रावण शरणम् गच्छामि
एक अद्भुत दृश्य!
रत्नजड़ित स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान दशानन।
दस सिर....हर सिर पर स्वर्णमुकुट....चेहरे पर दर्प....आंखों में अग्निज्वाला। श्याम वर्ण। काकपक्ष ग्रीवा पर लहरा रहे थे, कमर में कृष्ण जिन, कन्धे पर धनुष-तुणीर, हाथ में परुषु, कमर में लटकता खड्ग, विशाल वक्ष, बड़ी-बड़ी आंखें, प्रशस्त ललाट, कुंचित भृकुटि, केहरि-सी कटि, कठोर पिण्डलियां। अभय मुद्रा सुहासित अभिनन्दित मुखश्री। शरीर पर रत्नमणियों से जड़ित वस्त्र एवं आभूषण।
"मैं रावण हूं...दशानन रावण....।" उसकी आवाज में घनगरज थी।
"मैं राम हूं...पुरुषोत्तम राम।" उत्तर दिया।
एक कर्णभेदी अट्टहास।
"अरे मूरख! तू राम नहीं, एक अदना-सा मनुष्य है। शायद तू स्वयं देख रहा है। अगर तुझे अपने बारे में याद नहीं तो मैं बता देता हूँ। तू एक तुच्छ मानव है। तेरा नाम केशव पण्डित है। कानून की चंद किताबें पढ़कर कुछ कानूनी नुस्खे जानने के बाद तू वकील बन गया। चंद छोटे-मोटे अपराधियों को पकड़कर तूने उन्हें सजायें दिलायीं, बस इसी से तेरी शोहरत हो गयी और तुझे लोग दिमाग का जादूगर मानने लगे।"
“तू भी एक बड़बोला मुजरिम है। यह सोने का सिंहासन...यह रत्नजड़ित वस्त्र-आभूषण और दस नकली सिर लगाकर अपने आपको लंकापति समझ रहा है। अगर तू किसी गलतफहमी में पड़कर अपने को रावण मानने लगा है तो मुझे खुद को राम बताने में कोई ऐतराज नहीं होगा...।"
“राम कभी रावण का बन्दी नहीं बना और तू मेरा बन्दी है।”
"कौन किसको बन्दी बनायेगा यह तो वक्त ही बतायेगा। एक वक्त ऐसा आयेगा जब मैं तेरे इन दसों सिरों को काटकर फेंक दूंगा और तुझे जेल की सलाखों में पहुंचा दूंगा।"
"हा....हा....हा...।"
उसने बड़ा भयंकर ठहाका लगाया।
“अरे मूरख...तू इस वक्त मेरी स्वर्ण लंका में आ गया है। इस स्वर्ण लंका की तलाश में हजारों लोग अब तक अपनी जानें गंवा चुने हैं। मानव जाति का तू प्रथम मनुष्य है जो कलयुग में मेरी इस स्वर्ण लंका तक पहुंचने में सफल हो गया। रावण तो अमर था...अमर है और अमर रहेगा। राम ने जिस रावण का वध किया था, वह मैं नहीं था—मेरा एक प्रतिरूप था। मैं तो अपनी स्वर्ण लंका सहित समुद्र के गर्भ में समा गया और आज भी यहीं मौजूद हूं। एक अदृश्य संसार में रहकर मैं नयी सृष्टि की रचना में संलग्न हूं। यह एक ऐसी सृष्टि होगी...जहां मेरा विधान कार्य करेगा...और जितने भी पंथ हैं वह सब समाप्त हो जायेंगे। हर मानव एक ही मंत्र का जाप करेगा—"रावण शरणम् गच्छामि।"
कुछ पल रुककर वह बोला—
"और चूंकि तू प्रथम मनुष्य है जो यहां पहुंच गया है, जिसने रावण के साक्षात् दर्शन प्राप्त कर लिये हैं, इसलिये मैं तुझे
मृत्युदण्ड नहीं दूंगा वरन् तुझे साक्षी बनाऊंगा। तू प्रलय देखेगा, नयी सृष्टि की रचना होते देखेगा, एक मूक दर्शक की तरह...।"
"तुझसे पहले भी न जाने कितनों ने यह सपने देखे हैं। कितने ही आये और चले गये, इस सृष्टि में ईश्वर बनने की फसल उगती ही रहती है और कटती रहती है। तेरा भी कटान हो जायेगा।"
"मूर्ख मनुष्य....तू मुझे कोई पाखण्डी समझता है....देख....देख...।"
उसने अपना एक हाथ हवा में बुलन्द किया।
होठों में कुछ पढ़ा और फिर एक खड्ग उसके हाथ में आ गया।
"यह वह खड्ग है जो शिव ने मुझे वरदान में दिया था— चन्द्रहास....यह अकेला ही खड्ग पूरी पृथ्वी में प्रलय मचा सकता है....पलटकर देख....तेरे पीछे सैनिकों की कतार खड़ी है।"
केशव ने मुड़कर देखा।
केशव पण्डित किसी बन्धन में नहीं था। उसके पीछे सैनिकों की कतार खड़ी है। सैकड़ों फुट का लम्बा-चौड़ा, स्वर्ण दीवारों का
दरबार था, जो दिव्य प्रकाश से आलौकिक हो रहा था।
रावण ने चन्द्रहास छोड़ दिया।
खड्ग सनसनाता हुआ लपका। उससे एक भयंकर पुकार-सी पैदा हो रही थी।
फिर पलक झपकते ही उसने वहां उपस्थित सभी सैनिकों के सिर अलग कर दिये, रक्त से नहाया खड्ग वापस रावण के हाथ में आ गया और फिर अदृश्य हो गया।
"सुन केशव पण्डित! हजारों वर्ष की तपस्या और साधना के उपरान्त मैं सृष्टि विजेता बना हूं। तूने अभी केवल चन्द्रहास देखा है जो मेरी मानसिक तरंगों से वार करता है। मेरे पास पैशाचास्त्र, मोहनास्त्र, प्रस्वादनास्त्र,वर्षास्त्र, शोषणास्त्र, संतापनास्त्र, दिव्यानास्त्र, भावनास्त्र, अग्नेयास्त्र जैसे ब्रह्मास्त्र हैं। मंत्रशक्ति से संचालित होने वाले शस्त्र दण्डचक्र, कालदण्ड, कर्मचक्र, इन्द्रचक्र, वज्र, शिवशूल और इसीकास्त्र हैं। मोदका और शिखरी-भेद के गदायुद्ध में प्रवीण हूं मैं। धर्मपाश, कालपाश और वरुणपाश, नागपाश हैं मेरे पास। सूखे और गीले वज्र हैं। पिनाकास्त्र, अग्नेयास्त्र, वायव्यास्त्र, ध्यशिर और क्रोंच महास्त्र के भेद जानता हूं मैं। इसके अतिरिक्त धृष्ट, रमस, प्रतिहारत, पराङमुख, अवागुण,लक्ष्य, अलक्ष्य, दृढ़नाम, सुनाम, दशाक्ष, शतवस्त्र, दशशीर्ष, शतोदर, ब्रह्मा, महानाम, द्वन्द्वद्नाय, स्वनाय, निस्कलि, विरुच, खर्चियात्री, धृतियात्री, षिच्य, विद्युत, मकर, मोह, आवरण, जृम्यक, सर्वनाथ और वारुणास्त्र की प्रयोग विधियां भी जानता हूं मैं। सुने हैं तूने इन शस्त्रों के नाम कभी?"
"मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि तू अगर रावण है तो मैं राम हूं। तू कंस है तो मैं कृष्ण हूं। तू हिटलर है तो मैं एटमबम हूं। तू इब्लीस है तो मैं नेकी का फरिश्ता हूं। तू झूठ है तो मैं सच हूं। तू जुर्म है तो मैं कानून हूं.…।" .
“तेरे साहस की मैं दाद देता हूं...बोल मेरी शरण में आता है... बोल मुझे ईश्वर मानता है, मैं तुझे क्षमा कर दूंगा।"
"हरगिज नहीं।"
"अब मेरे सामने दो ही रास्ते हैं, या तो तेरी बलि चढ़ाकर तेरे मांस खण्ड दानवों के भोजन हेतु परोस दिये जायें और फिर यह मंत्र पढ़कर तेरी इहलीला को समाप्त करके तेरी आत्मा को शान्ति प्रदान कर दी जाये।"
शुक्योदन: शुक्वपुस्पं शुक्वस्पत ध्वजा: सप्त प्रदीप: सप्त स्वास्तिका
सप्त वाटिका: सप्त शुष्कलिका: सप्त जम्बुदिका: सप्त मुस्तका:गन्धं
पुस्पं, ताम्बुकं मांसं, सुशग्रयक्त च बलिदीतव्य: तत सम्पधते
शुभम...।
सभागृह में खामोशी छा गयी।
"तू अपने नापाक इरादों में कभी कामयाब नहीं हो सकता दुष्ट...।"
केशव ने सीना तान लिया।
अचानक तीव्र रफ्तारी से केशव अपनी जगह से उछला, वह किसी बाज की तरह रावण पर झपट पड़ा। लेकिन अगले ही पल वह किसी परकटे परिन्दे की तरह वापस उसी जगह आकर गिर पड़ा जहाँ से वह उछला था।
"इतना उतावलापन अच्छा नहीं होता केशव पण्डित....अब देख मैं तेरा क्या हश्र करता हूं।”
इतना कहकर रावण ने कुछ पढ़ा और एक जोरदार फूंक मारी।
केशव अब तक उठ खड़ा हुआ था।
एक बिजली की सी लपट उसके शरीर से टकराई और फिर वह साकित हो गया। उसकी आंखें अब भी खुली थीं लेकिन जिस्म शिथिल हो गया था। अब वह चाहकर भी अपने हाथ-पैर नहीं हिला सकता था।
"अब तेरी बलि चढ़ाना ही उपयुक्त है।"
रावण अपने सिंहासन से उठ खड़ा हुआ। उसने अपनी कमर से खड्ग खींच लिया। उसकी तलवार किसी अग्निशिखा की तरह लपलपा रही थी। वह सिंहासन की सीढ़ियों से नीचे उतरा और नंगी तलवार हाथ में लिये केशव पण्डित की तरफ बढ़ा। फिर जैसे ही उसने तलवार का वार किया।
"क्या हुआ...?' चांदनी सोफिया के कमरे में आयी। सोफिया अपने बेड पर बुरी तरह चीख रही थी।
"केशव को बचाओ....रावण केशव की बलि चढ़ा रहा है।" वह चीख रही थी। हाथ-पैर चला रही थी—लेकिन उसकी आँखें बन्द थीं।
"भाभी....भाभी....!" चांदनी ने उसे झिंझोड़कर नींद से जगाया।
"हैं....उफ्....।" सोफिया हांफने लगी। वह पसीने से सराबोर थी। उसने आंखें पटपटाकर आस-पास का माहौल देखा।
“क्या हुआ...?” चांदनी ने पूछा।
"बहुत बुरा सपना था...। पानी लाओ चांदनी....प्यास लग रही है।" सोफिया ने कहा। चान्दनी पानी लेने को पलटी।
¶¶
निखिल रावत ने गाड़ी गैस स्टेशन पर रोक दी।
"साहब, गाड़ी इधर लगाइये।" सर्विस ब्वाय की आवाज़ आयी।
"चुप बे...।" निखिल निहायत बदतमीजी से एक मोटी गाली देता हुआ बोला—"'पेट्रोल नहीं चाहिये...।"
निखिल इस वक्त क्रीम व्हाइट कलर की नयी चमचमाती सैन्ट्रो की ड्राइविंग सीट पर वैठा था। वह धुंधआलूद रात में रिसोर्ट की सीमा से बाहर आ गया था और उसके चेहरे पर जवानी की जगह दीवानगी तारी थी।
"सुहागरात....साली आग रात बन गयी।" उसने स्टेयरिंग पर घूंसा मारा और फिर अपनी जेब से फोन निकाला।
फोन पर एक नम्बर पंच किया।
निखिल रावत तीस वर्षीय नौजवान था। स्लिम जिस्म था, जिसे इकहरा बदन कहना मुनासिब होगा, चेहरा गोल-मटोल था और आंखें बड़ी-बड़ी स्वप्नीली थीं। चेहरे को देखने से बला की मासूमियत बरसती थी। वह बेहद शान्त स्वभाव का था।
रुड़की इंजीनियरिग कॉलिज से इलेक्ट्रोनिक्स इंजीनियर का डिप्लोमा लिया था और अब हाल ही में बजाज कम्पनी में लगा था। बीस हजार माहवार सेलरी थी, किसी चीज की कोई तंगी नहीं थी। होनहार छात्र, जिसने इंजीनियरिंग में टॉप किया हो, उसे कमी ही क्या हो सकती थी!
फोन पर रिंग जाने लगी।
फिर फोन रिसीव कर लिया गया।
"कौन?" पूछा गया।
"अबे तू साले सो रहा है क्या, जो पूछ रहा है कौन....नम्बर फीड नहीं है तेरे मोबाइल में.…।" निखिल ने दांत पीसते हुए कहा।
"अरे निखिल....वाकई मैं नींद से उठा हूं।"
"जाग जा साले....थोड़ा वक्त है तेरे पास....जागकर गुजार ले....कुछ नेक काम कर डाल जल्दी से।”
“क...क्यों?”
"क्योंकि कल से तू मरघट में सो जायेगा—हमेशा के लिए...।"
"तुझे हो क्या गया है....कहां से बोल रहा है निखिल?"
"मैं तो जहन्नुम से बोल रहा हूं साले।"
“अबे...तू तो शादी के बाद हनीमून मनाने निकल गया था किसी हिल स्टेशन पर...।"
"मैं नैनीताल के रिसोर्ट स्वर्ग में हूं। स्वर्ग बोलते हैं उसे....जो मेरे लिए नर्क बन गया है.… ।" निखिल ने खिड़की से बाहर घूरते हुए कहा।
उसका चेहरा सुता हुआ था। नथुने तेज-तेज सांस ले रहे थे।
“पर हुआ क्या?”
"तेरी उस वियाग्रा की मां की...।" निखिल ने उसे हिन्दुस्तान की सबसे मकबूल गाली से नवाजा— "साले कहता था कि तू डर मत निखिल...यह वियाग्रा वर्ल्ड क्लास ड्रग्स है...इसे खाने के बाद अस्सी साल का बूढ़ा भी टनाटन हो जाता है...दो चार बार ड्रग्स इस्तेमाल कर लेना...फिर सब अपने आप ठीक हो जायेगा।"
"हां तो....यह हकीकत है।" उधर से कहा गया।
"हकीकत की मां की…।" निखिल जो कभी गाली नहीं देता था, आज गाली सुना रहा था। गाली उसे एक ही आती थी। यह गाली हिन्दुस्तान की शान थी—बच्चा-बच्चा जानता था।
"अबे साले।" निखिल आगे बोला—"मैंने पायल से शादी कर ली। उसके बाप ने यह कुतिया भी दहेज में दे दी।" उसने स्टेयरिंग पर हाथ मारते हुए कहा—"अब क्या इस सैन्ट्रो को चाटूं...अबे मैं पहली ही रात में फेल हो गया साले....बैण्ड बज गयी मेरी तो। उसे सुहाग सेज पर छोड़ के बाहर आ गया हूँ....और अब सारी रात सड़कों पर बिताऊंगा।"
"ओह....अब समझा....तूने ड्रग्स ली थी।"
"अबे ली थी तभी तो तेरी मां की...।"
"वहां का मौसम कैसा है?”
"चुप साले....मौसम का हाल पूछकर बात बदलना चाहता है।" निखिल ने दायें-बायें देखा—“साले ठन्ड इतनी है कि कार से बाहर निकलने की हिम्मत भी नहीं कर सकता। इसमें तो मैंने हीटर ऑन किया हुआ है।"
"अच्छा ये बता, तूने ठन्ड दूर करने के लिए एक-दो पैग तो नहीं मार लिये थे?”
"शराब को तो मैं हाथ भी नहीं लगाता। तेरे कहने के अनुसार ड्रग्स लेने के पन्द्रह-बीस मिनट बाद सुहाग सेज पर गया था। इन बेचारों ने हनीमून के लिए हट भी बहुत शानदार तरीके से सजायी थी। शैम्पियन तक ला के रखी थी, जो मैंने लौटा दी। एक-डेढ़ घन्टे तक कुश्ती लड़ता रहा....लेकिन कुश्ती क्या खाक लड़ता...साले कुत्ते तो फेल थे।"
"मैं तुझे दस मिनट में फोन करता हूं।"
"देख, अगर मैं फेल हो गया तो तू मरघट की तैयारी कर ले।"
उसने फोन ऑफ कर दिया और फिर कार का हीटर बन्द करके नीचे उतर आया।
उसने अब भी रेशमी जयपुरी कुर्ता पैजामा पहना हुआ था। एक शाल कार में पहले से पड़ी थी। बाहर आते ही उसे सर्द हवा का एहसास हुआ तो उसने शाल उठा ली। शाल ओढ़ने पर भी ठन्ड का एहसास शिद्दत से बना रहा। इतनी ठन्ड में शाल अकेली क्या कर देती।
उसने गाड़ी यहां इसलिए रोकी थी क्योंकि पेट्रोल पम्प पर एक कॉफी शॉप भी थी, जो इस वक्त खुली हुई थी। वह कॉफी शॉप पर आकर रुक गया।
"एक एस्प्रेसो....और हॉट डाग....।" उसने स्टूल पर बैठते हुए कहा।
वहां करीब ही एक अंगीठी जल रही बी—यह बिजली की अंगीठी थी जो ग्राहकों के लिए थी ताकि ग्राहक ठन्ड से राहत महसूस कर सकें।
पेट्रोल पम्प पर सन्नाटा पसरा हुआ था।
धुंध और गहरी होती जा रही थी और सब कुछ धुंध की आगोश में समाने लगा था। बल्बों की रोशनी पीली पड़ गयी थी।
वह कॉफी शॉप पर ही था कि राजपुरोहित का फोन आ गया।
"हां बोल।" निखिल ने फोन रिसीव किया।
"देख....मैं इस वक्त दिल्ली में हूं…।"
"मालूम है...मैं सुबह तक पहुंच सकता हूं—दोपहर तक तुझे मरघट पहुंचा ही दूंगा।"
"अबे पूरी बात तो सुन ले।" राजपुरोहित झल्लाकर बोला, "मैं वियाग्रा का डीलर हूं और मेरा माल नैनीताल भी जाता है। नैनीताल में एक और डीलर है। उसका नाम महेश जोशी है, उसने एक नयी ड्रग्स की बाबत मुझसे बात की थी, जो उसके पास सैम्पल के तौर पर आयी थी लेकिन भाव ऐसा था कि मेरे को पड़ता नहीं खा सकता था—एक डोज पांच सौ रुपये की है....कौन लेता...लेकिन महेश बोलता था कि इसे जो लेगा, वह हमेशा इसी का इस्तेमाल करेगा और यह ड्रग्स कभी फेल नहीं हो सकती। एकदम नपुंसक को भी दे दो तो वह भी टनाटन...यह मेल-फीमेल दोनों के वास्ते आयी है—पर पांच सौ रुपया इस काम के लिए यहां कोई खर्च नहीं करने वाला….साला हेरोइन से भी महंगा भाव लगता है।"
"अबे, तू मुझे रामायण क्यूं सुना रहा है?" निखिल ने टोका— "नटशेल में बता...।"
"मैंने महेश से अभी बात की थी। मैं तुझे उसका नम्बर दे रहा हूं…तू उसको फोन कर और आज रात के लिए उससे वही एक डोज लेकर फिर सुबह मुझे बताना। उसे पांच सौ रुपये दे देना...मुझे यकीन है कि तू दिल्ली फौरन नहीं लौटेगा।"
"चल....तेरी यह बात भी मान लेता हूं! मरता क्या न करता— नम्बर बता।"
राजपुरोहित ने नम्बर बता दिया।
निखिल ने राज की कॉल काटकर महेश का नम्बर पंच किया।
तुरन्त ही काल रिसीव कर ली गयी।
"मेरे को राजपुरोहित ने तुम्हारी बाबत बताया था।"
"अच्छा....आप मिस्टर निखिल रावत हैं—अभी थोड़ी देर पहले राज से मेरी बात हुई थी।"
"मेरे को वह डोज चाहिये जिसका सेम्पल तुम्हारे पास आया है।”
"इस वक्त हमारी मुलाकात कहां होगी?"
"मैं स्वर्ग रिसोर्ट के बाहर माल रोड पर हूं...जहां पेट्रोल पम्प है और कॉफी हाउस है।"
"ओह....हिल पेट्रोल पम्प पर....।"
"हां...वही है…। मैं कॉफी शॉप पर बैठा हूं।"
"ठीक है—मैं पन्द्रह मिनट में वहीं पहुंच रहा हूं।"
फोन कट गया।
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