नसीब मेरा दुश्मन
वेद प्रकाश शर्मा
"अरे, असलम बाबू, आप! आइए, हम तो कब से आपकी राहों में पलकें बिछाए पड़े हैं।" शान्तिबाई ने ठीक इस तरह स्वागत किया जैसे मैं आसमान से उतरा कोई फरिश्ता होऊं, मन-ही-मन मुस्कराते हुए मैंने भी किसी नवाब के-से अंदाज में कहा—"लो हम आ गए हैं।"
"मगर हम आपसे बहुत नाराज हैं।" अधेड़ आयु की फिरदौस ने उसी अंदाज में भवें मटकाईं जैसे जवानी में लोगों को जख्मी करने के लिये मटकाती रही होगी।
"वह क्यों?" मैंने आश्चर्य को अपनी आंखों में आमंत्रित किया।
"इसलिए जनाब, क्योंकि आपने हमारे कोठे की रौनक लूट ली है।"
"कैसे भला?"
"अदा उनकी देखिए कि शहर उजाड़कर गुनाह पूछते हैं," ये शब्द शायराना अन्दाज में कहने के बाद शान्ति बोली— "अब आप इतने भोले भी नहीं हैं असलम बाबू, कि हर बात आपको सिरे से समझानी पड़े—कंचन मेरे कोठे की ही नहीं बल्कि मेरठ शहर के सारे 'कबाड़ी बाजार' की शान हुआ करती थी, जब वह इस हॉल में थिरकती थी तो इस कदर भीड़ हो जाती थी जैसे हेमामालिनी की कोई नई फिल्म लगी हो—जिन्हें मालूम नहीं था, वे सारे बाजार में दीवाने हुए शान्तिबाई का कोठा पूछते फिरा करते थे, मगर अब...।''
''ऐसा क्यों?"
"क्योंकि कंचन नाम के नूर को आपने अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया है—नाचना तो दूर, आपके अलावा किसी को चेहरा तक दिखाने को तैयार नहीं है—दीवानी हो गई है आपकी—और एक आप हैं कि हफ्ते-हफ्ते के लिए गायब हो जाते हैं।"
"कहां है वह?"
"पड़ी है अपने कमरे में, न कुछ खाया है न पिया।" शान्तिबाई ने सफेद झूठ बोला— "इतने बड़े सितमगर न बनिए असलम बाबू, रोज आ जाया कीजिए, वर्ना किसी दिन कंचन आपको अपने कमरे के पंखे से लटकी मिलेगी।"
"ऐसा मत कहो शान्ति।" मैंने भी सारे जमाने की दीवानगी अपने चेहरे पर समेट ली—"अगर कंचन को कुछ हो गया तो मैं इस दुनिया में जी नहीं सकूंगा, वह तो कम्बख्त मेरी पत्नी हमेशा पीछे पड़ी रहती है—पिछले हफ्ते जबरदस्ती पकड़कर शिमला ले गई, आज दोपहर ही तो लौटाकर लाई है।"
"आप शिमला की हसीन वादियों में मौज मना रहे थे और यहां कंचन बेचारी गम और आंसुओं में डूबी सारे हफ्ते अंगारे के जैसे बिस्तर से चिपकी रही, अगर मानें तो हुजूर से एक दरख्वास्त करूं?"
"क्या?"
"अगर आप अपनी बीवी से इतना ही डरते हैं तो कंचन को समझा दीजिए कि आपके बाद कम-से-कम नाच-गाना तो कर लिया करे—मेरा तो धंधा ही चौपट हुआ जा रहा है, असलम बाबू।"
"दूसरी लड़कियां भी तो हैं यहां?"
"होती रहें।" शान्ति ने होंठ सिकोड़े—"कोठा तो कंचन ही से आबाद था, जनाब—या तो रोज आ जाया कीजिए या पल्ला पसारकर आपसे एक ही भीख मांगती हूं—कंचन को अपनी दीवानगी से आजाद कर दीजिए, कम-से-कम मेरा रोजगार तो...।"
इस तरह की ढेर सारी बातें कीं उसने।
मैं जानता था कि वह झूठ के अलावा कुछ नहीं बोल रही थी। मगर खुश था, क्योंकि उसके मुंह से झूठ बुलवाना ही तो मेरा उद्देश्य था।
जाहिर था कि वह मेरी योजना में पूरी तरह फंस गई थी।
मैं कंचन के कमरे की तरफ बढ़ा।
इस बात का मुझे पूर्वानुमान था कि वह अपने कमरे को 'कोप भवन' में तब्दील किए पड़ी होगी—मैं वेश्याओं के कैरेक्टर से ठीक उसी तरह परिचित हूं जैसे दूसरी कक्षा को पढ़ाने वाला दो के पहाड़े से होता है।
हालांकि न तो मैंने बहुत ज्यादा उपन्यास पढ़े हैं और न ही ज्यादा फिल्में देखता हूं, मगर उन सभी में प्रस्तुत किए गए 'वेश्या करैक्टर' देख-पढ़कर मुझे हंसी ही नहीं बल्कि राइटर्स की अक्ल पर तरस आया है।
इन लेखक लोगों को मालूम तो कुछ होता नहीं—अपनी कुर्सी पर बैठे नहीं कि उड़ने लगे कल्पनालोक में—वेश्या का ऐसा आदर्श चित्रण करेंगे कि बस जवाब नहीं—असल वेश्या की इन्हें ए—बी-सी-डी भी पता नहीं होती।
कभी कोठे पर गए हों तो पता चले।
मैं जरा भावुक किस्म का जीव हूं।
अच्छी तरह याद है कि जब पहली बार कोठे पर गया था, तब जेहन में वेश्या के उपन्यास और फिल्मों वाले कैरेक्टर बसे हुए थे—उसके कमरा बन्द करते ही मैंने नाम पूछा, जवाब में वह निहायत बदतमीजी के साथ बोली— "अरे, नाम क्या पूछता है, धंधे का वक्त है—अपना काम कर और फूट यहां से।"
"नहीं।" मैंने कहा— "जरूर तुम्हारी मजबूरी होगी जो तुम ऐसा काम करती हो, मुझसे अपनी मजबूरी कहो—मैं तुम्हें इस नर्क से छुटकारा दिला दूंगा।"
"क्या बकता है रे, काम की बात कर।"
मैंने चोर-दृष्टि से चारों तरफ देखा, इस उम्मीद में कि शायद किसी खिड़की के पार खड़ा कोई ऐसा गुण्डा उसे घूर रहा हो जो ग्राहक से धंधे की बात न करने वाली लड़की को मारते-पीटते हैं, ऐसा दृश्य मैंने कई फिल्मों में देखा था, मगर कमरे के सभी खिड़की-दरवाजे अन्दर से बन्द थे—दिमाग में विचार उठा कि निश्चय ही कोठे वालों ने इसके छोटे भाई या बहन को अपनी गिरफ्त में ले रखा होगा, शायद उसी की वजह से मजबूर होकर यह ये धंधा करती है, मैं उसके नजदीक पहुंचा, फुसफुसाया—"तुम्हारी जो भी मजबूरी हो, धीमी आवाज में मुझे बता सकती हो, यकीन मानो, मैं तुम्हें यहां से...।"
"अरे, तू कहीं पागल तो नहीं है?" मेरा वाक्य पूरा होने से पहले ही वो गुर्राई—अपने ब्वाउज के बटन खोलती हुई बोली— "जल्दी कर।"
"न...नहीं।" मैं 'पहचान' के मनोज कुमार की तरह चीख पड़ा, उसकी तरफ पीठ घुमाकर बोला— "तुम मेरी बहन जैसी हो।"
"अरे तो फिर यहां क्या...।" इससे आगे जो कुछ उसने कहा, वह इतनी भद्दी गाली थी कि जिसे मैं यहां लिख भी नहीं सकता—
हां, ये लिख सकता हूं कि वह सिर्फ गाली देकर ही नहीं रह गई, बल्कि पीठ पर अपने दोनों हाथ इतनी जोर से मारे कि मैं मुंह के बल फर्श पर जा गिरा।
उसके बाद।
कमरे का दरवाजा खोलकर उसने भद्दे अन्दाज में शोर मचा दिया, गन्दी-गन्दी गालियां बकने लगी मुझे—सभी वेश्याएं और उनकी 'आण्टी' भी वहां आ गईं।
सभी ने गालियां दीं।
मेरी जेबें टटोलीं और उन्हें खाली पाकर न सिर्फ गालियों की पावर बढ़ गई, बल्कि बेरहमी से सीढ़ियों से नीचे धकेल दिया गया।
फिल्मों और उपन्यासों ने दिमाग में वेश्या के करैक्टर की जो छवि बनाई थी, वह उसी तरह बिखर गई जैसे स्ट्राइकर की एक जोरदार चोट से कैरम के बीच में रखी सारी गोटियां बिखर जाती हैं।
ऐसी होती है वेश्या।
आपकी जेब में पैसे हैं तो उनका तन हाजिर है, यदि आप खानदानी रईस हैं तो वे आपकी गुलाम हैं और अगर आप खानदानी रईस
के साथ-साथ बेवकूफ भी हैं तो उनके लिए 'जैकपॉट' हैं—आप पर कुर्बान हो जाने, आपसे दिली मुहब्बत हो जाने का ऐसा खूबसूरत नाटक करेंगी कि शबाना आजमी भी पीछे रह जाए और यह नाटक तब तक बराबर चलता रहेगा, जब तक आप रईस हैं।
आपकी अक्ल की आंखों पर ऐसा चश्मा चढ़ाने की आर्ट में इन्हें महारत हासिल होती है, जिसमें से आपको सिर्फ ये और इनका प्यार ही नजर आए—मैं इनकी तुलना बिजली से करता हूं, क्योंकि एक बार किसी भी व्यक्ति को पकड़ लेने के बाद जिस तरह बिजली उसके जिस्म में भरे खून की अन्तिम बूंद चूसने के बाद उसे निष्प्राण करके छोड़ती है, ठीक उसी तरह वेश्या भी व्यक्ति को निष्प्राण कर डालती है—हां, यह जो चूसती है, उसे खून नहीं पैसा कहते हैं।
इनके इसी शौक का फायदा उठाते हुए मैंने एक ऐसी पुख्ता स्कीम तैयार की थी, जिसकी कामयाबी पर मेरे 'दिलद्दर' दूर हो सकते थे—उस समूची स्कीम को एक बार फिर दिमाग की मशीनगरी से गुजारता हुआ मैं कंचन के कमरे के दरवाजे पर पहुंच गया।
खूबसूरत से सजे अपने पलंग पर कंचन पीठ किए लेटी थी। अपना चेहरा कलाइयों में छुपाए वह सिसक रही थी, मगर मैंने पहली ही नजर में ताड़ लिया कि जिस वक्त मैंने इस कोठे की सीढ़ियां चढ़नी शुरू की होंगी, तब यह यहां आकर इस पोज में लेटी होगी—तन पर वही कपड़े थे जिनका इस्तेमाल वह शाम के वक्त ग्राहकों को लुभाने के लिए करती थी।
''कंचन।" पलंग के बहुत नजदीक पहुंचकर मैंने बड़े प्यार से पुकारा।
वह एक झटके से पलटी।
जैसे बुरी तरह चौंकी हो—उफ—चेहरा आंसुओं से सराबोर था। ग्राहकों को फंसाने के लिए किया गया मेकअप धुल चुका था—यदि इस वक्त यहां मेरी जगह कोई 'गांठ का पूरा और अक्ल का अंधा' होता तो हाहाकार कर उठता, यही सोचकर मैंने सारे जहां की वेदना अपने चेहरे पर समेटी, बोला—"त...तुम रो रही हो, कंचन?"
"आपको क्या, मैं मरूं या जीऊं?" कहने के बाद वह पुनः बिस्तर में मुंह देकर सिसक पड़ी—इस बार वह कुछ ज्यादा ही टूटकर रोई थी—जी चाहा कि पीछे से एक ठोकर रसीद करूं, मगर ऐसा करने से मेरी सारी योजना चौपट हो सकती थी। सो आगे बढ़ा।
आहिस्ता से पलंग पर बैठा।
हाथ उसके कंधे पर रखकर दीवानगी के आलम में बोला—"स...सुनो कंचन।"
"ब...बात मत कीजिए हमसे।" कहने के साथ उसने कंधे को इतनी जोर से झटका कि मेरा हाथ उछल गया—तीव्र गुस्सा तो ऐसा आया कि हरामजादी की चोटी पकड़कर जबरदस्ती अपने सामने खड़ी करके पूंछूं कि यदि वह हफ्ते भर से यहीं पड़ी सिसक रही है तो जिस्म पर ये हार-सिंगार कौन कर गया, परन्तु मौजूदा हालातों में ऐसा करना अपने पांव में कुल्हाड़ी मारना था। सो खुशामद करता रहा।
ऐसा प्रदर्शित करता रहा कि यदि उसने रोना बन्द नहीं किया तो मेरा दम ही निकल जाएगा—अपनी समझ में मुझे मुकम्मल प्रताड़ना देने के बाद वह सामान्य हुई—अपनी काल्पनिक पत्नी की ढेर सारी बुराई करते हुए मैंने जेब से सिगरेट केस और लाइटर निकाला—कंचन की आंखें चमक उठीं।
खुद 'कंचन' होने के बावजूद वह आज तक न ताड़ सकी थी कि सोने के नजर आने वाले सिगरेट केस और लाइटर पर शुद्ध सोने का पानी मात्र है और उन्हीं की क्या बात कहूं—एक महीने में मैं आज यहां आठवीं बार आया था, वह अभी तक नहीं ताड़ सकी थी कि मेरी कलाई पर बंधी रिस्टवॉच, दस में से चार उंगलियों में मौजूद अंगूठियां हीरे-जड़ित सोने की नहीं बल्कि दो कौड़ी के कांच-जड़ित एक कौड़ी के पीतल की हैं, केस से चांसलर की एक सिगरेट निकालकर मैंने होठों से लगाई ही थी कि उसने लाइटर मेरे हाथ से लगभग छीन लिया।
सिगरेट सुलगाई।
मैंने अभी पहला कश लिया था कि कंचन मुझे कातिल नजरों से घूरती हुई बोली—"अगर मैं ये लाइटर रख लूं तो?"
"स...सॉरी कंचन।" मैंने अपने चेहरे पर ऐसे भाव इकट्ठे किए जैसे इन्कार करते हुए बहुत जोर पड़ रहा हो, बोला—"ये लाइटर मेरी बीवी की नजर में है, बल्कि उसी ने प्रेजेण्ट किया था—अगर मेरे पास नहीं देखेगी तो चुड़ैल बनकर लिपट जाएगी।"
"हुंह...लो अपना लाइटर।" पलंग पर पटकते हुए उसने कहा—"मैं क्या इसके लिए मरी जा रही हूं, मैं तो ये देख रही थी कि आपका दिल कितना बड़ा है?"
"ऐसा मत कहो, कंचन।"
"क्यों न कहूं...हर समय तो नंगी तलवार की तरह आपके दिलो-दिमाग पर आपकी बीवी लटकी रहती है—जाने कैसे मुझे आपसे मुहब्बत हो गई, ये दिल कम्बख्त बड़ी बुरी चीज है—क्या आपके पास ऐसी भी कोई चीज है, जो आपकी हसीन बीवी की नजर में न हो?"
"क्यों?" मैंने 'अहमकों वाले अन्दाज' में पूछा।
''ताकि उसे देख-देखकर चूम-चूमकर ही वह वक्त गुजार दिया करूं, जब आप अपनी हसीन बीवी की बांहों में होते हैं, मुझ बदनसीब को प्यार की निशानी के रूप में देने के लिए क्या आपके पास कुछ भी नहीं है—कोई ऐसी चीज जो आपकी नजरों में न हो?" अन्तिम शब्द उसने अपने व्यंग्यात्मक लहजे में कहे।
"ऐसी तो मेरे पास कोई चीज नहीं है, लेकिन.....।"
"लेकिन—?"
"अपनी निशानी के तौर पर मैं तुम्हें बाजार से खरीदकर कोई चीज दे सकता हूं।"
"क्या चीज?"
"जो तुम चाहो।"
"अच्छा?" उसने अपने चेहरे पर आश्चर्य के भाव उत्पन्न किए, फिर इस तरह बोली जैसे मुझे आजमा रही हो—"जो मैं चाहूं?"
"हां।" कहते हुए मैंने लाइटर अपने जिस्म पर मौजूद काली अचकन की जेब में रखने के बहाने सौ रुपये के नोटों की एक गड्डी नीचे गिरा दी—इस गड्डी को देखते ही कंचन की आंखें हीरों के मानिन्द चमकने लगीं। जबकि वास्तविकता ये थी कि बीच में सफाई के साथ कटे सफेद कागज थे। दोनों तरफ पांच-पांच नोट असली बल्कि उन्हें भी असली नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये उस सीरीज के नोट थे जिसे हमारी सरकार जाली घोषित कर चुकी थी।
मैंने गड्डी उठाकर वापस जेब में रखी।
"अगर मैं हीरों से जड़ा हार चाहने लगूं?" लहजा अब भी मुझे आजमाने वाला ही था।
"कैसी बात करती हो, कंचन, तुम्हारे सामने भला हार की क्या कीमत है?"
उसने मुझे कातर दृष्टि से देखते हुए कहा—"तो दिलाओ।"
"फिर कभी।"
"क.....क्यों?" उसके इरादों पर पानी फिर गया।
"आज शाम मेरी बीवी मायके चली गयी है और सेफ की चाबी उसी के पास रहती है—मेरी जेब में इस वक्त केवल बीस हजार रुपये पड़े हैं, इनमें वह चीज आ नहीं सकती, कंचन, जो तुम्हारे गले में फबे।"
"क.....क्या—बीवी मायके गई है?" वह उछल पड़ी—"तब तो आज की रात मैं आपको कहीं न जाने दूंगी।"
"आज मैं रात-भर रहने के लिए ही आया हूं।"
"हाऊ स्वीट—आप कितने अच्छे हैं, असलम बाबू।" कहकर वह लिपट ही नहीं गई, बल्कि बेसाख्ता मुझे चूमने लगी—शिकार फंसाने में वह इतनी माहिर थी कि 'हार' वाले विषय को इस तरह चेंज कर गई जैसे उस विषय में कोई दिलचस्पी न हो। उस वक्त उसने केवल यही 'शो' किया जैसे मेरे रात के वहां रहने के निर्णय ने उसे पागल कर दिया हो—जबकि मैं अच्छी तरह जानता था कि बीस हजार के नैकलेस पर उसकी लार टपकी जा रही है और रात के किसी वक्त वह यह कहकर कि प्यार की निशानी का महत्व कीमत से नहीं होता, मुझे बीस हजार के आस-पास का नैकलेस दिलाने के लिए तैयार करने वाली थी।
उस बेवकूफ को नहीं मालूम था कि मैं क्या गुल खिलाने वाला हूं?
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