नृशंसक : Nrshansk
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Description
‘नृशंसक’ शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है- जिसका मतलब होता है बेरहमी की हदों को पार कर जाने वाला । हाँ - वो ऐसी ही थी ।
वो न मर्दों में थी - न औरतों में । वो एक किन्नर थी । और उसका किसी को भी सजा देने का तरीका ऐसा भयावह था कि आदमी के उस सजा को सुनकर ही होश उड़ जायें ।
अपने यार की टांग लगवाने बलराज गोगिया मुम्बई पहुँचा तो हंगामा उसका पहले से ही इंतजार कर रहा था । और फिर ऐसा बवण्डर उठा कि–––– ।
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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नृशंसक
“डिंग....डां....ग....।”
कालबैल बजी।
एक ईजी चेयर पर बैठे हुकूमत शाह ने किचन की तरफ देखते हुए आवाज लगाई—
“ओ वेखीं ओये (ओ देखना ओये) गुड्डू—कौन आया वे।”
कहते हुए उसने अपने बगल में रखी बैसाखी उठाकर अपनी कटी हुई और साबुत टांग के मध्य रख ली।
तभी किचन में से गुड्डू निकला।
गुड्डू करीब तेईस-चौबीस साल का व्यक्ति था। मगर वह न आदमियों में था—न औरतों में।
चेहरे से ही वह छक्का नजर आ रहा था। ऊपर से उसने जनाना कपड़े पहन रखे थे।
सिर को हल्का-सा झटका दे—अपनी चाल में लोच लाते हुए वह अपनी बाईं बांह को कोहनी से मोड़कर हाथ को लटकाये हुकूमत शाह के पास से निकला और दरवाजे की तरफ बढ़ गया।
मेन डोर खोलकर वह कम्पाउंड में आया और ड्राईव-वे पर खड़ी सफेद स्कोर्पियो के पास से होते हुए मेन गेट के पास पहुँचा और कुण्डा खोलकर गेट को इतना ही खोला कि वह अपनी गर्दन बाहर निकाल सके।
सामने बलराज गोगिया राघव को उठाये खड़ा था।
उसके बराबर में सुनीता खड़ी थी—जिसने कंधे पर एयर बैग उठा रखा था। और वैसा ही एक बैग बलराज गोगिया ने भी उठा रखा था। तीनों के मत्थों पर माता की लाल चुनरी बंधी हुई थी।
गुड्डू ने राघव को इग्नोर करते हुए बलराज गोगिया और सुनीता को बारी-बारी से प्रश्न भरी नजरों से देखा—फिर बोला—
“किससे मिलने का?” उसकी आवाज में भी औरतों वाला अंदाज था।
“लगता है पापा जी यह कोठी किसी और को बेच गये हैं।” सुनीता धीरे से बलराज गोगिया से बोली।
बलराज गोगिया ने उसकी बात का जवाब नहीं दिया और गुड्डू को देखा—
“यहाँ पर शाह जी रहते थे—हुकूमत शाह जी।”
“तुम कौन?” गुड्डू ने प्रश्न भरे लहजे में कहा।
“क्या शाह जी अन्दर हैं?”
“हाँ—पर तुम कौन?”
“उनसे कहो कि उनका बेटा आया है। साथ में बहू भी है।”
गुड्डू ने उसे ऊपर से नीचे तक ऐसे देखा—जैसे वह उसे पहचानने की कोशिश कर रहा हो। फिर बोला—
“किदर से आया तुम फेमिली?”
“पहले तू बता, तू कौन है?” तभी राघव बोल पड़ा।
“अपुन पापा जी का खानसामा है। अपुन....पर तुम क्यों पूछता—।”
“बातें करना छोड़—और जाकर शाह जी को बोल जो कहा है।” सुनीता थोड़ा तीखे स्वर में बोली।
“जाती है—। तुम यहीं रहने का। अन्दर नहीं आने का।”
कहकर वह पलटा और ठुमकता हुआ वापिस कम्पाउंड की तरफ बढ़ गया।
“यह क्या अजीब नमूना रख लिया है शाह जी ने।” सुनीता बोली—“न मर्दों में आता है—न औरतों में—और....।”
“तुम अन्दर चलो।” तभी राघव बोल पड़ा—“वह भीतर जाकर आधा घण्टा शाह जी का सिर खायेगा, फिर आयेगा।”
“हाँ—अन्दर ही चलते हैं।”
कहते हुए सुनीता ने कदम आगे बढ़ाये।
राघव को उठाये बलराज गोगिया भी भीतर प्रवेश कर गया।
पलट कर उसने गेट बन्द करके कुण्डा लगाया और फिर सुनीता के साथ कम्पाउंड की तरफ बढ़ने लगा।
¶¶
“कौन था?”
गुड्डू के करीब आते हुए हुकूमत शाह बोला।
“पता नहीं कौन हैं। खुद को आपका छोकरा बोल रयेला है।”
“छौकरा—।” चौंका हुकूमत शाह।
“हाँ—उसके साथ एक छोकरी भी है और एक छोटा लड़का भी है—जिसका टांग नहीं है।”
सुनकर हुकूमत शाह का पूरा जिस्म ही खुशी से थर्रा उठा।
तुरंत उसने अपने इकलौते हाथ से बैसाखी सम्भाली और अपनी इकलौती टांग पर खड़े होते हुए बोले—
“ओये कंजरा—बाहर क्यों खड़ा किया हुआ वे तूने उन्हें—ले के आ—जल्दी।”
गुड्डू ने चेहरे को झटके से परे किया और जैसे ही दरवाजे की तरफ बढ़ने को हुआ—बलराज गोगिया राघव को उठाये भीतर प्रविष्ट हुआ।
“हम आ गये हैं शाह जी।”
“पुतरा....।” बलराज गोगिया को देख वह इतना उत्तेजित हो गया कि बैसाखी को वहीं गिरा एक टांग पर उछलते हुए उसकी तरफ लपका।
शायद वह गिर ही पड़ता—मगर बलराज गोगिया ने उसे सम्भाल लिया।
तभी राघव सरककर नीचे उतरा और हुकूमत शाह के पैरों को छू लिया।
सुनीता तथा बलराज गोगिया ने भी उसके पैर छुए।
“पैरी पौणा शाह जी।”
“ओये मेरी छाती नाल लग पुतरा—ऐथे ठण्ड पा....।” उसने अपने इकलौते हाथ को सीने पर मारा और फिर उसे खींचकर अपने सीने से भींच लिया।
ऐसा लग रहा था जैसे वह बरसों बाद अपने खोये हुए बेटे से मिल रहा हो।
खुशी उसकी आँखों से बहकर बलराज गोगिया की शर्ट को भिगोने लगी।
ऐसा लग रहा था जैसे वह वर्षों के बिछोह की कसर आज ही पूरी कर लेना चाहता हो।
कुछ देर बाद उसने उसे स्वयं से अलग किया और राघव को अपने इकलौते हाथ से उठाकर उसे भी वैसा ही प्यार किया।
फिर उसे उतारकर सुनीता के सिर पर हाथ रखा।
“तेरा की हाल है धीये (बेटी)?”
सुनीता उससे लिपटकर ऐसे रोई—जैसे वर्षों बाद बाबुल से मिली हो।
“बस....बस कर पुत्तर—बस कर।” हुकूमत शाह उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए बोला।
सुनीता उससे अलग हुई तो बलराज गोगिया ने उसकी बैसाखी उठाकर उसे थमा दी।
“आओ....आओ मेरे बच्चो....।” हुकूमत शाह अपनी ईजी चेयर की तरफ बढ़ा—“ओये कंजरा—देख नहीं रहा—मेरा पुत्तर और नूं (पुत्रवधू) आये हैं। ओ सौफा इधर ले आ।” वह गुड्डू से बोला—जो हैरानी से आँखें फाड़े उनके मिलन को देख रहा था।
उसकी बात पर वह हड़बड़ाया, फिर हाथ को जनाना अंदाज में हिलाते हुए बोला—
“उधर ही बैठने का। यहाँ सौफा लाऊंगी तो लाबी का शो बिगड़ जायेगा। ऐ....तुम इदर आने का।”
उसने बलराज गोगिया को देखते हुए दोनों हाथों से सोफे की तरफ इशारा किया—जो लाबी के बीचों-बीच पड़ा था, फिर उसने हुकूमत शाह को देखा—“तुम्हारा चेयर मैं उदर ले जाती।”
“यह कंजर मरेगा कभी मेरे हाथ से।” हुकूमत शाह हौले से हंसा।
“अय हय....।” गुड्डू ने ताली बजाई—“ऐसेईन मारेगा तुम अपुन को! अपुन मर गया तो तुम खाना किदर से खायेंगा?”
“अब बोलती बंद कर अपनी और कुर्सी उठा। चल पुतरा, सौफे ते बैठ। यह कंजर अपनी मनवा के ही रहेगा।”
कहकर वह बैसाखी ठकठकाता हुआ सोफों की तरफ बढ़ा।
“कौन है यह?” बलराज गोगिया उसके साथ चलते हुए बोला—“जब मैं गया था, तब तो नहीं था।”
“अपुन गुड्डू है और....।”
“ओये चोप कर कंजरा।” कुर्सी रखते गुड्डू को घूरते हुए गुर्राया हुकूमत शाह—“जा के चा पानी बना।”
गुड्डू ने सीधा होते हुए मुँह पिचकाया और हाथ तथा कूल्हों को मटकाते हुए किचन की तरफ बढ़ गया।
हुकूमत शाह हौले से हंसते हुए कुर्सी पर बैठ गया।
“तुम भी बैठो बच्चों।” वह तीनों से बोला।
“यह नमूना कहाँ से ले आये शाह जी।” राघव हल्के से उछलकर एक सोफा चेयर पर बैठते हुए बोला।
“वो भी दस्सांगा। पहले तुम बताओ—सीधा यहीं आये हो?” कहते हुए बलराज गोगिया को देखा।
“मुम्बई में आपके अलावा और कौन है हमारा शाह जी।” बलराज गोगिया बोला—“आपसे हमें पनाह मिली। आपने हमारे लिये जान लड़ा दी थी और....।”
“मेरी छड्ड पुतरा—।” हुकूमत शाह ने उसकी बात काटी—“अपने मतलब वास्ते ही तो मैंने तैनूं अपनाया सी। तभी तो हम थापर को पा सके थे।”
“वीरू....राजाराम और जयपाल नजर नहीं आ रहे?” राघव ने पूछा—“कहाँ हैं वे?”
“एक छोटा-सा रेस्टोरेंट खोला है अपना—वीरू वहीं ड्यूटी देंदा है।”
“कहाँ खोला है रेस्टोरेंट?”
“यहीं पास ही है।” हुकूमत शाह ने अपनी बांह पीछे की तरफ की—“पिछले महीने ही मुहूर्त किया सी। रब दी दया से खूब बढ़िया चल पड़ा वे काम।”
“और राजाराम और जयपाल....।”
“वो एक दुकान खाली कराने गये हैं।” मुस्कुराया हुकूमत शाह—“इस वक्त उस दुकान की कीमत चार करोड़ है। दुकान मालिक को दुकान दी जरूरत पड़ी तो किरायेदार से दुकान मांग ली। मगर उसने साफ इन्कार कर दिया। दुकान मालिक ने उसे पचास लाख की आफर दी तो किरायेदार ने इन्कार करते हुए दुकान की कीमत एक करोड़ लगा दी।”
“चार करोड़ की दुकान एक करोड़ में खरीदना चाहता था वो?”
“आहो।”
“फिर?” दिलचस्पी लेते हुए बोली सुनीता।
“फिर क्या—वह मेरे पास रोते हुए आया और मदद मांगी।”
“तो अब राजाराम और जयपाल भैया उसकी मदद करने गये हैं।”
“आहो। तीस लाख मिले हैं इस मदद के। डेढ़ दो घण्टे हो गये हैं उन्हें गये होये। शाम तक आ जायेंगे।”
“आपकी तबीयत कैसी है अब?” बलराज गोगिया बोला।
“ठीक वे पुतरा।” मुस्कुराया हुकूमत शाह—“तेरे जाने के बाद किस्मत ने पलटी मारी—ते मैं फिर नोटा विच खेलने लगा। थापर नूं तो तूने मारया था। पर अण्डरवर्ल्ड विच नाम मेरा चढ़ गया। इक महीने में ही मैं दो करोड़ कमा लिये। पैसा आया तो मैंने तेरी खोज में आदमी भेज दिये। क्योंकि राघव वास्ते साठ लाख का बंदोबस्त हो गया सी। मगर तू नईं मिला। रब दा शुक्र है कि तुसी आ गये। अब इस राघव दी टांग वापिस लगवा सकते हैं।”
कहते हुए उसने राघव की घुटने के पास कटी टांग पर नजर मारी।
“पैसे का बंदोबस्त करके ही आये हैं हम शाह जी।” बलराज गोगिया ने अपने पैरों के बीच रखे बैग पर हाथ रखा—“आप डॉक्टर कुलकर्णी से कह दें कि वह अमेरिका से डॉक्टर को बुला ले—जो मेरे यार की टांग लगा दे।”
“ओ भी कर देवांगा। तू पहले थोड़ा अराम ते कर ले।” मुस्कुराया हुकूमत शाह।
“तो अब शाह जी गुण्डागर्दी कर रहे हैं।” तभी राघव बोल पड़ा।
हुकूमत शाह ने चौंककर उसे देखा—फिर होठों पर गंभीर मुस्कान लाते हुए गहरी सांस छोड़ी—
“बाहर जा के पूछ पुतरा कि हुकूमत शाह कैसा गुण्डा है। तैनू आपे ही पता चल जायेगा कि मैं कैसी गुण्डागर्दी का खा रहा हूँ। अण्डरवर्ल्ड में मेरा पुराना दबदबा है। उसी नाम की बदौलत खा रहा हूँ। मैंने किसी गरीब को नहीं सताया—किसी से नाजायज नहीं की—कोई भी जरूरतमंद यहाँ आता है तो खाली नहीं जाता। लोगों के दिलों में मेरा डर नहीं बल्कि इज्जत है। समझा....।”
राघव हौले से मुस्कुरा पड़ा—“लगता है आप पर भी बलराज का रंग चढ़ गया है।”
“वो तो चढ़ना ही सी।” हंसते हुए बोला हुकूमत शाह।
“और मुम्बई का सुनाईये—क्या हाल है मुम्बई का?”
बलराज गोगिया बोला।
सुनकर गम्भीर हो उठा हुकूमत शाह।
“इसे छोड़ तू पुतरा। तू बस अपने कम्म से कम्म रख। बाहर झांकने की सानूं की जरूरत।”
“ठीक ही तो कह रहे हैं पापा जी।” सुनीता बोली—“हमने कोई किसी का ठेका तो नहीं ले रखा। हमारा अब बस यही मकसद है कि राघव का ऑपरेशन ठीक-ठाक हो जाये और इसकी टांग इसे हासिल हो जाये।”
“आमीन....।” हुकूमत शाह ने अपने सीने पर हाथ रखा।
तभी गुड्डू एक बड़ी ट्रे उठाये वहाँ पहुँचा और ट्रे को सेंटर टेबल की साईड में रखकर सामान टेबल पर सजाने लगा।
सारा सामान सजाकर उसने खाली ट्रे उठाई और कूल्हे मटकाते हुए वापिस किचन की तरफ बढ़ गया।
“चा (चाय) पीयो बच्चों—मैं वीरू को तुम्हारे आने की खबर देता हूँ।”
कहते हुए उसने जेब से मोबाइल निकाला और वीरू शाह को फोन करने लगा।
“हैलो....की हाल ने वीरू....बलराज आया है। साथ में सुनीता और राघव वी हैं....आहो....वो चाय पी रहे वे....ठीक है....आ जा—।”
उसने मोबाइल वापिस जेब में डाला और बलराज गोगिया को देखते हुए मुस्कुराया—
“वो आ रहा है।”
तभी सुनीता ने कप उठाकर उसे चाय सर्व की।
हुकूमत शाह ने अपने इकलौते हाथ से चाय का कप पकड़ा और उसे फूंक मारकर पीने लगा।
“आपने गुड्डू के बारे में नहीं बताया शाह जी।” तभी राघव प्लेट में से ड्राईफ्रूट उठाते हुए बोला—“कौन है यह?”
“करमा मारया है बेचारा।” गहरी सांस छोड़ी हुकूमत शाह ने—“पांच साल पहले अपने मां-बाप से लड़कर घर से भाग गया था।”
“किस बात पर लड़ा था?” सुनीता ने पूछा।
“अपनी हरकतों के कारण। था तो यह लड़का मगर इसकी हरकतें लड़कियों वाली थीं। बाप ने इसे बहुत समझाया कि ऊपर वाले ने जैसा उसे बनाया वे—वैसा बन के रहे। मगर वो बेचारे के हाथ में नहीं था। लड़कियों की तरह सजना संवरना इसकी आदत बन चुकी थी। उनकी तरह हाव-भाव दिखाता था और मुंडया कोलों यह ऐसे घबराता था—जैसे वो उसके दुश्मन हों। इसकी इन्हीं हरकतों की वजह से उसके बाप को कई बार शर्मिन्दा होना पड़ा। छोड़ वी नहीं सकदे थे। इकोएक (इकलौता) मुंडा था। सो बस समझाते ही रहते थे। बस मां-बाप की इन्हीं बातों से तंग आकर इसने घर छोड़ दिया।”
“फिर?”
“मां-बाप दी हालत उसके भागने से ऐसी हो गई कि उनका खाना-पीना तक छूट गया। पिछले साल ही एसदी मां ऐंदे गम ते मर गई। बिचारी बुढ़ियां अखां (आँखें) मरदे वक्त भी दरवाजे नूं देख रही दीं।”
“ओह!” सुनीता के मुँह से अफसोस भरा स्वर निकला।
हुकूमत शाह ने चाय का घूंट भरकर कप कुर्सी के हत्थे पर टिकाया और आगे बोला—
“इसका प्यो भी यही समझ रहा था कि अब यह इस दुनिया में नहीं रहा। मगर तीन महीने पैलां (पहले) यह अचानक आ गया और अपने बाप से खुद को बचा लेने की दुहाई देने लगा।”
“गुण्डे लगे हुए थे इसके पीछे?” बलराज गोगिया ने पूछा।
“गुण्डे नहीं, किन्नर लगे हुए थे।”
“किन्नर?” तीनों एक साथ चौंके।
“आहो। बेचारे के साथ बड़ी बुरी बीती। यहाँ से भागा तो हिजड़ों के एक ऐसे गैंग के हत्थे चढ़ गया जो अच्छे-भले को भी हिजड़ा बना देते हैं। उन्होंने इसे मर्द से नामर्द बना दिया। मर्द की निशानी को काट डाला।”
“उफ....।” राघव के मुँह से निकला।
“और फिर इसे जबरदस्ती अपने गैंग में शामिल कर इसे ट्रेनिंग दी और फिर इसे यहाँ से शिफ्ट कर दिया।”
“कहाँ?”
“दिल्ली में। जहाँ यह लोगों के घरों में नाच-गा कर कमाता और अपने महंत को देता। बेशक यह काम इसमें रच-बस चुका था, लेकिन इसके दिल में कभी-कभी अपने मां-बाप की याद उठती रहती। आखिर मां-बाप के प्यार ने जोर मारा और इसके दिल में इस काम से नफरत भर गई और एक दिन मौका लगते ही वहाँ से भाग निकला और सीधा अपने बाप के पास आ गया।”
कहकर वह चाय पीने लगा।
“आपके पास कैसे आ गया यह?” राघव ने पूछा।
हुकूमत शाह ने कप खाली कर सुनीता की तरफ बढ़ाया।
“पड़ी पुतर (पकड़ना बेटे)।”
सुनीता ने कप लेकर टेबल पर रखा और उसे देखने लगी।
हुकूमत शाह अपनी कटी हुई टांग के सिरे पर ऐसे हाथ फेरने लगा जैसे मालिश कर रहा हो।
“घर में आकर उसने अपने बाप को अपनी व्यथा के बारे में अभी बताना शुरू ही कीता था कि इसके बाप को फोन आ गया।”
“किसका? उन्हीं का जिन्होंने गुड्डू को नपुंसक किया था?” सुनीता बोली।
“नहीं। दिल्ली से आया था फोन—मगर गुड्डू ने कह दिया चाहे कोई भी हो—वह यही कहे कि गुड्डू यहाँ नहीं। बाप ने समझदारी से काम लिया। दूसरी तरफ से बोलने वाले ने खुद को पुलिस वाला बताते हुए यह कहा कि क्या गुड्डू सही-सलामत पहुँच गया है। जवाब में गुड्डू के बाप ने इन्कार करते हुए कहा कि वो कहाँ है....और ऐसा दर्शाया जैसे वह गुड्डू के लिये छटपटा रहा हो। फिर दूसरी तरफ से नम्बर बताते हुए कहा गया कि जैसे ही वो पहुँचे—इस नम्बर पर फौरन सूचित किया जाये।”
“फिर?”
“बाप ने जब गुड्डू को फोन के बारे में बताया तो गुड्डू ने कहा कि वो बहुत ही खतरनाक लोग हैं। वो जरूर यहाँ आकर तसल्ली करेंगे। साथ ही उसने अपने बाप से कहा कि इसके वहाँ रहने से दोनों की जान को खतरा है। इसलिये इसने उससे कहा कि वह किसी ऐसी जगह चला जाता है—जहाँ उसे कोई न पहचानता हो। मगर बाप अब अपने बेटे को खुद से जुदा करने को तैयार नहीं था। साथ ही वह यह भी जानता था कि गुड्डू छुपने वाली चीज नहीं है। उसके हाव-भाव—उसका बात करने का स्टाइल—उसकी चाल उसे दूसरों से अलग बनाती है। सो वह उसे लेकर मेरे पास आ गया।”
“आपको जानता था वह?”
“तब से—जब अण्डरवर्ल्ड पर सिर्फ मेरा सिक्का चलता था। मैं तब भी वैसा ही सी—जैसा अब हूं। बस फर्क यह था कि तब मेरी दोनों टांगें थीं और दोनों हाथ भी सी। मगर थापर ने मेरी एै हालत कर दिती।”
“फिर?” राघव बोला।
“उसने मुझे गुड्डू के बारे में बताया और फरियाद की कि इसे बचाये। तब गुड्डू ने कहा कि वह हर तरह का खाना बना लेता है। सो मैंने इसे अपने पास रखा लिया। बस तभी से यह इस घर में है—घर से बाहर इसने कभी कदम भी नहीं रखा—यहाँ तक कि यह कभी दरवाजा खोलने भी नहीं जाता। कोई आता है तो दरवाजा नौकर खोलता है।”
“नौकर?”
“आज छुट्टी पर है वो। एक औरत भी है। औरत सुबह सफाई वगैरह करके चली जाती है, फिर शाम को आती है। जबकि नौकर का कोई रिश्तेदार मर गया है। वो कल आयेगा। उसका नाम सूरजभान है।”
“ओह।”
“उसके न होने की वजह से ही गुड्डू ने तुम्हारे लिये दरवाजा खोला—जो इसकी मजबूरी थी।”
“आपने इससे कभी पूछा नहीं कि पांच साल में इस पर क्या-क्या बीती?” सुनीता ने पूछा।
“एक बार पूछा था।”
“फिर क्या बोला वो?”
“कुछ भी नहीं। बुरी तरह से डर गया था—पूरा जिस्म कांपने लगा था उसका—और फिर वह मेरा पैर पकड़कर कहने लगा कि भगवान के लिये उससे कुछ भी न पूछा जाये। वह बीते वक्त को याद भी नहीं करना चाहता। और यह भी कहा कि किसी को भी उसके बारे में न बताया जाये कि वो यहाँ है। कुछ भी न बताया जाये। मैंने भी जोर नहीं दिया और चुप रहा।”
“और इसका बाप?”
“वो हफ्ते दस दिन बाद यहाँ आ जाता है अपने बेटे से मिलने।”
“यानि आप दोनों के अलावा और किसी को भी गुड्डू के बारे में नहीं पता।” बलराज गोगिया बोला।
“नहीं—सूरजभान जानता है। नौकरानी जानती है। मगर उन्हें भी मैंने सख्त हिदायत दे रखी है कि गुड्डू के बारे में किसी से कुछ न बताया जाये।”
“यानि किसी बाहरी आदमी को नहीं पता?”
“नहीं।”
“हो सकता है नौकर-नौकरानी ने बाहर किसी से गुड्डू के बारे में बता दिया हो।” राघव बोला—“क्या पता लगता है?”
“उम्मीद तो नहीं—बाकी की कहा जा सकदा है!” गहरी सांस छोड़ी हुकूमत शाह ने।
“मगर बातूनी तो इतना है यह कि कहीं से लगता ही नहीं कि यह डरा हुआ है।”
सुनीता बोली।
“तू इसे एक महीना पहले देखती धीये—फिर तू ऐसा कभी न कहती। यह तो इसे हमारे बारे में धीरे-धीरे पता लगया कि हम कौन हैं—फिर जाके ऐसनूं कुछ हौसला होया। तू हुन वी ओहनूं बाहर भेजने की बोल—फिर देखीं ऐंदी हालत।”
अजीब ही भाषा थी हुकूमत शाह की।
लगातार हिन्दी बोलते-बोलते वह बीच में पंजाबी ऐसे घुसेड़ देता था—जैसे उसे याद आ गया हो कि उसे पंजाबी बोलनी है। बरसों से रह रहा था वह यहाँ, लेकिन पंजाबी नहीं भूला था। ऐसा लगता था जैसे वह हिन्दी बोलने की भरपूर कोशिश करता है लेकिन बीच-बीच में पंजाबी उस पर हावी हो ही जाती है।
सुनीता ने बलराज गोगिया को देखा।
अभी वह कुछ कहने ही जा रही थी कि तभी कालबैल बजी।
“डिंग....डां....ग....।”
सभी की निगाहें किचन के दरवाजे की तरफ उठ गईं—लेकिन गुड्डू किचन से बाहर नहीं निकला।
“तू जा पुतर।” हुकूमत शाह सुनीता से बोला—“हुण गुड्डू बाहर नईं निकलेगा।”
सुनीता उठी और मेन डोर की तरफ बढ़ गई।
“तुम भी अब माता की चुन्नी खोल दो।” हुकूमत शाह ने बलराज गोगिया तथा राघव पर नजर मारी।
“चुन्नी तो अब कंजक बिठाकर ही उतरेगी शाह जी।” बलराज गोगिया बोला—“वैष्णों देवी से सीधा यहीं आये हैं हम। अब जब तक कंजक नहीं बिठायेंगे, तब तक हम बेड पर भी नहीं सो सकते।”
हुकूमत शाह कुछ नहीं बोला—बस मुस्कुरा पड़ा।
शीघ्र ही सुनीता वापिस लौटी तो उसके साथ वीरूशाह था।
हुकूमत शाह का इकलौता बचा बेटा। उसके बाकी के तीन लड़के, लड़की, दामाद तथा पत्नी थापर के साथ जंग में बलिदान हो गये थे।
बलराज गोगिया और राघव से वीरूशाह पूरी गर्मजोशी से मिला।
कुछ देर इधर-उधर की बातें हुईं—और फिर वीरूशाह ने राघव की कटी टांग की तरफ इशारा करते हुए हुकूमत शाह को देखा—
“आपका फोन आते ही मैंने डॉक्टर कुलकर्णी को फोन कर दिया था। उसने कहा है कि मैं शाम को राघव को लेकर उसके अस्पताल आ जाऊँ।”
“बढ़िया किया। अब एक और काम कर।”
“जी, कहिये।”
“आठ कंजकों का बंदोबस्त कर। बच्चों ने माता की चुन्नी उतारनी है।”
“जी....मैं अभी ले के आता हूँ बच्चियों को।”
कहते हुए वीरूशाह खड़ा हो गया।
“तुम भी नहा-धो लो।” हुकूमत शाह ने बलराज गोगिया से कहा।
¶¶
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Additional information
Book Title | नृशंसक : Nrshansk |
---|---|
Isbn No | |
No of Pages | 318 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | 2010 |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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