मास्टर माइंड
अनिल सलूजा
वह एक साधारण सा पुलिस थाने का ऑफिस था। जिसमें पड़ी साधारण-सी टेबल पर रखी फाईलों के करीब रखा लाल रंग का फोन घनघनाया।
“ट्रिन...ट्रिन...ट्रिन।”
अधेड़ उम्र के एक सब–इंस्पेक्टर ने—जो कि कुर्सी पर बैठा था—बांह लम्बी कर रिसीवर उठाया और कान से लगाते हुए बोला—
“हैलो! रामनगर थाने से सब–इंस्पेक्टर मोहनलाल।”
“खबरी बोल रहा हूं, सरकार।”
दूसरी तरफ से आई आवाज को सुन मोहनलाल एकदम से सतर्क हो उठा।
“कोई खास खबर?” वह धीरे से फुसफुसाया।
“बहुत ही खास है।”
“बोल।”
“मिडटाऊन के कमरा नम्बर तीस में मीटिंग हो रही है। किसी बड़ी डकैती की योजना बन रही है।”
“कितने डकैत हैं?” चौंकते हुए बोला मोहनलाल।
“चार हैं—और वे चारों यहां के नहीं हैं।”
“ओ.के.—नजर रखना—मैं वहां पहुंच रहा हूं।”
कहकर उसने रिसीवर रखा और ऊंचे स्वर में आवाज लगाई—“बाबूराम...।”
शीघ्र ही एक कांस्टेबल भीतर प्रविष्ट हुआ—“जी जनाब।”
“ए.एस.आई. रघुवीर को फौरन आने को बोल।”
शीघ्र ही ए.एस.आई. रैंक का पुलिसिया ऑफिस में दाखिल हुआ।
“आपने बुलाया जनाब?”
“पांच मिनट में मेरे को दस सिपाही तैयार चाहिये। क्विक।”
रघुवीर सिंह फौरन वापिस मुड़ा और बाहर निकल गया। उसने यह तक नहीं पूछा कि कहां जाना है। क्योंकि वह जानता था कि मोहनलाल का वक्त पूरा होते ही उसके पांच मिनट स्टार्ट हो गये—और पांच मिनट में उसे हर हाल में मोहनलाल को रिपोर्ट देने आना था कि फोर्स तैयार है।
बहुत ही कड़क अफसर था मोहनलाल।
पचास से बस दो तीन साल ही छोटा था। मगर चुस्ती–फुर्ती में वह जवानों को भी मात देता था।
बड़े से बड़े अफसर के सामने भी वह सिर उठा कर बात करता था। वजह थी उसका ईमानदार होना। अपनी जिन्दगी में उसने आज तक रिश्वत नहीं ली थी। सरकार की तनख्वाह पर ही अपना परिवार चलाता था। अपने थाने में किसी की सिफारिश लाने वाले को वह उल्टा ही पेश आता था।
अपनी ईमानदारी की वजह से ही वह सब–इंस्पेक्टर से ऊपर नहीं उठ सका था और उसे रामनगर नाम के इस छोटे से शहर का चार्ज मिला हुआ था।
यूं तो थाने का एस.एच.ओ. इंस्पेक्टर रैंक का अफसर होता है, मगर वह सब–इंस्पेक्टर हो कर यहां का एस.एच.ओ. था।
तीन साल से उस थाने में कोई इंस्पेक्टर नियुक्त नहीं हुआ था। ऐसे में तीन साल से वही वहां का एस.एच.ओ. था।
खुद की तरक्की न होने पर भी उसे अपने विभाग से कोई शिकायत नहीं थी। वह अपने इस रैंक से भी खुश था। उसका तो बस एक ही मकसद था कि वह जहां भी नियुक्त हो—वहां से अपराध खत्म हो जाये। और रामनगर में उसने ऐसा कर दिखाया था। थाने में सिपाहियों की कम संख्या के बावजूद उसने रामनगर से अपराध का सफाया कर दिया था।
पब्लिक उससे बहुत खुश थी और उसकी बहुत इज्जत भी करती थी।
उसी इज्जत को वह अपना सम्मान समझता था—अपना मान समझता था।
पांच मिनट से कुछ सेकण्ड पहले ही रघुवीर ऑफिस में दाखिल हुआ।
“फोर्स तैयार है जनाब।” वह बोला।
मोहनलाल तुरंत खड़ा हुआ और अपनी कैप टेबल से उठाकर सिर पर रखते हुए बोला—“चलो।”
कुछ ही देर में फोर्स से भरी जिप्सी थाने के गेट से निकलती नजर आ रही थी।
गेट पर खड़ा संतरी तन कर जिप्सी चला रहे मोहनलाल को सैल्यूट मार रहा था।
¶¶
रामनगर के बीचों बीच मेन रोड बना था होटल मिडटाऊन।
सिर्फ तीन–मंजिला बना वह होटल रामनगर का तो सबसे बढ़िया होटल था, लेकिन अगर उसे ग्रेड दिया जाता तो वह डेढ़ स्टार की हैसियत वाला होटल था।
जिप्सी मिडटाऊन के गेट पर रुकी तो पीछे की सीटों पर बैठे तथा खड़े हुए सिपाही फौरन पीछे से उतर गये, जबकि मोहनलाल तथा रघुवीर आगे से नीचे उतरे और दनदनाते होटल के गेट को धकेलते हुए भीतर प्रवेश कर गये। गेट के दार्इं तरफ साफ–सुथरे काऊंटर के पीछे बैठे रिसेप्शनिस्ट ने पुलिस को होटल में प्रवेश करते देखा तो वह घबराकर खड़ा हो गया।
मोहनलाल ने उसकी तरफ देखा तक नहीं—और दो सिपाहियों को अपने पास बुला कर सख्ती से बोला—
“तुम दोनों गेट पर तैनात रहोगे। कोई भी होटल से बाहर नहीं निकलना चाहिये।”
“यस सर।” दोनों एक साथ बोले।
“और अगर कोई जबरदस्ती होटल से बाहर निकलने की कोशिश करे तो साले की टांगें तोड़कर रख दो। किसी भी सूरत में कोई भी बाहर नहीं निकलना चाहिये।”
“यस सर।”
“जाओ।”
दोनों फौरन वहां से हटे और गेट के दांये–बांये खड़े हो गये। उनके हाथों में पकड़े डण्डों पर उनकी पकड़ पूरी तरह से सख्त थी। उसके बाद मोहनलाल रिसेप्शनिस्ट के पास पहुंचा।
“कमरा नम्बर तीस कहां है?” वह सख्ती से बोला।
“उ–ऊपर है सर। दूसरी मंजिल पर—सीढ़ियों के दार्इं तरफ चौथा कमरा है।” कहते हुए वेटर ने छत की तरफ उंगली उठाई।
मोहनलाल ने वहीं से जवानों को अपने पीछे आने का इशारा किया और सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया।
सीढ़ियों की शुरुआत में आकर वह रुका और एक पैर उठाकर सीढ़ी पर रखते हुए गर्दन पीछे मोड़ी और दो सिपाहियों से बोला—
“तुम...और तुम यहीं तैनात रहोगे। जो भी नीचे उतरे, उसे काबू में करना है।”
“यस सर।” दोनों एक साथ तन कर बोले।
मोहनलाल ने बाकियों को अपने पीछे आने का इशारा किया और गर्दन सीधी कर सीढ़ियां चढ़ने लगा।
दूसरी मंजिल पर पहुंचते–पहुंचते उसने होलस्टर से अपनी रिवॉल्वर खींच ली।
उसकी देखा देखी रघुवीर ने भी अपनी रिवॉल्वर निकाल ली।
दूसरी मंजिल पर आते ही मोहनलाल ने रिवॉल्वर ऐसे तान ली जैसे किसी भी वक्त उस पर हमला हो सकता हो।
दार्इं तरफ लम्बा बरामदा था जिसके बार्इं तरफ कमरों की कतार थी तथा दार्इं तरफ रेलिंग बनी हुई थी, जहां से नीचे झांकने पर गैलरी साफ नजर आती थी।
बरामदे के अन्त में ऐन सामने एक बन्द दरवाजा था—जिस पर सामान्य शौचालय लिखा हुआ था।
चलता हुआ मोहनलाल तीस नम्बर के सामने आकर रुका और दरवाजा खटखटाया।
“खट...खट...खट...।”
“कौन है?” भीतर से आने वाली आवाज में पूरी सतर्कता थी।
मोहनलाल ने तुरंत रघुवीर को इशारा किया कि वह जवाब दे।
“मैं हूं सर।” रघुवीर बोला—“रूम ब्वाय।”
“आ रहा हूं।”
भीतर से आवाज आई और फिर बूटों की ठक–ठक उनके कानों में पड़ी।
तुरंत मोहनलाल तथा रघुवीर दरवाजे के दांये–बायें दीवार से चिपककर खड़े हो गये।
सिपाहियों ने भी पोजीशन सम्भाल ली।
तभी भीतर से सिटकनी गिराये जाने की आवाज आई और जैसे ही दरवाजा खुला, मोहनलाल ने फौरन रिवॉल्वर दरवाजा खोलने वाले के माथे से लगा दी और गुर्राया—
“चुपचाप हाथ सिर पर रख ले। वर्ना यहीं खोपड़ी में गोली उतार दूंगा।”
अभी उसकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि भीतर से शीशा टूटने की आवाज आई—
“खनाक्...।”
बुरी तरह से चौंकते हुए मोहनलाल ने दरवाजा खोलने वाले को भीतर धकेला और तेजी से भीतर प्रविष्ट हुआ तो उसने खिड़की में से एक आदमी को बाहर छलांग लगाते देखा।
“रुक जाओ—वर्ना मैं गोली चला दूंगा।” वह दहाड़ा और रिवॉल्वर का मुंह उसकी तरफ करते हुए ट्रिगर दबा दिया।
“धांय...।”
मगर गोली खाली गई।
वह आदमी तब तक बाहर छलांग लगा चुका था।
मोहनलाल तेजी से खिड़की की तरफ लपका और खिड़की के टूटे हुए कांच में से गर्दन निकालकर बाहर झांका।
तीन आदमी आगे–पीछे भागते नजर आये उसे।
दांत किटकिटाते हुए उसने उनमें से सबसे आखिरी आदमी पर फायर झोंक दिया।
मगर गोली ने उस तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ दिया। रिवॉल्वर की रेंज से बाहर निकल चुका था वह।
गहरी सांस छोड़ते हुए मोहनलाल ने गर्दन वापिस खींची और खिड़की को देखा।
खिड़की के एक पल्ले का आधे से ज्यादा हिस्सा टूटा हुआ था, जिसका कुछ कांच भीतर गिरा हुआ था और कुछ बाहर सड़क पर बिखरा हुआ था।
दूसरी मंजिल से छलांग मारने का हौसला नहीं दिखा पाया था वह। और अगर वह वहां से कूद भी जाता—तो भी वह उस तक नहीं पहुंच सकता था।
गर्दन मोड़कर उसने दरवाजा खोलने वाले को घूरा, जिसे दो सिपाहियों ने पकड़ रखा था।
ठहरे हुए कदमों से वह उसके सामने पहुंचा और दांतों को भींचते हुए एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसके गाल पर रसीद दिया।
उस व्यक्ति का चेहरा कानों तक लाल हो उठा।
“य...यह क्या बेहूदगी है इंस्पेक्टर।” वह गुस्से से भरे स्वर में बोला—“मुझे थप्पड़ क्यों मारा तुमने?”
“तेरे साथी कहां है?” गुर्राया मोहनलाल।
“मैं इस कमरे में अकेला रहता हूं। मेरा कोई साथी नहीं है।” मुंह पर ही मुकर गया वह।
“यह पहुंचा हुआ गुरूघंटाल लगता है जनाब।” तभी रघुवीर बोला—“तभी तो इतनी बेशर्मी से मुंह पर ही मुकर रहा है।”
“घबरा नहीं।” मोहनलाल फुफकारा—“यह मोहनलाल के हत्थे चढ़ा है—और मोहनलाल के हत्थे चढ़ा गूंगा भी तोते की तरह टांय–टांय करने लगता है।”
“द...देखो इंस्पेक्टर! तुम एक शरीफ आदमी को यूं ही बिना किसी कसूर के गिरफ्तार नहीं कर सकते।”
वह आदमी हिम्मत दिखाने की कोशिश करते हुए बोला।
“तू कितना शरीफ है—इसका पता अभी चल जायेगा। तलाशी लो इसकी—और कमरे की भी तलाशी लो। कोई न कोई हथियार जरूर होगा इसके पास।”
वह फुफकारा।
मगर भरपूर तलाशी लेने पर हथियार के नाम पर एक सुई भी नहीं मिली उन्हें।
“कुछ भी नहीं मिला सर।” सिपाही बोला।
“देखिये।” वह आदमी बोला—“आप खामखां मेरे पीछे पड़ रहे हैं। मैं एक शरीफ आदमी हूं।”
“तेरी शराफत मैं थाने में उतारूंगा बच्चू। ले चलो इसे।”
कह कर उसने दरवाजे की तरफ कदम बढ़ा दिये।
सीढ़ियों द्वारा वह नीचे आया और सीधा रिसेप्शन की तरफ बढ़ा।
उसे अपनी तरफ बढ़ते देख रिसेप्शनिस्ट फौरन कुर्सी छोड़कर खड़ा हो गया।
काऊंटर के करीब आकर मोहनलाल ने कोहनी काऊंटर पर टिकाई और बोला—
“रूम नम्बर तीस में कौन–कौन ठहरा हुआ है?”
तुरंत रिसेप्शनिस्ट ने रजिस्टर खोला और दो तीन बार पेज इधर–उधर करके एक स्थान पर उंगली रखते हुए बोला—“मिस्टर जयकिशन ठहरे हुए हैं रूम नम्बर तीस में।”
“उसके साथ और कौन–कौन हैं?” रजिस्टर पर निगाहें गड़ाते हुए बोला मोहनलाल।
“जयकिशन अकेले ही ठहरे हैं।” कहते हुए उसने गर्दन उठाई तो उसकी नजर भटककर सीढ़ियों से उतरकर आगे बढ़ रहे जयकिशन पर पड़ी। जिसे दो सिपाही घेरे हुए थे तथा उनके पीछे रघुवीर तथा दूसरे सिपाही थे।
“यही हैं मिस्टर जयकिशन।” वह हड़बड़ाते हुए बोला।
मोहनलाल ने एक नजर जयकिशन पर डाली—और फिर माथे पर बल डालते हुए रिसेप्शनिस्ट को देखा।
“अकेला ठहरा हुआ था यह कमरे में?” उसने गेट के करीब पहुंच चुके जयकिशन की तरफ उंगली सीधी की।
“जी हां, साहब।”
मोहनलाल के माथे पर पड़े बल गहरे हो गये—“कब का ठहरा हुआ है यह यहां?” वह सोच भरे स्वर में बोला।
रिसेप्शनिस्ट ने पुन: रजिस्टर पर नजर मारी और बोला— “चौदह तारीख से।”
“आज सोलह है—यानि परसों से ठहरा हुआ है।”
“जी हां, साहब।”
“उस दिन और कौन–कौन आया था?”
“अ...अब यह कैसे बता सकता हूं मैं साहब। यहां तो हर रोज कई लोग आते–जाते हैं और...।”
“अबे भूतनी के—मैं यह पूछ रहा हूं चौदह तारीख को और किस–किस ने कमरा लिया था?” मुंह बनाया मोहनलाल ने।
रिसेप्शनिस्ट ने रजिस्टर पर सिर झुकाया और बोला—“एक मिस्टर चन्देश थे।”
“क्या यह भी अकेला है?”
“नहीं सर। इनके साथ इनकी पत्नी थी—और यह आज सुबह चैकआऊट कर गये थे।”
“और देख। कल की तारीख में भी देखना।”
“परसों और कमरा नहीं चढ़ा था सर।” कह कर रिसेप्शनिस्ट ने पेज बदला और फिर एक स्थान पर उंगली रखते हुए बोला—“कल अहमद के नाम से कमरा बुक हुआ। एक मिस्टर एण्ड मिसेज सतीश शर्मा भी थे। और एक कमरा रामकुमार बजाज के नाम से बुक हुआ था।”
“यह भी अहमद की तरह अकेला था?”
“जी हां, साहब।”
“और आज भी किसी अकेले ने कोई कमरा लिया है?”
“नहीं साहब।” रिसेप्शनिस्ट ने सिर दांये–बांये हिलाया।
“रजिस्टर पर इन तीनों ने जो पते लिखवाये—वो लिख के दे मेरे को।”
तुरंत रिसेप्शनिस्ट ने दराज खींचकर उसमें से एक कागज निकालकर रजिस्टर में से तीनों के नाम–पते लिखे और कागज उसकी तरफ बढ़ा दिया।
“मुझे अहमद और रामकुमार बजाज के कमरों की तलाशी लेनी है। तेरे पास इनकी डुप्लीकेट चाबी तो होगी?”
रिसेप्शनिस्ट ने पीछे की–बोर्ड पर नजर मारी, फिर पुन: गर्दन सीधी करते हुए बोला—
“मिस्टर अहमद और रामकुमार बजाज अपने कमरों में ही हैं साहब।”
“नहीं मिलेंगे। भाग गये हैं वे। तीस नम्बर की खिड़की का कांच तोड़ कर भागे हैं वो। इसलिये दूसरी चाबी दे। मैं तलाशी लेना चाहता हूं।”
“उसके लिये मुझे मैनेजर को बुलाना पड़ेगा साहब। यह मेरे अधिकार में नहीं है।”
“तो बुला उसे।”
पांच मिनट बाद ही मोहनलाल होटल मैनेजर और दो सिपाहियों के साथ अहमद के कमरे में प्रवेश कर रहा था।
“कमरे की अच्छी तरह से तलाशी लो।” वह सिपाहियों से बोला—“जरूर इस कमरे में कोई हथियार होगा।”
दोनों सिपाही फौरन तलाशी में जुट गये।
मैनेजर एक तरफ बुत बन कर खड़ा था। मोहनलाल की तलाशी वाली बात पर उसने जरा भी ऐतराज नहीं किया था। या यूं कह लें कि इन्कार करने की हिम्मत नहीं पड़ी थी उसकी। क्योंकि वह जानता था कि मोहनलाल जो कहता है, कर के ही रहता है।
सिपाहियों ने अच्छी तरह से कमरे की तलाशी ली लेकिन वहां से उसे ऐसा कुछ भी नहीं मिला—जिससे कि वह उसका रिश्ता जयकिशन से जोड़ सके। जबकि उसके दिमाग में यह था कि हो न हो अहमद और रामकुमार जयकिशन के साथी हैं। रामकुमार बजाज के कमरे से भी उसे कोई आपत्तिजनक चीज नहीं मिली थी।
निराशा भरी गहरी सांस छोड़ते हुए वह सिपाहियों के साथ होटल से बाहर आ अपनी जिप्सी की तरफ बढ़ा—जिसकी पिछली सीट पर जयकिशन बैठा था।
उसने एक बार घूरकर उसे देखा, फिर कदम आगे बढ़ाकर स्टेयरिंग के पीछे बैठ गया।
¶¶
admin –
Aliquam fringilla euismod risus ac bibendum. Sed sit amet sem varius ante feugiat lacinia. Nunc ipsum nulla, vulputate ut venenatis vitae, malesuada ut mi. Quisque iaculis, dui congue placerat pretium, augue erat accumsan lacus