Pavanputra Abhimanyu : पवनपुत्र अभिमन्यु
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Description
सृष्टि के आदिकाल में न सत था न असत, न वायु थी न प्रकाश, न मृत्यु थी न जीवन, न रात थी न दिन, उस समय केवल यही एक था जो वायुरहित स्थिति में अपनी शक्ति से सांस ले रहा था। इसके अतिरिक्त कुछ नहीं था। फिर कुछ घटित हुआ, समय के सूरमतक्ष रूप त्रिसेणु का जन्म हुआ। ब्रह्माण्ड की छ: श्वांसों से एक पिनाड़ी बनी। साठ श्वांसों से एक नाड़ी बनी और साठ नाड़ियों से एक दिवस बना, दिन–रात। तीस दिवसों का एक मास बना। बारह मास का एक वर्ष बना। त्रिसेणु ने कितने रूप बदले, त्रिसेणु से बड़ा त्रुटि, फिर वेध, उससे बड़ा लावा, उससे बड़ा निमेष, उससे बड़ा क्षण, उससे बड़ा काष्ठा, उसे बड़ा लघु। फिर दण्ड, दण्ड से बड़ा मूहर्त, उससे बड़ा याम और फिर प्रहर, प्रहर से बड़ा दिवस और यह समय चक्र ब्रह्माण्ड की आयु भी निर्धरित करता है, भूलोक, पाताल लोक, देवलोक, स्वर्ग लोक यह सब निर्धारित आयु का जीवन पाते हैं।
चलिए जानते हैं पाताल लोक का जीवन कितना है जहां पवनपुत्र अभिमन्यु ने आग लगा दी है। चलिये जानते हैं रावण की स्वर्ण लंका कहां है जहां पर रावण का साम्राज्य है।
एक हैरत अंगेज दास्तान जिसकी रचना सदियों में एक बार ही होती है।
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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उत्पत्ति से पहले
संसार में वेद, पुराण, उपनिषद, सैकड़ों की संख्या में प्रकट हुए। प्राय: यही कहा जाता है कि वह शब्द रचना प्रकट हुई। लिपी नहीं गयी, कोई विचार उत्पन्न हुआ और उसने शब्दों का आकार ग्रहण कर लिया। जहां जो शब्द मानव जगत में प्रचलित थे उन्हीं शब्दों में वह विचार प्रकाशित हो गये, उनमें से कुछ पूजनीय बन गये। अर्थात हम यह मानकर चलते हैं कि पहले विचार उत्पन्न होता है, फिर शब्द उसे आकार देते हैं और वह एक ग्रंथ या पुस्तक का रूप धारण कर लेता है। पवनपुत्र अभिमन्यु भी पहले एक विचार था। ऐसा विचार जो अब तक रची गयी पुस्तकों में सर्वथा अलग था। यदि वह विचार ही था कि सात द्वीप होंगे, नौ खण्ड होंगे, सात लोक होंगे, उनमें सत्यलोक ब्रह्माण्ड की सबसे ऊपरी सतह पर होगा जहां ब्रह्माजी का निवास होगा। यह अलग बात है कि ब्रह्मा जी केवल हिन्दुओं के अधीष्ठ देव हैं। इसके अतिरिक्त पृथ्वी में आबाद कोई कौम या देश नहीं मानता कि ब्रह्मा जी जैसी कोई शख्सियत होगी। परन्तु हमने पहले ही कहा कि पहले विचार उत्पन्न होता है फिर शब्दों द्वारा वह आकार लेता है। ब्रह्माण्ड की रचना की जाये, यह भी एक विचार था। विचार ने आकार लिया और धरती, आकाश, चांद, सितारे बन गये। उसके बाद ज्यों–ज्यों जीवन बढ़ता रहा अनेक विचार उत्पन्न होते रहे। वह शब्दों में और ठोस आकार में भी परिणीत हुए। इमारत बनाने से पहले इंजिनियर उसे शब्दों और रेखाओं में बनाता है। विचार कोई भी उत्पन्न हो सकता है। जब एक विचार मात्र से पूरा ब्रह्माण्ड बन सकता है तो दूसरा ब्रह्माण्ड क्यों नहीं बन सकता ? कहने का लब्बोलुआब यह है कि पहले विचार आता है, फिर विचार आकर लेता है।
पवन–पुत्र अभिमन्यु भी एक विचार के रूप में लेखक के मन में आया और अब वह शब्दों के रूप में सामने है। किन्तु इस विचार की उत्पत्ति से पूर्व भी कुछ था। वह भी विचार था और इस वर्तमान विचार की आधरशिला वही पूर्व में प्रकाशित विचार ही हैं। उस विचार का प्रारंभ अभिमन्यु का चक्रव्यूह नामक उपन्यास से होता है जिसमें बताया जाता है कि अभिमन्यु कौन है, उसका जन्म कब, कैसे हुआ, इस विचार को पुस्तक रूप देने में एवं लोकप्रिय बनाने में कुछ महत्वपूर्ण पात्रों के योगदान को तटस्थ नहीं किया जा सकता। विस्तार में न भी जायें तो भी सारांश में वो ही होगा। वरना यह वर्तमान विचार सागर के खारा पानी जैसा लगेगा। चूंकि पहले जिक्र करते हैं केशव पंडित का, जो विचार का केन्द्रबिन्दु है, जहां से अंकुर स्फुरित होते हैं। केशव पण्डित वैसे तो पेशे से एक वकील है परन्तु वह एक जासूस भी है। वह एक ऐसी शख्सियत है जो पुलिस की नाक में दम करने वाले अपराधियों को खत्म करता है। उसे दिमाग का जादूगर भी कहा जाता है। उसका गुरु रमाकांत नामक शख्स है जो एक न्यूज चेनल का चीफ एडिटर हैं। रमाकान्त की बेटी माधवी है जो फील्ड में रहकर समाचार के लिये जोखिम भी उठाती है। केशव पंडित की पत्नी सोफिया है। उसका ड्राइवर एक ऊबड़खाबड़ सिक्ख है जिसका नाम करतार सिंह है और जो पटियाला का रहने वाला है। करतार सिंह केशव पंडित का केवल ड्राइवर ही नहीं है असिस्टेन्ट भी है और केशव के बंगले में ही रहता है। केशव का चीफ असिस्टेन्ट राजन शुक्ला है। राजन की पत्नी भी एक तेज–तर्रार महिला है, चांदनी नाम है। केशव की इस टीम में एक विवंशक पात्र भी है जिसका नाम आशीर्वाद पंडित है। वह केशव का जांबाज बेटा है और कुछ मामलों में केशव से भी दो कदम आगे है। अंतराष्ट्रीय गैंगेस्टर जो जरायम की दुनिया में अनेक कीर्तिमान स्थापित कर चुका है, शिकागों में जन्म लेने वाला अलफांसे केशव का मित्र भी है भले ही वह दोनों एक-दूसरे से विपरीत दिशाओं में काम करने वाले लोग हैं। इन दोनों का सिंगही से छत्तीस का आंकड़ा है। सिंगही एक वैज्ञानिक होने के साथ–साथ संसार की वह खूंखार शख्सियत है जो पूरी पृथ्वी पर अपना राज कायम करना चाहता है। खैर, यह पात्र तो मात्र एक विचार है। परन्तु पृथ्वी पर ऐसे लोग वास्तव में जन्म ले चुके हैं जो पृथ्वी जीतने के तमन्नाई थे और बेनामी मौत मारे गये। सिंगही भी किसी दिन बेनामी मौत मारा जायेगा। बस विचार आने भर की देर है।
अभिमन्यु पंडित की भूमिका बांधने के लिये इस विचार को आकार देने के लिये उपरोक्त केन्द्रीय पात्रों की उपस्थिति अनिवार्य है। ‘अभिमन्यु का चक्रव्यूह’ में एक अद्भुत दास्तान सामने आती है। इस दास्तान के अनुसार केशव पंडित की पत्नी सोफिया पंडित ने दरअसल जुड़वा बच्चों को जन्म दिया था। जब बच्चों को उसने जन्म दिया तो एक नर्स और लेडी डॉक्टर वहां मौजूद थी। सोफिया उस समय बेसुध थी। उसे इल्म ही नहीं था कि उसने जुड़वा बच्चों को जन्म दिया है। इन जुड़वा बच्चों में एक चमत्कार यह था कि उनकी उंगलियों की चिन्ह रेखायें भी समान थीं। सिंगही उस समय केशव से भीषण इन्तकाम लेने की फिराक में था। वह केशव के बच्चे सहित पत्नी को भी मार डालना चाहता था किन्तु उसने तत्काल ही अपना विचार बदला और जुड़वा बच्चों में से एक का अपहरण इस तरह किया कि इसका कोई प्रमाण ही न रहे कि दो बच्चों ने जन्म लिया था। उसने लेडी डॉक्टर और नर्स की भी हत्या कर दी ताकि यह राज, राज ही रहे। सिंगही ने उस बच्चे का नाम अभिमन्यु रखा और उसकी परवरिश थाईलैण्ड में बौध भिक्षुओं के सबसे बड़े टैम्पिल शाउकैन में की जहां अभिमन्यु को बचपन से ही मार्शलआर्ट का महारथी बनाया जाता है। उसे संसार की प्रत्येक भाषा सिखायी जाती है। उसे संसार के सभी प्रसिद्ध शास्त्रों का ज्ञान कराया जाता है। उसे योगा के मूक रहस्य सिखाये जाते हैं। उसे सभी शस्त्रों की जानकारी दी जाती है और उसे शस्त्रों के संचालन की शिक्षा दी जाती है, उसके बाद सिंगही अभिमन्यु को केशव पंडित के विरुद्ध मैदान में उतारता है और मुम्बई में अभिमन्यु के आने से तरह–तरह की घटनायें घटनी शुरू हो जाती हैं। चूंकि आशीर्वाद का हमशक्ल है इसलिये केशव की फैमली भी डिस्टर्ब हो जाती है। जबकि आशीर्वाद को सिंगही कैद कर लेता है। अब केशव को फांसने के लिये एक चक्रव्यूह बनाया जाता है। उस चक्रव्यूह को तोड़ने पर ही केशव आशीर्वाद तक पहुंच सकता है। उस चक्रव्यूह में सिंगही एक नये नगर का निर्माण भूमि के अंदर करवाता है, किन्तु केशव उस चक्रव्यूह को तोड़ देता है और सिंगही की सारी योजना चौपट हो जाती है, उसे फरार होने पर मजबूर होना पड़ता है। अभिमन्यु का राज खुल जाता है और वह केशव के परिवार में शामिल हो जाता है। सिंगही ने एक बन्दर की भी सेवा प्राप्त की थी जिसे अभिमन्यु ठरकी कहकर पुकारता था। ठरकी सूडान के जंगलों का ऐसा बन्दर है जो आम जाति से कद में थोड़ा बड़ा है। वह भारतीय और वेस्टर्न नृत्य का माहिर है और उसके पांवों में घुंघरू बंधे रहते हैं। वह बेशकीमती कोहीबा सिगार पीने का आदी है। इंसानों के ब्राण्डेड वस्त्र् पहनता है और पक्का अय्याश है। दरअसल उसे अफ्रीका में रिसर्च कर रहे एक वैज्ञानिक थारकी ने ट्रेन्ड किया था। थारकी इंसानों की जुबान बोलता था। और कई भाषायें जानता था। थारकी कोई विलक्षण रिसर्च कर रहा था। इस रिसर्च का विषय संसार और पाताल की भौगोलिक संरचना थी। थारकी सिंगही का मित्र था, थारकी की हत्या कर दी जाती है और उसकी रिसर्च के सारे दस्तावेज गायब हो जाते हैं। तब बन्दर ठरकी सिंगही को मिल जाता है और सिंगही प्रोफेसर थारकी का ब्रेन बन्दर ठरकी में प्लान्ट कर देता है। दरअसल सिंगही उन्हीं दस्तावेजों की तलाश में था, उसका अनुमान था कि थारकी चूंकि उसके हर राज से वाकिफ था इसलिये थारिक का दिमाग पाते ही वह रिसर्च पूरी की जा सकती थी। किन्तु ऐसा सम्भव नहीं हो सका और बन्दर सिंगही के पास रहने लगा। यह बन्दर अभिमन्यु से कफी हिला हुआ था। अभिमन्यु ने ही उसका नाम थारकी रखा था। जब अभिमन्यु अपने परिवार का हिस्सा बन गया तो थारकी चम्पत हो गया और वापिस अपने आका सिंगही के पास पहुंच गया। यहीं से अभिमन्यु सिंगही का शत्र भी बन गया।
सिंगही अभिमन्यु को फिर से अपने दल में वापस लाना चाहता था। इसके लिये वह थारकी के माध्यम से ही जाल बिछाता है और अभिमन्यु थारकी को पकड़ने के लिये एक लंगूर ट्विंकल को ट्रेन्ड कर लेता है जो थारकी को पकड़ लेता है अभिमन्यु ठरकी को एक पिंजरे में कैद कर लेता है, सिंगही एक बार फिर नाकाम हो जाता है। अब इसमें और अभिमन्यु में पूरी तरह ठन जाती है। अभिमन्यु सिंगही को अब्बा हजूर कहता है। सिंगही की हर काट अभिमन्यु के पास है। अभिमन्यु उसके बहुत से केन्द्रों को तहस–नहस कर देता है। वह गोल्डन ट्राड एंगिल में सिंगही का ड्रास सेन्टर तबाह कर देता है। हालात यहां तक पैदा हो जाते हैं कि सिंगही को फरार होकर कहीं छुपने को विवश होना पड़ जाता है।
अभिमन्यु पण्डित को पता चलता है कि प्रोफेसर थारकी जिसने बन्दर को ट्रेन्ड किया था वह वास्तव में रावण की स्वर्ण लंका तलाश कर रहा था और इसके लिये उसने हिमालय की भी यात्रा की थी। प्रोफेसर की रिसर्च बताती थी कि राम–रावण युद्ध के उपरान्त स्वर्ण लंका सागर में डूब गयी थी। वह स्वर्ण लंका वास्तव में विशाल स्वर्ण महल था जो पूरे का पूरा सोने का बना हुआ था। विभीषण को जो लंका राज करने के लिये भेजा था वह एक द्वीप था किन्तु सोने की लंका सागर में डूब गयी थी। रिसर्च के इन्हीं दस्तावेजों को प्राप्त करने के लिये प्रोफेसर थारकी की हत्या की गयी थी। उसकी हत्या जादूगर सांगल ने की थी और सांगल को अब स्वर्ण लंका की तलाश थी। सांगल एक ऐसा जादूगर था जो अपने हाथों को शरीर से अलग कर देता था। अपने सिर को भी धड़ से अलग कर देता था। पहले वह स्टेज पर ऐसे ही शो दिखाया करता था किन्तु हकीकत में वह सिंगही से भी खूंखार मुजरिम था। सांगल भी चीनी था और जिस देश से उसका सम्बन्ध था वह सिंगही का मित्र देश था। अत: सांगल और सिंगही में सीधा कोई शत्रुता नहीं थी। किन्तु स्वर्ण लंका की तलाश की सुन–गुन सिंगही को भी लग चुकी थी। उसे पता चला कि पृथ्वी में पाताल के एक भूभाग में एक नगर बसा हुआ है। उस नगर को स्टेशन जेड कहा जाता है और संसार के तमाम बड़े माफिया, आंतकवादी गिरोह स्टेशन जेड के आधीन संचालित होते हैं। स्टेशन जेड को पृथ्वी ही नहीं पूरे ब्रह्माण्ड की राजधानी का स्वरूप दिया जा रहा है। सिंगही जान चुका था कि यह नगर बनाने वाला कौन है। सिंगही उस नगर तक पहुंचने का रास्ता तलाश कर रहा था। किन्तु जब उसे पता चला कि स्टेशन जेड को किसने बनाया है तो सिंगही ने अपने आपको पीछे हटा लिया, किन्तु वह स्वर्ण लंका की तलाश में लगा रहा।
उन्हीं दिनों स्टेशन जेड की एक महत्वपूर्ण हस्ती जुनेद मुस्तकीम उर्फ छलावा ने स्टेशन जेड से बगावत कर दी और वह भूमिगत नगर से फरार होने में कामयाब हो गया। छलावा के पास एक डायरी और स्टेशन जेड की महत्वपूर्ण जानकारियां थीं जो उसने एक तिजोरी में रख दी थीं। और तिजोरी को एक बंगले की दीवार में छुपा दिया था। छलावा ने करांची में अपना गैंग खड़ा कर दिया। एक अन्य मुजरिम विजय उस स्टेशन जेड के लिये काम कर रहा था। विजय की विशेषता यह थी कि वह अपनी आंखों से दीवारों के आर–पार देख सकता था। पहले वह इन्हीं आंखों की सहायता से मरीजों का इलाज करता था किन्तु उसकी यही विशेषता उसे क्राइम की दुनिया में ले गयी। उसका काम आतंकवादियों को फंडस पहुंचाने का था जो उसे स्टेशन जेड से मिलता था। इसी स्टेशन जेड की तलाश केशव पंडित को थी। और छलावा की डायरी की तलाश जादूगर सांगली को भी थी। उस डायरी को सिंगही भी प्राप्त करना चाहता था। सांगली और सिंगही को यह जानकारी मिली थी कि छलावा की उस डायरी में स्वर्ण लंका तक पहुंचने का नक्शा है।
यह सब जो शब्दों में लिखा हुआ वह विचार ही था। विचार था कि क्या स्वर्ण लंका का वर्तमान में कहीं अस्तित्व है ? यदि राम हुए तो रावण का भी जन्म हुआ। रावण हुआ तो विभीषण, सूर्पनखा, कुम्भकरण भी हुए। यदि यह सब हुए तो हनुमान भी हुए। हनुमान हुए तो सुरसा, त्रिजटा, ताड़का, खरदूसण, मारीच, अहिरावण यह सब हुए। यदि इन सब विचारों को सत्य मान लिया जाये तो ब्रह्माण्ड में ऐसे–ऐसे दैत्य, दानव, राक्षस, भूपति, देव, गंधर्व, किन्नर, नाग, यक्ष पैदा हुए कि मानो यह त्रिलोक ही उनके सामने छोटा था। राजा बलि जब कि त्रिलोक का राजा था और पूरे ब्रह्माण्ड में लोक को छोड़कर सभी लोको पर राजा बलि का साम्राज्य था तो विष्णु उसके महल में ब्राह्मण के रूप में पहुंचे। ब्राह्मण भी बौना। राजा बलि ने एक रंग महल का निर्माण किया था। उसका पूजन हो रहा था। तब ब्राह्मण के रूप में भगवान उसके पास भिक्षा मांगने पहुंच गये। राजा बलि बहुत बड़ा दानी था। ब्राह्मण ने केवल तीन पग भूमि मांगी थी। बलि ने उसका उपहास उड़ाते हुए तीन पग भूमि दान में दे दी और भगवान ने तीन पग में ही त्र्लिोकी नाप ली। इस तरह बलि से त्रिलोकी को छीन ली गयी और उसे पाताल के सुतलु लोक में वास करने के लिए भेज दिया। तो इसका अर्थ यह है कि भूमण्डल की ऊपरी सतहों पर त्रिलोक है। त्रिलोक में स्वर्गलोक और देवलोक भी है। वे सब विचार का सागर रूप हो सकते हैं। यदि इस विचार को शास्त्रों ने मान्यता प्रदान की है। राम को माना है तो पाताल को न मानने का कोई कारण नहीं है। क्योंकि आहिरावण राम, लक्ष्मण का अपहरण करके पाताल में ही ले गया था और सागर में सुरसा का साम्राज्य था। हनुमान की पसीने की एक बूंद मछली के मुंह में जा गिरी तो मकर/वज पैदा हो गया। यह विचारों के आकार प्रकार ही तो हैं।
तो मित्रों पाताल है, यह विचार भी साकार है। शास्त्रों ने उसे मान्यता दी है। उसी मान्यता का आधार स्तम्भ यह विचार है जो शब्दों के रूप में सामने आया। अभी यह केवल विचार है, शब्द रूप देने के उपरान्त सम्भव है कि कालान्तर बाद जब इन शब्दों को पढ़ा जायेगा तो इसे केवल विचार नहीं समझा जायेगा। एक हकीकत समझा जायेगा।
शास्त्रों में पूरे ब्रह्माण्ड की आयु निर्धारित है। सभी लोकों की प्रलय का समय रख दिया गया है। प्रत्येक प्राणी के जीवन का समय निर्धारित किया गया है। ब्रह्माण्ड का भी जीवन काल निर्धारित है और सत्ताईस चतुर्भुज के उपरान्त महाप्रलय का भी काल निर्धारित है। क्या वह विचार मात्र है या सचमुच में हर श्वांस का समय निधरित है, अब एक विशेष प्रश्न खड़ा हो जाता है।
सभी जीवन के कालखण्ड की गणना की गयी है। और उसकी सत्यता पर विज्ञान भी कुछ प्रतिशत मोहर लगा चुका है कि उस विचार ने जिसने समय की रचना की थी वह सकार है, सत्य है।
पर समय का विचार करने वाले महाज्ञानी से एक चूक अवश्य ही हुई है या वह भी विचार था परन्तु उसे मूल रूप नहीं दिया गया। पाताललोक के भी अनेक खण्ड हैं, सुतल, अतल, वितल लोक किन्तु इसकी आयु का वर्णन शब्द रूप में कहीं उपलब्ध नहीं है।
अब एक विचार उत्पन्न होता है। पाताल में सूर्य नहीं है––––चांद, तारे नहीं हैं तो वहां दिन–रात भी नहीं है। पातालवासी अपनी गणना से सोते, जागते हैं। यदि वहां सूर्य नहीं है तो प्रकाश की व्यवस्था कैसे हो, प्रकाश का उद्गम अग्नि ही है। पूरा सूर्य आग का ही तो गोला है। पृथ्वी उसका एक टूटा हुआ उल्का पिण्ड ही तो है। जिसे ठण्डा होने में करोड़ों वर्षों की गणना बतायी जाती है। तो क्या पाताल में अग्नि के पर्वत हैं ? जब पाताल में समय ही नहीं है तो वहां आग के वह पर्वत नहीं होंगे जो पृथ्वी का प्रारंभिक रूप था। यदि पाताल में टाइम ही लॉक है तो फिर वहां की आबादी कैसी होगी ? क्या वहां शरीर की बनावट एक निर्धारित कदकाठी तक पहुंचने के बाद शरीर वैसा ही रहता होगा ? क्या वहां बच्चा पैदा होते ही तुरन्त बड़ा आकार ले लेता होगा ? और यदि समय ही ताले में बन्द है तो क्या अहिरावण, सुरसा, राजा बलि, मयदानव या अन्य असुर जिनसे पूरी त्रिलोकी दहल जाती थी वे उसी रूप में न होंगे। जब समय नहीं है तो इस विचार को पुख्तगी मिलती है कि वह सब पात्र अमर हैं।
अगला विचार यह उत्पन्न होता कि इन सभी पात्रों से सीधा संवाद किया जाये। इनके रहन–सहन, रीति–रिवाजों पर विचार किया जाये। और इस विचार को शब्दों का रूप दिया जाये।
पवनपुत्र अभिमन्यु उसी विचार का एक दस्तावेज है। विचार पहले शब्दों का ही रूप लेते हैं, फिर वह आकार–प्रकार साकार की बहस में पड़ते हैं। कुछ विचारों को मान्यता मिल जाती है। कुछ विचारों को मान्यता प्रदान करवाने के लिये एक विचार दूसरे विचार से युद्ध करता है
अंत में मैं अभिमन्यु पंडित इतना और लिखूंगा कि विचारों के समूह में यह भी एक नया विचार है। केवल विचार समझ कर इसका आनन्द लीजिये।
अभिमन्यु पंडित
पवनपुत्र अभिमन्यु
गुफा के दायें–बायें चार खूंखार कद्दावर भेड़िये बंधे हुए थे। चारों की चमकदार आंखें सुर्खी का बादल बनी हुई थीं। लाल जुबान मुंह से बाहर लटक रही थी। वह धीरे–धीरे गुर्रा रहे थे और कभी एक–दूसरे को देखकर मायूस भी हो जाते, कभी पंजों से गले में पड़े पट्टे को खींचने की कोशिश करते। कभी अगले–पिछले पंजे रगड़ने लगते।
गनीमत यह थी कि उनके मुंह से रणभेरी नहीं निकल रही थी। अन्यथा अगर उन्होंने हू–हा की हुंकार लगायी होती तो आस–पास के भेड़िये उधर का रुख कर लेते। उनके सामने कुछ हड्डियां पड़ी थीं। जिनका मांस वह नोच–नोच कर खा चुके थे। जानवरों की दो आदतें सबमें पाई जाती हैं–एक तो वह भोजन के लिये गृहयुद्ध भी कर सकते हैं। दूसरे वह अपनी सीमा में अपनी बिरादरी के बाहरी जानवर को बर्दाश्त नहीं करते और उसे अपनी सीमा से बाहर खदेड़ कर ही दम लेते हैं।
बर्फपोश पहाड़ियों के बीच सूखे पहाड़ भी थे लेकिन पीछे पश्चिम में जहां तक निगाह जाती बर्फ के ग्लेशियर अपना विकराल दामन फैलाये खड़े थे। जहां यह गुफा थी, वहां बर्फ नहीं थी। लेकिन उसकी पृष्ठभूमि में जो पहाड़ खड़ा था पूरी तरह बर्फ से ढका हुआ था।
यह उसी इलाके के पहाड़ी भेड़िये थे। कद्दावर, बड़े–बड़े स्याह बाल, खड़े कान, नोकीले बड़े–बड़े दांत। चौड़े नाखूनदार पंजे। चारों भेड़िये अपने पंजों को मोड़ कर बैठे थे। कभी–कभी उनमें से कोई बागी तेवरों के साथ खड़ा होकर गुर्राता, पंजे फटकारता, पंजों से जमीन उधेड़ने की कोशिश करता। फिर जैसे हथियार डालकर बैठ जाते। शायद उनकी यह कोशिश काफी देर से जारी थी।
दिमाग के जादूगर केशव पंडित का जांनिसार छ: फुटा गबरु जवान बेटा आशीर्वाद पंडित, जो कि खुद में एक खूंखार भेड़िया था वह एक चट्टान की ओर से नमूदार हुआ। उसकी पीठ पर सूखी लकड़ियों का एक गट्ठर चमड़े के तस्मों से बंधा हुआ था जिस पर नीले रंग की फौजी जंगरी थी–पांवों में दुर्गम पहाड़ों और बर्फ में इस्तेमाल होने वाले लांग बूट थे जो उसकी पिण्डलियों से कसे हुए थे। टांगों के दोनों पैरों का निचला हिस्सा लांग बूटों के अंदर फिक्स था।
वह पूरे दो घंटे की मशक्कत के बाद जंगलों से लकड़ियां काट–छांट कर ला रहा था। कमर में एक तरफ चमड़े की बेल्ट के साथ कुल्हाड़ी लटक रही थी। दूसरी तरफ रिवॉल्वर का होलेस्टर था। इतना ही नहीं उसके कंधे पर क्लशिनकॉफ रायफल भी झूल रही थी।
वहां इस किस्म की और भी बस्तियां हो सकती थीं जो बर्फीली गुफाओं में आबाद हो सकती थीं।
आशीर्वाद को अभिमन्यु पर बहुत गुस्सा आ रहा था जिसने उसे लकड़हारा बना दिया था। जब वह दोनों जुड़वा भाई मुम्बई से रवाना हुए थे तो अभिमन्यु ने आशीर्वाद को एक लालच दिया था। एक मिशन में जब वह बोक्साडी आदमखोर जादूगरों से भिड़ गये थे तो आशीर्वाद के कान एक जादूगर सांगली ने उखाड़ लिये थे। किन्तु अभिमन्यु ने तुरन्त किसी अन्य मुर्दा इंसान के कान आप्रेशन द्वारा उससे जोड़ दिये थे, पर आशीर्वाद को इसकी आत्मग्लानि होती थी। कान बदलने पर उसकी शक्ल में भी थोडी तबदीली आ गयी थी। यह कान उसके अपने कानों से आकार में बड़े थे। जब उसने अभिमन्यु से पूछा कि मेरे कान कहां हैं, तो अभिमन्यु ने वादा किया कि चाहे धरती, पाताल एक क्यों न कर दिया जाये, उसके कान हासिल करके रहेंगे। बस एक दिन अभिमन्यु ने कहा कि कान सांगली जादूगर के पास सुरक्षित हैं। उसने आशीर्वाद के कान विजेता के रूप में सुरक्षित रखे हैं और सांगली एक बोक्साडी गांव में छुपा हुआ है।
अब हुआ यूं कि उस बोक्साडी गांव की तलाश में वह अभिमन्यु के साथ चल पड़ा और अब लकड़हारा बना हुआ था। यहां की बर्फीली ठंड से बचने और भोजन बनाने के लिये सूखी लकड़ियों की जरूरत पड़ रही थी। अपने लगेज में वह अधिक सामान नहीं ले जा सकते थे। जरूरत भर का सामान था। ऐसा नहीं था कि केवल आशीर्वाद ही लकड़ियां लेकर आता था, अभिमन्यु भी यह काम करता था और दोनों बारी–बारी से यह काम करते थे।
नीचे पहाड़ की तैराई में अलकनन्दा नदी बह रही थी । उस तरफ एक गहरी ढलान थी और चीड़ के त्रिभुजाकार वृक्षों की नोकदार चोटियां दिखाई देती थीं। जिनके नीचे लाल रंग की घास का कालीन बिछा नजर आता था। यह चीड़ के दरख्तों की पत्तियां थीं। इस मखमली लाल घास पर बेसाख्ता रपटन होती है। पांव फिसल जाये तो सैकड़ों फुट गहरी खाई थी। यहां पगडन्डियां नहीं थीं। बेतरतीब चट्टानों का सिलसिला दूर तक फैला नजर आता था। वह बर्फीले पहाड़ों के बहुत निकट थे यह फासला पांच सौ मीटर से ज्यादा नहीं था। हवा के साथ उसकी शीतलहर की चपेट ने पूरी वादी को लिया हुआ था। और मौसम के तेवर भी कुछ ठीक नजर नहीं आते थे। पीछे कोहरे की चादर विस्तार फैलाने के लिये बेचैन थी।
आशीर्वाद उसी कोहरे की चादर से लकड़ी का गट्ठर पीठ पर लादे नमूदार हुआ था। उसके सिर पर कान तक ढकने वाली ऊनी टोपी थी जिसमें उसका मुंह छुपा था। केवल आंखों का हिस्सा खुला हुआ था। एक भोटिया (पहाड़ी जनजाति) गाइड उनके साथ आया था जिसने उनका सामान भी उठाया था। सामान में टैन्ट भी था लेकिन उन्हें यह गुफा मिल गयी थी। और यहां से भोटिया ने आगे जाने से इंकार कर दिया था। वह वापस लौट गया था।
गुफा की बनावट से साफ पता चलता था कि वह प्राकृतिक गुफा नहीं है बल्कि उसे मानवीय हाथों से तराश कर बनाया गया है। मुमकिन है वहां पहले यह गुफा प्राकृतिक रही हो और जंगली जानवरों का भय हो। गाइड भोटिया ही उन्हें इस गुफा तक लेकर आया था। उसका कहना था कि यहां से आगे आदमखोर भेड़ियों का साम्राज्य है और यहां रहना खतरे से खाली नहीं है। वह एक रात तो उनके साथ रुका। सारी रात गुफा द्वार पर उसने अलाव जलाये रखा। रात भर भेड़ियों की चीख-पुकार सुनायी देती रही। लेकिन कोई भेड़िया उस तरफ नहीं आया। भोटिया गाइड अगली सुबह ही वापस लौट गया।
आशीर्वाद ढलान पर से चढ़ता हुआ, गुफा द्वार पर पहुंचा तो भेड़िये गुर्राते हुए एकदम तन कर खड़े हो गये और पंजों से धूल उड़ाने लगे।
आशीर्वाद ठिठक कर रुक गया। उसका हाथ रिवॉल्वर के होलेस्टर पर टिक गया लेकिन जब उसने देखा कि भेड़ियों को वहां बांध कर रखा गया है तो उसे बेहद हैरानी हुई। आखिर इन दो घंटों के बीच क्या हुआ ? क्या गुफा पर भेड़ियों ने हमला किया था ? लेकिन यह चार ही क्यों हैं, इनके तो गोल एक साथ चलते हैं, और सबसे आश्चर्य की बात तो यह थी कि उन्हें इस तरह बांध गया था जैसे कुत्तों को बांधा जाता है।
आशीर्वाद को देखकर वह खौफनाक अंदाज में गुर्राने लगे और उनकी आंखों की सुर्खी और सुर्ख हो गयी। ऐसा लगता था जैसे वहां अंगारे सुलगा दिये गये हों।
उनकी गुर्राहट में साफ तौर पर दो किस्म की आवाजों का मिश्रण था। आक्रमण और डर। वह आक्रमण के लिये कभी तो गले में पड़ी रस्सी को झटका मार कर तोड़ने की कोशिश करते और कभी पीछे हटने की कोशिश करते। आमतौर पर ऐसे जंगली जानवर आक्रामक भी होते हैं और रक्षात्मक भी होते हैं। वह हमले के लिये आगे भी बढ़ते हैं और जरूरत पड़ी तो पीछे हट कर भाग भी जाते हैं। भेड़िये हमेशा गोल बनाकर हमला करते हैं।
वह आशीर्वाद से डर भी रहे थे और उसकी बोटी–बोटी नोचने के लिये भी बेताब थे। लेकिन सवाल यह था कि यह करिश्मा हुआ कैसे? थोड़ी देर तक वह बंधन मुक्त होने की कोशिश करते रहे, पंजे झाड़ते रहे। बालों को फटकारते रहे।
आशीर्वाद ने उन्हे बेबस देखकर लकड़ी का गट्ठर नीचे उतारा और हाथ झाड़ता गुफा के दहाने की तरफ बढ़ने लगा। गुफा के दायें–बायें झाड़–झंगड़ थे। उनमें कुछ वृक्ष भी थे। इन्हें वृक्षों के तनों से बांधा गया था।
इस गुफा में उन्होंने आठ दिन पहले पड़ाव डाला था।
आशीर्वाद धीरे–धीरे कदम उठाता गुफा के दहाने तक पहुंचा और फिर अंदर दाखिल हो गया।
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Additional information
Book Title | Pavanputra Abhimanyu : पवनपुत्र अभिमन्यु |
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Isbn No | |
No of Pages | 400 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | 2021 |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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