भाग–2
रंजीत और खूनी आत्मा
परशुराम शर्मा
उसने सिर उठाकर आकाश की तरफ देखा और सोचने लगा—मस्त हवाओं के झोंके और छिटकी हुई चांदनी में धरती और आकाश दोनों ही झूम रहे हैं। यह रात किसी प्रेमी–प्रेमिका के लिये कितनी सुखद हो सकती है।
काश उसकी बांहों में धरती के चांदों का कोई एक पीस होता तो सब कुछ भूलकर वह भी झूम उठता। मगर ऐसा कुछ उसके जीवन में हो ही नहीं सकता।
यह सोचकर उसने निगाहें झुका लीं।
अचानक पिछली घटनाओं की याद आते ही उसका सारा रोमान्टिक मूड छिन्न–भिन्न हो गया और धुंध में लिपटी हवेली की याद आते ही एक बारगी वह सिहर उठा।
उस वातावरण को वह काफी पीछे छोड़ आया था, फिर भी जाने क्यों उसे ऐसा लग रहा था जैसे आगे–पीछे, दायें–बायें हर दिशा में प्रेत उसके इर्द–गिर्द चकरा रहे हैं।
किसी तरह वह जान बचाकर भागा था।
अभी रात समाप्त नहीं हुई थी।
जंगल को तो वह पीछे छोड़ आया मगर उन खतरनाक घटनाओं का चक्र बराबर उसके साथ चला आ रहा था।
और घोड़ा गाड़ी कच्ची सड़क पर भागी जा रही थी।
दूर तक सपाट मैदान नजर आ रहा था। किसी भी आबादी के लक्षण अभी तक नजर नहीं आये थे। एक बार उसने पीछे देखा और फिर लम्बी सांस खींच कर बड़बड़ाया—
“पता नहीं कब तक आबादी आयेगी—हे ऊपर वाले! बस जल्दी से भूतों की सीमा से निकाल कर आदमियों की सीमा में पहुंचा दे। लौटकर कभी इधर नहीं आऊंगा।”
ऊपर वाले ने उसकी पुकार यूं सुनी, जैसे वही सबसे बड़ा भक्त हो। उसे दूर एक तारा जमीन पर टिमटिमाता नजर आया। पहले तो उसने सोचा आकाश का कोना है।
उसी का एक सितारा धरती को चूम रहा है—मगर जल्दी ही उसका भ्रम मिट गया। निश्चित रूप से यह किसी आबादी का किनारा था। कुछ देर तक वह सिर को झटका देकर उसी ओर देखता रहा। जब उसे पूरी तरह यकीन हो गया कि वह कोई आबादी है तो उसके होठों पर मुस्कराहट आ गई।
उसने घोड़ों की रफ्तार बढ़ा दी।
लेकिन ज्यों–ज्यों वह आगे बढ़ रहा था उसे लग रहा था जैसे आबादी उसी रफ्तार से दूर भाग रही है। फासला उसे ज्यों–का–त्यों लग रहा था। उसके नेत्र बोझिल होने लगे।
नींद बड़ी बेताबी से उसे जकड़ना चाहती थी।
अब वह काफी हताश हो गया था।
एकाएक घोड़ा गाड़ी को जबरदस्त झटका लगा। उसके कंठ से हल्की-सी चीख निकल गई। घोड़े बेतहाशा हिनहिनाकर भाग रहे थे। जान पड़ता था जैसे वह भड़क उठे हों। उसने रास खींची, रोकने के प्रयास किये। मगर सारे प्रयास असफल रहे।
घोड़े पागलों की तरह दौड़ लगा रहे थे।
सारी नींद गायब हो गई।
उसने मजबूती के साथ घोड़ा गाड़ी का एक हिस्सा पकड़ लिया क्योंकि घोड़े अब रास्ता छोड़कर ऊबड़–खाबड़ जमीन पर दौड़ रहे थे। एक जगह पिछला पलड़ा टूट कर गिरा।
घोड़ा गाड़ी उछल रही थी।
यह रेस भी विचित्र थी।
अगर दोनों घोड़े भड़क गये थे तो उन्हें अलग–अलग दिशाओं में दौड़ना था या अब तक खींचा–तानी में गाड़ी उलट देनी थी मगर विचित्र बात यह थी कि वह निश्चित दिशा में दौड़ लगा रही थी।
धूल उड़कर चारों तरफ फैल रही थी।
उसे कुछ अहसास नहीं हो रहा था कि घोड़े कहां बढ़ रहे हैं। एक बारगी उसने कूद जाने की ठानी मगर किसी आशंका से वह भयभीत हो गया और गाड़ी से कूदने का साहस उसने नहीं किया।
उसे लगा—अगर वह यहीं कूद गया और बेहोश हो गया तो पुनः प्रेतों के जाल में फंस जायेगा। आखिर घोड़े कभी तो थककर रुकेंगे ही।
धरती–आकाश अब उसके सामने चक्कर काट रहे थे। उसे इसका कुछ होश नहीं रहा कि घोड़ा गाड़ी कितनी देर, कौन सी दिशा में दौड़ती रही, लेकिन जब एकदम गाड़ी रुकी तो जैसे उसके प्राण लौटे। उसने सामने एक कॉटेज देखी।
घोड़ा गाड़ी कॉटेज के प्रांगण में खड़ी थी।
दोनों घोड़े जमीन सूंघ रहे थे। अब वह बिल्कुल शांत थे।
उसने धड़कते दिल से पूरे वातावरण का निरीक्षण किया। कॉटेज के चारों तरफ सरपत की झाड़ियां थीं। केवल एक फाटक झाड़ियों से बचा था, जिससे गाड़ी कॉटेज के प्रांगण में दाखिल हुई थी।
दूर तक कोई मकान नहीं था।
यह कॉटेज वीराने में अकेली थी।
वह घोड़ा गाड़ी से उतर गया। लड़खड़ाती चाल से आगे बढ़ा। उसके जिस्म पर अत्यधिक धूल जमी थी, जिसे वह चलते हुये बार–बार झाड़ रहा था। वस्त्र पहले से ही तार–तार हुये पड़े थे।
उसने अपनी त्रिभुजाकार कैप को ठीक किया। उसके बाद कॉटेज का एक चक्कर लगाकर पीछे पहुंच गया। कॉटेज में उसे पहली बार ऊपर प्रकाश छनछनाता नजर आया।
वह एक खिड़की थी।
खिड़की पर पर्दा पड़ा था।
शुद्ध वायु प्रवेश के लिये उसके पट खोले गये थे। उस खिड़की तक पहुंचना ज्यादा कठिन नहीं था। उसने दोनों हाथ उठाकर जम्प लिया। अगले ही क्षण वह खिड़की का निचला हिस्सा पकड़े सीने के बल खिंचता चला गया।
उसने खिड़की के पास बैठकर आहट ली।
सांसों की सरसराहट के बीच किसी की हल्की-सी सिसकारी सुनाई दी, उसके बाद किसी पुरुष की धीमी हंसी। उसने साहस जुटाया और थोड़ा–सा पर्दा उंगली से हटाया। वह अन्दर का दृश्य देखने के लिये उत्सुक हो गया।
कमरे में धीमा प्रकाश था।
उसकी निगाह घूमती हुई एक मसहरी पर टिक गई और अगले ही क्षण बौखलाकर उसने पर्दा छोड़कर सिर पीछे खींच लिया। अब उसने माथे पर इस प्रकार आस्तीन घुमाई, जैसे पसीना पोंछ रहा हो। कुछ देर तक वह उसी प्रकार सांस रोके रहा। अन्दर का दृश्य वह देख ही चुका था, मगर न जाने क्यों वह फिर से देखने के लिये उत्सुक हो गया। और कांपते हाथ से उसने पुनः पर्दे के कोने पर उंगली रखी।
दोबारा आंख सटाई।
मसहरी में रोमांस की बौछार हो रही थी।
युवती का हांफता, तमतमाता चेहरा उसे नजर आया, वह पुरुष साथी की नंगी छाती पर बुरी तरह दांत गड़ा रही थी। मसहरी स्वर्ग का बिछौना बनती जा रही थी।
ज्यों–ज्यों सांसों का सैलाब तेज होता गया उसका दिल बैठता गया और एक मौका ऐसा भी आया जब बौखलाहट में उसके हाथ छूट गये और वह धड़ाम से करीब दस फिट नीचे चारों खाने चित धम्म की आवाज करता हुआ गिरा।
हल्की–सी कराह उसके मुंह से निकल गई।
वह संभलकर खड़ा ही हुआ था कि ऊपर खिड़की का पर्दा हटा और किसी ने नीचे झांका। कदाचित गिरने की आवाज अन्दर तक पहुंच गई थी, इसीलिये पुरुष खिड़की से नीचे झांक रहा था। वह अपने आपको छिपा भी न सका।
“कॉटेज का सदर दरवाजा खुला है।” ऊपर से कहा गया—“चोरों की तरह चक्कर काटने की जरूरत नहीं, चले आओ, मैं तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा था।”
यह आवाज सुनते ही वह दोबारा गिरते–गिरते बचा।
आवाज कर्नल रंजीत की थी।
“गुरु—।” वह कराहा।
“देर मत करो बरखुदार....कम इन साइड।”
“क्या मैं इसी खिड़की के रास्ते आ जाऊं?”
“आ जाओ।”
“वह....वह।”
“फिक्र मत करो। वह कमरे में नहीं है।”
कथित इन्सान रमन के अलावा कोई नहीं था। वह पुनः जम्प लेकर खिड़की पर चढ़ गया और अगले ही पल कमरे में कूद गया। उसने कमरे में हर तरफ देखा—अब केवल रंजीत ही कमरे में था।
लड़की कमरे से गायब थी।
रंजीत के शरीर पर गाउन था। उसने खिड़की बन्द की और एक सिग्रेट सुलगा ली। रमन अपलक उसे निहार रहा था। वह सोच रहा था कहीं यह भी रंजीत के मेकअप में कोई प्रेत तो नहीं।
“तुम मुझे इस प्रकार क्यों घूर रहे हो?” रंजीत ने पूछा।
“आपको जीता–जागता देख रहा हूं।”
“तो क्या मुझे मर जाना चाहिये था?”
“मुझे तो अब तक यही यकीन था कि प्रेत महल और संग्राम की हवेली से बचकर निकलने वाला मैं अकेला और आखरी इंसान हूं।”
“वास्तव में परिस्थितियां तो कुछ ऐसी ही आ गई थीं मगर जब तक मृत्यु का समय नहीं आता इन्सान को मौत मिलना असम्भव है। खैर छोड़ो, तुमने हवेली से फरार होकर अच्छा किया।”
“मगर....।” अचानक रमन को कुछ याद आ गया, “मेरी समझ में नहीं आता यह घोड़े क्या देवदूत बन गये थे, जो सीधे यहीं रुके?”
रंजीत ने हल्का–सा अट्टहास लगाया।
“इसमें हंसने की क्या बात—?” रमन ने चकित स्वर में कहा।
“अगर तुम आंख खुली रखो और दिमाग साफ रखो तो कोई बात तुमसे छिप नहीं सकती। यह कॉटेज उस हवेली से ज्यादा दूर नहीं और तुम्हारे घोड़ों को यहां तक लाने वाला ब्लाण्डी है।”
“ब्लाण्डी?”
“हां वह जानवर जरूर है मगर कभी–कभी तुमसे ज्यादा बुद्धिमता दिखा जाता है। तुम अगर सामने नजर रखते तो घोड़े के आगे ब्लाण्डी नजर आ जाता। मैं नहीं चाहता था तुम किसी खतरे में दोबारा फंस जाओ।”
“मगर ब्लाण्डी क्या भगवान है जो घोड़े उसके दिवाने होकर पीछे भागे?”
“ब्लाण्डी के मुंह में एक स्पेशल घास दबी थी जिसकी गंध से हर घोड़ा दिवाना हो जाता है और उसी गंध की तरफ भाग उठता है। ब्लाण्डी भी ऊबड़–खाबड़ रास्तों से छोटा मार्ग बनाकर तुम्हारे रथ तक पहुंचना चाहता था और जैसे ही वह गंध की निश्चित सीमा में पहुंच गया तो घोड़े उसके पीछे दौड़ पड़े।”
“और उसके बाद ब्लाण्डी सीधा इस कॉटेज में तुम्हें लेकर आ गया। यहां मैं जरा दिमाग दुरुस्त कर रहा था। आज की रात इस एकांत में आराम करना चाहता था—अब समझे?”
रमन ने गर्दन को झटका दिया।
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