Second Chance : सैकन्ड चांस by Kanwal Sharma
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Description
नया संशोधित संस्करण
नौजवान कैज़ाद पैलोंज़ी एक ईमानदार, काबिल, खूब ऊंचे आदर्शों वाला जुनूनी पत्रकार था जो फिर अपनी इन्हीं खास 'खामियों' की ज़ियादत के सदके तीन साल जेल की सज़ा काटकार अब बतौर एक्स-जेलबर्ड बाहर निकला था। आगे अपनी उस बेतरतीब उलझी, बेपनाह बिखरी पड़ी ज़िन्दगी को किसी सिरे लगाने की कोशिश में उसे एक मामूली फ़ोन कॉल के बदले पांच करोड़ का ऑफर मिला जिसे उसने फौरन लपका।
Second Chance : सैकन्ड चांस
Kanwal Sharma
BookMadaari
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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सेकन्ड चांस
‘में आई कम इन सर !’—कैज़ाद ने अखबार के मालिक असद ज़करिया के ऑफिस का दरवाज़ा खोला और अपनी गर्दन भीतर दाखिल करते हुए पूछा।
सत्ताईस साला कैज़ाद पैलोनजी अपने लम्बे कद और गोरी रंगत की वजह से खूब आकर्षक व्यक्तित्व वाला एक पारसी नौजवान था और गोवा में पणजी से निकलते, सूबे के सबसे बड़े, सबसे ज्यादा सर्कुलेटड अखबार ‘इनसाइड कैपिटल’ का क्राइम रिपोर्टिंग में माहिर स्पेशल कोरेस्पोंडेंट था।
‘आओ भाई आओ’—ज़करिया ने अपने हाथों में थामी किताब से निगाह उठाई और बोला—‘मैं तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहा था।’
‘थैंक यू सर’—कैज़ाद दफ्तर में भीतर दाखिल होते हुए बोला।
‘आओ बैठो’—ज़कारिया ने उसे विजिटर चेयर पर बैठने का इशारा करते हुए कहा।
‘जी सर’—कैज़ाद धीमे से इंगित चेयर पर बैठ गया।
‘अब बताओ—ऐसी कौन-सी ख़ास बात है कि जिसके लिए तुम सिर्फ मुझसे, ख़ास मुझी से मिलना चाहते थे !’—ज़कारिया ने किताब अपने सामने मेज़ पर रखते हुए पूछा।
‘सर, इस बार मैं जो रिपोर्ट लाया हूँ वो सीधे-सीधे इस शहर के एक रसूखदार आदमी पर कई गंभीर आरोप लगाती है’—कैज़ाद सीधे मुद्दे की बात पर आया—‘सो मैं चाहता था कि इसे प्रेस में डालने से पहले मैं एक बार आपसे बात कर लूं।’
‘हूँ’—ज़कारिया ने एक गहरी सांस लेते हुए कहा—‘बताओ।’
कैज़ाद ने अगले दस मिनट में वो सब बताया जिसे ज़कारिया ने बेहद सब्र और खूब ध्यान लगाकर सुना।
‘हम्म’—सारी बात सुनकर ज़कारिया ने एक लम्बी सांस छोड़ी और बोला—‘तो ये बात है।’
‘सर’—ये स्टोरी यहाँ इस शहर में रीयल एस्टेट, लैंड डेवलपर्स और कंस्ट्रक्शन के धंधे में व्यापक गड़बड़ियों की पोल खोलती है। ये बताती है कि कैसे यहाँ हमारे इस शहर में इन लैंड डेवलपर्स और तथाकथित बिल्डर्स की एक पूरी जमात है जो इल्लीगल कंस्ट्रक्शन और लैंड ग्रेबिंग के धंधे में अब इस कदर ताक़तवर है कि इन्होंने यहाँ शहर के पूरे प्रशासनिक अमले तक को अपने प्रभाव में ले लिया है। फर्जी कागज़ात बनाकर कीमती सरकारी ज़मीनो पर कब्ज़ा करना, अधिकारियों के साथ मिलकर बाज़ार दर से कहीं नीचे की कीमत पर सरकारी ज़मीनें खरीदना और आगे अपनी मनमानी से उन्हें आधा-अधूरा डेवलप कर जेनुईन बायर्स और मासूम खरीदारों को धोखे में रखकर बेच देने जैसे काम इनके लिए अब डेली रूटीन हैं।’—कैज़ाद जोश से बोला—‘हाल ये है कि इतने सालों में इनकी लॉबी अब इतनी, इस कदर मज़बूत हो चुकी है कि एक स्टेट लेवल इंडिपेंडेंट इन्क्वायरी में बावजूद इनकी इन गैरकानूनी गतिविधियों के—इन्हें न सिर्फ क्लीन चिट हासिल हो गयी बल्कि आगे के लिए भी इनके रास्ते में आने वाले तमाम अवरोधों को बाकायदा टारगेट करके हटा दिया गया।’
‘यकीन नहीं होता !’—ज़कारिया ने हैरानी जताई—‘इतना अंधेर !’
‘ये सारा मामला जनता की निगाह में लाया जाना ज़रूरी है जिससे सूबे में फैले इन धोखेबाज़ रीयल एस्टेट डेवलपर्स, क्रुक्ड बिल्डर्स और कोलोनाइज़र्स के जाल से को निजात मिले’
‘हमम्म—तुम्हारी स्टोरी वाकई वर्थ फोलोईग है लेकिन’—ज़कारिया ने अपना लहज़ा बदला—‘इतना तो तुम भी समझते हो न कि इस पूरे मामले को इस तरह अपने अखबार में छापने से पहले हमें इन लोगों और इनकी इस ताक़तवर लॉबी के खिलाफ पक्के सबूतों की ज़रूरत पड़ेगी’
‘मैं समझता हूँ सर’—कैज़ाद जोशीले अंदाज़ में बोला—‘इस मामले में मैंने पिछले दो महीनों में बड़ी डिटेल, बड़ी व्यापक तफ्तीश की है जिसके बाद इसमें शामिल इस रैकेट के खिलाफ पुख्ता सबूत हासिल कर लिए हैं।’
‘कहाँ हैं वो सबूत?’—ज़कारिया ने संदिग्ध स्वर में पूछा
‘सर, ये...ये वो फाइल है—जिसमे वो सारे सबूत हैं। इसमें होम बायर्स के ओथ सर्टिफिकेट्स हैं और उन तमाम फर्जी कागजातों की ज़ेरॉक्स हैं जिसके दम पर सूबे की कई बेहद कीमती सरकारी ज़मीनों पर इस लॉबी ने कब्ज़ा जमा लिया है।’—कैज़ाद एक फ़ाइल आगे बढ़ाते हुए बोला—“इसमें शहर में मौजूद इस तरह की तमाम ज़मीनों की पूरी लिस्ट और उनका असली रिकॉर्ड है, और इसके अलावा डेवलपर्स की मनमर्जी के सबूत के तौर पर उनकी एप्रूव्ड कोलोनीयों के सर्टिफाइड नक़्शे और उनकी वास्तविक स्थिति में अंतर दर्शाते तमाम कागज़ात हैं।”
‘बहुत खूब!’—ज़कारिया तरह देता हुआ बोला—‘तुमने तो वाकई इस पर बहुत मेहनत की है।’
‘थैंक यू सर’—कैज़ाद खुश हो गया
‘कोई और सबूत !’—ज़कारिया ने अपना दायाँ हाथ आगे बढ़ाकर फ़ाइल उठाते हुए पूछा।
‘नहीं सर’—कैज़ाद ने बताया—‘ये सारे सबूत इसी एक फ़ाइल में हैं और जो मेरे ख्याल से इस बिल्डर लॉबी के ताबूत में कील ठोकने के लिए काफी हैं।’
‘हूँ’—ज़कारिया कुछ क्षण खामोश रहा और फिर उसने पूछा—‘कोई और बात जो तुम बताना चाहो?’
‘बताना तो नहीं, लेकिन—अगर आप इजाज़त दें तो—कुछ पूछना ज़रूर चाहूंगा सर’
‘पूछो...पूछो।’
‘सर हम ये रिपोर्ट कब छापेंगे?’
‘बहुत जल्द छापेंगे’—ज़कारिया सबूतों की वो फाइल अपने मेज़ की एक दराज में रखते हुए बोला—‘मैं अपनी लीगल टीम से बहुत जल्द इस बारे में सलाह करूंगा।’
‘सर !’—कैज़ाद सकपकाया—‘उसमे तो शायद काफी वक़्त लग जाए।’
‘हाँ भई, लग तो सकता है’—ज़कारिया समझाते हुए बोला—‘काफी न भी लगे लेकिन फिर भी एज़ पर प्रोसीजर कुछ वक़्त तो लगेगा ही लेकिन तुम भी इस बात को समझो कि तुम्हारी ये रिपोर्ट सज्जन तापडिया के खिलाफ हुई तो ये देरी होनी ही है’
‘वैसे व्यवहार में सज्जनता होनी चाहिए, वरना नाम सज्जन होने से कोई सज्जन तो नहीं हो जाता, फिर भी’—कैज़ाद ने हिचकिचाते हुए पूछा—‘अंदाज़न कितना वक़्त लगेगा सर?’
‘मेरे बच्चे’ –पत्रकारिता के इस धंधे में इस किस्म के मामलों के लिए ये एक स्थापित प्रक्रिया है कि जिस किसी के भी खिलाफ कोई रिपोर्ट निकाली जाए, एक बार उसका पक्ष भी जान लिया जाए।’—ज़कारिया ने उसे समझाया—‘हालांकि आमतौर पर इस प्रोसेस को कई बार अनदेखा किया जाता है, बल्कि आजकल तो आम किया जाता है, लेकिन चूंकि तुम्हारी ये रिपोर्ट छप जाने के बाद एक बहुत बड़ा बवंडर खड़ा कर देने में सक्षम है, सो मैं चाहूंगा कि इसे यूँ प्रिंट में डालने से पहले मैं पूरे मसले पर ज़रा और मुतमईन हो लूं’
‘फिर भी सर’—कैज़ाद ने जोर देते हुए पूछा—‘अंदाज़न? अंदाज़न कितना वक़्त लगेगा?’
‘फिलहाल कहना मुहाल है।’—ज़कारिया ने सवाल को टालते हुए जवाब दिया—‘और फिर बहुत कुछ इस बात से भी तय होगा कि तुम्हारे लाये इन सबूतों में दरअसल कितना वज़न है? अगर हमारी लीगल टीम ने इसे हर क्राइटेरिया पर पास कर दिया तो हम इस स्टोरी को यकीनन आगे इसके वाजिब अंजाम तक ले कर के जायेंगे’
‘लेकिन सर !’—कैज़ाद ने एक और कोशिश की
‘सुनो कैज़ाद’—असद ज़कारिया ने अपनी चमडा मढ़ी रीवाल्विंग चेयर को दाई ओर घुमाया और उठ खड़ा हुआ—तुमने इस मामले में जो सबूत इकठ्ठा किये हैं उनकी रीयल वर्थ जाने बिना इस पूरे मामले को यूँ अपने अखबार में छापना हमारे लिए एक बहुत बड़ी मुसीबत खड़ी कर सकता है। हम जब भी इस रिपोर्ट को छापेंगे, वो इस शहर में, इस शहर की उस ताक़तवर बिल्डर लॉबी में, एक बहुत बड़ी हलचल पैदा करेगी। बहुत मुमकिन है कि अपने खिलाफ ऐसी रिपोर्ट देखकर उनमे से कई, या फिर वो सारे मिलकर, हमारे और हमारे अखबार के खिलाफ अदालत में इज्ज़त हत्तक का दावा ठोंक दें !! अगर ऐसा हुआ—जो कि मैं जानता हूँ कि ज़रूर होगा—तो आगे हमें अदालत में अपने स्टैंड को, तुम्हारी इस रिपोर्ट की सच्चाई को साबित करना होगा और उस वक़्त’—ज़कारिया घूमकर अपने दफ्तर की दीवार के आदमकद शीशे की खिड़की के पास पहुंचा और बाहर देखते हुए बोला—‘उस वक़्त तुम्हारे लाये ये सबूत अगर अदालत में नहीं टिक पाए तो हमारे लिए इस शहर में ये ज़िन्दगी बहुत मुश्किल हो जायेगी। ऐसे ताक़तवर लोगो की यूँ की गयी खालिस खिलाफत, ऐसी पुरजोर मुखालफत हमारे और हमारे अखबार के दुश्मनों की पहले से ही लम्बी फौज में और इजाफा ही करेगी।’
‘सर लेकिन ! ‘
‘और एक बात सुनो कैज़ाद—सुनो भी और समझो भी’—असद ज़कारिया खिड़की से लगातार बाहर देख रहा था—‘इस पूरे मामले के लाइट में आने के बाद अगर तुम्हारे लाये इन सबूतो में दम नहीं निकला तो तुम भी खुद को एक बहुत बड़ी मुसीबत में पाओगे और’—ज़कारिया ने धीमे स्वर में कहा—‘इसलिए मैं तुम्हें एक मशवरा देता हूँ।’
‘क्या सर?’
‘फिलहाल तुम इस मामले को अभी यहीं भूल जाओ और अपना ध्यान किसी और काम पर लगाओ। बदले में अगर तुम चाहो तो तुम्हारे लिए कोई डील सोची जा सकती है।’
‘इसका मतलब वही है न जो मैं समझ रहा हूँ?’
‘मुझे नहीं पता तुम क्या समझ रहे हो। मैं सिर्फ ये कह रहा हूँ कि बेवकूफी और अक्लमंदी में केवल एक ये महीन फर्क होता है कि अक्लमंदी की एक हद होती है।’
‘ये आप क्या कह रहे हैं?’—कैज़ाद हैरान रह गया था।
‘हां तो’—ज़कारिया बोला—‘अपनी उस उस हद को पहचानो और इस मामले को यहीं भूल जाओ।’
‘ऐसा नहीं हो सकता सर। मैंने इस मामले में पूरे दो महीने लगाए हैं’
‘और बदले में तुम्हें उन दो महीनो की तनख्वाह भी हासिल हुई है, सो इस हिसाब से तुम्हारी इन दो महीनो की मेहनत पर हमारा, हमारे अखबार का नैतिक हक है।’
‘लेकिन ये रिपोर्ट ! ‘
‘तुम्हारी ये रिपोर्ट अब हमारे अखबार की मिलकियत है जिसके बारे में जब भी सही वक़्त आएगा फैलसा ले लिया जाएगा।’
‘ये गलत है सर’
‘कैज़ाद—तुम अभी जवान हो, इस पत्रकारिता के धंधे में अभी हालिया एन्त्रेंट हो सो मैं तुम्हारे जज्बातों को समझता हूँ, उनकी कद्र भी करता हूँ’—ज़कारिया शीशे के आगे से हटा और वापिस अपनी चमड़ा मढ़ी चेयर पर आ बैठा—‘लेकिन मेरा इस धंधे में तुमसे कहीं ज्यादा, कहीं बड़ा और कहीं व्यापक तजुर्बा है इसलिए शुक्र मानो कि मैं तुम्हें सही वक़्त पर सही चीज़ के लिए आगाह कर रहा हूँ।’
‘नहीं सर, ऐसा न बोलिए।’—कैज़ाद जैसे सदमे में था—‘मेरा दिल बैठा जा रहा है’
‘बर्खुरदार कि इस फानी दुनिया में ठोकर लगने से जब सभी चीज़ें टूट जाती हैं तो ये सिर्फ दोपाया होता है जो ठोकर लगने के बाद उस हासिल तजुर्बे से दोबारा बन, उठ खड़ा होता है।’ ज़कारिया ने समझाया—‘और मैं तो तुम्हें वो मौका दे रहा हूँ जिसके दम पर तुम ऐसी कोई ठोकर खाए बिना ये सीख हासिल कर रहे हो।’
‘मुझे ये समझ में नहीं आ रहा !’
‘समझो, आखिर अब इतने भी नादान नहीं हो।’
‘नहीं—मैं ये नहीं कर सकता।’—कैज़ाद अब उत्तेजित होता हुआ बोला—‘अपने पेशे के लिए मेरा कोई फ़र्ज़ है।’
‘कैज़ाद, मेरे बच्चे—तुम समझ नहीं रहे’—ज़कारिया ने फिर कोशिश की—‘जब किसी काम को उसके अंजाम तक पहुंचाने के लिए कई रास्ते हों तब ये खुद हम पर तय होता है कि हम अपने उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए कौन-सी राह चुनते हैं।’—फिर ज़कारिया ने अपना स्वर नम्र किया—‘तुम्हारी ये रिपोर्ट जितनी एक्सप्लोसिव है उस हिसाब से—तुम्हारे, मेरे और हमारे अखबार के हित में यही है कि फिलहाल इस रिपोर्ट को यहीं बरी कर दिया जाए।’
‘नहीं सर...। मैंने अपनी राह चुन ली है। मेरे करियर के लिए ये रिपोर्ट बहुत मायने रखती है’
‘ज़िन्दगी रही तो करियर रहेगा न! खुश रहने के लिए उस चीज़ पर फोकस करो जो तुम्हारे पास है, उस पर नहीं जो जिस पर तुम्हारा कोई जोर नहीं।’
‘ये सब फिलॉसिफिकल बातें हैं, लफ्फज़ी है।’—कैज़ाद तड़पते हुए बोला—‘सच ये है कि इस रिपोर्ट को छापते हुए आप डर रहे हैं।’
‘हालांकि ऐसा है नहीं लेकिन फिर अगर ऐसा है भी तो मेरा वो डर तुम्हारे लिए है। तुम्हारी ज़िन्दगी के लिए है।’—ज़कारिया के तेवर बदले—‘मत भूलो कि तुम्हारी ज़िन्दगी तुम्हारी खुद की अपनी ज़िम्मेदारी भी है और—किसी और की—सिर्फ मेरी—नहीं।’
‘क्या आप मुझे धमकी दे रहे हैं?’
इससे पहले कि जवाब दिया जाता—टेबल पर रखा इन्टर्कॉम घनघनाया। ज़कारिया ने रीसीवर उठाकर अपने कान से लगाया और कुछ पल खामोश रहने के बाद बोला—‘ठीक है। बुलाओ उनको।’
‘हाँ’—ज़कारिया ने रीसीवर वापिस रखा और पूछा—‘तो मैं क्या कह रहा था?’
‘आप मुझे बड़ी इज्ज़त से, बड़ी तमीज से, बाकायदा—बरगला रहे थे।’
‘बरगला नहीं रहा था, समझा रहा था। और इसलिए समझा रहा था कि जिस जवानी के नए-नए जोश में तुम इस कदर इंकलाबी कदम उठाना चाहते हो वो कहीं आगे चलकर तुम्हारे लिए मुसीबत का, एक बहुत बड़ी मुसीबत का, बायस न बन जाए’
‘मैं फैसला कर चूका हूँ और मैं अब इन टोटकों से उसे बदलने वाला नहीं’—वो बोला—‘अगर आप ये रिपोर्ट नहीं छापेंगे तो कोई और छापेगा’
‘मुगालता है तुम्हें।’—कजारिया बोला—‘इस किस्म की रिपोर्ट छापने का माद्दा यहाँ के किसी अखबार में नहीं।’
‘कोई बात नहीं’—कैज़ाद जोश से बोला—‘अगर कोई अखबार नहीं छापेगा तो मैं इसे ऑन-लाइन सार्वजनिक कर दूंगा। मैं इसे इन्टरनेट पर रिलीज़ कर दूंगा।’
‘रिश्ते टूटने में अक्सर ये सबसे बड़ी वजह होती है कि बाज़ दफा लोग टूटना पसंद करते हैं झुकना नहीं।’
‘झुकने वाली जगह पर ही झुका जाता है।’—कैज़ाद उत्तेजित स्वर में बोला—‘आप गलत हैं।’
‘मानता हूँ, बिलकुल मानता हूँ कि मैं हमेशा सही नहीं होता। लेकिन मैं क्या, वो तो कोई भी नहीं होता। हो ही नहीं सकता। इंसान का कोई बच्चा त्रुटिहीन कब हुआ है? कोई नहीं हुआ। मैं भी नहीं हूँ लेकिन’—ज़कारिया अपने शब्दों पर जोर देते हुए बोला—‘हर ताक़त के आगे झुका जाता है। झुकना चाहिए।’
‘नहीं। मैं ऐसा नहीं।’—कैज़ाद बोला—‘हमारी खुदाई किताब कहती है कि झूठ और खौफ में ज़िन्दगी बिताने से बेहतर तो फिर मौत है।’
‘मेरे बच्चे’—ज़कारिया ने उसे समझाया—‘उसी अवेस्ता में फिर ये भी तो लिखा है कि जब कभी संशय में हो तो बेहतरी इसी में है कि पीछे हट जाओ।’
‘संशय मैं कौन है?’
‘मुझे लगा तुम हो !’
‘नहीं हूँ।’
‘खैर तुम्हारी मर्ज़ी।’—ज़कारिया ने गहरी सांस खींची और बोला—‘कर्मों का कोई मेनू कार्ड तो होता नहीं और इसलिए हमें बिना नागा वही सर्व होता है जिसके कि हम लायक होते हैं।’
‘मेरा ज़मीर अभी जिंदा है सर और मैं जानबूझ कर गलत का साथ नहीं दे सकता।’—कैज़ाद ने उद्घोषणा की—‘मेरा अपना भी कोई फ़र्ज़ है और मैं अपना वो फ़र्ज़ निभाऊंगा।’
‘तुम चीज़ों को गलत नज़रिए से देख रहे हो। बल्कि या तो तुम सच्चाई देख नहीं पा रहे या फिर तुम उसे देखने के बावजूद उसे मानने को तैयार नहीं।’ ज़कारिया बोला—‘आज के इस दौर में ईमानदारी कोई खसूसियत नहीं बल्कि एक ऐब, एक खामी मानी जाती है। एक ऐसी बीमारी मानी जाती है जिसे फौरी, बल्कि फ़ौरन से पेश्तर, इलाज की ज़रूरत होती है।’
‘मैं अपना फैसला बदलने वाला नहीं।’
‘फिर तो मेरे लिए फैसला आसान है।’
‘क्या है आपका फैसला ?’
‘किसी संस्था में कोई इर्र-रीप्लेसएबल नहीं होता। तुम भी नहीं हो। तुम चाहे कितने भी लाजवाब, कितने भी धुरंधर जर्नलिस्ट क्यूँ न हो—आखिरकार कोई न कोई तो तुम्हारी खाली जगह भरने को निकल ही आएगा।’
‘ओह ! तो आप मुझे नौकरी से निकाल रहे हैं लेकिन कोई बात नहीं’—कैज़ाद बोला—‘चैन से जीने के लिए चार रोटी और दो कपडे ही काफी हैं।’
‘बढ़िया। अगर तुम्हारी बचकानी की जिद्द का आगे भी यही हाल रहा तो यकीन जानो—ज़िन्दगी इन्हीं चार रोटियों और दो जोड़ी मैले कपड़ों में निकल जानी है।’
‘गर ऐसा हुआ तो भी मुझे इस बात पर फ़ख्र होगा कि अपनी ज़िन्दगी में आये ऐसे एक गंभीर मोड़ पर मैंने अपने ज़मीर को किसी के आगे बेचा नहीं बल्कि सिर ऊंचा रखते हुए सच का साथ दिया।’
‘सच !’—ज़कारिया ने लहज़ा बदला—‘आज वो दौर है जब तुम्हारे कथित सच को अक्सर कैपिटलाइज़, फिर लोकेलाइज़ और कई बार तो मोनोपोलाइज़ तक किया जाता है।’
‘ज़रूर किया जाता होगा’—कैज़ाद बोला—‘लेकिन आखिरकार तो सच यही है कि—सच दबाया नहीं जा सकता।’
‘पुरानी बात है, बल्कि अब तो झूठी बात है क्यूंकि आज के इस दौर में तो सच को बखूबी दबाया जा सकता है—दबाया जाता है’—ज़कारिया ऊंचे स्वर में बोला—‘एक ऐसे मुल्क में कि जहां डॉक्टरों की जमात लोगों की सेहत बर्बाद कर रही हो, वकील खुद इन्साफ का क़त्ल कर रहे हों, स्कूल और कॉलेज ज्ञान के नाम पर आतंकवादियों के समर्थक पैदा कर रहें हों और जहां बैंक खुद पूरी आर्थिक व्यवस्था की बुनियाद उखाड़े दे रहें हैं वहाँ प्रेस ख़बरों को मन-माफिक तरीके से दबाकर सच को बखूबी दबा रही है।’
‘सच परेशान हो सकता है, लेकिन पराजित कभी नहीं’—कैज़ाद ने गर्वीले अंदाज़ में जवाब दिया—‘और गर सच को कभी दबा भी दिया जाए तो भी एक न एक दिन सच का वो बीज उस झूठ की ज़मीन को चीरकर फिर उपज आता हैं।’
‘शायद ऐसा होता हो, शायद ऐसा हो जाए लेकिन’—ज़कारिया बोला—‘बेईमानी के खेल में सच वो शै है जो सबसे पहले खेत होती है।’
‘मुझे वो शहीदी मंज़ूर, मुझे वो मौत मंज़ूर लेकिन मैं अपनी आत्मा का सौदा शैतान के हाथों नहीं करूंगा।’—कैज़ाद बोला—‘मैं रावण नहीं बन सकता।’
‘रावण कौन बन सकता है ! रावण बनना आसान कहाँ है !’—ज़कारिया तीव्र स्वर में बोला—‘रावण में अहंकार था तो आगे उसमें पश्चाताप भी था। अगर उसमे वासना थी तो सब्र भी था। अगर उसमे किसी पराई औरत को उड़ा ले जाने का माद्दा था तो फिर उसी पराई औरत को स्पर्श तक न करने का संकल्प भी था। राम अगर सीता को दुबारा ज़िदा ला सके तो ये यकीनन उनका बल, उनका तेज था लेकिन वही सीता अगर लंका में रहकर भी पवित्र बनी रही तो ये रावण की ही मर्यादा थी। राम के उस दौर का तो रावण भी कहीं बेहतर, कहीं अच्छा था।’
‘आप जैसे मर्ज़ी, जो मर्ज़ी कहिये लेकिन मैं अपना फैसला कर चुका हूँ।’
‘ठीक है’—ज़कारिया ने एक लम्बी आह भरी—‘मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की तुम्हें समझाने की लेकिन तुम नहीं माने।’
‘मानने वाली चीज़ ही मानी जाती है’—वो बोला—‘मैंने अपनी ज़िन्दगी में ग़ुरबत को नज़दीक से देखा है और इसलिए मैं जानता हूँ कि जब किसी के साथ नाइंसाफी होती है तो कैसा लगता है।’
‘किसने की नाइंसाफी !’
‘इन्हीं बिल्डर लॉबी जैसे लोगों की जमात ने की।’
‘बहुत हुआ कैज़ाद। यहाँ इस बदकिस्मत मुल्क में एक बड़ी दिक्कत ये भी है कि जहां एक जमात अपनी कोई ज़िम्मेदारी नहीं समझती, वहीँ दूसरी किस्म की एक और जमात अपने में ये मुगालता पाले है कि उसकी बदकिस्मती, उसकी ग़ुरबत की वजह उसकी खुद की काहिली, उसकी आरामतलबी नहीं बल्कि कोई और है। “ज़कारिया ने भड़कते हुए कहा—‘पैसे वाला जहां अपने कमाए में किसी को कोई हिस्सा देकर राज़ी नहीं वहीँ गरीब अपनी किस्मत को कोसने के अलावा अपने हाथ पाँव हिलाने को राज़ी नहीं। इस मुल्क में कोई संतुष्ट नहीं। यहाँ हर कोई परेशान है, हर कोई गर्म है।’
‘सर’—कैज़ाद ने अपना स्वर धीमा किया और बोला—“मुझे कतई हैरानी नहीं कि आखिर क्यूँकर जानवरों की जमात में इंसान वो इकलौता जानवर है जो अपनी पाश्विक इच्छाओं की पूर्ति हो जाने के बाद भी सब्र नहीं दिखाता और उसक भीतर का जानवर जब तब बाहर आ ही जाता है।”
‘क्या मतलब ?’
‘मतलब यही है कि आपने अपने कैरियर, अपने पेशे में जो ऊंचा मुकाम हासिल किया है, जो रसूख कमाया है उसी के रू में आज आप इस पोजीशन पर बैठे हैं लेकिन इसके बावजूद आपकी अपने पेशे के प्रति कोई इमानदारी नहीं है। मेरे दिल में आपके लिए जो इज्ज़त, जो ऊंचा मुकाम था उसे आज आपने अपने ही हाथों काट दिया है।’
‘कर चुके अपनी बकवास ?’—ज़कारिया भड़कते हुए बोला
‘अभी नहीं’—कैज़ाद अपनी निराशा दिखाता हुआ बोला—‘मैंने आपको हमेशा अपने आइडल के तौर पर देखा, अपना गुरु माना लेकिन आज आपने ये सारी बातें कहकर मुझे ये अहसास करा दिया कि मैं गलत था। मुझे लगा आप मेरी इस स्टोरी से खुश होगे, शायद मेरी पीठ थपथपाएंगे और मुझे आगे ज्यादा बेहतर काम करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आपने एक झटके में ही खुद को मेरी नज़रों में अर्श से फर्श पर ला दिया है।’
‘कम्प्लीट इट...।’
‘आज मेरा, मेरी ज़िन्दगी का सबसे खराब, सबसे बुरा वक़्त है।’ वो बोला—‘बहरहाल मैं अभी इसी वक़्त आपकी दी नौकरी से इस्तीफा देता हूँ इसलिए आप बराये मेहरबानी, मेरे हासिल किये उन सबूतों की फ़ाइल मुझे लौटा दें’
‘बर्खुदार—मुझे तुम ख़ास इसीलिए पसंद हो।’—ज़कारिया ने खुद को नियंत्रित किया और नम्र स्वर में मुस्कुराते हुए बोला—‘तुम मुझे मेरे उस दौर की याद दिलाते हो जब मैं भी तुम्हारी तरह जवान जोशीला लेकिन अक्ल से कोरा एक बेवकूफ पत्रकार था।’
‘और फिर आपने रास्ता खो दिया।’
‘रास्ता खो दिया लेकिन मंजिल हासिल कर ली।’- कजारिया मुस्कुराया –‘और रहा सवाल उस फाइल का तो वो अब तुम्हें नहीं बल्कि उसके सही हक़दार को ही मिलेगी’
‘किसे ?’
तभी दफ्तर का दरवाज़ा खुला और एक भारी बदन वाला कोई पचपन के पटे में पहुंचा व्यक्ति काला कोट पहने चार बॉडीगार्ड्स के साथ भीतर घुसा।
‘हालांकि इस उम्र में मुझसे अब ज्यादा भाग दौड़ नहीं होती और मैं आम तौर पर अपने दफ्तर से बाहर निकलने से परहेज़ रखता हूँ लेकिन इन गैरमामूली हालात में मेरे पास और कोई चारा भी तो नहीं था’—आगंतुक जिसकी सांसें फूल रहीं थीं, ने वहाँ आते ही खुद को एक विजिटर चेयर पर सप्रयास टिकाया और संतुलित स्वर में बोला—‘आप ने ये काम करके हमारा दिल जीत लिया ज़कारिया साहब। मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि आपको अपने इस फैसले पर हमेशा गर्व होगा।’
‘शुक्रिया तापड़िया साहब’—ज़कारिया ने दांत चमकाए।
आगंतुक सज्जन तापड़िया था।
शहर की बिल्डर लॉबी का खलीफा।
शहर की बिल्डर लॉबी का कुनबापरस्त अभिमण्डित पैंतरेबाज़ ज़हीन खलीफा।
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Additional information
Book Title | Second Chance : सैकन्ड चांस by Kanwal Sharma |
---|---|
Isbn No | 97987177894942 |
No of Pages | 318 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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