महाशातिर
शिवा पंडित
“आपने मुझे बुलाया बॉस...?” वीजेद्र पाल सिंह कमरे में दाखिल होते हुए सामने कुर्सी पर बैठे काली सिंह के सामने खड़ा होते हुए बोला।
“आओ...बैठो...।” गंभीरता से बोला काली सिंह।
विजेंद्र पाल सिंह एक कुर्सी खींच कर उसके सामने बैठ गया।
“हुक्म करें बॉस...?” वह बोला।
“तुम आज रात को दिल्ली के लिए निकल जाओ पाल—वहां तुम्हें साहू जी से मिलना है।” काली सिंह बोला।
“रोकड़ा लाना है।”
“हां...।”
“कितना...?”
“एक लाख डॉलर है।”
“यस बॉस...।” तुरंत बोला विजेंद्र पाल सिंह।
“कब तक वापस आ जाओगे...?”
“कल दोपहर को तो दिल्ली पहुंचूंगा बॉस...। फिर थोड़ा आराम करूंगा—उसके बाद साहू जी से एक लाख डॉलर लूंगा और परसों दोपहर तक वापस पहुंच जाऊंगा...।”
काली सिंह ने समझने वाले अंदाज में सिर हिलाया—फिर मुस्कुराते हुए बोला—“अब अपने घर जाओ—और नींद पूरी कर लो। सारी रात गाड़ी चलानी है तुम्हें।”
“यस बॉस...।” कहते हुए विजेंद्र पाल सिंह खड़ा हो गया।
“और हां...बाहर खांडेकर होगा—उसे भेज देना।”
“यस बॉस...।”
कहकर विजेंद्र पाल सिंह दरवाजे की तरफ बढ़ गया।
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खांडेकर कमरे में दाखिल हुआ और काली सिंह के सामने सिर को हल्के से झुका कर उसे देखते हुए बोला——
“हुक्म बॉस...।”
“कल दौलतराम आया था...।” काली सिंह बोला—“उसकी दुकान का किराएदार दुकान पर कब्जा किए बैठा है और दुकान खाली करने के दस लाख मांग रहा है। उससे दस लाख ले लिए हैं मैंने। सकलानी को भेज और दुकान खाली करा दे।”
“यस बॉस...। दुकान का पता क्या है?” खांडेकर बोला।
“गुरुद्वारा रोड पर पारस कलैक्शन का बोर्ड लगा है दुकान पर...। दुकानदार का नाम पारसनाथ है...।”
“यस बॉस...। मैं अभी सकलानी को आपका आदेश पहुंचा देता हूं।”
कहकर खांडेकर ने सिर झुकाया और बाहर निकल गया।
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मोहन गेट हाउस के कमरे में शीशे के सामने खड़े अर्जुन त्यागी ने खुद को निहारा—फिर अपने अक्स से बात करने लगा—
“धंधे पर निकल रहा हूं...। ऊपर वाले से दुआ कर कि कोई बढ़िया सा शिकार फंस जाए...। ऐसा बढ़िया कि उससे मिलने वाली दौलत से मैं इतना बड़ा व्यापार कर सकूं कि हिंदुस्तान के हर शहर में मेरा ही राज हो...।”
“आमीन...।” उसने कुछ पल रुक कर कहा।
दिल्ली में करोड़ों कमाने के लिए उसने न मालूम कितना ही खून बहा डाला था...। लेकिन दौलत के नाम पर उसके पल्ले कुछ भी नहीं पड़ा था...। बल्कि उसे वहां से भागने को मजबूर होना पड़ा था।
दिल्ली से भागकर वह सीधा यहां राजनगर आ पहुंचा था।
पल्ले पैसा तो था नहीं उसके—ले-देकर हजार-बारह सौ थे उसकी जेब में—उतने पैसे से वह ज्यादा से ज्यादा तीन दिन निकाल सकता था—वह भी कंजूसी करके। बिना शराब पिए—बिना मुर्गा चबाए।
राजनगर के इस गेस्ट हाउस में उसने तीन दिन के लिए कमरा लिया—और साढ़े सात सौ रुपए वहां फूंक दिए।
और अब वह शिकार पर निकलने जा रहा था।
शीशे में उसने स्वयं पर फ्लाइंग किस फेंकी—और फिर वहां से हट कर कमरे से ऐसे निकला—जैसे वह अपने ऑफिस के लिए जा रहा हो।
जेब में रोकड़ा बहुत थोड़ा था उसके। इसलिए उसने यही सोचा हुआ था कि जो भी मिले—उसे हड़प लो। उससे कम-से-कम आगे के कुछ रोज तक तो गुजारा चलेगा—और हमेशा की तरह इस बार भी उसे पूरा विश्वास था कि इस बार वह सबसे बड़ा डॉन बनने में जरूर कामयाब होगा।
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काफी बड़ी दुकान थी वह—जिसमें तीन सेल्समैन ग्राहकों को फंसाने के लिए अपने पैंतरे आजमा रहे थे।
लंबे काउंटर पर रेडीमेड कपड़ों के ढेर लगे हुए थे—और चार-पांच ग्राहक कपड़े देख रहे थे।
“यह देखिए मैडम...।” एक सेल्समैन एक युवती को जीन्स दिखाते हुए बोला—“यह जीन्स आप पर खूब जंचेगी...। रंग भी आपकी स्किन से मैच करता है...।”
“नहीं...कोई दूसरी जींस दिखाओ...।” युवती मुंह बनाते हुए बोली।
“आप एक बार ट्राई तो कीजिए मैडम...। वह सामने ट्राई रूम है...। आप देखिए तो सही।”
“नहीं...। मुझे यह रंग पसंद नहीं...।”
ऐसे ही अन्य सेल्समैन ग्राहकों को पटाने की कोशिश कर रहे थे।
काउंटर की शुरूआत में दुकान का मालिक पारसनाथ एक कुर्सी पर बैठा था।
पारसनाथ करीब चालीस साल का भरे हुए चेहरे वाला व्यक्ति था—जिसके चेहरे पर रौब था—और आंखों में एक अजीब-सी सख्ती थी।
दस साल पहले उसने दौलत राम से यह दुकान पांच हजार रूपये किराए पर ली थी।
उस वक्त जायदाद की कीमत इतनी नहीं थी। मगर पिछले सालों में जमीनों की कीमतों में ऐसा उछाल आया था कि दस साल पहले जहां उस दुकान की कीमत महज सात लाख थी, आज वही दुकान पचास लाख की हो गई थी।
सो दौलतराम ने पारसनाथ को दुकान खाली करने को कह दिया। मगर पारसनाथ ने दुकान खाली करने से साफ मना कर दिया—उसने यही कहा कि वह चाहे तो किराया बढ़ा दे—लेकिन वह दुकान खाली नहीं करेगा। नतीजा—पारसनाथ और दौलतराम में झगड़ा हो गया। बात पहले हाथापाई तक पहुंची—फिर बिरादरी तक...।
बिरादरी में पारसनाथ पर कुछ दबाव पड़ा तो उसने यह कहा कि अगर दुकान खाली करानी है तो दौलतराम उसे दस लाख दे दे—मगर उसके लिए दौलतराम ने इंकार कर दिया—यह कहकर कि इतना तो उसने पारसनाथ से किराया भी नहीं लिया—जितना वह उससे मांग रहा है।
बिरादरी ने दौलतराम को समझाया भी कि वह पारसनाथ को दस लाख दे दे—आखिर उसने भी तो अपना चला चलाया ठिकाना छोड़कर कहीं और जाना है।
लेकिन दौलतराम ने किसी की न मानी—और बिरादरी में कोई फैसला न हो सका।
और फिर दौलतराम जा पहुंचा काली सिंह के हुजूर में—जहां काली सिंह के आगे उसकी बोलने की हिम्मत नहीं थी।
वह जानता था कि अगर उसने इंकार कर दिया—या उसने उससे सौदेबाजी की कोशिश की तो काली सिंह या तो उसे खड़े पैर गोली मार देगा—या फिर वह दुकान कभी भी खाली नहीं करा पाएगा।
सो उसने मन-ही-मन कलपते हुए उसे छह लाख दे दिए।
अब दौलतराम को पूरा विश्वास था कि पारसनाथ कुछ भी कर ले—वह दुकान से निकल कर ही रहेगा।
पारसनाथ को तो सपने में भी गुमान नहीं था कि दौलतराम काली सिंह के पास पहुंच जाएगा। उस काली सिंह के पास जो राजनगर का सबसे बड़ा डॉन था। जिसके किए गुनाह पर पुलिस भी नहीं बोलती थी—बल्कि पुलिस तो उसके गुनाह को रफा-दफा करके आंखें बंद कर लेती थी।
तभी तो वह इस वक्त बेफिक्री से दुकान पर बैठा था।
“चींऽऽऽ...।”
तभी ब्रेकों की चरमराहट की आवाज सुनकर उसने हल्के से चौंकते हुए जैसे ही बाहर देखा—उसका कलेजा उछलकर उसके हलक में आ फंसा।
रंग पीला पड़ गया—जैसे उसके चेहरे पर हल्दी का लेप कर दिया गया हो।
बाहर खुली जीप में सात गुंडे बैठे थे—जिनके हाथों में तलवारें...हाकियां वगैरह थीं।
ड्राइविंग सीट पर सकलानी बैठा था—जिसे पूरे राजनगर में काली सिंह के खास गुलाम के तौर पर जाना जाता था।
तभी सकलानी जीप से उतरा और उसकी दुकान की तरफ बढ़ा।
बाहर सड़क के दोनों तरफ लोगों का मेला लग गया। सड़क के पार भी लोगों की भीड़ लग गई।
आसपास के दुकानदार जल्दी-जल्दी अपने शटर नीचे गिराने लगे।
हर तरफ दहशत का माहौल था।
सकलानी पारसनाथ के सामने आ रुका और अपनी सुर्ख आंखों से उसे घूरते हुए गुर्राया——
“पारसनाथ तेरा ही नाम है न...?”
“ह...हां...लेकिन मैंने तो कुछ नहीं किया...?” पारसनाथ घिघियाते हुए बोला।
सकलानी ने बिना उसकी बात का जवाब दिए उसका गिरेबान पकड़ा और उसे काउंटर के ऊपर से खींचकर बाहर सड़क पर पटक दिया।
बुरी तरह से चीख उठा पारसनाथ—और फिर जोर-जोर से चिल्लाने लगा——
“ब...चाओ...बचा...ओ...।”
मगर किसकी हिम्मत थी जो आगे आकर उसे बचाने की कोशिश भी करता।
“खाली करो दुकान...।” सकलानी दहाड़ा।
तुरंत उसके गुंडे साथी दुकान में घुस गए।
दुकान में मौजूद ग्राहक तो चीखते हुए तभी बाहर निकल गए थे—जब सकलानी दुकान में प्रविष्ट हुआ था। उसके सेल्समैन भी नदारद हो गए थे।
भीतर घुसते ही गुंडों ने सारे कपड़े उठा-उठा कर बाहर सड़क पर फेंकने शुरू कर दिए।
पारसनाथ चीख रहा था—चिल्ला रहा था—अपने बच्चों की दुहाई दे रहा था—लेकिन सकलानी उसकी कोई भी बात नहीं सुन रहा था।
हारकर पारसनाथ उठा और पैदल ही पुलिस स्टेशन की तरफ भागा।
मगर सकलानी बेफिक्र था।
उसके गुंडे सारा सामान सड़क पर फेंक रहे थे।
सारा सामान फेंक कर गुंडों ने हाकियों से सारे शीशे तोड़ डाले...।
काउंटर का ऊपरी शीशा भी तोड़ दिया।
फिर गुंडे दुकान से बाहर आ गए।
“शटर बंद करो...और ताला लगा दो।” सकलानी बोला।
दो गुंडों ने भीतर से ताला बरामद किया—जिसके साथ चाबी लगी थी—और बाहर आकर शटर बंद करने लगे।
भीड़ अभी भी लगी हुई थी वहां।
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