मेरे बच्चे मेरा घर
डिक्की!
समुद्र तल से छः हजार फीट ऊपर बसा एक प्रसिद्ध हिल स्टेशन—मई-जून के महीने में देश-विदेश के सैलानी यहां इस कदर उमड़ पड़ते हैं कि किसी भी होटल, लॉज या गेस्ट हाउस में एक कमरा दो सौ रूपये प्रतिदिन से कम किराए पर उपलब्ध नहीं होता और इससे भी दो हजार फीट ऊपर स्थित है—
गुमटी गांव!
यह वह स्थान है जहां की पर्वत श्रृंखलाएं सर्दियों में बर्फ से ढकी रहती हैं। दूर-दूर तक हरे, भरे पहाड़ी जंगल-दर्रे और घाटियों की यहां भरमार है।
एक झील है।
बेहद विशाल!
चमचमाते ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों से घिरी—जब उन पर्वतों की चोटियों पर सूर्य की रश्मियां पड़ती हैं तो झील में नौका-विहार कर रहे व्यक्ति को ऐसा लगता है, जैसे चारों ओर से सैंकड़ों शरारती बच्चे उसे शीशे दिखा रहे हों।
डिक्की से गुमटी पहुंचने के लिए 'खच्चर' ही एकमात्र सवारी है, मगर जो डिक्की आता हैं, वह गुमटी जाना नहीं भूलता, वहां के प्राकृतिक सौंदर्य को अपनी आंखों में बसाने, झील को देखने और विशेष रूप से नौका-विहार का आनन्द उठाने हर व्यक्ति वहां पहुंचता है।
गुमटी में कोई होटल, लॉज या गेस्टहाउस नहीं है—अतः अधिकांश सैलानी सुबह पहुंचकर सारा दिन गुजारते हैं।
शाम तक वापस डिक्की।
'जंगा' नामक पहाड़ पर करीब सौ झोंपड़िया हैं।
एक-दूसरे से काफी दूर-दूर छितराई-सी।
इन्हीं में गुमटी गांव के निवासी रहते हैं।
दिसम्बर-जनवरी में बर्फ सिर्फ वहां पड़कर ही संतुष्ट नहीं हो जाती, बल्कि बाकायदा बर्फीले तूफान चलते हैं और वह दिसम्बर की ही एक रात थी।
खामोश!
न बर्फ पड़ रही थी, न बर्फीला तूफान।
फिर भी, सर्दी हद से ज्यादा थी।
गुमटी के हर निवासी की तरह साधना, उसका भाई दिलेराम और ब्लड-हाउण्ड जाति का खतरनाक 'जैबरा' नामक कुत्ता। छोटी-सी, अंधेरी झोंपड़ी में दो-दो लिहाफ ओढ़े सो रहे थे।
अचानक किसी ने बाहर से उनकी झोंपड़ी की सांकल खटखटाई।
ब्लड-हाउण्ड तुरंत उछलकर खड़ा हो गया, जीभ बाहर निकाले अंधेरे में शोले की तरह चमक रही आंखों से उसने दरवाजे की तरफ देखा।
सांकल पुनः बजी।
अब, 'जैबरा' भौंकने ही नहीं लगा, बल्कि अपने पंजे से दिलेराम को जगाने की कोशिश भी करने लगा—दिलेराम तो नहीं जागा, अलबत्ता साधना की नींद जरूर टूट गई, बोली—"क्या बात है जैबरा?"
जैबरा दौड़कर उसकी चारपाई के नजदीक पहुंचा, अभी वह उसके ऊपर से लिहाफ हटाने की कोशिश ही कर रहा था कि झुंझलाई हुई साधना ने कहा—"अरे...अरे, क्या करता है जैबरा, क्या मुसीबत आ गई?"
तभी सांकल पुनः खड़की।
"हैं.....रात के इस वक्त दरवाजे पर कौन हो सकता है?" वह चौंककर उठ बैठी।
अब, जैबरा दिलेराम की तरफ लपका—साधना ने टटोलकर अपने सिरहने से माचिस निकाली, तीली के जलते ही उसकी हरी आंखें चमक उठीं—झोंपड़ी में लालटेन का पीला प्रकाश बिखर गया।
सांकल बहुत जोर से बजी।
"अरे, कौन आ मरा है रात के इस वक्त?" उसने झुंझलाकर ऊंची आवाज में पूछा।
"मैं इन पहाड़ों में भटका एक मुसाफिर हूं—दरवाजा खोलिए।"
साधना ने कोई जवाब न दिया, अवाक-सी खड़ी वह ये सोचती रह गई कि रात के वक्त इस इलाके में कोई अजनबी क्या कर रहा है?
उधर, जैबरा की भरपूर कोशिश के बावजूद दिलेराम जाग नहीं रहा था—वह लिहाफ अलग करता, दिलेराम कुनमुनाता हुआ जाने क्या-क्या बड़बड़ाकर लिहाफ पुनः अपने जिस्म पर खींच लेता।
यह खेल काफी देर से चल रहा था।
"अरे, वहां क्यों बेवजह झक मार रहा है जैबरा!" साधना ने कहा, "जोगा-ताड़ी पीने के बाद किसी को दुनिया की सुध-बुध रहती है—छोड़ उसे, वह नहीं उठेगा।''
'जोगा-तोड़ी' ऐसी शराब को कहते हैं जो वहां के पहाड़ पर पाई जाने वाली 'जोगा' नामक घास से खींचकर निकाली जाती है, वह इंसान के जिस्म में तीतर के गोश्त से भी कहीं ज्यादा गर्मी भर देती है—साथ ही, उसे पीने वाला उत्तेजित हो जाता है।
सांकल फिर बजी।
"खोलते हैं, क्यों मरा जा रहा है?" ऊंची आवाज में कहने के बाद साधना कुत्ते से बोली— "आ जैबरा, दरवाजा खोलकर हम देखते हैं कि कौन मरदूद है?"
वह दरवाजे के नजदीक पहुंची, कुत्ता साथ था।
दरवाजा खोलते ही नजर वहां खड़े व्यक्ति पर पड़ी—अभी वह ठीक से उसकी सूरत भी न देख पाई थी कि जैबरा भौंका—व्यक्ति फुर्ती से
पीछे हट गया।
अब वह एक परछाई के रूप से साधना को चमक रहा था और उसी परछाई को घूरती हुई साधना ने कहा— "क्यों, अब बिदककर पीछे क्यों हट गया—जब से तो दरवाजा पीट-पीटकर सोना हराम कर रखा था।"
“अ...अजीब लड़की हो?” परछाई के मुंह से निकला।
"नजदीक आ, रोशनी में—जरा देखूं तो सही तेरा बांका चेहरा।"
"व...वह कुत्ता।"
"अगर तू चोर-उचक्का ना हुआ तो जैबरा तुझे कुछ नहीं कहेगा और यदि चोर-उचक्का हो तो भाग जा यहां से, यह तेरा मुर्ग-मुसल्लम बनाकर खा जाएगा।"
परछाई धीरे-धीरे आगे बढ़ी।
साधना चहकी—"आय-हाय, आगे तो ऐसे बढ़ रहा है जैसे हाथ-पैरों में मेंहदी लगी हो—क्या तेरे से तेज नहीं चला जाता?"
वाक्य खत्म होते-होते वह साधना के इतना करीब आ गया कि लालटेन की पीली रोशनी उसके शरीर पर पड़ने लगी और उस वक्त साधना उसके आकर्षक व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना न रह सकी, अभी वह उसे ऊपर से नीचे तक देख ही रही थी कि दृष्टि उसकी
बाईं जांघ पर स्थिर हो गई।
"अरे—!” उसके मुंह से निकला—"ये क्या है—ये खून कैसा?"
"मुझे गोली लगी है।"
"गोली—मगर किसने मारी, कहीं तू कोई डाकू तो नहीं है?"
आगन्तुक ने कहा— "क्या मैं तुम्हें डाकू नजर आता हूं?"
उसके जिस्म पर मौजूद शानदार सूट को घूरती हुई साधना बोली— "लगते हो तुम फर्स्ट क्लास शहरी बाबू हो, मगर रात के इस वक्त, कड़ाके की सर्दी में गुमटी में कहां भटक रहे हो—कहीं ये गोली तुम्हें फूलवती या बंतासिंह के साथियों ने तो नहीं मारी?"
"कौन फूलवती और बंतासिंह?"
"इस इलाके के खूंखार डाकू हैं—एक-दूसरे के खून के प्यासे।"
"मैं नहीं जानता कि गोली किसने मारी है?"
"अजीब आदमी है, गोली खाकर आया है और यह भी नहीं जानता कि किसने मारी है—अब बाहर खड़ा टुकुर-टुकुर मेरी सूरत क्या देख रहा है, अन्दर आ—वर्ना इस गोली से तो किसी तरह बच गया, सर्दी से नहीं बच सकेगा।"
आगन्तुक ने अंदर कदम रखा।
जैबरा चुपचाप एक तरफ हट गया, दरवाजा बंद करके अंदर से सांकल चढ़ाने के बाद पलटती हुई साधना ने पूछा—"नाम क्या है तेरा?"
"विश्वास!"
"ये भी कोई नाम हुआ?" साधना बोली— "विश्वास तो करने या न करने की चीज होती है! खैर—ये बता कि कहां का रहने वाला है?"
"र...रामनगर का।"
"ये कहां हुआ?"
"यहां से बहुत दूर है, एक बहुत बड़ा शहर।"
"तो फिर रात के इस वक्त इन पहाड़ों में क्या कर रहा था?"
"मैं यहां के जंगलों में शिकार खेलने आया था, जाने किसने गोली मार दी!"
"जरूर वे फूलवती या बंतासिंह के साथी होंगे, मगर...।" उसे घूरते हुई साधना ने पूछा— "रात के वक्त भला कौन-सा शिकार किया जाता है?"
"शिकार के लिए तो मैं दिन में ही निकला था, मगर शाम के वक्त जब लौटने के बारे में सोचा तो रास्ता याद न रहा—पहाड़ों में भटक गया, अब से करीब दो घंटे पहले अंधेरे में जाने किधर से एक गोली चली—सारा जंगल गोली के धमाके की आवाज से गूंज उठा और गोली मेरी जांघ में लगी—जान बचाने की खातिर मैं भागा, कुछ लोगों ने पीछा किया, मगर मैं भागता रहा, रास्तों का मुझे कोई ज्ञान नहीं था—जिधर पैर पड़े, जान बचाने की खातिर उधर ही भागा और अंत में खुद को उनकी नजरों से दूर करने में कामयाब हो गया—उसके बाद, जख्म से बहने वाले खून को हाथ से रोकने का प्रयास करता, पीड़ा को सहता मैं भटकता रहा, संयोग से यह बस्ती नजर आई और मैं...।"
"बस-बस....अपनी यह रामायण बंद कर, जरा अपना जख्म तो देख—खून अब भी बह रहा है, अगर इसे रोका न गया तो टांय-टांय-फिस्स हो जाएगा।"
"खून बहना उतनी गंभीर बात नहीं है, जितना सारे जिस्म में गोली का जहर फैल जाने का डर है।"
"तो मुझे क्या तूने डॉक्टर समझ रखा है?" साधना ने आंखें तरेरीं।
वह हौले से मुस्करा दिया, यह लड़की उसे अजीब लगी थी, बोला— "गोली निकालने के लिए डॉक्टर की जरूरत नहीं हैं।"
"फिर?"
"यह काम तुम भी कर सकती हो।"
"म...मैं—कैसे भला?"
"जैसे मैं कहूं।" कहने के साथ ही उसने अपने जूते के तले से एक चाकू निकालकर खोला ही था कि साधना चिहुंककर पीछे हट गई—“दैया री दैया, तुम जूते में चाकू रखते हो?"
"हां।" वह हंसा—"चाकू हमें रखना पड़ता है।"
"क्यों भला?"
"शिकार के वक्त यदि गन हाथ से निकल जाए और शेर या चीता हम पर झपट पड़े, तब उसे परास्त करने के लिए कुछ तो होना ही चाहिए?"
"क्या तुम चाकू से शेर को मार सकते हो?"
"कोशिश तो की जा सकती है।"
जाने क्या सोचकर साधना ने खुद ही कहा— "मार सकते हो जरूर मार सकते हो—तुम मुझे बहादुर शहरी बाबू लगते हो।"
"वह कैसे?"
"जब यहां ठाकुर जाति का डाकू आता है तो अक्सर खून-खराबा करता है। मैंने वे लोग देखे हैं जिन्हें डाकुओं की गोली लगती है—या तो वे मर जाते हैं या कई-कई दिन तक बेहोश रहते हैं—और एक तुम हो, दो घण्टे पहले गोली लगी है, मगर अब भी खड़े चख-चखकर रहे हो।"
"अगर तुमने गोली निकालने की बजाय थोड़ी देर और चख-चख की तो मेरी सारी बहादुरी तुम्हारी इस झोंपड़ी में ढ़ेर हो जाएगी।"
"क्या?" साधना भड़क उठी—"मैं चख-चख करती हूं?"
"अरे नहीं बाबा...किस बेवकूफ ने कहा है कि तुम चख—चख करती हो, खैर—मैं ये गोली निकालने वाली बात कह रहा था।"
"मगर मैंने पहले तो कभी किसी की गोली निकाली नहीं।"
"निकालतीं कैसे?" आगन्तुक ने कहा—"पहले कभी कोई जख्मी व्यक्ति तुम्हारी झोंपड़ी में आया भी तो नहीं होगा।"
"ये भी ठीक है।"
"तो ये लो चाकू और निकालो गोली।"
"च...चाकू से भला गोली कैसे निकलेगी?"
"मैं बताता हूं...यहां कोई अंगीठी या स्टोव तो होगा?"
"हां, है।"
"उस पर चाकू के फल को दहकाओ, जब लाल हो जाए तो इसकी नोक से मेरे जख्म में मौजूद गोली को ठीक उसी तरह कुरेदकर निकाल लो जैसे जमीन में गड़ी किसी छोटी वस्तु को निकाला जाता है।"
"ना बाबा...ना, ये काम मुझसे बिल्कुल नहीं होगा।" मुंह पर हाथ रखकर यह वाक्य साधना ने ऐसे मासूम अंदाज में कहा था कि
आगन्तुक उसे देखता रह गया, उसके मुखड़े पर खौफ था—हरी आंखों में दहशत।
बोला—"क्यों नहीं होगा?"
"मुझसे किसी का दर्द नहीं देखा जाता।”
"और मौत?"
"हाय, ये तू क्या बक रहा है शहरी बाबू...भगवान कभी किसी को न मारे!"
आगन्तुक बरबस ही ठहाका लगाकर हंस पड़ा—"अगर तुमने मेरे दर्द की परवाह की और गोली नहीं निकाली तो तुम्हें मेरी मौत देखनी होगी।"
"क्या तू सच कह रहा है?"
"बिल्कुल सच।"
"तो ला चाकू...मैं तुझे मरने नहीं दूंगी।" कहती हुई साधना ने हाथ फैला दिया।
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