मुर्दा बोले कफन फाड़ के : Murda Bole Kafan Fard Ke
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इस उपन्यास के पहले सीन से ही आपके जिस्म में सनसनाहट पैदा होने लगेगी और जैसे-जैसे आप इसके पृष्ठों को पड़ते जायेंगे, आपके दिमाग में एक ऐसा मकड़जाल फैलता चला जायेगा, की जिससे निकलने के लिए आप उपन्यास को समाप्त किये बिना न रह सकेंगे।
Murda Bole Kafan Fard Ke : मुर्दा बोले कफन फाड़ के
गौरी पण्डित : Gauri Pandit
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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मुर्दा बोले कफन फाड़ के
गौरी पण्डित
“आई लव यू जान!”
शब्द पिघले शीशे की तरह बिस्तर पर बैठी बाइस वर्षीय हसीना रूपाली कटोच के कानों में उतर रहे थे।
वे शब्द जो किसी भी जवां औरत के कानों में मादक पदार्थ मिली चाशनी की तरह उतरकर उसके दिल में हलचल पैदा कर देते हैं। दिमाग में सुरूर जगा देते हैं। हर नस में उन्हें सुनकर खून के बजाये शराब दौड़ने लगती है। वे ही शब्द रूपाली कटोच के कानों में पड़कर उसके समूचे बदन में ही सर्द सिहरन पैदा कर रहे थे। खौफ और हैरत के कारण उसका शरीर सूखे पत्ते की तरह कांप रहा था। माथे पर पसीने की बूंदें टपक रही थीं।
वह जो उसके ठीक सामने दरवाजे के बीचों-बीच खड़ा हुआ था।
तीस वर्षीय छरहरे बदन का युवक था वह। तन पर हंस के रंग सरीखा सफ्फाक कुर्ता-पायजामा पहने था वह। लम्बोतरा चेहरा, अध-धुंघराले बाल। हाइट करीब पौने छः फीट के बराबर। अंगारे की तरह सुर्ख आंखें, मानो सामने वाले को निगाहों से ही जलाकर खाक कर देना चाहती हों।
वह दरवाजे पर से आगे बढ़ा—“ऐ जान, क्या मुझे एक महीने में भूल गई जान? देखो, तुम्हारे कारण ही तो मैं मरने के बाद भी शमशानों से उठकर दौड़ा आ रहा हूं। अरे, तुम डर क्यों रही हो? मैं तो तुम्हारा कुणाल हूं...तुम्हारा अपना कुणाल! भूल गईं तुम...तुम तो कहा करती थीं ना मैं तुम्हारे दिल में धड़कन बनकर बसता हूं, आंखों में काजल बनकर सजता हूं...तुम्हारे बालों में...।”
“प...पर त...तुम तो म...मर चुके हो!” कसाई की छुरी तले खड़े बकरे की तरह मिमियाकर रह गई वह।
“हां जान! सच है, जहान के लिए मर चुका हूं मैं।” वह बिस्तर पर आकर रूपाली कटोच के करीब बैठ गया।
उसने अपना दाहिना हाथ रूपाली के चेहरे की तरफ बढ़ाया तो रूपाली का समस्त शरीर मानो लकवा-ग्रस्त हो गया। वह चीखना चाहती थी...मगर हलक के अन्दर ही उसकी चीख घुटकर रह गई।
कुणाल की तर्जनी उंगली रूपाली के गोरे कपोल पर टिकी तो उसका शरीर यूं कांपा मानो किसी जहरीले सांप ने उसे चूमने के लिए वहां अपना फन हिलाया हो।
सांसें फेफड़ों के अन्दर ही जाम होकर रह गई थीं मानो।
शरीर कमान की तरह तना, लेकिन अगले ही पल वह जरा-सी रिलैक्स हो गई...जब कुणाल की वह तर्जनी उंगली बाल पर झूलती उसकी काली लट में उलझ गई।
वह बिस्तर पर रूपाली के और करीब सरका...और...और भी करीब सरका। इतना करीब कि उसकी सांसें रूपाली के दूसरे गाल को तपिश प्रदान करने लगी थीं। उसने उसके कान में सरगोशी की मानो—“हां जान, ये शाश्वत सत्य है कि इस जहान के लिए मैं मर चुका हूं। मैं अब इस धरती पर नहीं श्मशानों में आराम से रहता हूं। अपने अन्य भूत भाइयों के साथ...लेकिन जान, मुझे यहां तक बस तुम्हारी चाहत ही खींचकर ले आई।”
कुणाल ने अपने दोनों हाथों में रूपाली का चेहरा भर लिया तो रूपाली के गुलाब की पंखुड़ियों सरीखे शरबती होंठ थरथराकर रह गए।
उफ्! कुणाल की सुर्ख दहकती आंखों में उसे कयामत का शैलाब तैरता नजर आ रहा था मानो।
और कुणाल दीवानावार-सा कहता चला जा रहा था—“त...तुम मुझसे डर रही हो हनी?” ना...ना...ना डरो मत। देखो तुम ही तो कहा करती थी ना कि मेंरे बिना हर रात तुम्हें बैरन लगती है...बिस्तर पर तुम्हारे मखमली बदन के नीचे बिछा गद्दा कांटों की सेज प्रतीत होता है। तुम्हारे जिस्म में गर्दिश करता लहू लावे की तरह दहककर सारी रात तुम्हारे वजूद को मोम की तरह पिघलाता रहता है। आई नो स्वीट हार्ट, पिछले कई महीनों से तुम किस कदर तड़प रही हो। इसी कारण तो आज मैं तुम्हारे बदन में दहकते लावे को अपने प्यार की फुहारों से ठण्डा करने के लिए आ गया हूं...घबराओ मत...हर रात यूं ही आया करूंगा।” कहते हुए उसने रूपाली के थरथराते होठों पर अपने होठों को टिका दिया।
रूपाली चीखना चाहती थी, मगर चीख न सकी। उसे लगा मानो कोई नाग अपने फन को उसके होठों पर ढक्कन की तरह चिपका कर उसका रक्त चूस रहा हो।
उसका वजूद मानो किसी जालिम ने मुट्ठी में कैद कर लिया हो।
रूपाली उस कैद से आजाद हो जाना चाहती थी, मंगर वह फड़फड़ा तक न सकी; उसकी बांहों के घेरे में कैद होने के बाद।
कुणाल मानो धीरे-धीरे उसके जिस्म का रक्त चूसता चला जा रहा था और उसका समूचा बदन हाड़-मांस के स्टेचू में तब्दील होता चला जा रहा था। सारा विरोध धीरे-धीरे कम होता हुआ पूरी तरह समाप्त हो गया।
कुणाल ने रूपाली को बिस्तर पर लिटाया तो वह लेट गई। कुणाल उसके शरीर पर चादर की तरह बिछ गया तो उसे लगा मानो उसका बदन किसी पाषाण शिला के नीचे दब गया हो।
और फिर...!
वह उसके जिस्म के साथ खिलवाड़ करता रहा, जैसे टूटे तार वाली सारंगी में मधुर सरगम पैदा करने की कोशिश कर रहा हो। वह उसके साथ खेलता रहा...वह खिलौना बनी रही...उसने उसके तन की नाइटी को भी तन पर से जुदा कर दिया। उसने विरोध नहीं किया। उसने फिर रूपाली को लूट भी लिया...तो उसे लगा मानो उसके संगमरमरी कोमल वजूद को खुरदुरे रेगमाल से घिसा जा रहा हो। वह चीखना चाहती थी...नहीं चीख सकी। उफ्! तक नहीं कर सकी। बस उसकी आंखों की कोर का बंधन तोड़कर दो आंसू की बूंदों ने बाहर फिसल पड़ने की गुस्ताखी अवश्य की थी...वे भी इस प्रकार बेहद खामोशी के साथ गालों पर फिसले मानो सिसकी का शोर होते ही सजाए-मौत मिल जाने का डर हो।
¶¶
तूफान गुजर गया तो छत में लगा पंखा अपने सुकोमल हवा के थपेड़ों से उसके घायल, लुटे-पिटे वजूद को सहलाकर सांत्वना देने का प्रयत्न करता रहा।
बिस्तर में पूरी तरह नग्नावस्था में अस्त-व्यस्त पड़ी रूपाली की आंखें खुली तो वह झटके से हड़बड़ाकर उठकर बैठ गई। खौफजदा हालत में उसने आस-पास यूं देखा मानो उस पिशाच को खोजने की कोशिश कर रही हो जो अभी उसे लूटकर गायब हो गया था।
उफ्!
वह सपना था या हकीकत?
सपना कैसे हो सकता था भला?
अभी भी उसके तन पर से जुदा हुई नाइटी उसके बिस्तर से कुछ फीट दूर फर्श पर आवारा पड़ी थी। उस पिशाच के होठों का अहसास उसके होठों पर मौजूद था...जहां से कई मिनटों तक उसने उसका रक्त चूसा था। उसके खुरदरे बदन का अहसास उसके पिसे बदन में वेदना में रूप में फूट रहा था।
उसका ध्यान बिस्तर पर गया-बिस्तर पर बिछी सफ्फाक चादर के बीच बने उस धब्बे पर-जो चीख-चीख कर उसके लुटने की गवाही दे रहा था।
रूपाली चारों तरफ दीवानावार-सी कुणाल को खोजने लगी तो चारों तरफ पसरा सन्नाटा मानो उसे चिढ़ा रहा था। वह और पागल हो गई।
आंखों के अन्दर मानो दो महासागर छलक आए थे और दो नदियां उसके संगमरमरी चिकने गालों पर आकर फिसलने लगीं। सांसें धौंकनी की मानिन्द चल रही थीं।
“क...कुणाल!” एकाएक ही वह विक्षिप्तावस्था में हलक फाड़कर चीख पड़ी...और लगातार चीखती चली गई थी वह—“कुणाल...कुणाल...सामने आओ कुणाल...सामने क्यों नहीं आते?”
मगर...! कोई होता तो सामने आता ना।
वह तो उस वक्त अपने बंगले के अन्दर अकेली थी। महलों जैसे बीस कमरों वाले फाइव स्टार सुविधाओं से सुसज्जित बंगले के सबसे शानदार कमरे में एकदम अकेली।
कई मिनटों तक वह उसे विक्षिप्त-सी हलक फाड़-फाड़ कर चीख-चीख कर पुकारती रही, वहां का सन्नाटा उसी की पुकार को प्रतिध्वनित करके मानो उसका मुंह चिढ़ा रहा था।
अन्त में जब उसे कहीं से कोई जवाब नहीं मिला तो वह बिस्तर पर औंधी गिरकर फफक पड़ी।
उसकी आंखों से बहते अविरल आंसुओं की नदियां बिस्तर पर बिछी मखमली चादर को गीला करती रहीं, मगर उसे सांत्वना देने के लिए कोई नहीं आया।
¶¶
रात का समय था वह।
वह समय जब सारा देश सुकून से अपने बिस्तरों में पैर फैलाकर इत्मीनान की नींद लिया करता है...केवल देश के पहरेदारों को छोड़कर और चन्द उन दिलजलों को छोड़कर जो हर पल अपनी महबूबा की याद में जागते-तडपते रहते हैं।
उस समय अपने बिस्तर में एक-दूसरे की बाहों में सिमटे सावरकर दम्पत्ति की नींद में खलल पड़ी।
वह उन्हीं के घर की कॉलबैल की बेसुरी चिंघाड़ थी...जिसने उनकी मीठी नींद में कड़वाहट घोलकर उन्हें जाग जाने पर विवश कर दिया।
कॉलबैल लगातार चिंघाड़े जा रही थी, मानो उसे चिंघाड़ने का दौरा पड़ गया हो।
“इस वक्त कौन आ गया जी?” शंकित-सी बोली मिसेज सावरकर।
“क्या पता कौन आ मरा?” मिस्टर सावरकर भुनभुनाए।
“कहीं झांसी वाली दीदी तो नहीं आ गईं।” मानो मिसेज सावरकर अपने ही सवाल का जवाब दे रही थीं—“वैसे भी उन्हें आजकल में यहां आना था। वो ही हैं जो रात को यहां पर पहुंचा करती
हैं।”
“ठीक है। देखो जाकर।” कड़वे स्वर में मिस्टर सावरकर ने कहा।
मिसेज सावरकर बिस्तर पर से उठीं। सबसे पहले अपने तनिक अस्त-व्यस्त से कपड़ों को व्यवस्थित किया। अपने ब्लैक एण्ड व्हाइट बालों का...जो खुले पड़े थे...जूड़ा बनाया और पास में रखी मेंज पर, टेबल लैम्प के पास पड़ी चाबियों का गुच्छा उठाकर बेडरूम के दरवाजे की तरफ बढ़ गई।
अंधेरे में ही वह ड्राइंगरूम में आई तथा पहले उसने ड्राइंग रूम का बल्ब जलाया।
एक बार फिर कॉलबैल चिंघाड़ी।
“अरे खोलती हूं बाबा।” आलस्य भरे स्वर में मिसेज सावरकर ने धीमें से पुकारकर कहा—“क्यों इतनी ज्यादा जल्दी मचा रही हो?”
कॉलबैल खामोश हो गई।
मिसेज सावरकर ने चाबियों के गुच्छे में से एक चाबी को छांटकर दरवाजे पर अन्दर की तरफ लगे ताले को खोला। कुण्डी खोली। वह दरवाजे के पटों को खोलना ही चाहती थी कि भड़ाक से दरवाजे के दोनों पट खुले। मिसेज सावरकर दहशत के साथ चीखकर पछाड़ खाकर फर्श पर जा गिरी।
उफ्फ!
मानो कहर बरपा गया था एक ही पल में।
चार नकाबपोश धड़धड़ाते हुए घर के अन्दर तूफान के झोंके की मानिन्द घुसे। चारों के हाथों में माउजर्स थे। सबसे पहले मकान के अन्दर प्रवेश करने वाला छः फीटा बॉडी बिल्डर सरीखा नकाबपोश दहाड़ा—“ऐ बुढ़िया, ज्यादा शोर मत करना...नहीं इदरइच तेरा गेम बजा डालूंगा मैं। चल जल्दी मुंह फाड़...तेरे घर की तिजोरी कहां पर है?”
उस अप्रत्याशित शॉक ने मिसेज सावरकर का दिमाग वैसे ही आउट ऑफ कन्ट्रोल कर दिया था।
वह फर्श पर पीठ के बल पड़ी जूड़ी के मरीज की तरह कांप रही थी।
“ऐ बुढ़िया! चल उठ, नाटक नेई करने का, क्या?”
उस नकाबपोश ने झुककर बुढ़िया की बांह पकड़कर उसे रबड़ की गुड़िया की तरह ऊपर उठाया तथा खतरनाक लहजे में, अपने हाथ में थमी माऊजर को उसकी आंख के सामने लहराकर बोला—“चल फटाफट बता...कहां रखी है तूने तिजोरी?”
“अ...आप लोग गलत घर में आ गए हैं।” अपने डर को काबू में करके उद्वेलित स्वर में कहा—”हम अपने घर में पैसा नहीं रखते। हम स...सारा पैसा अपने अकाउण्ट में जमा रखते हैं।”
एक नकाबपोश ने तुरन्त बिना किसी इंस्ट्रक्शन के मुख्य द्वार बन्द कर दिया। कुण्डी भी बन्द कर दी।
जिसने मिसेज सावरकर को कब्जा रखा था, उसी ने अपने अन्य साथियों को इंस्ट्रक्शन दी—“तुम लोग वहां खड़े-खड़े क्या कर रहे हो? चलो आगे बढ़ो और माल तलाश करो।” दरवाजा बन्द करने वाले को इंस्ट्रक्शन दी—“और तू उन चाबियों को सम्भाल। उनमें सेफ की चाबी होगी।”
और फिर...!
अन्दर से मिस्टर सावरकर ड्राइंगरूम का शोर सुनकर बाहर निकल ही रहे थे कि नकाबोशों ने उन्हें भी दबोच लिया।
वह जिसने मिसेज सावरकर को कवर कर रखा था...शायद उनका सरदार था, उसी ने अन्दर आकर मिस्टर सावरकर को भी कब्जे में ले लिया।
नकाबपोश कमरे की तलाशी ले रहे थे।
एक ने बाहर ताले में से कब्जाई चाबियों में से एक से कमरे के अन्दर रखी सेफ को खोला तथा उसका सामान टटोलने लगा।
मिस्टर एण्ड मिसेज सावरकर इस समय तक सम्भल चुके थे। मिस्टर सावरकर का चेहरा तो क्रोध के कारण उस समय आग का गोला बना हुआ था। वे लगातार उन्हें चेतावनी दे रहे थे–”तुम ये ठीक नहीं कर रहे हो। तुम शायद नहीं जानते...हम सी०एम० के सास-ससुर हैं। तुम लोग बचकर नहीं जा सकते।”
“ऐ! अपनी जुबान बन्द रख साले बुड्ढे।” सरदार के नकाब में से सांप की-सी फुंकार निकली—“तू क्या है, हम सारी इन्फॉर्मेशन लेकर इधर आए हैं...हम जानते हैं तेरी तिजोरी में पचास लाख का क्राउन बन्द है जो तेरे को तेरे दामाद ने दिया था। चल अब बता, किधर छिपाया है तूने तिजोरी को?”
बस!
मानो मिस्टर सावरकर को सांप सूंघ गया।
सरदार लगातार मिस्टर एण्ड मिसेज सावरकर को धमका रहा था। जब वैसे बात नहीं बनी तो उसने मिस्टर सावरकर को धुनना शुरू कर दिया।
उसके साथी लगातार कमरे का सामान खंगाल रहे थे।
कमरे में अव्यवस्था, तोड़-फोड़ और ठुकाई का माहौल जोरों पर था। उसी पल मानो कोई चण्डी अचानक वहां पर प्रकट हुई थी। दरवाजे पर से एक नारी शरीर कमान से छुटे तीर की मानिन्द हवा में सनसनाया था।
उसने अपने दोनों हाथों से सरदार नकाबपोश को जोर से धकेला तथा उसी के ऊपर फर्श पर गिरी।
एक पल में सारा नजारा ही बदल गया था वहां। वहां सब कछ अपने स्पैल में महसूस कर रहे तीनों-के-तीनों नकाबपोश अपने सरदार को एक हसीना के साथ गुंथे फर्श पर गुत्थम-गुत्था होते देखकर हैरान रह गए। दिमाग की नसों में बहता लहू आईसक्रीम की तरह जम गया था।
सबने अपनी-अपनी माऊजर्स सम्भाली। फायर करने चाहे, मगर वह न कर सके। समझ ही नहीं आया फायर करें तो किस प्रकार करें? 'वे दोनों तो दो जिस्म एक जान की तरह फुटबॉल के साथ कलामुण्डी खाते जा रहे थे कि कौन-सा शरीर ऊपर आ जाता पता नहीं चलता। वे हर बार फायर करने की कोशिश करते और ऊपर उस हसीना के आते ही उंगली ट्रेगर पर ही ठिठक कर रह जाती थी।
फिर!
वे लुढ़क-पुढ़क होते हुए ठहर गए।
“खबरदार!” और मानो घायल शेरनी दहाड़ी थी उसी वक्त।
सब फ्रीज!
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Additional information
Book Title | मुर्दा बोले कफन फाड़ के : Murda Bole Kafan Fard Ke |
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Isbn No | |
No of Pages | 396 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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