नसीब मेरी ठोकर पर
सुनील प्रभाकर
“नसीब में जो होगा वही मिलेगा।”
“माई फुट।”
जरूर इस फिकरे की ईजाद करने वाला कोई कायर, कोई आलसी, कोई डरपोक आदमी होगा।
वरना हकीकत में बात एकदम उलट है।
नसीब क्या...इस दुनिया में किसी तरह से कुछ नहीं मिलता है।
जुगाड़ करनी पड़ती है, तिकड़म लड़ानी पड़ती है, छीनना पड़ता है।
लेकिन यही उसे नहीं पता था।
क्योंकि वह संतोषी था। नसीब पर भरोसा करने वाला था।
लेकिन यह नसीब, यही उसका सबसे बड़ा दुश्मन साबित हुआ था। बचपन क्या...जन्म से वह नसीब का खोटा था। कहते हैं एक साधू के अजीबो–गरीब आशीर्वाद से आज से अट्ठाइस वर्ष पूर्व मेरठ में उसका जन्म हुआ था। बस तक से ही नसीब कदम–कदम पर उसे छलता आया था।
आम आदमी की तरह उसके दिन में भी अरमान थे, आशायें थीं, आकांक्षाएं थीं, लेकिन यह नसीब हर जगह अपनी टांग अड़ाता रहा। वह एक इज्जतदार आदमी बनते–बनते रह गया। दौलत उसके हाथों आते–आते रह गई—और तो और नसीब की ठोकर ने उसकी महबूबा को भी उससे छीन लिया। लेकिन अपनी संतोषी और समझौतावादी आदत के कारण उसने किसी से गिला नहीं की, बल्कि वक्त और हालातों से सताई एक दूसरी लड़की से शादी कर ली। लेकिन वाह रे नसीब...हालातों ने उसे भी बेवफा कर दिया और तब उसे मजबूर होकर उसका और उसके यार का कत्ल करना पड़ा। इतना सब होने के बाद भी उसने नसीब का दामन नहीं छोड़ा। महबूबा के बिछोह की कसक और बीवी की बेवफाई का जख्म अपने सीने पर लिए नसीब के सहारे उसने दौलत कमाने की सोची। क्योंकि दौलत ही एक ऐसी शै थी जो उसे सुकून दे सकती थी, वह सब दे सकती थी जो उसने चाहा था, जो उसे मिलता–मिलता रह गया था। लेकिन एक बार फिर नसीब ने उसे ठोकर मार दी।
एक करोड़ की दौलत उसके हाथों आते–आते रह गई।
वह करोड़पति तो नहीं बन सका, एक कातिल बन गया।
कैदी बन गया।
एक ऐसा कैदी जिसके नाम तीन कत्ल थे।
गनीमत यही हुई कि अपराध सिद्ध होने के बाद भी जज ने उसे फांसी की सजा नहीं दी—बल्कि उसकी कम उम्र और जवानी पर तरस खाकर उम्र–कैद की सजा सुना दी।
इस सजा को सुनने के बाद ‘पहली बार’ उसे लगा शायद उसके नसीब को उस पर तरस आ गया है। लेकिन उसका यह भरम जल्द ही दूर हो गया—उसे मालूम हो गया कि उसे फांसी की सजा न होना जज की दया या नसीब की ‘तरस’ नहीं बल्कि उसकी चाल थी।
क्योंकि अगर वह फांसी पर चढ़कर मर गया होता तो उसका यह नसीब आंख–मिचौली किसके साथ खेलता।
लेकिन उसके नसीब को भी कहां पता था कि सुरेन्द्र गुलाटी नाम का वह अभागा इन्सान जो आज की तारीख में तीन कत्ल के अपराध में उम्र–कैद की सजा भोग रहा था, अब इतना मासूम और संतोषी नहीं था।
जेल की कठोर जिन्दगी और एकान्त की सोचों ने उसे एकदम बदलकर रख दिया था। अब वह दिल से नहीं दिमाग से सोचता था।
और उसके दिमाग ने जो उसे पहला पाठ पढ़ाया था, वह था नसीब को ठोकर पर रखने का। उससे मुकाबला करने का।
उसके पास शातिर दिमाग था, लेकिन मौका नहीं था।
इसी मौके की तलाश में वह घण्टों सोचा करता था।
आज भी सोच रहा था।
उसके हाथ का सब्बल सामने पड़े पत्थर को तोड़ने में लगा हुआ था जबकि दिमाग एक ही बात सोच रहा था—
“कैसे वह जेल से बाहर निकले...?”
एक बार वह नसीब का विधाता बनने में असफल हो चुका था लेकिन अब...।
“सुरेन्द्र गुलाटी...” धीमा–सा स्वर एकदम उसके पीछे से आया था।
उसने मुड़कर देखा।
उसके एकदम करीब कैदी की पोशाक पहने एक गठीले बदन का युवक खड़ा उसी की ओर जा रहा था।
उसे उसका चेहरा कुछ पहचाना–सा नजर आया लेकिन वह समझ नहीं पा रहा था कि उसे कहां देखा है।
“गुलाटी साहब, आपने शायद मुझे पहचाना नहीं?” वह उसके और करीब आ गया।
उसने फिर उसके चेहरे पर अपनी निगाहें गड़ा दीं लेकिन पहचान के चिन्ह उसके जेहन में नहीं आये।
“मैं अकरम खान हूं।” वह धीरे से बोला।
“ओह, तो तुम हो अकरम खान—राजा हिन्दुस्तानी के हीरो आमिर खान के छोटे भाई...।”
“साहब...।” वह सकपकाया।
“शायद मैं गलत कह गया—तुम सलमान खान की होने वाली बीवी के भाई हो ना।”
“साहब—आप मजाक कर रहे हैं।”
“तुम बहुत खूबसूरत हो न...इसीलिए मेरा मजाक का दिल कर आया।”
“साहब आप तो...।” वह हड़बड़ाया।
“मैं तो क्या...?” उसने उसे घूरा।
“आपने मुझे पहचाना नहीं।” वह जल्दी से बोला।
“क्या इस बात को लिखकर दूं?” सुरेन्द्र गुलाटी ने बुरा–सा मुंह बनाया।
“इसकी जरूरत नहीं है—मैं माथुर साहब का ड्राइवर हूं।” वह धीरे से बोला।
“माथुर साहब...।” गुलाटी बड़बड़ाया।
“दिनेश माथुर साहब—आप उन्हीं की कोठी पर तो रहे थे मेम साहब के पति बनकर।”
“ओह...।” गुलाटी उसे पहचान गया—वह दिनेश माथुर की बीवी रेशमा माथुर का ड्राइवर था। दिनेश माथुर तो षड्यन्त्र रचकर दूर से तमाशा देख रहा था जबकि वह रेशमा के साथ था। कार से इधर–उधर जाता था। कार चलाने वाला यही अकरम खान हुआ करता था।
“किसी को एक्सीडेन्ट में ऊपर पहुंचा दिया क्या?” गुलाटी ने उसकी ओर देखा।
“एक्सीडेन्ट!” अकरम खान सकपकाया—“मैंने कोई एक्सीडेन्ट नहीं किया है।”
“तो फिर यहां कैसे आए, वह भी जेल की पोशाक पहनकर?”
“ओह यह...।” वह अपनी वर्दी देखता हुआ हंसा।
“क्या हुआ?” वह उसी की ओर देख रहा था।
“मैं तो यहां आपसे मिलने आया हूं।” वह जल्दी से बोला।
“जेल की पोशाक पहनकर...।” गुलाटी हंसा।
“मेमसाहब को यही रास्ता सूझा था—उन्हीं के कहने पर मुझे कोठी में चोरी करने के अपराध में छ: महीने की सजा हुई है—मेम साहब ने कहा था तुम्हें जितने महीने की सजा हो, तुम बेफिक्र होकर भुगत लेना—तुम्हारी तनख्वाह से दुगुना पैसा तुम्हारे घर हर महीने पहुंचता रहेगा। बस तुम्हें किसी तरह जुगाड़ करके सुरेन्द्र गुलाटी साहब से मिलना है। उन्हें मेरा मैसेज देना है। जेल आने के दस दिन बाद आज आपस मिलने का मौका मिला है।”
“ओह।” रेशमा माथुर का हसीन और संगमरमरी बदन उसकी आंखों के सामने घूम गया।
“क्या मैसेज है?” वह गम्भीर होता हुआ बोला।
“उन्हें आपकी मदद की जरूरत है—वे खतरे में हैं। उनका कहना है कि दुनिया में सुरेन्द्र गुलाटी नाम का एक ही शख्स ऐसा है जो इस मुसीबत की घड़ी में उन्हें बिना नुकसान पहुंचाए नि:स्वार्थ भाव से उनकी मदद कर सकता है।”
“सीढ़ी मत चढ़ाओ मियां—मुझे मेरी औकात मालूम है।” गुलाटी हंसा।
“मेमसाहब का कहना है—सुरेन्द्र गुलाटी दिमाग का जादूगर है—कैसी ही प्रॉब्लम क्यों न हो, वह उसका हल चुटकियों में निकाल सकता है—मेरी मुसीबत का भी कोई हल उसके पास जरूर होगा।”
“बस–बस ड्राइवर साहब—तारीफों की स्पीड बढ़ाने के बजाए अपना ट्रान्सफर दिनेश माथुर वाली जेल में करवा लो—वह स्कीम बनाने में मेरा भी बाप है—नसीब का विधाता बनने के चक्कर में मैं उसके हाथ की कठपुतली बना हुआ था और आखिर तक नहीं जान सका था कि वह मुझे अपनी मनमर्जी के अनुसार नचा रहा है।” गुलाटी ने बुरा–सा मुंह बनाते हुए कहा।
“वे अगर जीवित होते तो आपके पास आने की जरूरत ही नहीं थी।” अकरम खान गम्भीर स्वर में बोला।
“क्या मतलब?” जोरों से चौंका सुरेन्द्र गुलाटी।
“साहब का कत्ल हो गया है।”
“क्या बकते हो?” न चाहते हुए भी उसका स्वर तेज हो गया।
अकरम खान ने घबराकर इधर–उधर देखा। गनीमत यही थी कि बावजूद सुरेन्द्र गुलाटी की तेज आवाज के किसी का ध्यान उनकी ओर नहीं था।
“साहब, धीरे बोलिए।” अकरम खान इधर–उधर देखता हुआ ही बोला।
गुलाटी को अपनी गलती का एहसास हुआ।
“माथुर का कत्ल कैसे हो सकता है, वे तो जेल में है।”
“उनका कत्ल जेल में ही हुआ है साहब।”
“कैसे, किसने किया उनका कत्ल?” वह उतावला–सा बोला।
“कातिल तो कालिया नाम का पेशेवर हत्यारा है लेकिन कत्ल करवाने वाला अन्डरवर्ल्ड का सुपर बॉस पखिया है।” वह उसकी ओर देखता हुआ बोला।
“दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा और तुम्हारी मेमसाब का। पखिया कैसे मरवा सकता है? वह तो पहले ही एक कार एक्सीडेन्ट में मारा जा चुका है। यह बात खुद माथुर ने मुझे बताई थी।”
“बताई होगी, लेकिन मैंने भी आपसे वही सब कहा है जो मेमसाब ने आपसे कहने को कहा था।” अकरम खान बोला।
“लेकिन अकरम खान...।” कहते हुए वह रुका।
एक सिपाही उन्हीं की ओर लपकता चला आ रहा था।
उसने अकरम खान की ओर पीठ करते बहुत धीरे से कहा—
“खाना लेते समय मेरे आसपास रहना।” कहने के बाद वह सामने पड़े पत्थर पर फिर सब्बल चलाने लगा।
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