रणहुंकार
दिनेश ठाकूर
रीमा भारती की गाड़ी आंधी-तूफान की तरह सड़क पर दौड़ रही थी।
वह स्वयं ड्राईविंग सीट पर विराजमान थी और जबड़े भींचे गाड़ी दौड़ाये जा रही थी।
उसकी आंखें सुर्ख रंगत अख्तियार किये हुये सामने सड़क पर स्थिर थीं और वह जैसे उड़कर अपने गन्तव्य तक पहुंचना चाहती थी।
उसकी मंजिल अर्थात सूरजपाल यादव का आवास।
सूरजपाल यादव!
एक उदीयमान चेहरा, जिसकी चर्चा शहर भर में थी और शहर की जनता उसमें शहर का भविष्य देख रही थी। सूरजपाल यादव न केवल युवा प्रत्याशी था, बल्कि एक अच्छा नेता भी था।
रीमा भारती ने उसके चर्चे सुने थे। वह गरीबों का खैरख्वाह था। कोई भी बतौर फरियादी उसके पास जा सकता था। वह हर किसी से मिलता था, जो कुछ उससे बन पड़ता था, पूरे लगन व श्रम के साथ अंजाम देता था।
यही वजह थी कि शहर की जनता उसे पॉवर देने के मूड में थी, जिससे कि वह जीते—सत्ता में जाये और देश का—शहर का विकास हो सके।
उसी सूरजपाल यादव के सिर पर मौत मंडरा रही थी। या फिर सम्भव था कि उसके निकट पहुंच चुकी हो—और सूरजपाल तथा उसके अंगरक्षकों को इसका पता ही ना हो।
वैसे सूरजपाल यादव खुले दिल का नेता था। सबसे मिलने को आतुर रहता था। किन्तु सुरक्षा के मामले में लापरवाह होगा, यह रीमा भारती सोच न सकती थी।
किन्तु!
कुछ भी हो सकता था।
रीमा भारती ने जो कुछ भी सुना था, उसके आधार पर वह पूरी तरह संजीदा व फिक्रमंद थी। इसके साथ ही सूरजपाल यादव पर आने वाले अज्ञात प्राणघातक संकट को नेस्तनाबूत करने हेतु दृढ़प्रतिज्ञ भी थी।
कारण यह कि सूरजपाल यादव जैसे नेता ही थे, जिनके ऊपर देश की व्यवस्था का भार टिका हुआ था। ऐसे नेता की समस्त देश को जरूरत थी।
यही वजह थी कि वह ठीक आंधी तूफान की तरह उधर उड़ी चली जा रही थी जिधर सूरजपाल यादव का घर था।
रीमा भारती!
भारत की सर्वाधिक महत्वपूर्ण गुप्त जासूसी संस्था आई.एस.सी. (इंडियन सीक्रेट कोर) की नम्बर वन लेडी स्पाई थी। नम्बर वन जासूस!
दोस्तों की दोस्त! हमनवां!
किन्तु दुश्मनों पर टूटकर गिरने वाली वो आकाशीय बिजली, जो क्षण भर में ही दुश्मनों के नापाक मंसूबों समेत उन्हें जलाकर खाक कर दिया करती थी।
उसके कदमों की आहट से शत्रु के खेमों में खलबली सी मच जाया करती थी।
मां भारती की लाडली बेटी रीमा भारती!
जिसके लिये राष्ट्रहित सर्वोपरि था तथा देश व समाज के दुश्मनों का सफाया उसके जीवन का उद्देश्य!
रीमा भारती को सूरजपाल यादव पर आसन्न संकट की सूचना संयोगिक रूप से मिली थी।
वह अपने मोबाइल फोन से अपनी जूनियर असिस्टेंट रमा का नम्बर मिला रही थी कि सहसा एक खटके के साथ न जाने कहां लाईन जा मिली थी।
लैंड-लाईन पर पहले ये गलतियां कभी-कभार होती थीं, ये तो रीमा भारती को जानकारी थी, किन्तु मोबाइल पर भी ऐसे ‘फॉल्ट’ होते हैं, इसका पता उसे था तो सही, किन्तु वास्ता आज पड़ा था।
नम्बर मिलते ही बेल भी नहीं गई थी और फिर सीधे किसी का गुर्राता स्वर कानों में पड़ा था—
“वो साला हरामी—कल का लौंडा!”
“हैलो! हैलो!”
रीमा भारती बोली।
किंतु!
दूसरी ओर से बोलने वाला जैसे सुन ही न रहा था।
“वो....वो बड़ा नेता बना घूमता है—गले की हड्डी बन गया है ससुरा!”
“काम बोलो—करना क्या होगा?”
“टपकाना मांगता कल का सूरज—सूरजपाल यादव नक्को! समझे?”
“ठीक। समझो हो गया काम।”
“आज रात साले के घर पार्टी है। अपना अट्ठाहरवां जन्मदिन मना रहा है। उसका ये जन्मदिन मरणदिन में बदल जाये। उसी वक्त....जब तारीख बदला करती है। यानी कि बारह बजे के पहले-पहले।”
“ठीक। समझो हो गया काम। फोन रखो। अधिक बात फोन पर ठीक नहीं।”
फोन डिस्कनेक्ट होने का स्वर।
रीमा भारती फोन हाथ में लिये बैठी ही रह गयी।
उसके कानों में सांय-सांय हो रही थी।
सूरजपाल यादव का नाम उसे सुना-सुना सा लगा था। उसने दिमाग पर जोर डाला था तो उसे नाम याद आ गया था।
उसे राजनीति में ही दिलचस्पी न थी, किंतु यह एक संयोग ही था कि उसे उसका नाम याद आ गया था। कारण यह कि उसने कइयों के मुंह से ये नाम सुना था।
किसी ने उसे मददगार कहा था, तो किसी ने मसीहा। रीमा भारती ने सुना था।
वह तटस्थ रही थी।
उल्टे उसके मुंह का स्वाद भी बिगड़ गया था। उसे याद आये थे किसी बड़े मनीषी के वचन, जिससे किसी ने पूछा था कि राजनीति में आने पर कई व्यक्ति ईमानदार, कई बेहद ईमानदार होते हैं—किन्तु कुर्सी पाते ही प्रायः सभी बेईमान हो जाते हैं, ऐसा क्यों?
इस पर उस मनीषी ने बहुत ही सटीक उत्तर दिया था। वह रीमा भारती को अभी याद था, जबकि इसे पढ़े वर्षों हो गये थे।
उसने कहा था कि—आदमी प्रायः मूलतः स्वार्थान्ध और बेईमान ही होता है। आरंभ में उसे ईमानदारी करने व दूसरों की मदद करने से फायदा (वोट) मिलने की उम्मीद होती है, इसलिये वह ईमानदारी व असहायों-मजलूमों की मदद करता है। उसके चेले इसका ढोल पीटते हैं। इसे एक कीर्तिमान बताते हैं। किंतु जब उसे कुर्सी मिल जाती है तो उसे ईमानदारी में घाटा और बेईमानी में फायदा नजर आने लगता है, इसलिये वह बेईमानी करता है।
सोचते हुये रीमा भारती हौले से मुस्कराई थी, किन्तु उसे इस समय सूरजपाल यादव उन गिने-चुने नेताओं में लग रहा था जो किसी भी कीमत पर सच्चाई की डगर से हिल नहीं सकते।
नई उम्र थी—बहुत कुछ करने की महत्वाकांक्षा।
उसके पिता एक सफल बिजनेसमैन थे। क्या नहीं था उसके पास!
ऐसी स्थिति में जन्म लेने के बाद भी उसका ये रूप....।
जरूर कुछ अलग किस्म की क्वालिटी थी उसमें।
कुछ कर गुजरने की तमन्ना।
गरीबों, असहायों की मदद करने का जुनूननीय अंदाज—जो उसके भीतर था, उससे तो यही लगता था कि उसकी काबलियत निखर रही है।
वह निश्चय ही बहुत आगे जाने योग्य था।
रीमा भारती का फर्ज तो बनता ही था, साथ ही उसने महसूस किया था कि आज के युग में ऐसे ही जवानों की जरूरत थी। ऐसे जवान ही देश की काया पलट सकते थे।
ऐसी स्थिति में रीमा भारती को उसकी जान बचानी थी।
जरूर बचानी थी।
तभी सहसा रीमा भारती चौंकी थी, उसे याद आया था दरियागंज चौराहे पर लगा वो बड़ा-सा पोस्टर, जो हाल ही में लगाया गया था। उस पर लिखी इबारत भी उसे याद आई थी।
उसने अपने जन्मदिन पर पूरे शहर की जनता को रात्रि-भोज पर आमंत्रित किया था।
संयोगवश ही रीमा भारती की दृष्टि उस पर जा पड़ी थी। उसमें ससम्मान पूरा शहर आमंत्रित था।
यह मामूली बात न थी।
रीमा भारती सोचने लगी।
इस समय उसका दिमाग कम्प्यूटर से भी तेज चल रहा था।
उसके मन में एक बार यह आशंका भी उठी थी कि वो लोग किसी दूसरे शख्स की फिराक में हो सकते हैं। वो कोई अन्य सूरजपाल यादव हो सकता है।
किंतु नहीं!
ऐसा नामुमकिन है।
सोचते हुए उसने अपना इरादा मुल्तवी कर दिया था। इतनी सारी समानतायें ऐसे ही नहीं हो सकती थीं। और फिर फोन पर कहा गया शब्द—
दो दिन का लौंडा—नेता—जैसे शब्दों का संबोधन किया गया था।
दूसरे, पार्टी का होना इस बात का पूरा सबूत था कि बात उसी के बारे में थी। उनका शिकार अन्य कोई नहीं, बल्कि सूरज पाल यादव ही था।
रीमा भारती ने सोचा था, फिर उसकी दृष्टि घड़ी की ओर घूमी तो वह चिहुंक गयी थी।
उसमें रात के ग्यारह बजकर पैंतीस मिनट हो गये थे। यानी कि कुल पच्चीस मिनट थे उसके पास और वह कपड़े उतारकर बिस्तर में छुपी थी।
तदुपरांत!
रीमा भारती ने बिस्तर से छलांग लगाई थी और तेजी से कपड़े पहनकर भाग उठी थी।
परिणामस्वरूप उसकी गाड़़ी उसके आवास की ओर दौड़ रही थी—जोकि मोतीगंज रोड पर स्थित था।
वह आंधी-तूफान में तब्दील उधर ही उड़ी चली जा रही थी।
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