अर्जुन त्यागी सीरीज
सब पे भारी एक हरामी
शिवा पण्डित
“क्यों छेड़ रहा है ताऊ को...। मत दिला उसे गुस्सा...। अगर उसे गुस्सा आ गया तो न तो तू बचेगा...। न तेरा खानदान...। ताऊ को पता है कि कौन-कौन है तेरे खानदान में...। तेरी मां...तेरे दो बच्चे...जिनमें से एक आठवीं में पढ़ता है...और दूसरा पांचवीं में...। दोनों सेंट मेरी स्कूल में पढ़ते हैं...। तेरी बीवी या तो घर में ही रहती है...या फिर क्लब में। गोयल क्लब की मैम्बर है न वो? तेरी छोटी बहन इसी शहर में लक्ष्मी नगर के मकान नम्बर 308/7 में ब्याही हुई है...तेरा जीजा हैंडलूम का कारोबार करता है...और तेरी बहन के भी दो बच्चे हैं...।”
“य...यह सब कैसे पता चला तुम्हें?”
“मेरे को नहीं, ताऊ को पता है यह सब...इसके अलावा तेरी एक माशूका भी है...जो जानी रोड पर रहती है। रानी नाम है न उसका...?”
“ह...हां...।”
“अब सोच...अगर ताऊ एक-एक करके तेरे सारे कुनबे को खत्म कर दे तो तेरा क्या होगा...।”
“...।”
“समुद्र में रह कर मगर से बैर नहीं किया करते साहूकार...। तू अभी कल का पैदा हुआ अपराधी है...जबकि तेरे से ज्यादा तजुर्बेकार तो ताऊ के शहजादे हैं। इसलिए स्याना बन...ताऊ के पास जा और उससे अपने किये की माफी मांग कर उसे नजराना पेश कर।”
“...।”
“काली कमाई के इस समुद्र में रहना है तो तेरे को ताऊ को नजराना देना ही होगा। या फिर तू इस समुद्र से ही निकल जा...और अगर तू काली कमाई भी करना चाहता है और नजराना भी नहीं देना चाहता तो फिर तेरा और तेरे खानदान का भगवान ही मालिक है।” एक गहरी सांस छोड़ने की आवाज आई...फिर वही आवाज पुनः उभरी—“ताऊ तो तेरे को संभलने का मौका ही नहीं देना चाहता था। वो तो तू मेरा अहसान मान...जो मैंने ताऊ को जैसे-तैसे तेरे को एक मौका देने के लिए राजी कर लिया...। अब मैं ताऊ की तरफ से तेरे को समझाने आया हूं...और जवाब भी मेरे को अभी ही चाहिए...हां या न।”
कुछ पलों की खामोशी...फिर दूसरी आवाज आई—
“मैं जहां भी जाता हूं अकेला नहीं जाता...यहां भी बाहर मेरे पांच आदमी खड़े हैं...जो मेरे सिर्फ एक इशारे पर तुम्हारे जिस्म के परखच्चे उड़ा कर रख देंगे।”
“तो मैं तेरी तरफ से इंकार समझूं?” पहली आवाज में गुर्राहट उभर आई।
“न...नहीं...। मैंने सिर्फ यह कहा है कि बेशक मैं ताऊ जैसा ताकतवर नहीं...लेकिन मरा हुआ भी नहीं हूं। अगर ताऊ मेरा नुकसान करेगा तो हाथ-पैर तो मैं भी हिलाऊंगा।”
“तू ताऊ की ताकत को बहुत कम करके आंक रहा है रघुनाथ...।” पहली गुर्राहट—“जब ताऊ का तेरे पर हमला होगा तो न तू और न ही तेरे आदमी कुछ कर पायेंगे...तू बस हाथ-पर-हाथ धरे अपनी तबाही का मंजर देखता रहेगा...और पछताता रहेगा कि तूने मेरी बात क्यों नहीं मानी...। रही मेरी बात कि तू मेरे परखच्चे उड़ा सकता है तो यह बात अपनी गांठ में अभी बांध ले कि ताऊ का हर गुलाम हर वक्त अपने सिर पर कफन बांधे रहता है। इसलिए मुझे मौत की धमकी मत दे।”
“मैं तुम्हें धमकी नहीं दे रहा नागपाल....।” रघुनाथ की आवाज—“मैं तो यह बता रहा हूं कि ताकत मेरे पास भी है...और मैं यह भी स्वीकार करता हूं कि मेरी ताकत ताऊ की ताकत का बीसवां हिस्सा भी नहीं...। यानि जो कुछ तू कह रहा है...ताऊ वो आसानी से कर सकता है।”
“तो फिर क्या कहता है तू?”
“कहना क्या है...। जाना ही पड़ेगा ताऊ के पास...।” रघुनाथ की आवाज—“लेकिन...।”
“लेकिन क्या...?”
“नजराना क्या देना होगा?”
“कमाई का तीसरा हिस्सा...।”
“य...यह तो बहुत ज्यादा है।”
“बदले में ताऊ भी तेरे को बेफिक्र रहने का आशीर्वाद देगा...तेरे को मुसीबतों से बचायेगा।”
“ठीक है...।” रघुनाथ की गहरी सांस छोड़ने की आवाज—मुझे मंजूर है...लेकिन मैं अभी ताऊ के पास नहीं जाऊंगा।”
“क्या मतलब?”
“समझने की कोशिश करो नागपाल...इतने बड़े मगरमच्छ के पास जाऊंगा तो मांस भी तो ढेर सारा होना चाहिये न। यूं पांच-चार लाख लेकर जाऊंगा तो मेरी औकात तो घटेगी ही...साथ में ताऊ भी नाराज होगा...। चूंकि पहला नजराना है...इसलिए ताऊ को तुम्हारी तरफ से पेश करूंगा।”
“कितना...?”
“पांच लाख।”
“ठीक है...दो...।”
“कमाल कर रहे हो...। रुपये क्या जेब में डाल कर आया हूं मैं। तुम मुझे अपना पता बता दो...रात को आठ बजे तुम्हारे पास पांच लाख पहुंच जायेंगे। मेरी तरफ से तुम ताऊ से माफी मांग लेना और कहना कि शीघ्र ही मैं बड़ा नजराना लेकर उनके पास पहुंच जाऊंगा।”
“सरोजपुरी में फ्लैट नम्बर एक सौ ग्यारह-ए मेरा है...।” नागपाल की आवाज—“रात आठ बजे मैं वहीं मिलूंगा।”
“ओ०के०...रात ठीक आठ बजे तुम्हारे पास पांच लाख पहुंच जायेगा।”
¶¶
एक भयानक मुस्कान रेंग गई अर्जुन त्यागी के होठों पर।
आंख में हजारों काले नाग अपने फन उठाये लहराते नजर आने लगे।
चेहस ऐसे चमकने लगा...जैसे भेड़िये को उसका मनपसंद शिकार नजर आ गया हो।
वह दीवार के पास से हटा और पीछे हटते हुए कमरे के दरवाजे की तरफ बढ़ा। राजनगर से भागकर वह सीधा यहां दिल्ली में पहुंचा था।
राजनगर में साठ साल की रण्डी से उसका बड़ा ही कड़ा मुकाबला हुआ था। वह तो यह समझ रहा था कि जो प्लान बना रहा है...वो वह बना रहा है। करोड़ों की दौलत हासिल करने का उसने ऐसा शानदार प्लान बनाया था कि उसे अपने प्लान के कामयाब होने का पूरा विश्वास था...। लेकिन उसे यह नहीं पता था कि जो प्लान वह बना रहा है...वो उस 'साठ साल की लोमड़ी' के दिमाग की उपज है।
बस एक छोटी-सी गलती हो गई थी उस बुढ़िया से...और उसकी वही गलती उसके लिये जानलेवा साबित हुई। वर्ना वो तो न सिर्फ सारी दौलत हथियाने के करीब पहुंच चुकी थी...बल्कि अर्जुन त्यागी की जान का भी सौदा कर चुकी थी।
लेकिन अपनी उस छोटी-सी गलती की वजह से वह अर्जुन त्यागी के हाथों मारी गई।
लेकिन मामा ने पुलिस को अर्जुन त्यागी के बारे में बोल दिया...और अर्जुन त्यागी को सिर पर पैर रखकर वहां से भागना पड़ा था।
राजनगर से उसे जो भी ट्रेन मिली...वह उसमें सवार हो गया।
उस ट्रेन ने उसे सीधा नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुंचा दिया।
दिल्ली में वह पहले भी तीन-चार वारदात कर चुका था।
सो वह दिल्ली से अच्छी तरह से वाकिफ था। अब कि बार वह दिल्ली में छह महीने बाद आया था।
इतने वक्फे में दिल्ली के अंडरवर्ल्ड में क्या-क्या उलट-फेर हुए थे...उसे नहीं पता था, और न ही उसे यह सब जानने की जरूरत थी।
उसने तो यही फैसला किया था कि किसी करोड़ोंपति आसामी को ताडूंगा...। उसे फांसूंगा...और फिर उसकी तमाम दौलत पर कब्जा करके उसे खत्म कर दूंगा।
यह काम उसे अंडरवर्ल्ड के दादाओं से लड़ने से काफी आसान लगता था। इसमें दिमाग ज्यादा लगता था...और ताकत कम।
और दिमाग के तो भंडारे भरे पड़े थे उसके पास। रही ताकत की बात...तो ताकत की भी कमी नहीं थी उसके पास...लेकिन फटाफट करोड़ों कमाने का यह तरीका उसे आसान लग रहा था...और जब आसान रास्ता सामने हो तो मुश्किल रास्ते को पकड़ने की क्या जरूरत...।
लेकिन...।
जब किस्मत में ही मार-काट लिखी हो तो उससे कैसे बचा जा सकता है।
स्टेशन से निकल कर वह पैदल ही पहाड़गंज की तरफ बढ़ गया। उसे पता था कि वहां कैलाश होटल है...जो कि थ्री स्टार की फैसेलिटी देता है।
आज का दिन आराम करना चाहता था वो...। सो वो सीधा होटल जा पहुंचा।
उस वक्त होटल में हल्की-फुल्की रिपेयर चल रही थी...। सो जो कमरा उसे मिला...उस कमरे के बराबर वाले कमरे की लगती दीवार पर एक-दो स्थानों पर हल्का-हल्का प्लास्टर उखड़ रहा था...और एक जगह तो छोटा-सा गड्ढा भी बना हुआ था।
होटल की रिसेप्शनिस्ट ने पहले ही उसे बता दिया था...सो उसे भला क्या एतराज हो सकता था।
तांक-झांक की आदत तो थी ही उसे...सो उसने सीधा गड्ढे की तरफ रुख किया।
गड्ढे के नीचे आकर उसने ऐड़ियां उचकाईं और उस गड्ढे में देखा।
साथ वाले कमरे का एक हिस्सा नजर आया उसे।
उसी हिस्से से वह समझ गया कि वह कमरा खाली है। कोई नजर ही नहीं आया था उसे।
सो वह बेड पर आकर लेट गया।
लेटते ही उसने आंखें बंद कीं और सोचों में डूब गया कि वो किस-किस जगह पर अपने शिकार की तलाश करे। अभी वह यह सब सोच ही रहा था कि तभी उसे गड्ढे में से खटके की आवाज आई...जैसे कोई कुर्सी खिसकाई गई हो।
मगर उसने उस पर गौर नहीं किया।
वह पूर्ववत् ही आंखें बंद किये लेटा रहा।
और फिर जब उसे दूसरे कमरे से आवाजें सुनाई दीं तो वो एकदम से उछल कर खड़ा हो गया।
बातें उसके मतलब की थीं...ऐसे में वो कैसे रुक सकता था। सो वो तुरंत ही दीवार से आ लगा और दूसरी तरफ से आने वाली आवाजों को कान लगा कर सुनने लगा।
दूसरे कमरे से आ रहीं बातों से वह इतना तो समझ ही गया कि ताऊ नाम का एक गैंगेस्टर है...जिसका दबदबा पूरी दिल्ली...या दिल्ली के किसी खास इलाके में चलता है...और उसके इलाके में रघुनाथ नाम के किसी आदमी ने दो नम्बर के कारोबार की शुरूआत की है...जो ताऊ को बर्दाश्त नहीं हुआ...और उसने नागपाल नाम के अपने आदमी को उससे टैक्स वसूलने के लिये भेजा है।
दूसरी तरफ से आ रहीं बातों के दौरान ही उसने एड़ियां उचका कर दूसरे कमरे में झांकने की कोशिश की थी...।
उस छोटे से गड्ढे में से उसे बस रघुनाथ का ही चेहरा नजर आया था।
नागपाल नजर नहीं आया था उसे।
रघुनाथ करीब पैंतीस साल का भरे हुए जिस्म वाला व्यक्ति था...जिसने फ्रेंचकट दाढ़ी रखी हुई थी...उसके बाल पीछे की तरफ थे जोकि उसके कंधों तक पहुंच रहे थे।
उस वक्त उसने क्रीम कलर का पैंट-कोट पहन रखा था...जिसके नीचे नीले रंग की शर्ट काफी जंच रही थी। रघुनाथ को उसने उसकी आवाज से पहचाना था। नागपाल उसे रघुनाथ कहकर बुला रहा था। सो वो रघुनाथ ही हुआ।
एक बार उसे देखकर उसने अपनी एड़ियां जमीन से लगाईं और दोनों की बातों को सुनने लगा।
पांच लाख की बात सुनते ही उसकी राल टपक पड़ी।
बेशक पांच लाख उसके लिए कोई बड़ी रकम नहीं थी...लेकिन जब मुफ्त में पांच लाख हासिल हो रहे हों तो उन्हें छोड़ा क्यों जाये।
सो वो दरवाजे के करीब पहुंचा...और आहिस्ता से सिटकनी गिराकर उसने दरवाजे को इतना ही खोला कि वो उसमें आंख लगाकर बाहर देख सके।
नागपाल के दर्शन करना चाहता था वो...लेकिन दर्शन नसीब नहीं हुए उसे।
उसके सामने ही दरवाजा खुला और उसमें से दो आदमी निकल कर उसकी तरफ पीठ किये सीढ़ियों की तरफ बढ़ गये।
उनमें से एक तो रघुनाथ था...जोकि क्रीम कलर का सूट पहने था।
दूसरे ने ग्रे कलर की जींस पहन रखी थी...और ऊपर जैकेट भी जीन्स के कपड़े की पहनी थी।
मगर चेहरा नहीं देख पाया उसका, जोकि नागपाल था।
उसकी निगाह ने सीढ़ियों तक उनका पीछा किया...। फिर जब वे सीढ़ियां उतरते हुए गायब हो गये तो गहरी सांस छोड़ते हुए उसने अपना चेहरा पीछे किया और दरवाजा बंद कर सिटकनी चढ़ा कर वापिस बैड पर आ लेटा।
सामने दीवार पर लगे वॉल क्लाक पर उस वक्त ठीक चार बज रहे थे।
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