साढ़े सती
“ट्रिन-ट्रिन....।”
पुलिस स्टेशन में एस. एच. ओ. के आफिस में टेबल पर रखे लाल रंग के फोन की घण्टी बजी।
टेबल के पीछे ऊंची पुश्त वाली चमड़ा मढ़ी कुर्सी पर बैठे इंस्पेक्टर शिवलाल ने टेबल पर खुली फाईल पर देखते
हुए ही बांह बढ़ा कर रिसीवर उठाया और कान से लगाते हुए बोला—
“जय हिन्द! इंस्पैक्टर शिवलाल, सिटी पुलिस स्टेशन स्पीकिंग।”
“मैं केशवदत्त बोल रहा हूं साहब। होटल नरुला का वेटर हूं।”
दूसरी तरफ से आई उत्तेजित आवाज को सुन कर शिवलाल चौंका तो नहीं—हां, उसके माथे पर बल जरूर पड़ गये।
फाईल से निगाहें हटा कर उसने कुर्सी की पुश्त से टेक लगाई और बोला—
“कहो।”
“म....मैंने उसे देखा है साहब।”
“किसे?”
“अर्जुन त्यागी को।”
“अर्जुन त्यागी!” शिवलाल बड़बड़ाया—साथ ही उसके माथे पर पड़े बल गहरे हो गये।
“कौन अर्जुन त्यागी?”
“कमाल है!” दूसरी तरफ से हैरानी भरी आवाज आई—“पूरे इंडिया में एक ही तो अर्जुन त्यागी है—जिस पर कई राज्यों की सरकारों ने लाखों का ईनाम रखा हुआ है—जिन्दा या मुर्दा।”
बुरी तरह से उछल पड़ा शिवलाल। कलेजे की धड़कनें एकदम से बढ़ गईं।
“त-तुम उस अर्जुन त्यागी की बात कर रहे हो—जो बेरहम हत्यारा है—जिसने कई डाके डाले हैं।”
“जी हां—मैं उसी की बात कर रहा हूं।”
“कहां है वह?”
“हमारे होटल में कमरा नम्बर दो सौ अस्सी में ठहरा है। उसके साथ उसकी मिसेज भी है।”
“गौरी?”
“नाम नहीं पता उसका मेरे को। हो सकता है गौरी ही हो—क्योंकि मैंने पत्रिकाओं में बस यही पढ़ा है कि उसकी एक जोड़ीदार है। जो उसकी पार्टनर है। उसके नाम पर मैंने कम ध्यान दिया है।”
“तेरे को पूरा यकीन है कि वह अर्जुन त्यागी ही है?” शिवलाल बोला—“कहीं ऐसा न हो कि वो अर्जुन त्यागी से मिलती-जुलती शक्ल का आदमी हो और तू उसे अर्जुन त्यागी समझ रहा हो?”
“नहीं साहब—वह वही है। मेरे को पूरा यकीन है और मैं उसे पहचानने में कोई गलती नहीं कर रहा।”
“ठीक है। तू उस पर नजर रख—मैं अभी फोर्स के साथ वहां पहुंच रहा हूं।”
“मेरा ईनाम?”
“उसको पकड़ा तो जाने दे। ईनाम भी मिल जायेगा तेरे को।”
“जी....।”
शिवलाल ने रिसीवर रखा और उछल कर खड़ा हो गया।
इस वक्त उसके चेहरे पर कई तरह के भाव एक साथ नजर आ रहे थे।
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“डिंग....डिंग....डिंग।”
मोबाइल का म्यूजिक बजा।
रतन शेट्टी ने जेब से मोबाइल निकाल कर उसकी स्क्रीन पर नजर मारी और फिर मोबाइल कान से लगाते हुए बोला—
“हां बोल सुखलाल—कोई खास खबर?”
“अर्जुन त्यागी यहां पर है भाई।”
“क्या?” बुरी तरह से चौंक उठा रतन शेट्टी—“त....तूने उसे पहचाना?”
“हां भाई—उसके साथ उसकी जोड़ीदार गौरी भी है।”
“कहां?”
“होटल नरुला में—अभी थोड़ी देर पहले ही वे यहां आये हैं।”
“यह तो बहुत बढ़िया खबर सुनाई तूने। तू वहीं है न?”
“हां भाई.....।”
“वहीं रह—मैं अभी जौहर को वहां भेजता हूं, तुम दोनों बात करो उससे—और उसे यहां मेरे पास लेकर आओ।”
“ठीक है भाई।”
रतन शेट्टी ने मोबाइल जेब में रखा और आवाज दी—“कोई है?”
तुरंत एक व्यक्ति भीतर प्रविष्ट हुआ।
“हुक्म भाई३!” उसने सिर को हल्के से झुकाया।
“जौहर को फौरन मेरे पास आने को बोल।”
आने वाले ने सिर हिलाया और उसकी तरफ पीठ करके दरवाजे से बाहर निकल गया।
रतन शेट्टी—अण्डरवर्ल्ड का डॉन। शायद ही कानून की किताब में लिखा कोई ऐसा अपराध हो जो उसने न किया हो।
चार साल पहले तक वह कई जेल-यात्रा कर चुका था। दो बार तो उसे लम्बी सजा भी हुई थी—मगर उसके बाद वह एक बार भी जेल नहीं गया । जेल-यात्राओं के दौरान उसने बहुत से अनुभव लिये थे—जिनमें सबसे बड़ा अनुभव यह था कि गुनाह करने से पहले सोचो और इस तरह से गुनाह करो कि पीछे कोई सबूत न रहे।
बस उसके बाद वह कभी भी जेल नहीं गया। हालांकि पुलिस कई बार उसके पास चक्कर लगा चुकी थी—मगर हमेशा उसे खाली हाथ ही वापिस लौटना पड़ा।
कई बार तो पुलिस को पक्का यकीन होता था कि फलां अपराध उसी ने ही किया है—लेकिन वह कुछ भी नहीं कर पाती थी—क्योंकि कोई सबूत ही नहीं था उसके पास।
और अब तो रतन शेट्टी काफी अमीर हो गया था। ऊपर से उसके सम्बन्ध भी काफी ऊपर तक हो गये थे। ऐसे में पुलिस का उस तक पहुंचना और भी मुश्किल हो गया था।
साधारण कद-बुत के रतन शेट्टी की आंखों में हलका नीलापन था—जो उसके चेहरे को कुछ हद तक रोबदार बनाता था। वर्ना उसमें ऐसा कुछ भी नजर नहीं आ रहा था, जिससे कि वह कोई पहुंचा हुआ डॉन लगे।
उसके सिर का आधा भाग बालों से मुक्त हो चुका था। दोनों कान में सोने की मुरकी (आदमी जो बाली पहनते हैं) थीं। कपड़े भी साधारण थे। साधारण-सी पेंट, ऊपर शर्ट, जो कि पैंट से बाहर थी। पेट थोड़ा निकला हुआ था।
शीघ्र ही एक ऊंचे कद का, चेहरे से खूंखार नजर आने वाला व्यक्ति कमरे में प्रविष्ट हुआ।
वह जौहर था।
“हुक्म भाई।” वह बोला।
“अभी के अभी नरुला होटल पहुंच—वहां सुखलाल मिलेगा तेरे को।”
“जी भाई।”
“अर्जुन त्यागी है होटल में।”
“अर्जुन त्यागी?” बुरी तरह से उछल पड़ा जौहर।
“उसके साथ उसकी जोड़ीदार गौरी भी है। सुखलाल तेरे को बतायेगा कि वह होटल में कहां है। तू सुखलाल के साथ उससे मिल। और उसे यहां ले के आ। यहां नहीं.....।” एकदम से अपनी ही बात को काटा उसने—“हुड्डा कालोनी वाली कोठी में ले के आ।”
“जी भाई।”
“चाहे उसके पैर पकड़ने पड़ें या गला पकड़ना पड़े—उसे हर हाल में ले के वहां पहुंचना है।”
“जी भाई।”
“मैं वहीं पहुंच रहा हूं—हुड्डा वाली कोठी में।”
“जी भाई।”
“निकल अब—और देर मत कर।”
जौहर ने सिर को हल्का-सा झुकाया और बाहर निकल गया।
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