अर्जुन त्यागी सीरीज
सांप का बच्चा
शिवा पंडित
देवी मंदिर के लंबे-चौड़े आंगन के फर्श पर लोगों की भीड़ लगी हुई थी। उस भीड़ में अमीर भी थे...गरीब भी थे और भिखारी भी थे।
एक तरफ दो तंदूर लगे हुए थे और तंदूरिए उनमें रोटियां लग रहे थे।
दोनों तंदूरों के बीच एक बड़ी टेबल लगी हुई थी...जिस पर गुंथे हुए आटे का ढेर लगा था और एक आदमी फटाफट उस गुंथे हुए आटे के पेड़े बनाकर टेबल पर बिखरे सूखे आटे पर रखता जा रहा था। उन्हीं पेड़ों से तंदूरिए हाथों से रोटी बनाकर बार-बार तंदूर की दीवारों से चिपका रहे थे। दोनों तंदूरियों के करीब एक-एक टोकरा पड़ा था...जिनमें कि पकी हुई रोटियां डाल रहे थे वो...।
दोनों के टोकरे पकी हुई रोटियां से भरे हुए थे।
उनसे थोड़ा, पीछे गैस के चूल्हे पर तीन बड़े-बड़े पतीले रखे हुए थे...जिनमें कि दाल तथा सब्जी बनी हुई थी।
साफ नजर आ रहा था कि वहां लंगर बंटने जा रहा था...। तभी तो वहां लोगों की इतनी भीड़ थी।
हालांकि ग्राउंड में एक तरफ पत्तियां बिछी हुई थीं लोगों के बैठने के लिए...मगर सिर्फ आठ-दस आदमी ही बैठे थे।
और उन्हीं आठ-दस आदमियों में बैठा था अपना हीरो कम विलेन कम हरामी...अर्जुन त्यागी।
दाढ़ी बढ़ी हुई...बाल बिखरे हुए...कपड़े मैले हुए...आंखों में वीरानापन...। अगर वह जींस और टी-शर्ट न पहने होता तो अवश्य ही इस वक्त वह भिखारी नजर आ रहा होता।
बस उसके कपड़े ही उसे भिखारी से जुदा कर रहे थे। वरना उसमें और भिखारी में कोई खास फर्क नहीं था।
आज तीसरा दिन था उसे पानी पर गुजारा करते हुए...। अन्न का एक दाना नहीं गया था उसके पेट में।
दिल्ली से भागते वक्त उसकी जेबों में दस हजार रुपये थे...लेकिन हाय री किस्मत...रास्ते में किसी करतबछाप ने उसकी जेबें साफ कर दीं।
ऊपर से वह ट्रेन में बिना टिकट सवार था।
जब बुरा वक्त आता है तो हर तरफ से मुसीबत सिर पर आ बैठती है।
यही हाल हुआ था उसके साथ।
मुंबई के सेंट्रल पहुंचने से पहले ही टिकट चैकर दो सिपाहियों के साथ उसके डिब्बे में आ चढ़ा।
उसने खुद को बचाने के लिए बहुत बार कहा कि उसकी जेब कट गई...जिसमें कि उसके पैसों के साथ टिकट भी थी।
लेकिन टी०सी० नहीं माना, और स्टेशन पर उतरते ही आठ-दस अन्य लोगों के साथ उसे भी रेलवे के थाने ले जाकर हवालात में बंद कर दिया गया।
गनीमत थी कि पुलिस को यह पता नहीं चला कि वह अर्जुन त्यागी है।
थाने में नाम पूछे जाने पर उसने खुद को अशोक कुमार बताया और दिल्ली के पास एक गांव का पता लिखवा दिया।
गांव का पता उसने इसलिए लिखवाया कि पुलिस वहां कोई मैसेज न भेज सके...। अगर वह दिल्ली का...या किसी बड़े शहर का पता बताता तो उसे कोई-न-कोई फोन नंबर भी बताना पड़ता...और पुलिस उस नंबर पर फोन कर सकती थी। यह कहने के लिए कि उनका लड़का बिना टिकट यात्रा करते पकड़ा गया है...और तब जाहिर था कि उसके झूठ की पोल खुल जाती है...जो कि उसके लिए मुसीबत बन सकती थी।
इसी वजह से उसने गांव का पता लिखवाया था और फोन नंबर पूछने पर यह कहा कि उसका फोन है ही नहीं...न ही पी०पी० नंबर है।
पकड़ा जाना उसकी बदकिस्मती थी...लेकिन उसकी यह खुशकिस्मती भी रही कि उस रोज सरकारी कार्यालय बंद थे और अगले तीन दिनों तक की छुट्टी थी।
यानी उसे अन्य बिना टिकटियों के साथ चौथे दिन अदालत में पेश किया जाना था...और तब उसे जेल भेजा जाता। तीन दिन उसे हवालात में ही गुजारने थे और उसे उम्मीद थी कि पकड़े गए अन्य लोगों के खैरख्वाह जरूर इस बीच कुछ ले-देकर अपने-अपने आदमियों को छुड़ा ले जाएंगे और हो सकता है उनके साथ वह भी छूट जाए।
बस यही उम्मीद थी उसे। वरना पंद्रह दिन तो जेल में रहना ही था उसे।
उसकी उम्मीद पूरी हुई और दो दिन बाद उसे भी अन्य के साथ छोड़ दिया गया।
जुर्माने की जो रकम अन्य लोगों के परिजनों ने भरी थी...उसे पुलिस वालों और टी०सी० ने आपस में बांट लिया था।
बस अर्जुन त्यागी ने ही जुर्माना नहीं भरा था।
ऐसे वक्त में उसकी कलाकारी काम आई थी।
वह टी०सी० के पैरों में गिर पड़ा था और रो-रो कर उसने उसके पैरों को धो डाला था।
किसी ने उससे यह पूछा कि—“मुंबई में उसका कोई रिश्तेदार है या नहीं...?”
“नहीं...।” उसके पैरों में पड़ा आंसू बहाते हुए बोला था अर्जुन त्यागी।
“फिर यहां क्या धार लेने आया था...?” इंस्पेक्टर ने पूछा था।
अर्जुन त्यागी ने उसकी तरफ देखा और रोते हुए बोला—“म...मैं यहां हीरो बनने आया था।”
“साले हीरो बनने आया है...और जेब में पैसा नहीं...।”
“मैं सच कहता हूं साहब...मेरे पास टिकट थी। दस हजार रुपये भी थे...लेकिन रास्ते में किसी ने जेब काट ली।”
“फिर बकवास कर रहा है साले।”
“मैं अपनी मरी हुई मां की कसम खाकर कहता हूं...मैं झूठ नहीं बोल रहा। मेरे कंधों पर मेरी दो जवान बहनों का बोझ है। मैं अपनी बहनों से वादा करके निकला था कि मैं छः महीने में हीरो बन जाऊंगा।”
“तेरे जैसे हीरो हर रोज हजारों की तादाद में यहां आते हैं और मुंबई की भीड़ में गुम होकर रह जाते हैं।” टी०सी० बोला था।
अर्जुन त्यागी ने अपने उल्टे हाथ से आंसू पोंछे और बोला था—“मुझे छोड़ दीजिए साहब...! भगवान आपका भला करेगा।”
कुल मिलाकर उसने उन्हें इतनी दुआएं दी थीं। कि टी०सी० और इंस्पेक्टर के दिल पिघला ही दिए थे उसने, और उन्होंने उसे छोड़ दिया था।
मन-ही-मन ऊपरवाले का शुक्र मनाते हुए वह थाने से निकल आया था।
मगर अब समस्या थी पेट भरने की।
रात से भूखा था वह।
रात को थाने में मिलने वाला रूखा-सूखा खाना खाया था उसने। उसके बाद से उसने कुछ नहीं खाया था। सुबह नाश्ता नहीं मिला था उसे।
और अब दोपहर का एक बज रहा था।
जेब में एक धेला नहीं था उसके...और पेट था कि रोटी-रोटी चिल्ला रहा था— और मुफ्त में तो मुंबई में बुखार भी नहीं मिलता।
सो वह रोटी का जुगाड़ करने में जुट गया।
और जुगाड़ वही ढूंढ रहा था वह...जो उसका काम था।
किसी शिकार की तलाश कर रहा था वो।
शाम हो गई...मगर उसे ऐसा कोई शिकार नजर नहीं आया...जिससे कि वह कुछ पैसा हासिल कर सके। आखिर आठ बजे उसने एक रिक्शावाले को रोका और उस पर सवार होते हुए बोला—“बालेजी गेट चलो।”
बालेजी गेट वहां से डेढ़ किलोमीटर दूर था...जहां आठ-दस मिनट में पैदल ही आसानी से पहुंचा जा सकता था।
लेकिन उसे तो खाना खाना था।
इसी वजह से वह रिक्शा में बैठा था।
बालेजी गेट से पहले ही उसने रिक्शा पोलर को एक गली में चलने को कहा।
रिक्शा गली में प्रविष्ट हुई।
अर्जुन त्यागी ने गली के अंत तक नजर दौड़ाई।
पूरी गली सुनसान थी।
“बस यही रोक दे।” वह बोला।
जैसे ही रिक्शा रुकी...अर्जुन त्यागी फौरन नीचे उतरा और रिक्शा वाले का कॉलर पकड़कर उसे बेदर्दी से नीचे गिराकर उस पर सवार हो, उसकी गर्दन को दबोच लिया।
यह सब कुछ इतनी तेजी से हुआ कि रिक्शा पोलर को संभलने का क्या चीखने का भी मौका नहीं मिला।
जाहिर था कि अर्जुन त्यागी उसे लूटने के इरादे से उसकी हत्या करने जा रहा था...ताकि उसकी जेब से सौ-पचास मिलें...वह उससे अपनी भूख को शांत कर सके।
मगर हाय री किस्मत...!
यहां भी दगा दे गई।
अभी वह रिक्शा पोलर का गला दबा ही रहा था कि करीब के घर का दरवाजा खुला और उसमें से पंद्रह-सोलह साल का एक लड़का निकला।
वहां का दृश्य देख वह बुरी तरह से डर गया और उसी डर से बहुत जोर-जोर से चीखने लगा।
उसकी चीखें सुन आसपास के घरों से लोग निकलने लगे।
नतीजा—
अर्जुन त्यागी को मजबूरन रिक्शा पोलर की गर्दन छोड़नी पड़ी। वह उसके ऊपर से उठा और पूरी शक्ति से वहां से भागा।
वह जानता था कि अगर वह पब्लिक के हत्थे चढ़ गया तो उसकी वह हालत होगी...जिसकी कि वह कल्पना भी नहीं कर सकता।
कुछ लोग उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे भागे, लेकिन अर्जुन त्यागी उनसे तेज निकला और वहां से भाग निकलने में कामयाब रहा।
खुद को सुरक्षित महसूस कर उसने अपने कदम रोके और फुटपाथ के अंत में बनी रेलिंग के साथ लगकर वह बुरी तरह से हांफते हुए अपनी सांसों को दुरुस्त करने लगा।
उसका सीना धौंकनी की तरह ऊपर-नीचे हो रहा था।
काफी देर बाद जाकर उसने अपनी सांसों पर काबू पाया और फिर वहां से हटकर आगे बढ़ गया।
एक सरकारी नल से पानी पीकर उसने अपने पेट को समझाया और नए शिकार की तलाश करने लगा।
मगर शिकार नहीं मिला उसे।
वह रात गुजर गई।
उसे अगली और उससे अगली रात भी उसे भूखा रहना पड़ा।
अब तो उसकी अंतड़ियां कुलबुलाने लगी थीं।
चेहरा कमजोर होने लगा था।
तीन दिन हो गए थे उसे भूखा रहते हुए। अब तो किसी शिकार को अगर वह ढूंढ भी लेता तो उस पर काबू पाना उसके लिए बेहद ही मुश्किल होता।
इतना कमजोर हो चुका था।
उसे ऐसा लग रहा था कि उसकी मौत ऐसे ही भूख से होगी।
अपनी ऐसी मौत की कल्पना करके ही वह कांप उठा था।
लेकिन ऊपर वाले को अभी उसकी जरूरत नहीं थी...! तभी तो उसने उसे पेट भरने का रास्ता दिखा दिया था।
वह पैदल ही फुटपाथ पर आगे बढ़ रहा था।
उसके कदमों में हल्की-सी लड़खड़ाहट उभर आई थी। चेहरा भी थका हुआ और कमजोर नजर आ रहा था।
तभी उसकी नजर इस देवी मंदिर में प्रवेश कर रहे लोगों पर पड़ी।
वह मंदिर के गेट के करीब आया तो उसे गेट के बराबर में दीवार पर लगे पर्दे पर लिखा नजर आया—
विशाल भंडारा
आप सभी आमंत्रित हैं।
अर्जुन त्यागी के चेहरे पर उम्मीद की किरण जागी।
उसने अपने कदम आगे बढ़ाए और पब्लिक के साथ वह भीतर प्रवेश कर गया।
और अब वह मैट पर बैठा लंगर मिलने का इंतजार कर रहा था।
लोगों की भीड़ में खड़ा होकर रोटियां झपटने की ताकत नहीं रही थी उसमें...सो वह चुपचाप मैट पर जा बैठा था। जहां आठ-दस आदमी और भी बैठे थे।
तभी मंदिर के भीतर से एक आदमी दाल का और सब्जी का कटोरा उठा बाहर निकला और चलता हुआ पतीलों के करीब आ पहुंचा...जहां पहले से ही तीन आदमी खड़े थे।
उसे देखते ही उन तीनों ने पतीलों के ढक्कन सरका दिए।
आने वाले ने सब्जी और दाल उन पतीलों में डाली और कटोरे एक तरफ रख दिए।
माता को भोग लगाकर आया था वह।
वह पब्लिक की तरफ मुड़ा और ऊंचे स्वर में बोला—
“सभी पट्टियों पर बैठ जाएं...तभी लंगर मिलेगा।”
उसकी बात सुनते ही भीड़ ऐसे छंटी जैसे मक्खियों के झुंड में किसी ने कंकड़ फेंक दिया हो।
अभी मेट्स की तरफ ऐसे झपटे...जैसे उन्हें डर हो कि अगर उन्हें जगह नहीं मिली तो उन्हें लंगर नहीं मिलेगा।
और फिर लंगर शुरू हुआ।
पहले सबके आगे थर्माकोल की बनी थालियां रखी गईं...दाल की बाल्टी उठाए हुए कड़छी से सबको थाली में बनी कटोरियों में दाल डालने लगा...फिर ऐसे ही सब्जी वाला आया और अंत में रोटियों वाला सबके आगे रोटियां रखने लगा।
अर्जुन त्यागी की थाली में जैसे ही रोटियां आईं...वह भूखे कुत्ते की तरह रोटियों पर टूट पड़ा।
हब्शियों की तरह वह ऐसे रोटी खा रहा था जैसे तीन-चार दिन की रोटी एडवांस में खा रहा हो।
आधा घंटा तक वह लंगर खाता रहा।
दाल और सब्जी स्वादिष्ट बनी थी...ऐसे में वह सचमुच जरूरत से ज्यादा खा गया था।
पेट की क्षुधा शांत कर उसने अपनी थाली उठाई उठकर उधर बढ़ गया जहां पर कि ऐसी थालियां फेंकी जा रही थीं।
अर्जुन त्यागी ने भी अपनी थाली फेंकी और फिर करीब ही लगे नल की तरफ बढ़ा।
वहां उसने पानी पिया।
एक लंबी डकार ली उसने...जैसे पेट उसका शुक्रिया अदा कर रहा हो और उसी के साथ ही उसकी आंखों में खुमारी भरने लगी।
रोटी का नशा हो गया था उसे...आंखें बोझिल होने लगी थीं।
थोड़ा आराम करने की चाह में उसने इधर-उधर नजर दौड़ाई तो अपने दाईं तरफ उसे एक पार्क नजर आया।
वह आगे बढ़ा और पार्क में जाकर एक तरफ हरी घास पर लेट गया।
लेटते ही उसे नींद ने धर दबोचा...और वह गहरी नींद में सो गया।
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