मौकापरस्त : Maukaparast
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जी हां, हमारे श्री श्री 10000008 परम धोकेबाज, महाहरामी, सर्वश्रेष्ठ हत्यारे श्रीमान अर्जुन त्यागी से बड़ा मौकापरस्त और कौन हो सकता है! चाहे कहीं घुसने की बात हो, किसी को लूटने की बात हो, बस इन जनाब को मौका मिलना चाहिए...। बस मौका मिला नहीं कि ये जनाब अपनी टांग घुसेड़ने में देर नहीं करते। मगर इस बार इन महाशय ने अपनी टांग घुसेड़ी तो ऐसा बवाल मचा कि इनकी अपनी टांग कटने की नौबत आ गई। कैसे? यह जानने के लिये पढ़िए मौकापरस्त।
Maukaparast
Shiva Pandit
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कतई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों व दुर्व्यसनों से दूर ही रहें। यह उपन्यास 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यास आगे पढ़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है। प्रूफ संशोधन कार्य को पूर्ण योग्यता व सावधानीपूर्वक किया गया है, लेकिन मानवीय त्रुटि रह सकती है, अत: किसी भी तथ्य सम्बन्धी त्रुटि के लिए लेखक, प्रकाशक व मुद्रक उत्तरदायी नहीं होंगे।
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मौका परस्त
“किर्रर्र....।”
बजर की हल्की मगर कर्कश आवाज सुनकर अर्जुन त्यागी और गौरी की आंख खुल गई।
दोनों की गर्दनें एक-दूसरे की तरफ मुड़ीं और निगाहें आपस में मिलीं, जिनमें एक ही सवाल था कि बजर किसने बजाया है।
वेटर तो हो नहीं सकता था....। क्योंकि वेटर को अर्जुन त्यागी ने कह दिया था कि वो थके हुए हैं, इसलिये उन्हें डिस्टर्ब न किया जाये।
विशालगढ़ में जगतपाल और उसकी बेटी रेनू को मारकर अपने मन की भड़ास निकालकर वे वहां से सीधा रेलवे स्टेशन पहुंचे थे, और वहां जो भी ट्रेन मिली, वे उसमें बैठ गये थे।
ट्रेन के चलते ही वे ऐसा सोये थे कि जब उनकी नींद खुली तो वे विशालगढ़ से तीन सौ किलोमीटर दूर सूरजपुर पहुंच चुके थे।
गनीमत थी कि ट्रेन सूरजपुर तक की थी, वर्ना पता नहीं और कितना आगे जाते वे।
स्टेशन से निकलकर दोनों ने पास ही एक सरकारी नल से मुंह-हाथ धोया और फिर वे एक टैक्सी में सवार हो यहां इस होटल में आ गये थे।
सूरजपुर में वे पहली बार आये थे।
इस होटल में भी टैक्सी वाला ही लाया था उन्हें....। शायद वहां कमीशन बंधी हुई थी उसकी।
थ्री स्टार की सहूलियतों से लैस उन्हें काफी बढ़िया कमरा मिला था।
कमरे में आकर पहले वे फ्रैश हुए, नहाये और फिर ब्रेकफास्ट करके दोनों घूमने निकल गये।
सूरजपुर पहली बार आना हुआ था उनका....। ऐसे में उनका जानना जरूरी था कि वह शहर उनके मतलब का है भी कि नहीं....।
शहर काफी बढ़िया लगा था उन्हें। पॉश भी था। यानि उन्हें उम्मीद बंध गई थी कि यहां उन्हें कोई ऐसा शिकार मिल जायेगा, जो उनके वारे-न्यारे कर देगा।
दोपहर दो बजे वे वापिस होटल में आये, लंच किया, और वेटर को हुक्म दे दिया कि उन्हें डिस्टर्ब न किया जाये।
पन्द्रह-सोलह दिन से वे आपस में मिले नहीं थे....। अब जाकर उन्हें मौका मिला था।
सो, मौका मिलते ही बिना मुंह से कोई बात निकाले उनके कपड़े उतरे और वो आपस में ऐसे भिड़ गये मानो पन्द्रह-सोलह दिन की कसर वे एक ही बारी में निकाल लेंगे।
दोनों जैसे पागल हो गये थे, और एक-दूसरे को भंभोड़ रहे थे।
एक घण्टे बाद जाकर दोनों अलग हुए और पीठ के बल लेटकर लम्बी-लम्बी सांसें छोड़ते हुए अपनी सांसों को दुरुस्त करने में लग गये।
अभी तो उन्होंने पहला राउंड ही खेला था। सिर्फ एक राउंड में तो हसरतें पूरी होती नहीं थीं। जब तक वे तीन-चार राउंड नहीं खेलते, तब तक कसर पूरी कहां होती थी।
मगर ऐसा हो नहीं पाया। दूसरा राउंड भी शुरू नहीं कर पाये वे कि बजर बज उठा था।
“कौन है....?”
गर्दन को थोड़ा ऊपर उठा अर्जुन त्यागी थोड़ा तीखे स्वर में बोला।
निश्चय ही अपन मौज-मस्ती में खलल पड़ने से वह चिढ़ गया था।
“मैनेजर सर....!” बाहर से आदर भरी आवाज आई।
“अभी हम आराम कर रहे हैं, बाद में आना....।” वह बोला।
“सॉरी सर....। सरकारी महकमे से अफसर आये हैं। निरीक्षण करने। बस दो मिनट का वक्त लूंगा आपका, फिर आप डिस्टर्ब नहीं होंगे।”
भुनभुनाते हुए अर्जुन त्यागी उठा और गौरी को देखा—
“अब ऐसे ही नुमाइश दिखायेगी अपनी....। उठा, कपड़े पहन....।”
गौरी भी चेहरे पर खीझ लिए उठी और मैनेजर तथा होटल को सौ-सौ गालियां निकालते हुए कपड़े पहनने लगी।
तभी पुनः बजर बजा।
“किर्र....।”
“आ रहा हूं।” अपनी पैंट की चेन बन्द करते हुए अर्जुन त्यागी झल्लाया-सा बोला।
बेड से उतरते हुए उसने गौरी को देखा।
वह टॉप पहन रही थी।
गर्दन सीधी कर वह दरवाजे के पास पहुंचा और एक बार फिर गौरी को देखा।
वह कपड़े पहनकर बेड की पुश्त से टेक लगाये बैठी उसे ही देख रही थी। उसके चेहरे पर गुस्से के भाव थे।
निश्चय ही उसे मैनेजर पर गुस्सा आ रहा था, जिसने उनके अरमानों को पूरा नहीं होने दिया था, और बेवक्त आकर बजर बजा दिया....।
गहरी सांस छोड़ते हुए अर्जुन त्यागी ने गर्दन सीधी कर बांह ऊपर करते हुए सिटकनी गिराई और दरवाजा खोल दिया।
सामने लम्बे कद का करीब पचास साल का सख्त चेहरे वाला व्यक्ति खड़ा था, जो कि किसी भी दृष्टि से मैनेजर नजर नहीं आ रहा था।
उसके चेहरे को छोड़ कपड़ों से भी वह मैनेजर नजर नहीं आ रहा था। उसने पैंट शर्ट पहनी थी तथा उसके पैरों में साधारण से जूते थे, जिन्हें पॉलिश की जरूरत पड़ रही थी।
और सबसे बढ़कर वह अकेला था, जबकि आने वाली आवाज में यह कहा गया था कि सरकारी महकमे से अफसर आये हैं। जाहिर था कि अर्जुन त्यागी को गुस्सा आना था।
“यह क्या बदतमीजी है?” वह गुस्से में बोला—“कौन हो तुम....?”
जवाब में उस आदमी ने बांह आगे कर अर्जुन त्यागी को एक तरफ धकेला और भीतर प्रवेश करते हुए बोला—
“दरवाजा बन्द कर दो अर्जुन त्यागी....।”
उसके मुंह से अपना नाम सुनकर जहां अर्जुन त्यागी बुरी तरह से चौंक उठा, वहीं बेड पर बैठी गौरी एकदम से सीधी होकर बैठ गई। उसके चेहरे पर एक साथ कई रंग आकर लौट गये....।
“य....यह क्या बेहूदगी है?” बौखलाया-सा बोला अर्जुन त्यागी—“कौन अर्जुन त्यागी....?”
वह आदमी जो कि बेड पर अर्जुन त्यागी के पास तक पहुंच चुका था, मुड़ा और होठों पर घायल मुस्कान लाते हुए बोला—
“तुम हो अर्जुन त्यागी और यह....।” उसने बांह पीछे कर गौरी की तरफ इशारा किया—“तुम्हारी जोड़ीदार गौरी है।”
अर्जुन त्यागी ने झटके से खीझते हुए सांस छोड़ी और थोड़ा सख्ती से बोला—
“तुम गलत कमरे में आये हो मिस्टर, मेरा नाम अर्जुन त्यागी नहीं, करन कपूर है, और यह मेरी बीवी नेहा है....कोई गौरी-वौरी नहीं।
समझे....? अब निकलो यहां से और रिसैप्शन पर जाकर अर्जुन त्यागी के कमरे का नम्बर पूछो....और अगर फिर यहां आये तो मैं मैनेजर से कहकर तुम्हें उठवाकर बाहर फिंकवा दूंगा।”
उस आदमी ने एक गहरी सांस छोड़ी और अर्जुन त्यागी के करीब आ खुद ही दरवाजा बन्द करते हुए बोला—
“तो तुम अर्जुन त्यागी नहीं हो?”
“अरे.....दरवाजा क्यों बन्द कर रहे हो?” हड़बड़ाया-सा बोला अर्जुन त्यागी।
सिटकनी लगाकर वह आदमी उसकी तरफ मुड़ा और बोला—
“इसलिये कि अगर दरवाजे के आगे से निकलते किसी के भी कान में तुम्हारा नाम भी पड़ गया तो फिर तुम्हारी जो हालत होगी, इसका अन्दाजा तुम खुद ही लगा सकते हो। एक वो वक्त था जब अभिनेता प्राण के वक्त में लोग अपने बच्चों का नाम प्राण नहीं रखते थे और आज तुम्हारी पापुलैरिटी इतनी हो गई है कि सिर्फ तुम्हारे बारे में जानने वाले अपने बच्चों का नाम अर्जुन त्यागी नहीं रखते....।”
“अरे मेरे बाप, मैं अर्जुन त्यागी नहीं हूं।” खीझ भरे अंदाज में अर्जुन त्यागी ने अपनी बांह झटकी, “मैं करन कपूर हूं, और तुम हो कौन जो इस तरह मेरे पीछे हाथ धोकर पड़े हो?”
“इंस्पेक्टर सुलेमान....।”
“इ....इंस्पेक्टर....।” बुरी तरह से बौखला उठा अर्जुन त्यागी।
बेड पर बैठी गौरी के चेहरे पर भी पहले तो बौखलाहट उभरी, फिर वह सख्त नजर आने लगी।
“हां इंस्पेक्टर....।” गम्भीरता से बोला सुलेमान—“मगर घबराने की जरूरत नहीं....। मैंने अगर तुम्हें नुकसान पहुंचाना होता तो मैं वर्दी में पूरी फोर्स के साथ आता और तुमसे यूं बातें नहीं करता, बल्कि सीधे तुम्हारे सीने में गोली उतार देता। क्योंकि मैं तुम्हारी फितरत से अच्छी तरह से वाकिफ हूं कि तुम नम्बर एक के धोखेबाज और मौका परस्त हो....जो कब किस तरफ करवट बदल ले, कुछ नहीं पता होता। मगर मैं अकेला आया हूं। सिविल ड्रैस में, बिना हथियार के, जो इस बात का सबूत है कि मैं तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता।”
एक गहरी सांस छोड़ी अर्जुन त्यागी ने।
“तो किसी काम से आये हो तुम....?” वह बोला।
“जाहिर है।”
“आओ....।” गम्भीर होते हुए अर्जुन त्यागी उसकी तरफ बढ़ा और उसके पास से होते हुए बेड पर चढ़कर बैठ गया।
गौरी के चेहरे पर फैली सख्ती भी अब खत्म हो गई।
सुलेमान बेड पर चढ़कर पालथी मारकर बैठ गया।
“बोलो....क्या काम है....?” अर्जुन त्यागी बोला।
“तो तुम कबूल करते हो कि तुम अर्जुन त्यागी हो?” सुलेमान बोला।
“मेरा काम पूछना ही मेरा कबूलनामा है....फिर भी तुम्हारी तसल्ली के लिये कहता हूं कि मैं सौ फीसदी अर्जुन त्यागी हूं, और यह मेरी जोड़ीदार गौरी है।” उसने गौरी की तरफ इशारा किया।
“और यह हमारी तीसरी साथी है।” गौरी गुर्रा उठी।
सुलेमान ने जैसे ही खुद पर रिवॉल्वर तनी देखी, वह बौखला उठा।
“य....यह क्या....?”
“कहा न हमारी साथी है, जो वक्त पड़ने पर गोली उगलकर हमारी रक्षा करती है। इससे जरा सम्भलकर रहना, क्योंकि यह चालाकी पसन्द नहीं करती....। बस यूं समझ लो कि इधर तुमने चालाकी दिखाई, उधर यह भौंकना शुरू कर देगी।”
कहते हुए गौरी के जबड़े सख्ती से भिंच गये थे।
सुलेमान ने गहरी सांस छोड़ी, और रिवॉल्वर से निगाहें हटाकर गौरी को देखा।
“अगर मेरा ऐसा इरादा होता तो अब तक तुम दोनों की लाशें बिछ चुकी होतीं, और मैं होटल के बाहर मीडिया को बुलाकर अपनी बहादुरी की गाथा सुना रहा होता कि मैंने उन दो खलीफाओं को मार गिराया है, जिनकी मौत की तमन्ना कई राज्यों की पुलिस कर रही है। इसलिये इसे वहीं रखो।” उसने रिवॉल्वर की तरफ उंगली कर ऊपर-नीचे हिलाई—“जहां से निकाला है।”
गौरी ने अर्जुन त्यागी की तरफ निगाहें घुमाईं और प्रश्नभरी आंखों से उसे देखा।
“रख दे....।” अर्जुन त्यागी बोला—“यह ठीक कह रहा है।”
गौरी ने गन को वापिस सिरहाने के नीचे सरका दिया....साथ ही वह गहरी सांस छोड़ते हुए चेहरे पर फैले तनाव को कम करने लगी।
“अब बोलो, क्या काम है हमसे....?” वह बोली।
“काम बताने से पहले यह बताओ कि हमारा पता कैसे लगा तुम्हें....?” अर्जुन त्यागी सुलेमान के बोलने से पहले बोल पड़ा।
“पहचाना था मैंने तुम्हें....।”
“कब....?”
“दो घण्टे पहले....। उस वक्त तुम मेन बाजार में थे....। तब मैं एक दुकान में खड़ा कपड़ा ले रहा था। जैसे ही मेरी नजर तुम पर पड़ी, मुझे लगा कि मैंने पहले तुम्हें कहीं देखा है....। मैंने दिमाग पर जोर डाला तो पता चला कि तुम्हारे दर्शन तो मैं रोज करता हूं।”
“क्या मतलब....?” चौंका अर्जुन त्यागी।
“मतलब यह कि थाने में तुम्हारी इतनी बड़ी फोटो लगी है....।” सुलेमान ने दोनों हाथों को ऊपर नीचे कर बीच में गैप बनाया—“जिसके नीचे तुम्हारी कुछ तारीफें लिखी हैं और यह लिखा है कि तुम्हें जिन्दा या मुर्दा पकड़ने वाले को भारी इनाम दिया जायेगा।”
सुनकर अर्जुन त्यागी ने चौंककर गौरी को देखा।
गौरी भी हड़बड़ा उठी थी।
अर्जुन त्यागी ने जैसे-तैसे खुद पर काबू पाया और वापिस सुलेमान को देखते हुए बोला—
“हमारा पता कैसे लगा....?”
“बताया तो....।”
“मैं यह पूछ रहा हूं कि इस होटल का पता कैसे लगा कि हम यहां इस कमरे में रह रहे हैं।”
“पीछा करके....।”
“क्या....?” एक बार फिर हड़बड़ाया वह।
“वहीं मेन बाजार से ही तुम्हारे पीछे लग गया था मैं....। वहां से तुम पैदल ही यहां तक आये....। तुम्हारे पीछे-पीछे ही यहां तक आया था मैं....।”
“ओह! तो ऐसे पता चला?”
“हां....।”
“फिर....?”
“फिर क्या....। वहां से मैं सीधा अपने घर गया। वहां कुछ देर सोचता रहा कि तुम मेरे काम आ सकते हो कि नहीं....। फिर हिम्मत करके यहां आ गया....और अब मैं तुम्हारे सामने हूं।”
अर्जुन त्यागी ने गहरी सांस छोड़ी—“शुक्र है कि थाने में बड़ी सी मेरी फोटो लगी होने के बाद भी किसी ने मुझे नहीं पहचाना।”
“यह मेरी किस्मत थी....। मेरी किस्मत में तुमसे मिलना लिखा था। वर्ना अगर किसी और की निगाह में चढ़ जाते तो कोई बड़ी बात नहीं थी कि अब तक तुम यहां नहीं, बल्कि पोस्टमार्टम रूम में पड़े होते।”
“अब काम बोलो....।” उसकी बात को नजरअंदाज करते हुए बोला अर्जुन त्यागी।
“एक कत्ल करना है....।” कहते हुए सुलेमान के चेहरे पर नफरत के भाव उभर आये....। आंखों में सख्ती तथा दर्द-सा उमड़ आया।
कत्ल का नाम सुनकर न तो अर्जुन त्यागी चौंका, न ही गौरी।
यह तो उनका रोज का काम था। दिनचर्या थी उनकी। ऐसे में यह काम उनके लिये ऐसे था, जैसे सुलेमान उन्हें किसी दुकान के मर्तबान में से बिस्कुट चुराने की सुपारी दे रहा हो।
“क्या मिलेगा....?” गौरी बोल पड़ी।
“अपनी चोंच बन्द रख....।” अर्जुन त्यागी उस पर भड़क उठा—“पहले यह तो जान ले कत्ल करना किसका है। सीधा पूछ लिया मिलेगा क्या?” मुंह टेढ़ा करते हुए उसने कलाई मोड़ी।
गौरी ने उसकी बात का बुरा नहीं मनाया, बल्कि हौले से हंस पड़ी।
मगर उसकी हंसी में खिसियाहट थी।
“किसको मारना है....?” अर्जुन त्यागी वापिस सुलेमान को देखते हुए गम्भीर होते हुए बोला।
“दीवान चन्द का कत्ल करना है।”
“दीवान चन्द कौन....?”
“एम○एल○ए○ है....और फिर से इलैक्शन में खड़ा है। कल अपना नामांकन पत्र भरकर आया है वो, और कल उसका पहला भाषण है। मैं चाहता हूं कि यह भाषण उसका आखिरी भाषण हो जाये....। कल उसकी पहली चुनावी सभा में ही तुम उसे गोली से उड़ा दो।”
सुनकर अर्जुन त्यागी मन-ही-मन चौंका, फिर उसने अपनी आंखें सिकोड़ते हुए सुलेमान को देखा—
“वो एम○एल○ए○ है....तुम इंस्पेक्टर? उससे क्या दुश्मनी हो गई तुम्हारी जो तुम उसका कत्ल करवाना चाहते हो?”
“और यह काम तो तुम हमसे भी आसानी से कर सकते हो....।” गौरी फिर बोल पड़ी—“तुम इंस्पेक्टर हो....। तुम आसानी से दीवान चन्द के पास पहुंच सकते हो....। तुम्हारे पास सरकारी रिवॉल्वर भी है....। तुम उसके पास जाओ और खत्म कर दो....। हमारी मदद लेने की क्या जरूरत है....?”
इस बार अर्जुन त्यागी चुप रहा।
दरअसल वह खुद भी यही सवाल करना चाहता था।
सुलेमान ने एक गहरी सांस छोड़ी और दर्द से भीगे स्वर में बोला—“अगर मुझ पर मेरे कुनबे की जिम्मेदारी नहीं होती तो मैं छह महीने पहले ही यह काम कर चुका होता। क्योंकि तब मैं अपने मरने की भी परवाह नहीं करता। लेकिन मेरी मौत से मेरी बीवी बेवा हो जाती....मेरे दोनों बच्चे यतीम हो जाते और मेरा कुनबा सड़क पर आ जाता....। अपने घर में सिर्फ मैं ही कमाने वाला हूं....दोनों बच्चे अभी पढ़ रहे हैं। मेरा अपना मकान भी नहीं, सरकारी मकान में रहता हूं मैं। ऐसे में मैं चाहकर भी उसे नहीं मार सकता। जबकि हकीकत यह है कि मैं छह महीने से सुबह शाम खुदा से यही दुआ करता हूं कि उसे कुत्ते नोच-नोचकर मार डालें, वो अपनी छत से गिरकर मर जाये....। उसकी गाड़ी का ऐसा एक्सीडेण्ट हो कि उसकी लाश को निकालने के लिये गाड़ी को काटना पड़े....। छ: महीने में एक दिन भी ऐसा नहीं गुजरा, जब मैंने उसके लिये बददुयें न मांगी हों....। मगर मेरी बद्दुओं का उस पर कोई भी असर नहीं हुआ।”
“नेताओं की खाल बड़ी मोटी होती है....और चिकनी भी होती है....। इन पर बद्दुआओं का कोई असर नहीं होता।”
गौरी हौले से हंसी।
“मारना क्यों चाहते हो तुम दीवान चन्द को?”
अर्जुन त्यागी गम्भीर बने हुए ही बोला।
सुलेमान के चेहरे पर दर्द उमड़ आया। आंखों में ऐसे भाव उभर आये, जैसे किसी ने उसके दिल के जख्म को कुरेद दिया हो, और वहां से मवाद रिसने लगा हो।
उसने थूक सटकते हुए एक बार गौरी को देखा, जो उत्सुकता से उसे ही देख रही थी, फिर पुनः अर्जुन त्यागी के चेहरे पर निगाहें डालते हुए बोला—
“छह महीने पहले मेरे दो नहीं तीन बच्चे थे, जिनमें सबसे बड़ी लड़की रजिया थी। खुदा ने उसे बहुत ही खूबसूरत बनाया था। तब वह बी○एस○सी○ के सैकिण्ड ईयर में पढ़ रही थी कि उस कमीने दीवान चन्द की नजर उस पर पड़ गई और उसके कुत्तों ने मेरी बेटी को तब अगवा कर लिया, जब वो सुबह कॉलेज जा रही थी।”
“तुम्हें उसके अगवा होने का पता नहीं लगा?” गौरी ने पूछा।
“मुझे उसकी लाश का पता लगा।” गौरी की तरफ गर्दन मोड़ते हुए उसकी आवाज भर्रा गई।
“क्या मतलब....?”
“दोपहर बाद तीन बजे मेरी बीवी का फोन आया था कि रजिया अभी तक घर नहीं पहुंची, जबकि पहले तो वह डेढ़-दो बजे तक घर पहुंच जाती थी। अपनी बीवी की बात सुनकर मैं भी फिक्रमंद हो गया था। सो मैं फौरन उसके कॉलेज पहुंचा तो वहां मुझे पता लगा कि रजिया तो कॉलेज ही नहीं पहुंची....।”
“फिर....?” अर्जुन त्यागी बोला।
“सुनकर मेरे तो पैरों तले से जमीन ही खिसक गई थी....। तब मैंने खुद को कैसे सम्भाला था, यह मैं ही जानता हूं। साफ नजर आ रहा था कि रजिया अगवा हो गई है....।”
“यह भी सोचा होगा कि वो अपने किसी प्रेमी के साथ भागी होगी....।”
“मेरी बेटी ऐसी नहीं थी।” एकदम से तीखे अन्दाज में बोला सुलेमान।
“तुम्हें क्या पता कि वो ऐसी थी कि नहीं?” बिना हड़बड़ाये बोला अर्जुन त्यागी....।
“क्योंकि मैं अपनी बेटी को अच्छी तरह से जानता था। मैंने और मेरी बीवी ने उससे साफ कहा हुआ था कि अगर वो किसी से प्यार करे तो बेहिचक हमें बता दे....। ताकि हम उसकी तसल्ली कर उसका निकाह उसी से कर दें। ऐसे में वो भागेगी क्यों....और उसका किसी के साथ कोई अफेयर भी नहीं चल रहा था। उसे तो बस अपने कैरियर की पड़ी थी।”
“फिर....?” बात को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से बोला अर्जुन त्यागी।
“वहां से निराश होकर मैं अभी कॉलेज से निकला ही था कि मुझे फोन आया कि शाहजहां रोड पर किसी लड़की की लाश पड़ी है। शाहजहां रोड वहां से ज्यादा दूर नहीं थी, सो न चाहते हुए भी मैं वहां पहुंचा....।”
“और वो लाश तुम्हारी बेटी रजिया की निकली....।”
“हां....।” सुलेमान की आंखें छलक आईं—“मेरी बेटी की लाश थी वो....। नं....गी लाश....। उसकी जांघों में खून लगा हुआ था....। जो साफ बता रहा था कि उसकी अस्मत लूटी गई थी।” उसकी आंखों से बहने वाले पानी की रफ्तार तेज हो गई—“तुम शायद उस बाप की हालत का अन्दाजा नहीं लगा सकते, जिसके सामने उसकी बेटी की लुटी-पिटी नंगी लाश पड़ी हो।”
“फिर....?” उसकी बात का जवाब न देते हुए अर्जुन त्यागी बोला।
“तब वर्दी पहन रखी थी मैंने....। ऐसे में मैं रो भी नहीं सकता था....। मगर मेरा भीतर किस कदर रो रहा था, यह मैं ही जानता हूं।”
सुलेमान बोला—“रजिया की लाश को पोस्टमार्टम के लिये भेजकर मैंने तफ्तीश शुरू कर दी और रात होते-होते मुझे उस गाड़ी का पता चल गया, जिसमें से रजिया की लाश सड़क पर फैंकी गई थी।”
“और वो गाड़ी दीवान चन्द की थी....?”
“हां....।”
“फिर तो तुम सीधे दीवान चन्द पर चढ़ दौड़े होंगे....?”
“यही तो नहीं कर पाया मैं....।” सुलेमान की आवाज भर्रा गई।
“क्यों....?” हल्के-से चौंका अर्जुन त्यागी—“तुम्हारी बेटी की इज्जत लूटकर उसकी हत्या कर दी गई थी, और तुम उस गाड़ी के बारे में जानकर भी उसके पास नहीं गये।”
“अगर मैं ऐसा करता तो मेरा पूरा कुनबा खत्म हो जाता।”
“क्या मतलब....?”
बुरी तरह से चौंका अर्जुन त्यागी।
गौरी भी चौंक पड़ी थी।
“बहुत खतरनाक आदमी है दीवान चन्द। बाहुबली नेता है वो। सूरजपुर में सिर्फ उसी की हुकूमत चलती है। कानून की उसके आगे वो बिसात है जो शेर के आगे चूहे की होती है।”
“कमाल है।” गौरी हैरानी से बोली—“तुम इंस्पेक्टर होकर भी ऐसी बात कर रहे हो।”
सुलेमान ने एक गहरी सांस छोड़ी, और गौरी को देखते हुए बोला—
“इंस्पेक्टर होकर मेरी औकात उसके सामने एक मच्छर से अधिक नहीं। वह सरेआम मुझे गोली मार दे तो सूरजपुर में किसी में इतनी हिम्मत नहीं होगी कि उसने मेरा खून होते हुए देखा है। उसकी ताकत का आलम यह है कि वो रहे कि उसका एक मामूली-सा सिपहसलार भी थाने में आकर मुझे थप्पड़ मार दे तो भी मैं कुछ नहीं कर सकता।”
“ओह!”
“और तो और—यहां के एस○पी○ की भी उसके सामने कोई बिसात नहीं....। वो भी उसके पास जाता है तो उसकी भी हिम्मत नहीं कि वो उसके सामने बैठकर बात कर सके। बस यूं समझ लो कि सूरजपुर के एक-एक बाशिन्दे की सांसें उसके रहमोकरम पर चल रही हैं....।”
“ओह....ओह!”
“ऐसे में तुम खुद ही सोचो, क्या मैं उसके खिलाफ आवाज उठा सकता था....।”
“पोस्टमार्टम रिपोर्ट में क्या आया था?” अर्जुन त्यागी ने पूछा।
“रेप....।”
“रेप....?”
“हां रेप....। वो इतने नृशंसक अन्दाज से किया गया था कि मेरी रजिया पीड़ा को बर्दाश्त न करते हुए मर गई।” सुलेमान की आंखें फिर से बहने लगीं—“उसके साथ कइयों ने बलात्कार किया....सामूहिक बलात्कार हुआ था मेरी लाड़ली के साथ....।”
वह फफक पड़ा।
अर्जुन त्यागी और गौरी कुछ देर खामोश बैठे उसके चुप होने का इन्तजार करते रहे।
सुलेमान के रोने का उन पर कोई असर नहीं हुआ था, जबकि उसकी जगह कोई और होता तो सुलेमान की दुःख भरी कहानी सुनकर उसका भी कलेजा फट जाता।
मगर वे दोनों तो खुद ही हरामी थे। ऐसे में भला उन पर क्या असर होना था।
हां, दिखावे के लिये दोनों गम्भीर बने हुए थे।
कुछ देर बाद सुलेमान ने अपने जज्बातों पर काबू पाया और रूमाल निकालकर अपनी आंखें पौंछते हुए दो बार लम्बी-लम्बी सांसें छोड़ीं, फिर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए बोला—
“दो दिन की तफ्तीश में मैंने जान लिया कि दीवान चन्द ने ही मेरी बेटी का अपहरण कराया था, और उसने दो घण्टे उससे रैप करने के बाद अपने दस कुत्तों के सामने उसे फैंक दिया....जिन्होंने इस बेदर्दी से उसका रेप किया कि वो बेचारी चीखती हुई मर गई....। और मैं अभागा, सब कुछ जानकर भी उसके खिलाफ कुछ भी नहीं कर पाया।”
“क्या दीवान चन्द ने इस बाबत तुमसे कोई बात की थी?”
“चार दिन बाद वह कमीना मेरे घर में आया था, और मेरी बेटी की मौत पर ऐसे अफसोस जताया था मानो उसका इस रेप से कोई वास्ता ही न हो, और मुझे पचास हजार देकर चला गया था।”
“तुमने ले लिये....?”
“न लेता तो मेरी ऐसी-तैसी फिर जाती। वो समझ जाता कि मैं रेपिस्ट को जान गया हूं और तब वो मुझे खतरा मानते हुए कुछ भी कर सकता था, जो कि मैं हरगिज नहीं चाहता था।”
अर्जुन त्यागी ने समझने वाले अन्दाज में सिर हिलाया और बोला—
“मैं अपने अफसरों से भी उसकी बात नहीं कर सकता था, क्योंकि सभी अफसर उसके गुलाम बने हुए थे....। सो मैं उस बात को भीतर-ही-भीतर पी गया....। लेकिन अपने दिल में मैंने गांठ बांध ली कि एक-न-एक दिन मैं उस कमीने से बदला लेकर ही रहूंगा, और आज तुम्हें देखा तो मुझे अपना सपना सच होता नजर आया, और....!”
“एक बात....।” तभी उसकी बात को गौरी ने काटा।
अपनी बात बीच में ही छोड़ सुलेमान ने उसकी तरफ प्रश्न भरी नजरों से देखा।
“तुम तो इंस्पेक्टर हो। यहां के सभी गुण्डे मवालियों को जानते होंगे....?”
“तो....?”
“यह काम तुम किसी और से भी तो आसानी से करा सकते थे। किसी भी हत्यारे को कहकर या उस पर दबाव डालकर तुम दीवान चन्द का कत्ल करवा सकते थे।”
सुलेमान के होठों पर घायल मुस्कान फैल गई। फिर उसने एक गहरी सांस छोड़ी और बोला—
“अगर तुम दीवान चन्द के बारे में जानती होतीं तो यह प्रश्न बिल्कुल भी न करतीं, सिर्फ एक हफ्ता यहां रह जाओ....। तुम्हें पता चल जायेगा कि दीवान चन्द की सूरजपुर में औकात क्या है। यहां कोई भी बड़ा अपराध हो तो उसकी तफ्तीश का रास्ता सीधा दीवान चन्द की कोठी की तरफ जायेगा। सूरजपुर का कोई भी अपराधी जब थोड़ा बड़ा होता है तो उसे सबसे पहले दीवान चन्द से आशीर्वाद लेना होता है....वर्ना उसकी जिन्दगी की गाड़ी वहीं रुक जायेगी।”
“ओह!”
“अगर मैं ऐसा करता तो दीवान चन्द का तो कुछ नहीं बिगड़ता, मगर मेरा घर बिल्कुल भी नहीं बचता। तुम बाहरी लोग हो....। तुम अगर उसे मारोगे तो मुझ पर किसी को भी शक नहीं होगा।”
गौरी कुछ नहीं बोली, बस समझने वाले अन्दाज में सिर हिला दिया।
सुलेमान ने वापिस अर्जुन त्यागी को देखा और गम्भीरता से बोला—
“मेरे पास सिर्फ तीन लाख साठ हजार हैं अर्जुन त्यागी....! जो मैंने पच्चीस साल की नौकरी में जोड़े हैं। उनमें से तुम्हें साढ़े तीन लाख दे सकता हूं....। इससे ज्यादा देने की न तो मेरी औकात है, न ही दूंगा।”
“क्या....?” हड़बड़ा उठा अर्जुन त्यागी—“ए....एक एम○एल○ए○ कम बाहुबली कम सूरजपुर के बादशाह को मारने के सिर्फ साढ़े तीन लाख—।”
“हां....।”
“फिर तो भइया बात नहीं बनेगी।” गहरी सांस छोड़ते हुए बोला अर्जुन त्यागी—“दीवान चन्द को मारने के साढ़े तीन करोड़ बनते हैं, फिर भी अगर रियायत करूं तो पैंतीस लाख, मगर तुम तो चिड़िया का चुग्गा थमा रहे हो मुझे।”
“मेरे पास है ही इतना....। दस हजार मेरे को घर के खर्चों के लिये भी चाहिये, वर्ना मैं तीन साठ ही दे देता और यह बात गांठ बांध लो अर्जुन त्यागी, यह काम तुम्हें ही करना होगा।”
“जबरदस्ती है....?”
सुलेमान ने हाथ जोड़ दिये।
“मैं हाथ जोड़कर तुमसे रिक्वेस्ट कर रहा हूं....। एक मजबूर बाप जो अपनी बेटी के हत्यारे से बदला लेने के लिये तड़प रहा है....। उसकी मुराद पूरी कर दो....। मैं सच्चे मन से तुम दोनों को दुआयें दूंगा....। लेकिन....।” सहसा ही उसका चेहरा सख्त हो उठा—“अगर तुम मेरा काम नहीं करोगे तो फिर मेरे भीतर का मजबूर बाप मर जायेगा और एक पुलिस अफसर जाग उठेगा।”
“तुम हमें धमकी दे रहे हो....?” गौरी गुर्रा उठी।
“यह धमकी नहीं, चेतावनी है गौरी....।” सुलेमान सख्त लहजे में बोला—“तब मैं अपनी जान की भी परवाह नहीं करूंगा....और तुम दोनों को भी जिन्दा नहीं छोडूंगा।”
कहने के साथ ही उसने अपनी शर्ट को थोड़ा ऊपर उठाया तो अर्जुन त्यागी और गौरी के कलेजे दहल उठे।
सुलेमान के पेट से एक बम बंधा हुआ था।
“यह देख रहे हो न....। बस मेरे हल्के से इशारे की देर होगी कि यह कमरा एक जबरदस्त विस्फोट से मलबे में बदल जायेगा, और हम तीनों के इतने टुकड़े हो जायेंगे कि डॉक्टर यह नहीं समझ पायेगा कि कौन-सा हिस्सा किसके जिस्म का है। तुम्हारे इन्कार की सूरत में मैं समझ जाऊंगा कि अब मैं कभी भी अपना बदला नहीं ले पाऊंगा। ऐसे में जीने का फायदा ही क्या....।”
“श....शर्ट नीचे करो।” हड़बड़ाया-सा बोला अर्जुन त्यागी।
“ह....हां....म....मैंने तो यूं ही तुम्हें टटोलने के लिये ऐसी बात कर दी थी....।” गौरी ने जबरदस्ती होठों को फैलाया।
“हां, यूं भी हमें पैसे की सख्त जरूरत थी....।” अर्जुन त्यागी खुद को सम्भालते हुए बोला—“और साढ़े तीन लाख भी कम नहीं होते।”
“हमें मन्जूर है....। हम तुम्हारा काम कर देंगे।”
सुलेमान ने शर्ट नीचे की और गम्भीरता से बोला—“सॉरी....मैं तुम्हें बम दिखाना नहीं चाहता था....। मगर मैं दिखाने को मजबूर हो गया था।”
“मगर आये तुम बड़े ही खतरनाक इरादे से थे....।”
“जैसी तुम दोनों की फितरत है....उसके मुताबिक ऐसा करना जरूरी था। अगर तुम मुझे गोली मारते तो तुम दोनों की भी कहानी यहीं खत्म हो जाती....। वैसे मुझे उम्मीद पूरी थी कि तुम मेरा काम करोगे, क्योंकि पैसा तुम दोनों का भगवान है....और कत्ल करना तुम्हारे लिये मच्छर मारने के बराबर है....। ऐसे में भला साढ़े तीन लाख की ऑफर क्यों ठुकराते तुम....।”
“बड़ी दूर की सोचते हो....।”
बनावटी हंसी हंसा अर्जुन त्यागी।
कुछ नहीं बोला सुलेमान, बस गहरी सांस छोड़कर रह गया।
“तो....।” अर्जुन त्यागी बैठे-बैठे ही पहलू बदलते हुए बोला—“तुम यह चाहते हो कि वह कल मरे?”
“हां....। कल उसकी पहली जनसभा है। मैं चाहता हूं कि वहीं उसकी लाश गिरे। इससे एक तो सूरजपुर में दहशत का राज खत्म होगा, दूसरे तुम्हें भागने में आसानी रहेगी। जब उस पर गोली चलेगी तो भीड़ में अफरा-तफरी फैल जायेगी, जिसका फायदा उठाकर तुम आसानी से भाग सकते हो।”
“जनसभा कहां है उसकी....?”
“रामलीला मैदान में....।”
“रामलीला मैदान कहां है....?”
“पटेल रोड पर....।” बोला सुलेमान—“रामलीला मैदान के ऐन सामने तीन मंजिला इमारत है....। तुम उसकी छत से आसानी से उसे निशाना लगा सकते हो।”
“यानि पहले से ही सोचकर आये हो कि उसे मारना कैसे है?”
“क्योंकि मैंने वह जगह देखी है....। हां, अगर तुम्हें कोई और बढ़िया रास्ता नजर आता है तो मुझे भला क्या एतराज हो सकता है। मैं तो बस उस कमीने की सरेआम मौत का तलबगार हूं।”
“फिर तो तुमने टैलीस्कोपिक गन का भी बन्दोबस्त किया होगा। वह तीन मंजिला इमारत सड़क के पार होगी....। इतनी दूर से निशाना लगाने के लिये टैलीस्कोपिक गन की जरूरत पड़ेगी।”
“बन्दोबस्त तो नहीं किया, मगर हो जायेगा।”
“कब....?”
“जब तुम कहो....।”
“तीन-चार घण्टे बाद जहां तुम कहोगे गौरी वहां पहुंच जायेगी....। तुम इसे गन दे देना।”
“ठीक है....।” सुलेमान ने सहमति में सिर हिलाया।
“और साथ ही साढ़े तीन लाख भी दे देना।”
सुलेमान ने पुनः सिर हिलाया। फिर बोला—“और कुछ....?”
“बस, और कुछ नहीं।”
“तो मैं चलूं....?”
अर्जुन त्यागी ने दांत दिखाते हुए सिर हिला दिया।
सुलेमान बेड से उतरकर खड़ा हुआ और बोला—“शहर में जगह-जगह दीवान चन्द के पोस्टर लगे हैं....। वहीं से तुम उसे देख लेना।”
“देख लूंगा। जगह तो बताते जाओ....।”
“ओह हां....शाम सात बजे तुम....।” उसने गौरी को द
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Additional information
Book Title | मौकापरस्त : Maukaparast |
---|---|
Isbn No | |
No of Pages | 336 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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