मौत डरेगी मुझसे
“सूं....ऽ....!”
मैंने शंकरगढ़ रेलवे स्टेशन पर पांव रखा ही था कि मेरे कानों में एक बेहद बारीक स्वर पड़ा।
मैं न केवल चौंक गई बल्कि मेरी चैतन्य शक्ति पूर्णतया सजग हो गई। ये स्वर मेरी छठेन्द्रिय की तीव्र संवेदनशीलता के कारण ही मेरे कानों तक पहुँचा था, वरना रेलवे स्टेशन के भीड़ भरे माहौल में इस स्वर के सुनाई देने का कोई औचित्य ही नहीं था।
दूसरे, वो स्वर मेरे नजदीक ही नहीं उभरा था, कदाचित उस स्वर का मैं नोटिस भी ना लेती, ठीक उसी वक्त मैंने अपनी गर्दन के पीछे खुले हिस्से के एक पिन प्वॉइन्ट पर हवा के बढ़ते दबाव को महसूस किया था। ये किसी तूफानी चीज के आमद का संकेत था।
यही कारण था कि खतरे को भांपते ही मेरी छठेन्द्रिय ने मुझे बेहद तीव्रता से सचेत किया था।
मैंने वही किया जो स्वाभाविक था। मैं बिजली की गति से अपना स्थान छोड़ गई थी।
“स.....सांय.....ऽ.....!”
स्थान छोड़ते ही मैंने किसी तूफानी चीज के गर्दन के पास से गुजर जाने का अहसास किया। इसके साथ ही मेरे दायीं ओर हल्की सी सिसकारी का स्वर उभरा।
मैंने फर्श पर पांव जमाते हुए द्रुर्तवेग से गर्दन घुमाकर उधर देखा, जिधर से सिसकारी का स्वर उभरा था।
मैंने एक अधेड़ महिला को अपनी गर्दन तक हाथ पहुँचाते हुए सिसकारी भरते देखा। सेकण्ड के दसवें हिस्से में मुझे वो चीज भी नजर आ गई जो उसकी गर्दन में चुभी थी और उसे अभी-अभी उस महिला ने खींचा था।
वो एक चमकती हुई पिन थी। उसका ऊपरी चमकता हिस्सा मुझे नजर आ गया था।
मैंने विद्युत गति से उधर दृष्टि दौड़ाई जिधर से उस चीज की आमद का अनुमान था।
मुझे अभी-अभी आकर रुकी लोकल ट्रेन की एक खिड़की पर एक अप्रत्याशित हरकत का संदेह हुआ। मैंने महसूस किया था कि कोई कलाई भीतर सिमटी है।
किन्तु मुझे कोई शक्ल ना नजर आई। ना ही मुझे कोई ऐसा यन्त्र ही नजर आया जिससे कि यह पता चलता कि उससे वो पिन प्रक्षेपित की गई है।
फिर भी मैं कब चूकने वाली थी!
मैंने द्रुतवेग से छलांग लगाई और मेरा शरीर हवाई परों पर सवार ट्रेन के उस कंपार्टमेंट की ओर लहरा गया था।
किन्तु!
इससे पहले कि मैं ट्रेन के दरवाजे तक पहुँच पाती, सहसा भीड़ का रेला सा बीच में आया।
लोकल ट्रेन में चढ़ने-उतरने वालों को जैसे जल्दी मच गई थी। एक साथ चढ़ने-उतरने वालों में कुछ यूँ समां बंधा था कि मैं उलझ कर रह गई थी। कंपार्टमेंट का दरवाजा इंसानों से अटा हुआ था।
मैं तुरन्त दरवाजे से हटी और दौड़ कर उस खिड़की तक गई जिसके पीछे मैंने हलचल महसूस की थी।
किन्तु व्यर्थ!
भीतर का दृश्य कोई खास नजर नहीं आया।
बाहर उतर रहे यात्रियों व चढ़कर बैठने वाले यात्रियों ने अफरा-तफरी का माहौल उत्पन्न कर रखा था।
सब कुछ गड्डमड्ड होकर रह गया था कि मैं हकबकों की तरह देखती ही रह गई।
वह शख्स अगर भीतर था तो उसे अलग कर पाना कठिन था। दूसरी ओर का गेट खाली था। वह तब तक दूसरी ओर कूद कर जा सकता था। ट्रेन लोकल थी, इसलिये उसके सारे डिब्बे जनरल व आपस में जुड़े हुए थे। तब तक वह कहीं का कहीं पहुँच सकता था।
मैं फिर भी आगे बढ़ने ही वाली थी कि तभी पीछे कई घुटी-घुटी चीखों का स्वर उभरा।
मैंने देखा।
अधेड़ महिला ढह चुकी थी। कई लोग उसके ऊपर झुके हुए थे।
मैंने पुनः गर्दन घुमाई और उस शख्स की टोह लेने की चेष्टा करती रही।
किन्तु व्यर्थ!
परिणाम वही ढाक के तीन पात।
उस शख्स की ना तो कोई झलक मिली, ना ही उससे शक की सुई किसी पर स्थिर ही हुई।
फिर भी मैं अवसर पाते ही कंपार्टमेंट में जा चढ़ी।
और फिर वही हुआ जो स्वाभाविक था।
मैं अपनी सम्पूर्ण चुस्ती-फुर्ती से टोह लेती हुई इधर से उधर भागती रही, किन्तु परिणाम वही ढाक के तीन पात!
मुझे वो नजर ना आया।
मैं घूमी।
अगले ही पल मैं होंठ भींचे उधर बढ़ने पर मजबूर हो गई थी, जिधर मेरे हिस्से का प्रहार स्वयं खाकर वो महिला धराशायी हुई थी।
¶¶
वो हमलावर कौन था जिसने पिन द्वारा प्रहार करके मुझे धराशायी कर देना चाहा था?
वह मेरा पुराना दुश्मन था या फिर नया?
अगर पुराना दुश्मन था तो निश्चित रूप से उसे यह मालूम पड़ गया था कि मैं शंकरगढ़ आने वाली हूँ, तभी वह पलक-पांवड़े बिछाये बैठा मिला था।
किन्तु अगर वह दुश्मन नया था—बिल्कुल नया—तो निश्चित रूप से वह नहीं चाहता था कि मैं शंकरगढ़ में पांव रखूँ। पांव रखूँ भी तो वहाँ रुकूं नहीं।
मेरी मंजिल बेगम नुसरत बानो की आलीशान महलनुमा हवेली थी, जोकि इस बात का सबूत थी कि बेगम नुसरत बानो शंकरगढ़ स्टेट के नवाबी खानदान का अन्तिम रोशनेचिराग थीं।
यह सच था।
राजाओं महाराजाओं का युग भले ही चला गया हो—किन्तु शंकरगढ़ में बेगम नुसरत बानो का जलाल ज्यों का त्यों कायम था। उनका रसूख, उनकी शान नवाबी थी, ऐसा मैंने सुना था।
मुझे बेगम नुसरत बानो का ही बुलावा मिला था। मुझसे व्यक्तिगत तौर पर तो दरख्वास्त की ही गई थी, ऑफिशियल तौर पर भी मुझे वहाँ भेजा गया था।
मेरा चीफ खुराना—सॉरी—मैं अपना परिचय ही देना भूल गई।
मेरे पुराने मेहरबान दोस्त तो मेरे अजीमुश्शान परिचय के मोहताज नहीं, किन्तु नये दोस्त थोड़ा उलझ रहे होंगे।
मैं कौन हूँ? मेरा नाम व परिचय क्या है? बगैर अपना परिचय दिये मैं क्यों बेसिर-पैर की हांके जा रही हूँ? इन प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार है।
मैं—रीमा भारती!
भारत की गुप्त व सर्वाधिक महत्वपूर्ण जासूसी संस्था आई○एस○सी○ (इण्डियन सीक्रेट कोर) की नम्बर वन एजेण्ट!
एक तेजतर्रार एजेण्ट!
अपने मेहरबान दोस्तों की दोस्त! उनकी हमनवां—जिसके सानिध्य की कल्पना मेरे दोस्तों को रोमांचित किए रहती है, वहीं दुश्मनों के खेमों में मेरे कदमों की झलक ही खलबली मचा दिया करती है।
देश व समाज के दुश्मनों में से कोई मुझे खतरनाक शह कहता है तो कोई खूबसूरत बला।
मेरे तमाम शत्रु तो मुझे गड़गड़ा कर गिरने वाली आकाशीय बिजली की बेटी से तुलना किया करते थे।
ऐसा स्वाभाविक था।
मैंने दुश्मनों पर रहम खाना सीखा ही ना था।
मैं तो उनके कुत्सित मनसूबों के साथ उनका नामोनिशान मिटा देने में यकीन रखती थी।
मुझे खूबसूरत नागिन की तरह डसना पड़े या फिर आकाशीय बिजली की तरह टूट कर उन्हें भस्म करना पड़े—मैं सदैव तत्पर रहती थी।
समाज व देश के कोढ़ रूपी दुश्मनों को खत्म करना मेरा पेशा था और खतरों से खेलना मेरा प्रिय शौक!
पल-पल बदलती परिस्थितियाँ— खतरों का एडवेंचर मेरा प्रिय शुगल था।
रहा सवाल मेरे शंकरगढ़ पहुँचने का, तो उसका किस्सा कुछ यूँ था।
¶¶
मैं इन दिनों ‘फ्री’ थी।
कोई केस इन दिनों मेरे पास नहीं था, इसलिये मेरे मेहरबान दोस्तो, मैं अपना वक्त मटरगश्ती में गुजार रही थी। जैसा कि स्वाभाविक था—पिकनिक, सिनेमा, क्लब....यही मेरा काम था।
मेरे दिन चाँदी के तो रातें सोने की थीं।
मेरे अंतरंग दोस्त खूब खुश थे। मेरे मित्र प्रिय प्यारे परदेसी की तो बल्ले-बल्ले हो रही थी।
कारण यह कि लगभग रोज हमारी मुलाकात होती थी। पीने के दौर चलते थे। महफिलें, ठहाके, मस्ती!
किन्तु!
मेरे चीफ खुराना को शायद मेरी यह मस्ती पसन्द ना आई थी। इसलिए एक दिन शाम को उस वक्त, जब मैं क्लब में व्यस्त थी, चीफ का फोन आया।
“रीमा भारती.....!”—चीफ का घोड़े पर सवार स्वर उभरा था—“फौरन हेडक्वार्टर पहुँचो।”
रीमा भारती कुछ कहती कि सम्बन्ध विच्छेद हो गया।
रीमा भारती फोन लिए बैठी ही रह गई।
“क्या हुआ?” तभी प्रेम परदेसी प्रकट होते हुए बोला था—“कोई खास बात है क्या?”
“मुझे कहीं जाना है।”
“क.....कहाँ जाना है?”
मैं उसे क्या जवाब देती!
आई○एस○सी○ भारत की गुप्त जासूसी संस्था थी। आई○एस○सी○ के जितने भी एजेण्ट थे, उन सबको ऑफिशियल सीक्रेट्स छुपाये रखने के आदेश थे।
उन्हें गुप्त रूप से काम करने के निर्देश थे। यही वजह थी कि देश-विदेश में तैनात तमाम एजेण्टों ने स्वयं को किसी न किसी रूप में स्थापित कर रखा था और गुप्त रूप से आई○एस○सी○ के लिये काम किया करते थे। मैंने स्वयं को समाज में एक तेज तर्रार प्रेस रिपोर्टर के तौर पर स्थापित कर रखा था।
इससे मेरे कारनामों, मेरी सक्रियता पूरी तरह छुप जाया करती थी। मैंने स्वयं को एक स्वतंत्र पत्रकार के रूप में स्थापित कर रखा था।
सभ्य समाज के साथ-साथ रिपोर्टरों की टीम में भी मैं एक तेज-तर्रार रिपोर्टर के रूप में जानी जाती थी।
फिलहाल....।
मैंने निःश्वास छोड़ते हुये दोस्तों से विदा ली थी और अपनी गाड़ी की ओर रुख किया, जोकि पार्किंग में खड़ी मेरा इंतजार कर रही थी।
हालांकि प्रेम परदेशी मेरे यूं अचानक चले जाने से बुरी तरह हताश व निराश हो चला था—फिर भी मैंने उसे आँखों ही आँखों में ढांढस बंधाया, जिसका सीधा सा अर्थ ये भी था कि जल्द ही मुलाकात होगी।
जबकि अब ऐसा मुमकिन न था।
मेरे मेहरबान दोस्तो! आपमें से जो मुझसे पूर्व परिचित हैं, उन्हें अनुमान हो गया होगा कि मेरे विभागीय चीफ ऑफ स्टॉफ मिस्टर खुराना के इस प्रकार के तत्काल बुलावे का क्या अर्थ होता था!
उस वक्त रात के दस बज रहे थे।
इस वक्त चीफ के बुलावे का सीधा सा अर्थ था कि मेरे लिये कोई महत्वपूर्ण केस मेरी प्रतीक्षा कर रहा था। उस स्थिति में मैं व्यस्त हो जाने वाली थी। उस समय की मेरी व्यस्तता कितनी लंबी होती, कहना कठिन था। मामला दो-चार दिनों में भी सुलट सकता था और महीने भी लग सकते थे।
संभव था कि वो केस महानगर से ही संबंधित होता, तो ये भी संभव था कि मुझे दुनिया के इस कोने से दूसरे कोने तक की यात्रा भी करनी पड़ती।
किन्तु प्रेम परदेसी मेरा मित्र था। उसे आश्वासन देना जरूरी था।
यही वजह थी कि आँखों ही आँखों से आश्वासन के फलने की डोर दोस्तों को पकड़ाकर मैंने पार्किंग की राह ली।
अगले ही कुछ पलों में मैं अपनी गाड़ी में थी और मेरी गाड़ी हैडक्वार्टर की दिशा में दौड़ रही थी।
ऐसा स्वाभाविक था।
मेरे लिये चीफ का आदेश ही सर्वोपरि था। यही वजह थी कि मैं बगैर एक क्षण गंवाये वहां से रवाना हो गई थी।
थोड़ी ही देर में मैं आई○एस○सी○ के ऑफिस में कदम रख चुकी थी।
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