहीं हैं जो तुम्हारी गैरहाजिरी में तुम्हारे इस गुलशन को आबाद किये रहते हों। कहने का मतलब ये है कि तुम्हारी गैरहाजिरी में खतरे का अलार्म बजे या न बजे, उससे तुम्हारी सेहत पर तनिक भी फर्क नहीं पड़ता और यदि एक बार सिक्योरिटी का कोई सिस्टम मालूम हो जाये तो उसका तीया-पांचा करना बहुत आसान होता है।”
“जैसे कि तुमने...।” मैं उसे कठोर निगाहों से देखती हुई बोली—”मेंरे फ्लैट में लगे अलार्म का आसानी से कर दिया?”
“अगर नहीं किया होता तो क्या उसकी कानफोङू आवाज सुनकर तुम्हारे आराम में खलल नहीं पड़ गया होता? नींद नहीं टूट गई होती तुम्हारी? और यदि तुम्हारी नींद का ही सत्यानाश हो गया होता तो क्या मैं तुम्हें इतने सलीके से गुड मॉर्निंग बोल पाया होता, जैसे अभी मैंने बोला?”
“बिल्कुल नहीं।” उसके बात करने का अंदाज भी उससे कम रहस्यमय नहीं था—”सवाल ही नहीं उठता प्यारे अमित सक्सेना।”
“माना कि रात तुमने कुछ ज्यादा ही लगा ली थी और...।” वो ठिठका, उसकी चुभती हुई अर्थपूर्ण निगाहें दो पल के लिये मेरी कमर तथा जांघों पर जाकर ठहर गईं, फिर जब वो बोला तो पहले जैसे ही सहज भाव से बोला—”रात वाले उस हिप्पी के साथ अपनी 'कमर' को भी कुछ ज्यादा ही 'तुड़वा' बैठी थीं, जिसके कारण थकान भी कुछ ज्यादा ही तुम्हें पर हावी हो गई थी और यहां पहुंचते ही तुम कटे पेड़ की तरह बिस्तर पर ढेर हो गई थीं। लेकिन यदि खतरे का अलार्म अचानक चीख पड़ता तो रात की अपनी उस हालत के बावजूद भी स्प्रिंग लगे खिलौने की तरह उछल पड़ी होतीं। खतरे की गंध सूंघते ही गहरी नींद में सोते हुए भी तुम पलक झपकते कैसे ‘कमाण्डोज’ के कान, नाक, पूंछ काटने लगती हो, यह क्या मुझसे छिपा है?”
मेंरे जेहन को पुनः झटका लगा था। उसे तो मेरी रात की भी पूरी दास्तान मालूम थी।
“मैं यूं ही तो तुम्हारा दीवाना नहीं हो गया हनी...।” अमित चटखारा-सा लेते हुए बोला—”तुम अपने आप में वाकई एक बेहद शानदार लड़की हो। यौवन तुम्हारे अंग-अंग से छलका पड़ रहा है। सुन्दरता को लजा देने वाला मादक हुस्न पाया है तुमने। ऐसी कातिल जवानी ऊपर वाला हर किसी को कहां बख्शता है...और न ही ऐसी बेमिसाल...।” वो एक क्षण ठिठका और सिगरेट का कश लगाने के बाद बोला—“शोहरत।”
“शोहरत क्या?” मैं अचकचाई।
“शोहरत नहीं तो फिर यह क्या हैं? आज बच्चे-बच्चे की जुबान पर बस एक ही नाम है...और वो तुम्हारा नाम है। सिर्फ तुम्हारा। माई स्वीटहार्ट! सड़क चलते किसी बच्चे से पूछकर देखो कि देश के प्रेसीडेंट का नाम क्या है? लेकिन अगर उससे पूछो कि रीमा भारती कौन है? वो फौरन बता देगा कि वो आई.एस.सी. की नम्बर वन एजेन्ट है। एक ऐसी जासूस है जो अपने वतन के लिये हर घड़ी अपनी जान लुटा देने को तैयार रहती है।”
मैं गहरी नजरों से सामने बैठे उस इन्सान को देखने लगी थी, जिसने यदि बॉलीवुड में किस्मत आजमाई होती तो आज शर्तिया 'खान बिरादरी' के पेट पर लात मार चुका होता। फिल्म इण्डस्ट्री में उसके नाम का डंका बज रहा होता। टॉप हीरो कहला रहा होता वह।
जबकि वह मुझे झटके-पर-झटके दिये जा रहा था—”अब तुम्हीं बताओ, क्या मैं गलत कह रहा हूं?” उसने मुझे यूं देखा जैसे अपनी बड़ी भूल से अंजान नादान बालक अपने गार्जियन्स को देखता है—”क्या यह सच नहीं है? क्या आज की डेट में इस मुल्क और मुल्क से बाहर रीमा भारती के नाम का डंका नहीं बज रहा है?”
तब पहली बार मेरा धैर्य छूटने लगा था और मेंरे चेहरे के भाव तेजी से बदले थे।
मेरी शख्सियत के बारे में उससे कुछ भी तो नहीं छिपा था। मेरी हकीकत और मेरी लाइफ के बारे में उसे बहुत कुछ मालूम था, जिसका उसने उसने खास अंदाज से मुझे अहसास करा दिया था।
देखने में भोला-भाला कमसिन-सा नजर आने वाला वह छोकरा कितनी पहुंची हुई चीज था, इसका अंदाजा तो इसी बात से लगाया जा सकता था कि वो मेंरे फ्लैट की सारी सुरक्षा-व्यवस्था को ध्वस्त करता हुआ इस समय मेंरे सामने बैठा इतने इत्मीनान से मुझसे बातें कर रहा था।
“मिस्टर अमित सक्सेना।” मेंरे लहजे में एकाएक बर्फ जैसी ठण्डक उभर आयी थी। मैं उसे बेहद कठोर नजरों से देखती हुई भिंचे स्वर में बोली—”यही नाम बताया था न तुमने अपना?”
“कितनी अच्छी याददाश्त है तुम्हारी! मेरा हण्ड्रेड परसेंट यही नाम है।”
“क्या तुम्हें नहीं लगता कि मेंरे बारे में...रीमा भारती के बारे में तुम जरूरत से ज्यादा जानते हो? अपनी औकात से ज्यादा जानते हो?”
“हो सकता है!” उसकी लापरवाही में जरा-सा भी फर्क नहीं आया था।
“और मेंरे जैसे किसी इन्सान के बारे में इतनी ज्यादा जानकारी तुम्हारी सेहत के लिये खतरनाक साबित हो सकती हैं, बल्कि अभी साबित होने वाली है।”
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Additional information
Book Title | Super Computer : सुपर कम्प्यूटर |
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Isbn No | |
No of Pages | 396 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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