रावण की औलाद
शिवा पंडित
“पकड़ो...पकड़ो...।”
“चोर-चोर-चोर...।”
लोगों के शोर ने अर्जुन त्यागी के कदमों की रफ्तार भी बढ़ा दी।
उसका शरीर पसीने से लथपथ हो रहा था। टांगें बेदम हुई जा रही थीं। मगर फिर भी वह भागता जा रहा था, क्योंकि वह जानता था कि अगर वह पकड़ा गया तो उसकी वह गत बनेगी...जिसकी वह कल्पना भी नहीं कर सकता।
उसके पीछे दस-पंद्रह आदमी शोर मचाते हुए भाग रहे थे।
जिस तरह से वे उसके पीछे लगे थे...उससे तो ऐसा ही लग रहा था कि वह उसे पकड़ कर ही दम लेंगे...।
भागते हुए अर्जुन त्यागी शहर से बाहर आ गया। अब वह सुनसान सड़क पर दौड़ रहा था।
लेकिन भीड़ ने उसका पीछा नहीं छोड़ा।
शोर मचाती भीड़ अभी-भी उसके पीछे लगी हुई थी। मगर अब भीड़ की तादाद कम हो गई थी।
शाम का धुंधलका अब कालिमा में बदलना शुरू हो गया था।
भागते हुए ही अर्जुन त्यागी की नजरें कुछ दूर, बाईं तरफ पड़े खण्डहरों की तरफ गईं तो उसने अपने भागने की रफ्तार और भी तेज कर दी।
कुछ ही देर में वह खण्डहरों में प्रवेश कर रहा था।
उसके पीछे भागते लोग, उन खण्डहरों के बिना दरवाजे के गेट के सामने आ खड़े हुए और अपनी फूली हुई सांसों को दुरुस्त करने की कोशिश करते हुए एक-दूसरे को देखने लगे।
“यह छोकरा तो गया...।” एक हांफते हुए बोला——“यह पीर जी का महल है। यहां आत्मा भटकती है पीर जी की...। जो भी आदमी आज तक उसके अंदर गया...सुबह पुलिस को उसकी लाश ही मिली है।”
“हां...।” दूसरा बोला——“मैंने भी सुन रखा है...। पीर जी अपने महल में किसी को भी बर्दाश्त नहीं करते।”
“चलो यहां से...।” तीसरा बोला——“अब पीर जी ही उस चोर को सजा देंगे।”
और सभी वापस लौट पड़े।
गेट के करीब ही दीवार के साथ लगकर खड़े अर्जुन त्यागी ने उसकी बातें सुनी थीं।
मगर उसे भला भूत-प्रेतों की परवाह कहां थी...। वह तो खुद ही चलता फिरता भूत था।
जब उसने महसूस किया कि वह लोग चले गए हैं तो वह पूरा मुंह खोल, कुत्ते की तरह हांफने लगा।
टांगे बेदम हुई जा रही थीं उसकी।
मगर वह जगह ऐसी नहीं थी...जहां बैठकर वह आराम कर पाता।
उस जगह पर, यहां-वहां छोटी ईंटें बिखरी पड़ी थीं।
हांफते हुए वह वहां से हटा और हल्की लड़खड़ाहट के साथ दाईं तरफ बने कमरों की तरफ बढ़ा।
कुछ ही देर में वह कमरे के धूल भरे फर्श पर लेटा अपनी थकावट उतार रहा था।
सख्त फर्श उसकी कमर को बहुत आराम दे रहा था।
लेटे-लेटे ही उसने अपनी शर्ट ऊपर उठाई और पैंट में अपने पेट से चिपके हुए लेडीज पर्स को बाहर निकाला...जिसकी वजह से उसे इतना लम्बा भागना पड़ा था।
जेब में सिर्फ डेढ़ सौ रुपए पड़े थे...और कोई ऐसा काम नजर नहीं आ रहा था उसे...जिससे कि वह लाखों-करोड़ों कमा सके।
पिछले तीन दिन से वह गूना में घूम रहा था।
दिल्ली से भागकर सीधा यहां आकर उतरा था और यहां आते ही उसने काम की तलाश शुरू कर दी थी।
बड़ी-बड़ी कोठियां भी नजर आईं उसे...। उसने उनमें से एक दो कोठियों में डाका डालने का फैसला भी किया था...लेकिन अभी तक वह अपने किसी भी फैसले को अमली जामा नहीं पहना सका था।
वजह थी पैसे की किल्लत।
उसके पास इतना पैसा भी नहीं था...जिससे कि वह एक बढ़िया-सा हथियार खरीद पाता।
तो उसने पहले छोटा हाथ मारना ही उचित समझा और वही उसने किया आज।
उस वक्त वह एक शोरूम के बाहर खड़ा था...जब उसकी नजर शोरूम में खड़ी उस औरत पर पड़ी...जो अपने एक हाथ में हजार-हजार के नोटों की गड्डी पकड़े दूसरे हाथ से पेमेंट कर रही थी।
बस वहीं राल टपक पड़ी उसकी।
गड्डी को वापस पर्स में डाल औरत ने शोरूम के मालिक से कुछ कहा और फिर पर्स को उठाकर शोरूम से बाहर निकल कर बाहर खड़ी अपनी कार के करीब जैसे ही पहुंची...अर्जुन त्यागी ने बाज की तरह झपट्टा मारा और भाग निकला था।
उसकी किस्मत ने भी उसका साथ दिया जो पीछा करने वाले लोग खण्डहर में दाखिल नहीं हुए थे।
उसने पर्स को होठों से लगाकर चूमा और फिर बैठकर उसे खोलकर उसमें से गड्डी निकाल ली।
अन्धेरे में हालांकि नोट नजर नहीं आ रहे थे...लेकिन उसे पता था कि वे हजार-हजार के नोट हैं...। ऐसा उसने देखा भी था...और उसके तजुर्बेकार हाथ भी ऐसा ही बता रहे थे।
वह नोटों को अन्धेरे में ही गिनने लगा।
अभी उसने पन्द्रह-बीस नोट ही गिने थे कि उसके हाथ जहां के तहां रुक गए।
गर्दन सीधी हो गई और निगाहें बाहर देखने लगीं।
कलेजा हल्के से धड़क उठा।
कुछ लोगों के कदमों की आवाजों ने उसे चौंका दिया था।
तभी उसके सामने से एक-एक करके कई साए निकले।
अन्धेरे में वे उसे सिर्फ साए ही नजर आ रहे थे।
पहले तो वह यही समझा कि वे पुलिस वाले हैं...जो उसे खोजने आए हैं...।
मगर तुरन्त ही उसने अपनी इस सोच को नकार दिया।
अगर वे पुलिसिए होते तो वो यूं चुपचाप अन्धेरे में आगे न जाते...बल्कि टॉर्च लेकर गालियां निकालते उसे खोज रहे होते।
उसने तुरन्त नोटों को अपनी जेब में डाला...अन्धेरे में पर्स को टटोलकर उसका बाकी का सारा सामान भी अपनी जेबों के हवाले किया और फिर चुपचाप अपने स्थान से उठकर कमरे के दरवाजे के करीब आकर दीवार से चिपकते हुए उधर झांका...जिधर वह चारों साए गए थे।
कोई भी नजर नहीं आया उसे।
सावधानी बरतते हुए वह बाहर निकला और अपने पैर के नीचे आई ईंट को उठाकर दबे पांव आगे बढ़ा।
उस कमरे से आगे दो कमरे और थे।
वह पहले कमरे के करीब आया और भीतर झांका तो उसे उसकी छत के उस पार आसमान नजर आया।
छत टूटी हुई थी उसकी।
फिर भी उसने अपनी तरफ से आंखें फाड़कर भीतर देखा...फिर अगले कमरे की तरफ बढ़ा।
अभी वह दरवाजे के करीब पहुंचा ही था कि उसे भीतर से धीमी आवाज आई।
वह वहीं दरवाजे के करीब दीवार से सटकर खड़ा हो गया।
कान कुत्ते की तरह खड़े हो गए...और वह पूरा ध्यान लगाकर भीतर से आ रही आवाजों को सुनने लगा।
“कहां तक पहुंचा तू टोनी?” एक धीमी मगर भारी आवाज आई।
“मैंने सारा पता लगा लिया है...।” दूसरी आवाज।
“क्या-क्या पता लगाया...?”
“वही जो तूने कहा था।”
“अरे वही तो पूछ रहा हूं...क्या-क्या पता लगाया...?”
“सुबह ठीक सात बजे सन्नी कोठी से कार में स्कूल के लिए निकलता है...उसके साथ हर वक्त दो बॉडीगार्ड रहते हैं...जिनके पास रिवाल्वर होती हैं। ड्राइवर भी हथियारों से लैस है और सभी को पूरा अधिकार है कि खतरा देखते ही वह अपने हथियारों का इस्तेमाल बेहिचक कर सकते हैं। उसके दोनों बॉडीगार्ड सरकारी हैं।”
“स्कूल कब पहुंचता है सन्नी...?”
“ठीक साढ़े सात बजे...। अगर वह थोड़ा पहले पहुंच जाता है तो वह साढ़े सात बजे ही कार से बाहर निकलता है। उसके निकलने से पहले उसके दोनों बॉडीगार्ड बाहर निकलते हैं...। आसपास का जायजा लेते हैं...उसके बाद कहीं सन्नी बाहर निकलता है और उनके बीच चलते हुए गेट में प्रवेश करता है।”
“फिर...?”
“उसके बाद सन्नी की जिम्मेदारी स्कूल की हो जाती है। ड्राइवर तथा दोनों गार्ड स्कूल से बाहर ही रहते हैं...।”
“यानी वो सन्नी को स्कूल छोड़कर वापस नहीं लौटते...।”
“नहीं...। स्कूल टाइम के दौरान भी वे पूरी मुस्तैदी से वहां तैनात रहते हैं...और स्कूल में प्रवेश करने वालों पर नजर रखते हैं। उन्हें पूरा हक है कि किसी पर भी शक होने पर वे उससे पूछताछ कर सकते हैं।”
“फिर...?”
“छुट्टी के बाद दोनों गेट पर खड़े हो जाते हैं...और सन्नी को अपनी निगरानी में कार में बिठाते हैं और वापस कोठी की तरफ रवाना हो जाते हैं।”
“इस जखीरा ने तो हमारी योजना का बेड़ागर्क करके रख दिया है...।” तीसरी आवाज अर्जुन त्यागी के कानों में पड़ी—“अच्छी भली स्कीम बन गई थी उस छोकरे को किडनैप करने की...। दिन भी मुकर्रर हो गया था...। सारी तैयारी भी कर ली थी...मगर जखीरा ने सन्नी के बाप को फोन करके सब गुड़ गोबर कर दिया। दस करोड़ की मांग रख दी उसके सामने...वरना उसके बेटे सन्नी को मारने की धमकी दे दी...। नतीजा सामने है। सन्नी की सुरक्षा के लिए सरकारी गार्ड तैनात हो गए हैं।”
“अगर जखीरा, सेठ रामपाल से दस करोड़ नहीं मांगता तो अब तक सन्नी हमारे कब्जे में होता।”
चौथी आवाज अर्जुन त्यागी के कानों में पड़ी।
अंदर से आई बातों को सुनकर अर्जुन त्यागी समझ गया कि सन्नी नाम के लड़के के अपहरण की योजना बनाई जा रही है। इससे पहले कि ये योजना को क्रियान्वित करते, जखीरा नाम के किसी शख्स ने सन्नी के बाप को फोन करके दस करोड़ की डिमांड रख दी...वरना उसके बेटे को मारने की धमकी दे दी।
सन्नी के बाप रामपाल ने उस फोन के बाबत पुलिस को सूचना दी और इस तरह सन्नी को पुलिस प्रोटेक्शन मिल गई।
अब वे चारों इस सिक्योरिटी का रोना रो रहे थे...और जखीरा को कोस रहे थे...जिसकी वजह से उनकी योजना शुरू होने से पहले ही फुस्स हो गई थी।
मामला दस करोड़ का था...ऐसे में अर्जुन त्यागी की दिलचस्पी तो जागनी ही थी। वह तो कुछ सौ रुपयों के लिए भी दरिंदा बन जाता था...ऐसे में करोड़ों के लिए तो वह कुछ भी कर गुजरता।
सो वह और भी ध्यान से उन चारों की बातें सुनने लगा...जो भीतर अन्धेरे में बैठे थे।
“वह बात तो ठीक है...। दूसरी आवाज आई—“मगर अगर हम कामयाब हो जाते हैं तो जखीरा के फोन का हमें ही फायदा होगा।”
“वह कैसे...?”
“सन्नी का अपहरण करके हम रामपाल से कितनी डिमांड करते...पचास लाख...। यही तय किया हुआ था हमने...यूं भी इससे ज्यादा की हमारी औकात भी नहीं थी। लेकिन अब हम सन्नी को अगवा करके दस करोड़ मांग सकते हैं। या यूं समझ लो कि हमें दस करोड़ ही मांगने पड़ेंगे।”
“मांगने पड़ेंगे...? यह क्या बात हुई...। तू तो ऐसे बोल रहा है जैसे हम दस करोड़ मांगने को मजबूर होंगे।”
“तभी तो हम पुलिस से पीछा छुड़ा सकते हैं।”
“यह क्या कह रहा है तू...। अगर हम दस करोड़ से कम मांगेंगे तो पुलिस हमारे पीछे लग जाएगी और दस करोड़ मांगेंगे तो पुलिस हमें कुछ नहीं कहेगी।”
“बेशक।”
“वह कैसे...?”
“तब पुलिस जखीरा के पीछे लगेगी...क्योंकि हम रामपाल को यही कहेंगे कि हम जखीरा बोल रहे हैं और पुलिस जखीरा के पीछे कैसे लगेगी...यह तो सभी जानते हैं।”
“वाह!” चौथी आवाज आई—“क्या बात कही...। दस करोड़ जेबों में होंगे और रामपाल यह समझ रहा होगा कि यह सब किया-धरा जखीरा का है।”
“और यहां की पुलिस क्या सरकार भी जखीरा के दरबार में पानी भरती है। यहां के नेता जखीरा के आशीर्वाद से ही बनते हैं और जखीरा के हुक्म से ही यहां की सरकारें बनती और गिरती हैं...।” तीसरी आवाज आई—“यानी हमारी कोई खोजबीन नहीं होगी...। रामपाल भी दस करोड़ देकर चुपचाप बैठ जाएगा।”
“बेशक रामपाल के बेटे के लिए पुलिस ने दो गार्ड दिए हैं...लेकिन यह वह भी जानता है कि जब भी जखीरा सन्नी को उठाना चाहेगा...उन दोनों को तभी मौत आ जाएगी।”
“वाह! दस करोड़...इतना सोचकर ही मेरे दिल की धड़कनें बढ़ रही हैं। जब नोट हाथ में होंगे...तब क्या होगा?”
“उड़ मत...।” पहली आवाज में गुर्राहट भरी हुई थी—“यह काम इतना आसान नहीं है...जितना तुम सोच रहे हो।”
“बिल्कुल आसान है। हम जखीरा के आदमी बनकर स्कूल से छुट्टी के वक्त वहां पहुंच जाएंगे...दोनों गार्डों को कहेंगे कि अगर जान बचानी है तो भाग जाओ...। ड्राइवर को गोली मार देंगे...और सन्नी को उठा ले जाएंगे।”
चौथी जोश से भरी आवाज आई।
“बोल तो तू ऐसे रहा है जैसे यह सब बहुत ही आसान हो। बहुत ही मुश्किल है यह काम...और मान ले...अगर किसी तरह से हमने इस काम को अंजाम दे भी दिया तो पुलिस के साथ-साथ जखीरा भी हमारे पीछे पड़ जाएगा।”
“य...यह क्या कह रहा है तू...?”
“तू क्या समझता है...यह बात छुपी रहेगी...सबसे पहले यह खबर जखीरा तक पहुंचेगी। अपनी हड्डी किसी और के मुंह में जाते देख वह तो पागल हो उठेगा...। वह बेशक पुलिस को कुछ भी करने से रोक दे...लेकिन हमारा पता लगाने में वह अपनी पूरी ताकत झोंक देगा और अगर हममें से एक भी उसके काबू में आ गया तो समझ लो हम चारों की मौत निश्चित है।”
कुछ देर के लिए वहां सन्नाटा छा गया।
आखिर तीसरी आवाज आई—
“तू ठीक कह रहा है। इस तरफ तो मैंने सोचा ही नहीं था।”
“ऐसे तो हमें सन्नी को अगवा करने का विचार त्याग देना चाहिए।”
“नहीं...।” पहली आवाज—“अपहरण तो होगा...और हम पचास लाख के बजाय दस करोड़ मांगेंगे। बस फर्क यह होगा कि हमारा एक पार्टनर और बढ़ जाएगा...।”
“पार्टनर...।”
“हां...वह पार्टनर ऐसा शातिर दिमाग है कि बड़ी-से-बड़ी समस्या को चुटकी में हल कर सकता है। हम उसके सामने अपनी समस्या रखेंगे...और मेरे को पूरा विश्वास है कि वह ऐसा रास्ता बताएगी कि हम शत-प्रतिशत सफल होंगे।”
“बताएगी...? कोई औरत है वह...।”
“औरत...अरे लौंडिया बोल उसे...ऐसी हसीन है कि देखो तो पागल हो जाओ...ऐसी चिकनी है कि कंधे पर उंगली रखो तो फिसल कर हाथ पर पहुंच जाए...और खतरनाक इतनी है कि हम जैसों की उसके सामने कोई औकात नहीं...।”
“लेकिन हमने तो ऐसी किसी हसीना के बारे में नहीं सुना। यहां बस जखीरा की ही तूती बोलती है...उसके अलावा और किसी का नाम नहीं सुना...। कौन है वह?”
“गौरी...।”
“गौरी...?” तीन आवाज़ें एक साथ उभरीं।
“हां गौरी...यह नाम है उसका...।” पहली आवाज आई—“अभी छह-सात महीने ही हुए हैं उसे यहां आए हुए...। अंदरखाने वह अपनी ताकत बढ़ा रही है...और देख लो...अभी तक किसी को भी नहीं पता...यहां तक कि जखीरा भी उसके बारे में नहीं जानता। इसी से उसके तेज-तर्रार दिमाग का पता चलता है।”
“कहां रहती है यह गौरी?”
“सर्किट रोड पर, सत्रह नंबर घर है उसका। कल सुबह हम उसके पास जाएंगे और उससे मदद मांगेंगे।”
“ठीक है...। हम सुबह नौ बजे तेरे घर पहुंच जाएंगे।” दूसरी आवाज।
“नहीं...गुरु नानक चौक पर मिलेंगे हम नौ बजे...फिर वहां से हम गौरी के पास जाएंगे।”
“ठीक है।” तीन आवाज़ें एक साथ उभरीं।
बाहर खड़ा अर्जुन त्यागी तुरन्त दीवार के पास से हटा और पीछे सरककर साथ वाले, बिना छत के कमरे में प्रवेश कर, एक तरफ छुपकर बाहर झांकने लगा।
शीघ्र ही चार साए आगे-पीछे चलते हुए उसके सामने से निकले और आगे बढ़ गए।
उनके जाने के कुछ देर बाद तक तो अर्जुन त्यागी वहीं चिपका रहा...फिर वह अपने स्थान से निकला और पूरी सावधानी से बाहर की तरफ बढ़ा।
अभी उसने ताजा-ताजा पर्स झपटा था...क्या पता उसकी इंतजार में बाहर कोई खड़ा हो।
मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ।
वह बाहर आ गया और वापस शहर की तरफ बढ़ने लगा।
अपनी जेबों में हाथ डाल उसने पर्स से मिला फालतू का सामान...जैसे लिपस्टिक वगैरह बाहर फेंक दी...ताकि किसी के सामने लेडिज सामान न निकले।
वापस शहर में आकर उसने बाजार से पहले अपने लिए कपड़े खरीदे...फिर एक बैग खरीदा और करीब दस बजे वह एक साधारण से गेस्ट हाउस में अपने कमरे में बैठा खाना खा रहा था।
बेशक वह उस वक्त खाना खा रहा था...लेकिन उसका ध्यान उन चारों की तरफ था...जिनकी उसने सिर्फ बातें सुनी थीं...उनके चेहरों के दर्शन नहीं किए थे उसने।
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