महंगी पड़ेगी दुश्मनी
सुनील प्रभाकर
“तुम इतना घबरा क्यों गये हो सम्पत सिंह? क्या किसी शेर को देख लिया है तुमने?”
“शेर नहीं, खूनी भेड़िया।”
“क्या मतलब?” वह चौंका।
“मतलब जानना चाहते हो तो...जरा गर्दन मोड़कर देख लो। अपने गार्डों के साथ नेता जी आ रहे हैं।”
“ओह!”
“मेरी...मेरी एक सलाह मानो रघुनाथ।” वह काले-कलूटे नेताजी पर से निगाहें हटाते हुए फुसफुसाहट भरे स्वर में बोला—“भगवान के वास्ते तुम फौरन ही उठकर नेता जी से माफी मांग लो। वह काफी गुस्से में नजर आ रहा है। अभी तो वह मालिक के कमरे में गया है परन्तु वह जल्द ही तुम्हारे पास आएगा।”
“तो आने दो।” तीस वर्षीय रघुनाथ रजिस्टर पर पैन चलाते हुए बोला—“कौन-सा वह मुझे खा जाएगा यार।”
“तुम मामले को गम्भीरता के साथ नहीं ले रहे हो रघुनाथ। नेता जी इस शहर का मालिक है। सरकारी महकमों में भी पिलती है उसकी। तुम्हें शायद उसकी पहुंच का अन्दाजा नहीं है। जब वह सत्ताधारी पार्टी का नेता नहीं था, तब भी शहर में उसकी मनमानी चलती थी क्योंकि उसके पास गुण्डों की फौज रहती थी। आज तो उसके पास सत्ता की भी ताकत है। उससे बिगाड़कर तुम फायदे में नहीं रह सकोगे। मैं एक दोस्त की हैसियत से ही तुम्हें सलाह दे रहा हूं कि तुम फौरन ही नेता जी से माफी...।”
“माफी...?” रघुनाथ का चेहरा भभक उठा, वह पैन को रजिस्टर पर पटकते हुए बोला—“किस बात की माफी मांगू मैं उस नेताजी से? क्या कसूर किया है आखिर मैंने? क्या मैंने नेताजी की बेइज्जती की है, या उसके बारे में कोई गलत प्रचार किया है?”
“कल तुमने उसके सेक्रेटरी को थप्पड़ मारा था।”
“तो क्या मैं उस साले की आरती उतारता? जानते हो कि उसने क्या हरकत की थी? शराब के नशे में उसने मनोरमा को अपनी बांहों में भरकर उसका मुंह चूमने की गन्दी कोशिश की थी...हम सभी की मौजूदगी में। उस बदतमीज आदमी की गिरफ्त से निकलने के वास्ते बेचारी मनोरमा ने हम सभी को पुकारा था। बाकी सभी हिजड़े बने अपनी एक साथी की तौहीन होते देखते रहे, लेकिन मैं यह सब बर्दाश्त नहीं कर सकता था। आखिर मनोरमा मुझे भैया कहती है। फिर...किसी अबला की बेइज्जती होते देखकर अगर कोई मर्द चुपचाप तमाशबीन खड़ा रहे, तो धिक्कार है उस पर। कल को वह अपनी बहन-बीवी की क्या हिफाजत कर पाएगा। नेताजी का सेक्रेटरी बुरी नीयत से मनोरमा को केबिन की तरफ घसीट कर ले जा रहा था। तो क्या मैं उस कमीने को एक विधवा मासूम की आबरू उतारने की इजाजत दे देता? अगर तुम लोगों ने मुझे रोक न लिया होता तो...मैं उस नीच की मार-मारकर खाल उधेड़ देता। वह नेताजी का सेक्रेटरी है, तो इसका यह मतलब तो नहीं हुआ कि उसे किसी औरत की आबरू उतारने का लाइसेंस मिल गया है।”
“वह...वह मालिक के साथ इसी तरफ आ रहा है।” सम्पत सिंह घबराकर उठते हुए बोला—“मैं अपनी सीट पर जा रहा हूं। भगवान के वास्ते होश से काम लेना। तुम बाल-बच्चे वाले आदमी हो।”
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“देखा, तूने देखा गुप्ता?” काला-कलूटा नेता गुस्से से लाल-पीला होता हुआ चीखा—“हमें देखकर तेरा स्टाफ उठ खड़ा हुआ है। लेकिन यह बदतमीज किस बेशर्मी के साथ बैठा हुआ अपना काम कर रहा है। लगता है कि यह तेरी भी इज्जत नहीं करता है।”
पॉकेट बुक्स के मालिक अजीत प्रसाद गुप्ता ने मन ही मन नेता जी को गाली दी तथा रघुनाथ की हरकत पर उसे शाबाशी दी—मनोरमा के साथ हुए बुरे सलूक पर वह भी नेता जी के सेक्रेटरी पर ताव खा रहा था। लेकिन नेताजी से बिगाड़कर उसे अपनी तबाही के दरवाजे नहीं खोलने थे।
“रघुनाथ...।” वह चेहरे पर गुस्से का मुखौटा चढ़ाते हुए बोला—“काम करने में इतनी मशगूल भी मत हो जाया करो कि तुम्हें किसी के आने-जाने की खबर ही ना हो। स्टैण्डअप...।”
रघुनाथ ने स्लो मोशन से चेहरा उठाया और अपने मालिक को अजीब से भाव से घूरा।
मानो उसकी आंखें सवाल कर रही थीं—“क्या किसी भी गलत इन्सान के लिए अपने जमीर को मारकर अपने मातहत के साथ ऐसा सलूक करना ठीक है?”
गुप्ता सकपका-सा उठा—उसकी आंखों ने रघुनाथ से फरियाद की कि वह उसकी मजबूरी को समझे और उसकी मदद करे।
“सॉरी, सर...।” रघुनाथ उठते हुए बोला—“आपने आदेश दिया था कि नॉवल की शाम तक एडिटिंग करके प्रेस में भेजना है सो मैं अपने काम में बिजी था।”
“नहीं, बिजी नहीं था तू।” नेता उसे कहर भरी दृष्टि से घूरते हुए गुर्राया-सा—“बल्कि जानबूझकर तू हमें छोटा साबित करने की कोशिश कर रहा था। हमारे पधारने पर स्टाफ में हड़कम्प-सा मच गया था। हर किसी ने अपने बराबर वाले से कहा होगा कि 'नेता जी आ गये नेता जी आ गये,' तुझे भी हमारी आमद की सूचना थी। लेकिन तू शायद खुद को इस देश का भावी प्रधानमन्त्री समझता है। भला नेताजी की तेरे सामने औकात ही क्या है। नेताजी के हाथ जोड़कर तेरे को नमस्ते करनी चाहिए थी—क्यों?”
रघुनाथ का चेहरा भभक गया, वह सुलग उठी आंखों को नेताजी की आंखों में झोंकते हुए ठण्डे स्वर में बोला—“नेता जी होंगे आप अपनी पार्टी और पार्टी के वर्कर्स के लिए। या उन लोगों के लिए जिन्हें आपसे कोई स्वार्थ साधना होता होगा। वह लोग ही आपके कदमों में बिछ-बिछ जाते होंगे। मैं एक स्वाभिमानी इन्सान हूं। मेहनत और ईमानदारी के साथ काम करके अपना और अपने परिवार का पेट भरने वाला। मैं इस फर्म का नौकर हूं। गुप्ता जी को सौ बार हाथ जोड़कर नमस्ते करूंगा। लेकिन भला मैं आपके आने पर अपना काम छोड़कर क्यों अपनी फर्म का नुकसान करूं? आपका नौकर हूं क्या मैं?”
रघुनाथ के जवाब पर मौजूदा लोग सन्न रह गये।
स्टाफ के लोग उसे दया भरी दृष्टि से देखते हुए उसकी सलामती की दुआ करने लगे।
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मारे अपमान व क्रोध के नेता के चेहरे पर सुर्ख चींटियों का झुण्ड-सा भागा दौड़ी करने लगा।
आंखों से चिंगारियां-सी छूटने लगीं।
नथुनों को चौड़ाते हुए वह गुप्ता से बोला—“सुना तूने गुप्ता...सुना? क्या भोंक रहा है ये तेरा कुत्ता? तेरी ही मौजूदगी में हमारी इन्सल्ट हो रही है। हमारे आदमी तेरे इस ऑफिस को बुलडोजर फेरकर मलबे का ढेर बना देंगे।”
“आज सुबह इसका अपनी बीवी के साथ झगड़ा हो गया था।” गुप्ता घबराते हुए बोला—“इसलिए इसका मूड अपसेट है। वर्ना यह तो बड़ा ही शरीफ इन्सान हैं। इलेक्शन में भी आपकी पार्टी का सारा काम इसी ने किया था।“
नेता जी ने गुप्ता को सन्देह भरी दृष्टि से घूरा, फिर हौले से सिर को जुम्बिश देते हुए बोला—“ठीक है, हम तेरी बात पर विश्वास कर लेते हैं। लेकिन इसे हमसे माफी मांगनी होगी।”
“ठीक है नेताजी...।” कहने पर वह रघुनाथ को विनती भरे भाव से देखने लगा।
रघुनाथ ने विरोध स्वरूप कुछ कहने के लिए मुंह खोला परन्तु फिर अपने मालिक की दशा पर दया खाकर उसने होंट कसकर भींच लिए।
“मैं.. मैं माफी चाहता हूं नेताजी।”
“तू माफी मांग रहा है कि हमारे सिर पर जूता मार रहा है?” नेताजी बिगड़ते हुए बोले—“ऐसा लगता है कि तू अपने किए पर शर्मिन्दा नहीं है। अब तुझे इन सब लोगों के सामने हमारे पैरों में सिर रखकर माफी मांगनी होगी।”
“मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है कि मुझे आपके कदमों में झुककर माफी मांगनी पड़े...।” रघुनाथ भभके चेहरे के साथ बोला—“मेरा स्वाभिमानी सिर बिना किसी गलती के किसी के सामने नहीं झुका करता।”
“क्या...क्या पागलपन है यह रघुनाथ...?” गुप्ता घबराते हुए बोला—“तुम हालात को समझ नहीं रहे हो। चलो, नेता जी से माफी मांग लो। इनका दिल बहुत बड़ा है। ये माफ कर देंगे।”
“माफ करना गुप्ता जी। यह काम मुझसे नहीं हो सकेगा।”
“तुम्हें नेता जी के पैरों में गिरकर माफी मांगनी होगी रघुनाथ।”
“ये पकड़िये गुप्ता जी...।” रघुनाथ ने जेब से तयशुदा कागज निकालकर अपने मालिक की हथेली पर रखते हुए कहा—“ये इस्तीफा है मेरा। अब मैं आपका नौकर नहीं हूं। आप मुझे कोई हुक्म नहीं दे सकते हैं। मैं जा रहा हूं।”
रघुनाथ की इस हरकत पर गुप्ता सहित हर कोई चकित रह गया।
लेकिन नेताजी के नथूनों से फुंफकार-सी निकलने लगी—उसने छड़ी से रघुनाथ का रास्ता रोका और रेगमार जैसे खुरदरे स्वर में बोला—“ऐसा तो आज तक नहीं हुआ है हमारे साथ। अव्वल तो किसी माई के लाल ने हमारी शान में कोई गुस्ताखी नहीं की, यदि की भी तो उसका सिर हमारे कदमों में झुक गया।”
“परन्तु मेरा सिर नहीं झुकेगा नेताजी।” वह छड़ी को पकड़े हुए बोला—“जो स्वाभिमानी होते हैं, उनके सिर नहीं झुका करते।”
नेता जी ने झटके के साथ अपनी छड़ी छुड़ाई और गुस्से से आपा खोकर चिल्लाया—“तेरा चैलेन्ज कबूल है हमें हरामजादे। अभी तेरा सिर हमारे कदमों में झुका होगा।” कहने पर उसने अपने हथियारबन्द गार्डों को आंखों से कोई इशारा किया।
दोनों गार्ड भूखे शेर से रघुनाथ पर टूट पड़े।
उन्होंने रघुनाथ को इतना मारा कि उसके कपड़े तार-तार होकर झूल गये और जिस्म पर कई जगह से खून बहने लगा।
गुप्ता समेत सारा स्टाफ दम साधे हुए रघुनाथ की पिटाई होते देखता रहा।
किसी ने 'चूं' तक नहीं की।
दोनों गार्ड्स ने अधमरे से रघुनाथ को अपने आका के कदमों में गिरा दिया।
नेता जी ने कीचड़ से सना जूता रघुनाथ के माथे पर रख दिया और छड़ी की नोक से उसकी छाती को ठोकते हुए बोला—“बहुत बड़ा सूरमा बन रहा था तू हरामजादे। हमारे सेक्रेटरी पर हाथ उठाने से पहले अपनी औकात भी नहीं देखी तूने। हमसे पंगा लेने वाले का ऐसा ही हश्र होता है। हम तुझे इस शहर में नहीं बसने देंगे। इस शहर में तुझे नौकरी तो क्या...मजदूरी भी नहीं मिलेगी। अगर अपनी जान की खैर चाहता है तो जल्द-से-जल्द यह शहर छोड़कर चला जा। वर्ना तेरे साथ ऐसा कुछ हो जाएगा कि तुझे मरते दम तक पछताना पड़ेगा।”
टन...टन...टन...।
जेल के घण्टे ने शोर मचाकर बैरक में बन्द रघुनाथ की तन्द्रा को भंग कर दिया।
“फिर..?” उसके सामने बैठे दूसरे कैदी ने बेसब्री के साथ पूछा—“फिर क्या हुआ नम्बर चालीस?”
“होना ही क्या था नम्बर तीस।” वह ठण्डी-सी आह भरकर बोला—“नेता जी ने जो कहा था, वह पूरा हुआ। मुझे किसी भी फर्म में सर्विस नहीं मिली। हर किसी ने मेरी सूरत देखते ही दूर से दोनों हाथ जोड़ दिए। मेरी बीवी सुमित्रा ने कहा कि हमें यह शहर छोड़ देना चाहिए। मैं इतनी जल्दी हार मानना नहीं चाहता था। परन्तु खाली पड़े रहकर भी तो काम नहीं चलने वाला था। घर में मेरी जवान बहन थी, दो बच्चे थे। पांच प्राणियों का पेट तो भरना ही था। सो मैंने मेहनत मजदूरी करने का निर्णय ले लिया। परन्तु वहां भी मुझे नेताजी की मेहरबानी से असफलता का मुंह देखना पड़ा। शहर छोड़ना मुझे गंवारा नहीं था, सो हम लोग लिफाफे बनाकर बेचने लगे। इससे घर का खर्चा निकलने लगा।”
“फिर तुम्हें जेल क्यों आना पड़ा?”
“नेताजी की ही मेहरबानी से। एक रोज मेरे घर पर पुलिस आ धमकी। पुलिस ने मुझ पर चोरी का आरोप लगाया और मेरे घर से चोरी का माल भी बरामद कर लिया। एक रात पहले मोहल्ले में जागरण चल रहा था। हम सभी वहां गये थे। हमारे पीछे नेताजी के आदमियों ने चोरी का माल हमारे घर प्लाण्ट कर दिया था। सो मुझे चोरी के आरोप में छ: महीने की सजा हो गयी।”
“कल तुम्हारी सजा पूरी हो रही है। क्या तुम किसी दूसरे शहर में जाकर सैट हो जाओगे?”
“नहीं...।” रघुनाथ हंसा—“अब मुझे भला क्या दिक्कत होगी? अब तो नेता जी भी नहीं रहे। बेचारा एक्सीडेण्ट में चल बसा। अभी मुझे सर्विस मिलने में कोई परेशानी नहीं होगी, बस जाते ही मुझे कोई अच्छी-सी सर्विस करनी है और अपनी बहन उर्मिला के हाथ पीले करने हैं। उन्नीस साल की हो गयी है वो।”
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“मैं...मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं? किशोर!”
“क्याऽऽऽ?” किशोर नामक युवक चिहुंक उठा, और फिर चिन्तित भाव से बोला—“ऐसा...ऐसा कैसे हो गया उर्मिला?”
“उस रोज बारिश से भीगने पर हम उस वीरान खण्डहर में जा पहुंचे थे..।” उर्मिला रोते-सुबकते हुए बोली—“मारे ठण्ड के मैं बेहोश हो गयी थी। होश आया तो मेरा निर्वस्त्र तन तुम्हारी बांहों में कैद था। मुझे औरत बना चुके थे तुम।”
“ऐसा मुझे मजबूरी में करना पड़ा था उर्मिला।” वह शर्मिन्दा होते हुए बोला—“अगर मैं तुम्हारे जिस्म को अपने जिस्म की गर्मी नहीं देता तो तुम्हारी मारे ठण्ड के जान भी जा सकती थी। फिर भी मैं शर्मिन्दा हूं। शादी के बाद ही तुम्हारे जिस्म को पाना चाहता था मैं।”
“अब हमें जल्दी से शादी कर लेनी चाहिए किशोर।” वह किशोर के सीने से लगते हुए हुए बोली—“वर्ना मैं किसी को अपना मुंह दिखाने लायक नहीं रहूंगी। कल भैया जेल से छूटकर आ रहे हैं। अगर उन्हें पता चल गया तो ना जाने क्या कर बैठेंगे वो।”
“ओह!” किशोर भयभीत-सा हो चला।
“तुम कल ही भैया से मिलने चले आओ...और उनसे मेरा हाथ मांग लो। तुम एक बड़े खानदान से ताल्लुक रखते हो। भैया तुम्हें अपना बहनोई बनाने में कोई हिचकिचाहट नहीं करेंगे।”
“थोड़ा सब्र से काम लो जानेमन।” किशोर उर्मिला के गुलाबी होठों को चूमते हुए बोला—“पहले मुझे अपनी मम्मी-पापा से बात करनी होगी। फिर उनके एग्री होने पर मैं तुम्हारे भैया से मिलने आऊंगा।”
“अगर...।” वह आशंकित भाव से बोली—“अगर तुम्हारे मम्मी-पापा ने मुझे अपनी बहू बनाने से मना कर दिया तो?”
“ऐसा नहीं होगा। मैं उनका इकलौता बेटा हूं। अगर वो एक बार को नहीं भी मानेंगे तो मैं आत्महत्या की धमकी देकर उन्हें एग्री कर लूंगा।”
“एक बात याद रखना किशोर...।” वह चेतावनी के भाव से बोली—“अगर मैं तुम्हारी पत्नी नहीं बन सकी तो जहर खाकर आत्महत्या कर लूंगी मैं।”
किशोर की भूरी आंखें सोचनीय मुद्रा में से सिकुड़ती चली गईं।
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