शैतान की नानी
गौरी पण्डित
“शिकार का नाम क्या है?”—बुलडॉग कुत्ते के आकार के नकाबपोश ने पूछा।
“कंचन मेहता”—सामने बैठी कोई बीस साल की युवती बोली।
एक शानदार बी०एम०डब्ल्यू० सेवन सीरीज कार की रीयर सीट पर बस वे दो लोग थे।
नकाबधारी—जिसने काला ओवरकोट पहन रखा था और काले दस्ताने हाथों में। दस्ताने युक्त दाहिने हाथ में मोटी सिगार फंसी हुई थी। चेहरे पर पहने नकाब में तीन छेद थे। दो छेद आँखों के स्थान पर थे जिनके पीछे आँखों की जगह काले लैंस ही दिखलायी पड़ रहे थे। एक छेद कुत्ते के मुंह की जगह पर भी बना हुआ था।
उस छेद में होंठ नजर आ रहे थे थोड़े–थोड़े। उसी छेद में सिगार डालकर वो कश लगाता था।
वह कौन था, लड़की नहीं जानती थी। बस इतना जानती थी कि वही वो शख्स था—जो उसका काम कर सकता था।
लड़की का नाम शिवानी पटेल था।
मुम्बई के टैक्स्टाईल इन्डस्ट्रिएलिस्ट विष्णु पटेल की इकलौती बेटी।
“कंचन मेहता।”—नकाबधारी ने नाम दोहराया—“उसका पता और फोटो लाई हो?”
“हां।”—शिवानी पटेल ने अपने हैण्डबैग में से एक बीस साल की लड़की की तस्वीर निकालकर नकाबपोश को दे दी।
नकाबपोश ने तस्वीर हाथ में लेकर दाहिने हाथ में थमे सिगार को अपने होठों में दबाया और फिर दोनों हाथों से तस्वीर को पकड़कर कार की डोमलाइट के धुंधले प्रकाश में तस्वीर का मुआयना करने लगा।
शिवानी पटेल ने बताया—“पता तस्वीर की बैक पर है।”
नकाबपोश ने तस्वीर की बैक को देखा तो वहां सचमुच एक पता लिखा मिला।
पता पढ़ने के बाद नकाबपोश ने उस तस्वीर का फिर मुआयना किया—“ये तो बड़ी सुन्दर लड़की है”—नकाबपोश ने कहा—“इससे तुम्हारी क्या दुश्मनी है?”
“सुन्दर माई फुट!”—वो फुंकारी—“मैं क्या इस कुतिया से कम हूं? मेरा रंग जरा-सा सांवला है तो क्या हो गया? उस कुतिया ने मेरे ब्वायफ्रैण्ड को मुझसे छीन लिया। मेरी सहेली होकर मेरी ही पीठ में छुरा घोंप दिया उस साली ने। मेरे ब्वायफ्रैण्ड को ले उड़ी।”
“ओह।”
“इसके बदन में बड़ी आग है ना!”—अंगारों पर लोटती–सी शिवानी पटेल ने फुंकार भरी—“तुम उसका अपहरण करके हफ्ते भर तक रेप करो। रोज उसको कई–कई आदमियों से रोंदवाओ। इतना रोंदवाओ कि बाद में आदमी के पास जाने के ख्याल तक से वो डरने लगे।”
“उसके बाद क्या करें?”—नकाबपोश ने पूछा—“मार दें?”
“नई—कतई नहीं मारना। आजाद कर देना उसे। मैं चाहती हूं वो अपनी रेप वाली भयानक यादों के साथ जीती रहे। अगर मर गयी तो सजा ही खत्म हो जाएगी।”
“ठीक है। काम हो जाएगा।”—नकाबपोश बोला—“पांच लाख रुपये अभी दो। और पांच लाख काम हो जाने के बाद। हम तुम्हें उन सात दिनों की सी०डी० भी दे देंगे ताकि तुम्हें तसल्ली हो जाए कि हमने जो कहा था, वो किया भी।”
शिवानी पटेल ने पांच लाख रुपये दे दिए।
उसके बाद।
शिवानी को कुर्ला स्टेशन पर उतार दिया गया।
उसे वहीं से पिकअप किया गया था। कुर्ला के स्टेशन पर ही कार खड़ी थी शिवानी पटेल की।
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कंचन मेहता।
गोरी चिट्टी। साढ़े पांच फीट की।
बदन जैसे सांचे में ढला था उसका, मगर वह स्किन टाईट जीन्स और टॉप वगैरा पहनना पसंद नहीं करती थी। वह हमेशा सलवार और कुर्ता पहनती थी।
कंचन के पापा एक एडवोकेट थे—ईमानदार थे, सो ज्यादा अमीर नहीं थे। वैसे पैसे की कोई कमी भी नहीं थी। वकालत के साथ–साथ वो बीमा एजेन्ट का काम भी करते थे।
वो शाम को बाजार से खरीदारी के लिए निकली।
घर से ज्यादातर उसका भाई उसके साथ चलता था, लेकिन उस दिन वो अकेली चली।
कारण था कि उसे आज पचास मीटर दूर ही जाना था, एक परचून की दुकान पर।
वो सड़क के किनारे चली जा रही थी कि एक मैटाडोर आंधी तूफान की गति से आई और झटके से रुकी।
खटाक से दरवाजा खुला।
दो जोड़ी हाथ उसके दरवाजे से बाहर निकले और कंचन को अन्दर खींच लिया।
कंचन चीखी।
किन्तु जरा भी विरोध ना कर सकी। दिमाग ठप्प हो गया उसका। हालत पानी के भंवर में फंसे इंसान की तरह। वो बस यह देख सकी कि वो चार लोग थे जिन्होंने उसको किडनैप किया था। सबके सब काले नकाब पहने हुए थे।
उसके चेहरे पर भी काले कपड़े का थैला डाल दिया गया—जिसमें कोई छेद ना था।
फिर।
गर्दन पर एक सरसराहट हुई।
उसके होठों से सिसकी फूट पड़ी और वह बेहोश होती चली गयी।
बेहोश होते–होते उसकी समझ में बस ये आया कि उसकी गर्दन की विशिष्ट नस को दबाया गया था। उसी वजह से तेज पीड़ा उसको हुई और वह बेहोश हो गई थी।
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“आंटी जी—आंटी जी!”—एक दस–बारह साल का लड़का गला फाड़ता हुआ, चीखता हुआ, हांफता हुआ घर के दरवाजे पर पहुंचा और पागलों की मानिन्द दरवाजा पीटने लगा—“आंटी जी, आंटी जी—जल्दी दरवाजा खोलिए। भगवान के वास्ते दरवाजा खोलिए।”
दरवाजा खुला।
दरवाजा एक मोटी औरत ने खोला था जिसके हाथ में चमचा था उस समय भी। चेहरे पर तमतमाहट वाले भाव—“क्यों रे, क्यों उधम मचा रखा है? दरवाजा तोड़ने का इरादा है क्या?”
“आंटी जी!”—वह हांफता हुआ बोला—“मैटाडोर वाले दीदी को उठाकर ले गए।”
“अरे, कलमुंहे! अगर तेरी दीदी को मैटाडोर वाले उठाकर ले गए हैं तो तू यहां क्यों आया है?”—फुंकारी मोटी—“तू जानता तो है तेरे अंकल जी वकील हैं—ना कि पुलिस वाले। जाकर थाने में रिपोर्ट दर्ज करवा।”
“आंटी जी”—बच्चा बोला—“मैं अपनी सगी वाली दीदी की बात नहीं कर रहा—मैं तो कंचन दीदी की बात कर रहा हूं।”
“कंचन!”—मोटी यूं चिहुंकी जैसे ततैयों का झुण्ड उसके कानों में घुस कर डंक मारने लग गया हो। उसने अपना सीना दबा लिया—“मेरी लाडली कंचन को कौन उठाकर ले गया?”
“मेरे को क्या मालूम?”—बच्चा बोला—“मेरे को बस इतना मालूम है कि उनको मैटाडोर वाले उठाकर ले गए।”
“तूने ठीक से पहचाना है ना?”—मोटी ने शंका वाले भाव से पूछा।
“हां आंटी जी!”—वह आत्मविश्वास वाले भाव से बोला— “उनको तो मैं एक किलोमीटर की दूरी पर से भी पहचान सकता हूं। आज तो मैं बस दस पांच कदम की दूरी पर था—जब दीदी का किडनैप हुआ।”
और बस।
औरत अपने पतिदेव को हांक लगाती हुई अन्दर वापिस भाग पड़ी।
अन्दर।
उसका पति यानि एडवोकेट कम बीमा एजेन्ट दुबला पतला–सा श्री रामलखन मेहता चाय पी रहा था।
अपनी पत्नी की चीख–पुकार सुनकर चौंका—“अरी भागवान, क्या हो गया? घर क्यों सिर पर उठा रखा है?”
“अजी सुनते हो!”—बदहवास सी विलाप करती हुई मोटी बोली—“किसी ने हमारी कंचन को किडनैप कर लिया है—।”
“व्हाट!”—रामलखन मेहता उछल पड़ा सोफे पर से—जैसे यकायक सोफे में से कांटे निकलकर उसके बदन में धंस गए हों।
हाथ में थमा कप छूटकर फर्श पर गिरकर चकनाचूर हो गया।
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