सन्नाटे की मौत
दिनेश ठाकुर
मैं एकदम सही वक्त पर कैनेडी ब्रिज पहुंची थी।
किन्तु!
आशिक अली अभी तक वहां नहीं आया था और न ही मुझे उस लड़की के दीदार हुए थे, जिसका नाम आशिक अली ने शिप्रा बताया था।
शिप्रा सिन्हा!
बस इसके अलावा आशिक अली ने शिप्रा सिन्हा के बारे में और कुछ भी नहीं बताया था कि वो वक्त की सताई, रहम के काबिल, एक परियों-सी हसीन युवती थी। जिसकी उम्र बामुश्किल उन्नीस साल होगी।
और मैंने किसी मामले में उसकी मदद करनी थी।
शिप्रा सिन्हा पर एकाएक कौन-सा आसमान टूट पड़ा था? या फिर उसे किस किस्म की मदद की जरूरत आ पड़ी थी? इस बारे में कमबख्त ने एक लफ्ज भी तो नहीं कहा था।
केवल इतना ही नहीं, उसने बगैर मुझसे पूछे शिप्रा से मेरी मदद हासिल कराने का पक्का वादा भी कर लिया था तथा आज शाम पांच बजे उसे कैनेडी ब्रिज पर बुला भेजा था।
बाद में मेरा जूनियर एजेन्ट आशिक अली मेरे पैरों पर गिरकर इस कदर गिड़गिड़ाया था कि मुझे उस पर दया आ ही गई थी और न चाहते हुए भी उसकी रिक्वेस्ट मानने के लिये मजबूर हो गई थी।
परिणामस्वरूप!
मैं नियत समय पर आशिक अली की बताई जगह पर पहुंच गई थी।
मगर....!
जिसकी फरियाद पर मैं वहां पहुंची थी और जिसे मदद की जरूरत थी, यानि वो लड़की शिप्रा, उन दोनों का अभी तक दूर-दूर तक कोई अता-पता नहीं था।
आशिक अली ने शिप्रा सिन्हा को साथ लेकर वहां आने के लिये कहा था, लेकिन वह पट्ठा अभी तक आया नहीं था।
शिप्रा सिन्हा को आशिक अली कैसे जानता था और उसे उससे इतनी हमदर्दी क्यों हो गई थी? यह मैंने आशिक अली से नहीं पूछा था, न ही पूछने की जरूरत थी।
इसकी वजह आशिक अली की बदनाम ‘आशिकी’ थी।
जिससे कि मैं खूब अच्छी तरह वाकिफ थी।
और अकेला आशिक अली तो खुद अपनी ही मदद नहीं कर सकता था, किसी और की मदद तो वो क्या करता।
खासतौर से अपनी माशूकाओं की जमात की।
क्यों?
इसका जवाब आपको बखूबी मालूम होगा।
मुझे भूलने का तो सवाल ही नहीं उठता है। मैं हूं रीमा....रीमा भारती! आई.एस.सी. अर्थात् इण्डियन सीक्रेट कोर की नम्बर वन एजेन्ट! मां भारती की उद्दण्ड किन्तु लाडली बेटी! दुश्मनों की मौत और दोस्तों के सपनों की रानी! और मुझे पूरी उम्मीद है कि आप मेरे इस कांर्टूननुमा जूनियर एजेन्ट आशिक अली को भी भूले नहीं होंगे।
उसका साढ़े छ: फुट से निकलता खजूर सरीखा कद, मगर सिंगल चैसिस का सींख-सलाई जिस्म खेत में खड़े किसी गन्ने की याद ताजा कर देता था।
उस पर तुर्रा ये कि वो हमेशा टांगों से चिपकी जींस और चुस्त शर्ट पहनता था।
उसके सिर पर हमेशा गोल हैट रहता था।
पैरों में नौ नम्बर के भारी जूते जिस पर मैंने आज तक पालिश नहीं देखी थी।
उसके लिबास भी आमतौर पर मैले-कुचैले रहते थे।
और बातें।
बातों के मामले में तो उसका अंदाज ही निराला था।
वो पट्ठा कोई भी बात सीधी कहने का आदी नहीं था।
बात की टांग मरोड़कर बोलने की उसे मानो बीमारी थी। मुझे याद नहीं पड़ता था कि उसने कब मेरा नाम ठीक-ठीक लिया था।
वो कार्टून सरीखा ‘जीव’ इतना तगड़ा भी था कि यदि मैं उसे एक करारा घूंसा जड़ देती तो एक-दो किलोमीटर तक फुटबाल बने रहने के बाद कहीं जाकर जमीन पर गिरता।
किन्तु वो स्वयं यह मानने के लिए हरगिज भी तैयार नहीं होता।
ऐंठ और अकड़ तो जैसे उसकी रग-रग में समायी हुई थी। वो समझता था कि उससे बड़ा सूरमा इस दुनिया में दूसरा पैदा ही नहीं हुआ।
हैरानी की बात तो यह थी कि ऐसा अजीबो-गरीब शख्स आशिकी के मामले में खासा बदनाम था।
सोलह से बीस साल की कुंवारी कन्यायें तो उस पर जान छिड़कती थीं।
हिन्दुस्तान के हर शहर, हर कस्बे में उसकी दो-चार कड़क जवान लड़कियों से आशिकी निकल ही आती थी।
जोकि मेरे लिये या फिर किसी के भी लिये एक रिसर्च का सब्जेक्ट था।
और उसकी आशिकी में जब-जब मेरा दखल हुआ था, मैं किसी बखेड़े में जा फंसी थी।
ऐसा बखेड़ा जिसने मुझे तौबा करने के लिये मजबूर कर दिया था।
आज भी जब से आशिक अली ने मुझे शिप्रा के बारे में बताया था, तो रह-रहकर मेरे दिमाग में यही आशंका सिर उठाने लगती थी
कि उस कमबख्त आशिक अली की आशिकी आज कहीं फिर तो मुझे बखेड़े में फंसाने वाली नहीं थी।
मैंने पुन: अपनी रिस्टवॉच पर निगाह डाली।
शाम के सात बज चुके थे।
रात का पहला पहर शुरू हो चुका था।
मुम्बई नगरी रोशनी से जगमगाने लगी थी।
और....!
मेरी बेचैनी हद से ज्यादा बढ़ गई थी।
इन्तजार के लम्बे होते पलों ने मुझे बेहद व्याकुल कर दिया था।
मुझ पर किसी हद तक झुंझलाहट हावी होने लगी थी और आशिक अली पर तो मैं मन ही मन बुरी तरह खीझ रही थी।
इन्तजार की भी हद होती है।
लापरवाही की भी एक सीमा होती है।
उसूलन तो उसे ही शिप्रा सिन्हा को लेकर यहां पहले से आ जाना चाहिये था। मुझसे भी पहले।
लेकिन दिये हुए वक्त से वो पूरे दो घंटे लेट हो चुका था और अभी भी उसका कोई अता-पता नहीं था।
मैंने किसी तरह अपने गुस्से पर काबू पाया और एक सिगरेट सुलगा ली।
वक्त पल-पल करके गुजरता रहा।
आखिरकार आठ बज गये।
मगर....!
मुझे आशिक अली अथवा शिप्रा सिन्हा के दीदार नहीं हुए।
मेरा मूड बुरी तरह उखड़ गया था।
अब उन दोनों के इन्तजार में वहां रुकना सिवाय बेवकूफी के और कुछ नहीं था।
फिर मन ही मन आशिक अली को हजारों गालियां देते हुए मैं अपनी कार में सवार हुई और उसे स्टार्ट करके मेन रोड पर ले आयी।
गुस्से और झुंझलाहट से मेरा बुरा हाल था।
सच तो ये था कि यदि उस वक्त आशिक अली मुझे नजर आ गया होता तो मैंने मार-मारकर उसका कचूमर बना दिया होता।
क्रोध और झुंझलाहट से गीली लकड़ी की तरह सुलगती हुई मैं सीधी अपने फ्लैट पर पहुंची।
बीच रास्ते में कहीं रुककर मैंने रात का खाना भी नहीं खाया।
रेफ्रिजरेटर में व्हिस्की की एक खुली हुई बोतल भी मौजूद थी। मैंने वो बोतल भी ‘नीट’ ही खाली कर दी। व्हिस्की के ओवरडोज ने जल्दी ही अपना असर दिखाया और मैं सब कुछ भूलकर गहरी नींद के हवाले हो गई। दूसरे शब्दों में यदि कहा जाये तो घोड़े बेचकर सोई थी मैं।
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