निशाचर : Nishachar by Shiva Pandit
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Description
बात-बेबात कत्ल कर देने वाला शातिर अपराधी अर्जुन त्यागी के लिए इस बार एक कत्ल की सुपारी लेना खुद उसके लिए बबाले-जान बन गया...।
कैसी थी वो कत्ल की सुपारी...कौन था उसका शिकार...?
एक कत्ल करने का ठेका मिला उसे। उसने उसका कत्ल क्या किया कि खून का ऐसा सैलाब उठा कि....
निशाचर : Nishachar
Shiva Pandit
Arjun Tyagi Series
BookMadaari
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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निशाचर
शिवा पण्डित
“हां...।” एक लम्बी गहरी सांस छोड़ते हुए उसने बैड पर लेटे-लेटे ही एक भरपूर अंगड़ाई ली और उठ बैठा।
अपना भाड़-सा मुंह खोलकर उसने जम्हाई लेते हुए खुले मुंह के आगे तीन-चार चुटकियां मारीं और बेड से उतरकर बाथरूम की तरफ बढ़ गया।
आधे घण्टे बाद वह बाथरूम से नहा-धोकर बाहर निकला तो उसकी नजर ऐन सामने दीवार पर टंगे कलैण्डर पर पड़ी, जिस पर बांसुरी बजाते भगवान श्रीकृष्ण की तस्वीर थी।
वह कलैण्डर के सामने आया और अपने कूल्हों पर हाथ रख श्रीकृष्ण की तस्वीर को देखते हुए बोला—
“तू तो अपने धन्धे में लगा हुआ है प्रभु...हर वक्त या तो बांसुरी बजाता रहता है...या गोपियों से रास रचाता रहता है। कभी मेरी सुध ली है तूने? पता है कब से बेकार बैठा हुआ था? शिवा पण्डित को जानता है न तू...अरे वही लेखक...साले ने अपनी कलम की नोक से बांध रखा है मुझे। साला वो बेकार क्या हुआ...मुझे भी बेकार करके रख दिया। खोपड़ी में नई-नई तरकीबें आती रहीं...बढ़िया-बढ़िया छोकरियां सपनों में आती रहीं...मगर सिर्फ राल ही टपकाता रह गया मैं। अब जाकर जान में जान आई है। वह साला क्या नाम है उसका...हां ‘रवि पॉकेट बुक्स’ वाला...उसने शिवा पण्डित को लिखने को बोला...तो मेरी भी नींद खुल गई। अब जाकर जान में जान आई है...।”
वह जो कि अर्जुन त्यागी था...ने कूल्हों से हाथ हटाकर प्रभु के सामने हाथ जोड़े और बोला—
“धन्धे पर निकल रहा हूं प्रभु...लाज रखना। बोहनी अच्छी कराना और कोई बढ़िया-सी...टनाटन लड़की से जरूर टकरा देना। बहुत अरसा हो गया। शरीर काफी भारी हो चुका है...कुछ हल्का हो जाऊंगा।”
वह ऐसे बोल रहा था, जैसे प्रार्थना कर रहा हो।
दुनिया प्रभु के सामने विश्व की भलाई की कामना करती है...मगर अपने जनाब तो यह प्रार्थना कर रहे थे कि उनकी खून-खराबे की...धोखेबाजी की दुकान बढ़िया चल निकले।
“अब चलता हूं...ध्यान रखना। एक बार तो भूले-भटके तेरा नाम ले लिया...अगर तू चाहता है कि आगे भी तेरा नाम लेता रहूं, तो बाहर निकलते ही बढ़िया-सा काम मिलना चाहिये।”
ऐसे बोला वह...जैसे प्रभु को धमका रहा हो।
मुरली मनोहर भला क्या कहते...बस बांसुरी होंठों से लगाये खड़े रहे...होंठों पर मनमोहिनी मुस्कान लिये।
अर्जुन त्यागी कलैण्डर के सामने से हटा और दरवाजा खोलकर बाहर निकल गया।
इस वक्त वह राज गेस्ट हाउस में था।
गेस्ट हाउस से निकलकर वह सड़क पर आया और लगा शिकार को ढूंढने।
मगर...!
कोई हलाल नहीं हुआ।
सुबह से शाम हो गई, फिर रात हो गई।
लेकिन वह खाली हाथ वापिस लौटा। उल्टे खाना खाने में चार सौ खर्च हो गये।
रात नौ बजे वह गेस्ट हाउस में मुंह लटकाये वापिस लौटा और अपने कमरे में आकर दरवाजा बन्द किया और बेड पर अधलेटी अवस्था में बैठ गया।
तभी उसकी नजर ऐन सामने दीवार पर श्रीकृष्ण की तस्वीर पर पड़ी।
घूरकर उसने तस्वीर को देखा...जैसे नाराजगी जता रहा हो।
बोला कुछ नहीं वह...बस तस्वीर को घूरता रहा।
तभी...!
‘टक...ठक...ठक...!’
दरवाजे पर दस्तक हुई।
उसने कैलेण्डर से निगाहें हटाकर दरवाजे की तरफ देखा और फिर बेड से उतरकर दरवाजे की तरफ बढ़ा।
वह यही समझा कि गेस्ट हाउस का नौकर खाना पूछने के लिये आया है।
सिटकनी गिराकर उसने दरवाजा खोला तो सामने नौकर की बजाय सत्ताईस-अट्ठाईस साल के हैंडसम युवक को खड़ा पाया...जिसने कि गहरे हरे रंग का थ्री पीस सूट पहन रखा था...गले में टाई थी...और पैरों में काले रंग के चमड़े के जूते थे।
अर्जुन त्यागी ने उसे ऊपर से नीचे तक घूरा और फिर प्रश्न भरी निगाहें उस पर टिका दीं।
“कहिये...?” वह बोला।
“मुझे तुमसे मिलना है।” वह आदमी मुस्कुराया।
“मगर मैं तुम्हें नहीं जानता।” अर्जुन त्यागी बोला।
जितने गुनाह वह अब तक कर चुका था...उससे उसे सौ बार भी फांसी मिलती...तो भी कम थी। बस एक ही चीज थी उसके पास...सतर्कता। उसी के दम पर ही तो वह अभी तक कानून को छका रहा था।
“मेरा नाम अविनाश है...अविनाश खोटे।” वह आदमी पुनः मुस्कुराया।
“सॉरी...इस नाम का मेरा कोई रिश्तेदार नहीं।”
“मैं तुमसे रिश्तेदारी गांठने नहीं आया।”
“मैं तुम्हें जानता भी नहीं।”
“मगर मैं तो तुम्हें जानता हूं।”
“अच्छा!” अर्जुन त्यागी ने आश्चर्य जताया—“कौन हूं मैं...?”
“वही...जिसके पीछे आधे हिन्दुस्तान की पुलिस लगी है। अर्जुन त्यागी...।” उसका नाम अविनाश ने बहुत धीमे से लिया था।
अर्जुन त्यागी मुस्कुरा पड़ा।
“आपको गलतफहमी हुई है जनाबेआला...मेरा नाम रमेश श्रीवास्तव है। गेस्ट हाउस के रजिस्टर में मेरा नाम लिखा हुआ है...जाकर तसल्ली कर लीजिये...और जिस अर्जुन त्यागी का आप जिक्र कर रहे हैं...उसके साथ मेरा दूर-दूर का रिश्ता नहीं। अगर इत्तफाक से मेरे से उसकी सूरत मिलती है तो मेरी बदकिस्मती।”
“तो तुम अर्जुन त्यागी नहीं हो?”
“बिल्कुल नहीं।”
अविनाश ने एक गहरी निराशा भरी सांस छोड़ी—“बहुत बड़ी ऑफर लेकर आया था मैं उसके लिये...लेकिन...।”
“कैसी ऑफर...?”
“छोड़ो...जब तुम अर्जुन त्यागी हो ही नहीं तो फिर तुमसे क्या बात करूं...।”
“मगर बात क्या है...?”
“कुछ नहीं।”
कहकर अविनाश जैसे ही मुड़ने को हुआ, अर्जुन त्यागी ने उसकी बांह पकड़ ली।
“अरे...ऐसे कैसे जा सकते हैं आप? आये हैं तो चाय-पानी तो पीकर जाइये।”
“जब हमारी रिश्तेदारी ही नहीं तो चाय-पानी कैसी...?”
“रिश्तेदारी बनते भी कोई देर लगती है...लो...।” कहकर अर्जुन त्यागी ने उसे गले से लगा लिया—”हो गये हम रिश्तेदार...अब अन्दर आओ...।”
“मगर मुझे तो अर्जुन त्यागी से मिलना है।”
“तो मुझे समझ लो न...।”
“न...समझने वाली बात नहीं...कबूल करो कि तुम ही अर्जुन त्यागी हो...फिर अन्दर आऊंगा।”
“अरे किया मेरे बाप...आ जा अब...।” “
“बाप...मगर मैं कैसे हो गया तुम्हारा बाप...?”
“बापों की कमी ही कहां है मुझे। जानते हो एक बार मेरी मां ने मेरी शादी करने की सोची।” वह उसकी कलाई पकड़ उसे अन्दर लाते हुए बोला।
“फिर शादी की...?” अविनाश मुस्कुराया।
“लड़की देख ली मेरी मां ने। पसन्द भी कर ली। लड़की ने भी मुझे पसन्द कर लिया...लेकिन फिर भी लड़की ने ना कर दी।”
“क्यों...?”
बैड पर बैठते हुए अविनाश ने हैरानी जताई।
“मेरे बापों की वजह से...।”
“यह क्या बात हुई? शादी का तुम्हारे बापों से क्या मतलब...?”
“मतलब था...तभी तो उसने इन्कार किया।”
“कैसे...?”
“उस लड़की ने यह कहा कि शादी के बाद अपनी सास को प्रणाम तो कर लेगी...मगर जब ससुरों की बारी आयेगी तो उसकी पूरी जिन्दगी झुके-झुके ही गुजर जायेगी।”
अविनाश खोटे के होंठों पर फैली मुस्कान तेज हो गई।
“तुम वही हो...बिल्कुल वही हो।” वह बोला।
“अब काम की बात बोलो...मगर पहले यह बताओ...यहां कैसे पहुंचे? मेरा पता कैसे लगा...?”
“एक घण्टे से पीछे लगा हुआ हूं तुम्हारे।”
“क्या मतलब...?” बुरी तरह से चौंका अर्जुन त्यागी—”त...तुम एक घण्टे से मेरे पीछे लगे हो...और मुझे पता ही नहीं चला।”
सचमुच हैरान हो रहा था वह।
“हां...साई बाबा चौक पर रेड लाइट थी। तुम एक टैक्सी में थे...और मैं तुम्हारी टैक्सी के बिल्कुल बराबर में अपनी कार में था। तभी मेरी नजर तुम पर पड़ी...और मैंने तुम्हें पहचान लिया।”
“एकदम से पहचान लिया?”
“हां...।”
“कमाल है...तुम तो ऐसे बोल रहे हो...जैसे पहले भी मुझे दस-बीस बार मिल चुके हो। जो मुझे देखते ही पहचान लिया।”
“वो बात नहीं। मैंने पहले तुम्हें कभी नहीं देखा था। हां...तुम्हारी तस्वीरें मेरे जेहन में इस कदर चिपक गई थीं कि तुम्हें देखते ही फौरन पहचान लिया मैंने। ऊपर से मुझे तुम्हारी शिद्दत से तलाश थी। पिछले दो महीनों से मैं तुम्हारी खोज कर रहा था। अब तुम खुद ही सोच सकते हो कि तुम्हें मैंने फौरन कैसे पहचान लिया।”
“फिर...?”
“फिर मैं तुम्हारे पीछे लग गया। टैक्सी का नम्बर मैंने अपने जेहन में नोट कर लिया...ताकि अगर तुम मुझे डॉज दे भी जाओ तो मैं टैक्सी के जरिये ही तुम्हारा पता लगा लूं, लेकिन जरूरत नहीं पड़ी उसकी। तुम वहां से सीधे ओबराय होटल गये और वहां खाना वगैरह खाकर एक टैक्सी के जरिये सीधे यहां आ गये। होटल में तुम्हारे उठने की इंतजार में मुझे भी खाना, खाना पड़ा था।”
“ओह!”
“और कुछ पूछना है?”
“अब मतलब की बात करो।” अर्जुन त्यागी गम्भीर होते हुए बोला।
“पहले दरवाजा बन्द कर लो।”
ठीक कह रहा था अविनाश खोटे...काली बातें हमेशा बन्द कमरों में ही ढंग से हो सकती हैं।
अर्जुन त्यागी उठा और दरवाजा बन्द कर सिटकनी चढ़ाकर उसके करीब आ बैठा।
“अब बोलो...।” वह बोला।
“एक खून करना है।” कहते हुए अविनाश की आवाज में हल्की-सी थर्राहट आ गई थी। जैसे खून नाम का शब्द अपनी जुबान से बोलना ही उसे भारी पड़ रहा हो। मगर अर्जुन त्यागी जरा भी नहीं चौंका।
उसका तो धन्धा ही यही था...डाके मारना...खून करना। फिर चौंकता क्योंकर वह।
हां...अगर वह यह कहता कि उसने उसके घर सत्संग करना है...तो अवश्य ही वह चौंक उठता।
“नाम...?”
“अविनाश खोटे। बताया तो...।” अविनाश खोटे बोला।
“तुम्हारा नहीं, उसका पूछा रहा हूं जिसे दुनिया से उठाना है।”
“राजेश...राजेश भाटिया...।”
“उसका पता...?”
“द्रोपदी नगर...तीस-सी...।”
“उसकी कोई फोटो वगैरह है तुम्हारे पास?”
“वो हासिल हो जायेगी तुम्हें।”
“कौन है वह राजेश भाटिया...और क्यों तुम उसे टपकाना चाहते हो...?”
“उससे तुम्हें कोई मतलब नहीं होना चाहिये...तुम कीमत बोलो और एडवांस पकड़ो।”
अर्जुन त्यागी के होंठों पर कुटिल मुस्कान नाच उठी।
“लगता है, तुम्हें भूलने की अच्छी-खासी बीमारी है।”
“क...क्या मतलब...?”
“अभी-अभी तो बताया था कि आधी दुनिया मेरी मां की सवारी गांठ चुकी है। यानि इस जिस्म में...।” उसने अपने सीने पर हाथ रखा—“दौड़ रहे खून में हर तरह की वैरायटी है...और यही खून यहां फिट...।” उसने अपनी कनपटी ठकठकाई—“भेजे को हर वक्त चाक-चौबन्द रखता है।”
“अरे भई...इसका तुम्हारे भेजे से क्या मतलब...?”
“जर्मन शेफर्ड नस्ल के कुत्ते की क्या कीमत होती है?”
“क्या मतलब...?”
“वो भी पता चल जायेगा...तुम कीमत तो बोलो।”
“मेरे पास है शेफर्ड...बाईस हजार का पिल्ला लिया था मैंने...।”
“और गली में घूम रहे आवारा कुत्ते की कीमत बाईस पैसे की भी नहीं होती होगी...जबकि है वो भी कुत्ता...और शेफर्ड भी कुत्ता ही होता है...वो भी मुंह से भौंकता है और वो भी। हां...अगर शेफर्ड पीछे से भौंकता होता तो फर्क समझा जा सकता था। दुम वो भी हिलाता है और वो भी...फिर कीमत में इतना फर्क क्यों...?”
“अरे भई, नस्ल का फर्क है। जर्मन शेफर्ड की बहुत उम्दा नस्ल है। भला आवारा कुत्ते का उससे क्या मुकाबला...?”
“बस...यही सुनना चाहता था मैं।” मुस्कुरा पड़ा अर्जुन त्यागी।
“क्या मतलब...?”
“मतलब यह जनाब कि मैं भी नस्ल देखकर ही रेट तय करता हूं। अगर तुम्हें उसके कत्ल से करोड़ों का लाभ पहुंच रहा हो तो मुझे भी उसी हिसाब से मजदूरी मिलनी चाहिये न।”
एक गहरी सांस छोड़ी अविनाश खोटे ने।
“मुझे उसके खून से लाभ नहीं, बल्कि नुकसान ही होगा।”
“तो फिर क्यों कर रहे हो नुकसान अपना?”
“इसलिये कि अब वह मेरी बर्दाश्त से बाहर हो गया है।”
“कैसे? खुलकर बताओ...और यूं किश्तों में मत बोलो...सारी बात स्पष्ट रूप से बताओ।”
अविनाश खोटे बेड पर थोड़ा पीछे को सरका और फिर अपने बायीं तरफ खिसककर बेड की पुश्त पर कोहनी टिकाते हुए बोला—
“राजन जी पार्क के पास मेरी शीशे की फैक्ट्री है...और राजेश भाटिया मेरी फैक्ट्री में सुपरवाइजर है। साठ लोग काम करते हैं मेरी फैक्ट्री में और राजेश भाटिया उनका लीडर है। उसके इशारे पर फैक्ट्री में ताला पड़ सकता है...मेरे सारे वर्कर उसे इतना मानते हैं कि उसके एक इशारे पर कुछ भी कर सकने को तैयार हैं...।”
वह पलभर के लिये चुप हुआ...जैसे अर्जुन त्यागी कुछ बोलेगा, मगर जब अर्जुन त्यागी कुछ नहीं बोला तो वह अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए बोला—
“चूंकि राजेश भाटिया यूनियन लीडर है...जाहिर है, उसका दबाव मुझ पर भी होगा। फैक्ट्री में हड़ताल न हो...इसलिये मैं उसकी जायज-नाजायज मांगें मानता रहता हूं। उन्हीं मांगों के अन्तर्गत वह अब तक मुझसे दस लाख ले चुका है...और पन्द्रह लाख का कर्जा भी फैक्ट्री से ले चुका है...जिससे कि उसने अपना मकान बनवा लिया है।”
“फिर...?”
“पिछले महीने मैंने कर्जे की बाबत उसकी सेलरी में से तीन हजार काटे तो वह भड़क उठा, जबकि कर्जा लेते वक्त यह बात तय हुई थी कि वह हर माह तीन हजार अपनी सैलरी से बतौर ब्याज कटवायेगा।”
“बड़ा ही कम ब्याज है।”
“वो तो वो भी नहीं दे रहा। उल्टे पन्द्रह लाख के कर्ज के बारे में यह कहता है...वह उसका एक हजार रुपया महीना देगा...वो भी एक साल बाद शुरू करेगा।”
“तब तो वह पूरी उम्र गुजार देगा...तो भी उसका कर्जा पूरा नहीं होगा। एक हजार महीने के हिसाब से पन्द्रह लाख का कर्जा पाटने में उसे पन्द्रह सौ महीने लगेंगे...यानि उसे सवा सौ साल और जीना होगा...और इतना वो क्या तुम भी नहीं जी सकते...।”
“वही तो कह रहा हूं मैं। मैंने उसे समझाया और जब वह नहीं माना तो उस पर मुकदमा कर दिया। कर्जे के कागज तो मेरे पास थे ही...वह उनसे मुकर नहीं सकता था। सो उसने मुझ पर दबाव डालने के लिये फैक्ट्री में हड़ताल करा दी।”
“ओह!”
“आज हड़ताल को चार दिन हो गये हैं...और एक लाख रोज के हिसाब से मुझे चार लाख का घाटा और हो चुका है। बहुत तंग आ चुका हूं मैं उससे...सो मैंने फैसला किया कि जहां इतना घाटा उठाया...वहां थोड़ा और सही...मगर इस रगड़े को हमेशा के लिये खत्म करना है।”
“और इसलिये तुम मेरे पास आये हो?”
“हां...।”
“क्या दोगे...?”
“तुम बोलो...क्या लोगे...?”
“दस लाख...।” सपाट स्वर में बोला अर्जुन त्यागी।
“द...दस लाख?”
“पूरे दस लाख।”
“एक खून ही तो करना है तुम्हें...उसके लिये इतनी बड़ी रकम...!”
“तो जाकर तुम कर लो न खून। बचा लो दस लाख।”
“ल...लेकिन मैं...।”
“कोई सौदेबाजी नहीं...सीधे हां या ना। अगर मंजूर हो तो पांच लाख एडवांस...पांच लाख काम होने के बाद। मंजूर नहीं तो दरवाजा उधर है।” अर्जुन त्यागी ने दरवाजे की तरफ बांह लम्बी की।
“म...मंजूर है।” हड़बड़ाया-सा बोला अविनाश खोटे।
“तो फिर निकालो पांच लाख एडवांस...।” अर्जुन त्यागी ने उसके आगे हाथ फैलाया।
“मैं कोई साथ थोड़े लाया हूं पैसा...मैं तो तुम्हारा पीछा करते हुए यहां पहुंचा था।”
“फिर...?”
“तुम कल सुबह दस बजे मेरी कोठी के बाहर पहुंच जाना। दस बजे में अपनी फैक्ट्री जाता हूं। वहीं कार में ही तुम्हें एडवांस भी मिल जायेगा और राजेश भाटिया की फोटो भी मिल जायेगी।”
“अपनी कोठी में बुलाने में डर लगता है क्या तुम्हें...?” मुस्कुराया अर्जुन त्यागी।
“स...समझने की कोशिश करो अर्जुन त्यागी...।” फंसे स्वर में बोला अविनाश खोटे—”अगर किसी ने तुम्हें पहचान लिया तो राजेश भाटिया के खून के बाद तुम बेशक न पकड़े जाओ...मगर मैं नहीं बचूंगा। कल भी तुम्हें एडवांस देकर कहीं बाहर चला जाऊंगा...ताकि किसी को मुझ पर शक न हो।”
“तो फिर मुझे बकाया कैसे मिलेगा?”
“यहीं इसी जगह पर पहुंच जायेगा।” अर्जुन त्यागी ने सिर हिला दिया।
और फिर अविनाश खोटे उसे अपनी कोठी का पता बताकर सुबह दस बजे पहुंचने को कह बेड से उतरा और दरवाजे की तरफ बढ़ गया।
उसके जाने के बाद अर्जुन त्यागी ने दरवाजा बन्द किया और श्रीकृष्ण के कलैण्डर के सामने आकर मुस्कुराया—
“बड़ा ही चालू है तू। पहले सारा दिन भाग-दौड़ कराई और फिर घर बैठे ही ग्राहक भेज दिया।”
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Additional information
Book Title | निशाचर : Nishachar by Shiva Pandit |
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Isbn No | |
No of Pages | 332 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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