मेरा पति जिन्दा करो
राकेश पाठक
“ये सब क्या हो रहा है?” जज मोहन कपूर मोटे लैंसों में छिपी कंजी आंखों से दोनों कांस्टेबलों को घूरते हुए बोले—“ये औरत कौन है?”
“अ....आप मुझे इतनी जल्दी कैसे भूल सकते हैं जज साहब?” वह कांस्टेबलों की पकड़ से छूटने की भरसक चेष्टा करते हुए चीखी—“आपके हाथों को मेरी मांग का सिन्दूर पौंछे हुए वक्त ही कितना हुआ है। कुछ रोज पहले ही तो मैं सुहागन के रूप में खड़ी आपके सामने रो रही थी। गिड़गिड़ा रही थी। आपसे अपने सुहाग की भीख मांग रही थी। मैं वो ही तो हूं, जज साहब। मेरे इस जिन्दा लाश रूपी जिस्म पर रंगीन कपड़ों की जगह सफेद कफन ही तो बदला है। मेरी मांग से सिन्दूर....मेरे माथे से बिन्दी और मेरे गले से मंगल सूत्रा ही तो गायब हुआ है, लेकिन मेरी शक्ल-सूरत तो वही है। मैं आपके पास एक फरियाद लेकर आयी हूं। अपने इन सिपाहियों से कहिये कि ये मुझे छोड़ दें।”
“लेकिन इस वक्त यहां एक मुकदमे की बहस चल रही है मैडम।” जज मोहन कपूर उसे पहचानने पर गम्भीर व सख्त आवाज में बोले—“किसी को भी बोलने की—या डिस्टर्ब करने की इजाजत नहीं है। यदि तुम्हें अदालत की कार्यवाही देखनी है तो चुपचाप बैठकर....।”
“मुझे बैठना नहीं है जज साहब।” आर्तनाद-सा करते हुए वह बोली—“म....मुझे तो आपसे एक फरियाद करनी है। मैं आपसे रिक्वेस्ट....दोनों हाथ....।” उसने कांस्टेबलों से हाथ छुड़ाकर जोड़ने की असफल चेष्टा के साथ कहा—“हाथ जोड़कर प्रार्थना करती हूं कि मुझे अभी इसी वक्त बोलने का मौका दे दिया जाए।”
जज महोदय के धुएं से रचित स्याह होंठ खुलने से पूर्व ही सरकारी वकील हरीश देशपाण्डे—उस युवती को घृणा व तिरस्कारपूर्ण निगाहों से घूरते हुए—बोला—“भला किसी को अदालत की कार्यवाही के बीच में बोलने की इजाजत कैसे दी जा सकती है मी लार्ड?”
झटके के साथ उसका चेहरा सरकारी वकील की तरफ घूमा—क्षण भर में ही चेहरा किसी मिल की भट्टी की तरह भभक उठा—आंखों में गुड़हल के सुर्ख फूलों का गूदा-सा भर चला।
नथुनों को फुलाते हुए बर्फ जैसी ठण्डी व रेगमार्क जैसी खुरदरी आवाज में बोली—“अदालत की मर्यादा का सम्मान करते हुए ही मैंने फरियाद और प्रार्थना जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया है मिस्टर पब्लिक प्रॉसीक्यूटर। वर्ना मैं यहां चेतावनी देने आयी थी। इस देश में प्रजातन्त्रा है, डेमोक्रेसी है। हर किसी को अपनी बात कहने का पूरा हक, पूरा अधिकार है। यदि मेरे साथ तनाशाही जैसा व्यवहार हुआ....मुझे जबरन यहां से धक्के देकर निकाला गया तो मैं फिर आऊंगी। जब तक मेरे जिस्म में एक भी सांस बाही रहेगी, मैं अदालत में अपनी बात कहने की चेष्टा करती रहूंगी।”
“तुम अपनी बात अदालत की कार्रवाई पूरी हो जाने पर रख सकती हो।” जज मोहन कपूर की आवाज थोड़ा नम्र थी।
“मुझे अपनी बात आपसे—यानि जज मोहन कपूर से नहीं कहनी है। यदि मुझे आपसे ही बात करनी होती तो मैं आपके घर आ सकती थी। मुझे आपके रेजीडेंस का पता मालूम है।”
“तो फिर....किससे बात करना चाहती हो तुम?”
“उस अदालत से....जिसने मेरे पति को फांसी पर चढ़ाया था।”
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कुछ सेकण्ड्स के लिए अदालत कक्ष मे इतना गहरा सन्नाटा व्याप्त हो गया कि यदि अचानक ही कोई श्वास भी लेता तो यही भ्रम होता कि किसी ने तोप से गोला छोड़ दिया हो।
जज महोदय के मुख से निकली शब्दों की स्कड मिसाइल ने सन्नाटे के बंकर को ध्वस्त किया—“हालांकि ऐसा कोई नियम नहीं है कि अदालत की कार्रवाई को बीच में रोककर किसी बाहरी आदमी को बोलने का मौका दिया जाए, लेकिन हम तुम्हारी मनोदशा को देखते हुए तुम्हें बोलने का अवसर देंगे। हम पांच मिनट के बाद लंच ब्रेक की घोषणा करेंगे। लंच ब्रेक की घोषणा होने पर कोई भी तुम्हारी बातें सुने बिना यहां से बाहर नहीं जाएगा। तुम पांच मिनट तक धैर्य के साथ कार्रवाई देखोगी। इन्हें छोड़ दिया जाए।”
आखिरी वाक्य उन दोनों कांस्टेबलों के लिए आदेश था, जो कि उस युवती को दबोचे खड़े थे।
कांस्टेबलों ने अदालत में मौजूद इन्स्पेक्टर भारती को प्रश्नसूचक निगाहों से देखा तो....इन्स्पेक्टर भारती ने आंखों के इशारे से अपना जवाब दे दिया।
दोनों ने युवती को छोड़ दिया।
वह अपनी गोरी-चिट्टी लेकिन चूड़ियां विहीन कलाईयों को मलते हुए न जाने क्या बड़बड़ाने लगी।
ठीक पांच मिनट पश्चात् जज महोदय ने लंच ब्रेक की घोषणा की।
हर किसी की उत्सुक व जिज्ञासु दृष्टि उसके लिपस्टिक विहीन लेकिन सुर्ख होठों पर स्टीकर की तरह चिपक गयी—सभी को उन सुर्ख होठों के खुलने की प्रतीक्षा थी।
सभी के मन में ये कौतुहलता समाई हुई थी कि वह क्या बोलना चाहती थी?
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“मैं....मैं चाहती हूं कि आप इस अखबार के फ्रन्ट पेज पर सबसे ऊपर वाली खबर को पढ़ लें....जज साहब।” कन्धे पर झूल रहे झोले से तुड़ा-मुड़ा-सा अखबार निकालते हुए बोली थी वह।
“किस खबर की बात कर रही हो तुम?” उक्त आवाज थी, जज मोहन कपूर की।
“खबर यही है कि....” उसकी शहद जैसी आवाज में अचानक ही नीम की-सी कड़वाहट घुल चली—“मेरे पति निर्दोष थे, बेगुनाह थे।”
“हमें मालूम है ये बात।”
“मालूम है?” किसी जानी दुश्मन की गर्दन मरोड़ने के अन्दाज में अखबार को मरोड़ते हुए वह हरेक शब्द को चबाते हुए बोली—“तो फिर अपने मेरे पति को फांसी पर क्यों चढ़ाया था?”
जज मोहन कपूर क्षण भर को सकपकाए, फिर चेहरे पर गम्भीरता का नकाब चढ़ाते हुए बोलो—“क्योंकि तुम्हारे पति कातिल साबित हुए थे।”
“तो अब उन्हें बेगुनाह क्यों माना गया है?”
“क्योंकि वो बेगुनाह साबित हुए हैं।”
“यानि” वह अंगारे टपकाती आंखों को जज मोहन कपूर की चश्मे के भीतर बन्द आंखों में झांकते हुए बोली—“यानि अदालत कबूलती है कि मेरे पति बेगुनाह थे, निर्दोष थे? उन्होंने किसी का कत्ल नहीं किया था? फिर उन्हें फांसी पर क्यों चढ़ाया गया?”
“मैडम....तुम बेवजह ही इस टॉपिक को उठा रही हो।” जज मोहन कपूर ही आवाज में झुंझलाहट के अलावा कसमसाहट का भी समावेश था—“यदि कोई आदमी अदालत की कार्रवाई के बाद मुजरिम साबित होता है तो उसे सजा तो सुनाई ही जाती है।”
“लेकिन वो निर्दोष हो तो?” वह तड़पकर चीखी—“वो आखिरी सांसों तक गला फाड़-फाड़कर यही चीखता रहा हो कि वह निर्दोष है, बेगुनाह है, उसने किसी का कत्ल नहीं किया है तो? मेरे पति आखिर तक यही कहते रहे कि उन्होंने कत्ल नहीं किया है। फरियाद करते रहे वो कानून से—कानून के रखवालों से कि छानबीन करके सच्चाई का पता लगाया जाए।”
“कानून ने रि-इन्वेस्टीगेशन की थी मैडम। तुम्हारे पति की पुकार पर गौर करते हुए अदालत ने पुलिस को यह हुक्म दिया था कि वह दोबारा छानबीन करे लेकिन पुलिस को ऐसा कोई सबूत या गवाह नहीं मिल पाया था कि तुम्हारे पति का बेगुनाह माना जा सकता। आखिरकार अदालत को यही लगा था कि तुम्हारे पति फांसी की सजा से बचने के लएि हाय-तौबा मचा रहे थे।”
“जबकि मेरे पति सच बोल रहे थे।” वह भभकते चेहरे के साथ बोली—“उनकी हाय-तौबा में कोई ड्रामेबाजी न होकर सच्चाई भरी थी। खैर, मैं आपसे सवाल करना चाहूंगी जज साहब।”
“कौन-सा सवाल?”
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जज मोहन कपूर व उस खूबसूरत युवती के बीच चल रहे वार्तालाप को हर कोई सांस रोके सुन रहा था—जो उस युवती से वाकिफ नहीं था, वो इस सस्पैंस का शिकार था कि इस युवती के पति को किसके कत्ल के इल्जाम में फांसी पर चढ़ाया गया था तथा फिर वो बेगुनाह कैसे साबित हुआ था।
लेकिन अदालत कक्ष में कम-से-कम तीन आदमी ऐसे थे, जो कि उक्त केस से सम्बन्धित माइनर से भी माइनर बात को जानते थे।
वो थे जज मोहन कपूर, सरकारी वकील हरीश देशपाण्डे व इन्स्पेक्टर भारती।
कानून के तीनों ही रखवाले भीतर से विचलित थे—परेशान थे—क्योंकि वह अप्सरा रूपी युवती भरी अदालत में उन्हीं के खिलाफ जहर उगल रही थी।
परन्तु युवती के सवाल रूपी तीर-भालों का डायरेक्ट सामना तो जज मोहन कपूर को करना पड़ रहा था।
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