महाबली : Mahabali by Sunil Prabhakar
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Description
शहर के दो ताकतवार गैंग आपस में अमन-चैन से अपना जरायम पेशा चला रहे थे और बेरोक-टोक क्राइम कर रहे थे। कानून दोनों की ताकत के सामने पंगु था मगर कोई तीसरा भी था जो उन्हें आपस में लड़वाने के लिए आग भड़का चुका था।
दोनों के बीच खूनी संघर्ष शुरु हो भी चुका था तब सामने आया वो शख्स जिसे अण्डरवर्ल्ड के पल-पल की खबर थी। जो गुमनाम था मगर सबपर भारी था। वही था जो अण्डरवर्ल्ड को अपने इशारों पर नचाने की क्षमता रखता था—
इसीलिए तो वो महाबली कहलाता था।
महाबली : Mahabali
Sunil Prabhakar सुनील प्रभाकर
Ravi Pocket Books
BookMadaari
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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महाबली
सुनील प्रभाकर
सुनीता वाघमारे उसे अचानक अपने सामने पाकर अचकचा गई। वो हक्की-बक्की सी उसको देखती रही। उसके मुंह से बोल तक नहीं फूटा। सच तो ये था कि उसको इस जिन्दगी में पुनः देख पाने की कोई आशा नहीं थी। पांच वर्ष का अरसा कम-से-कम इतना तो होता ही है कि किसी को भूला जा सके—भले ही कितना अन्तरंग क्यों न हो। आत्मीय ही क्यों न हो।
वो कतई नहीं बदला था।
चेहरा-मोहरा। स्वास्थ्य—सब कुछ वैसा ही था—जैसा पांच साल पहले था—जब 'वो' एक दिन अचानक उसके जीवन से गायब हो गया था। उस समय गायब हो गया था जब उसे सहारे की आवश्यकता थी। अपने उस संकट के समय को उसने कैसे काटा था, कैसे अपने को जीवित रखा था, कैसे-कैसे संघर्ष किए थे—उसके जीवन का एक ऐसा अध्याय था जिसे उसने दुःस्वप्न समझकर भुला दिया था।
उसका पिछला जीवन उसको सामने पाकर जैसे करवट बदलकर एकबारगी ही उठ खड़ा हुआ था।
“हैलो।” उसने स्थिर लहजे में कहा।
सुनीता वाघमारे का चेहरा एकाएक सख्त हो गया।
बड़ी-बड़ी आंखों में सूनापन सिमट आया। सुनीता के होंठ किंचित् हिले लेकिन आवाज नहीं निकली।
“इस तरह क्या देख रही हो?” वो मुस्कुराया था—“भीतर आने को नहीं कहोगी?”
“तुम यहां क्यों आये हो?” सुनीता ने सपाट स्वर में प्रश्न किया।
“तो फिर कहां जाता?”
“कहीं भी। जहां तुम्हारा कोई होता।”
“तुम भी तो अपनी हो। मेरी पत्नी। ब्याहता पत्नी।”
“पत्नी?” सुनीता का सुंदर चेहरा विकृत हो गया।
“हां।”
“अच्छा।” उसका स्वर बेहद सर्द हो गया—“कौन कहता है?”
“मैं यशवन्त कोठारी हूं—तुम्हारा पति।” वो पहलू बदलकर बोला। उसके स्वर में बेचैनी थी—“तुम इस तरह मुझसे मुंह नहीं चुरा सकती।”
“ये यशवन्त कोठारी कौन है मैं नहीं जानती। मैंने कभी ये नाम ही नहीं सुना।” सुनीता के स्वर में अजनबीपन था—“तुम अपने को यशवन्त कोठारी कहते हो तो कहते रहो। मुझसे क्या लेना-देना?”
वो शख्स—जो अपने को यशवन्त कोठारी कह रहा था, विचलित हो उठा। उसने चेहरा सहलाया—“देखो सुनीता—मैं मानता हूं कि...।”
“शटअप!” सुनीता का स्वर कोड़े की फटकार की तरह उभरा—“तुमको पता है, किससे बात कर रहे हो?”
यशवन्त कोठारी सकपका गया।
उसका चेहरा फीका लगने लगा।
“देखो सुनीता—मैं मानता हूं कि मैंने...।” उसने फीके स्वर में कहने की कोशिश की।
मगर कह नहीं सका।
किसी ने पीछे से शर्ट का कॉलर झटके से खींचा। मुंह की बात मुंह में ही रह गई। वो लड़खड़ाकर गिरते-गिरते बचा। पलटा तो अपने सामने जिस शख्स को देखा—उसे देखकर सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई।
भय से चेहरा सफेद पड़ गया।
उसके सामने लंबे कद का दुबला-पतला शख्स खड़ा था।
सुता चेहरा। सांप जैसी आंखें। लंबी नाक। पतले होंठ। रंगत पीली।
“ये कौन है मैडम? यहां क्या कर रहा है? आप इसे जानती हैं?” उसका स्वर फटे बांस जैसा था।
“नहीं—मैं इसे नहीं जानती।” सुनीता ने भावहीन स्वर में कहा—“पता नहीं कौन है? खुद को यशवन्त कोठारी और मेरा पति बता रहा है।”
“पति!” दुबला-पतला व्यक्ति चौंका।
“हां।”
“और आप इसे नहीं जानतीं?”
“सवाल ही नहीं उठता।”
“ये झूठ बोल रही है।” यशवन्त कोठारी सहसा जोर से चिल्लाया—“मैं इसका पति हूं। पांच साल पहले...।”
बांस जैसे व्यक्ति ने उसे एक हाथ से हवा में उठा लिया।
“छोड़ो मुझे।” यशवन्त कोठारी हवा में हाथ-पैर मारता हुआ आतंकित स्वर में बोला।
“इसका क्या किया जाए मैडम?”
“इसे उठाकर बंगले के बाहर फेंक दो और सभी से कह दो कि अगर धोखे से भी बंगले के सामने नजर आ जाए तो हाथ-पैर तोड़ दें।” सुनीता के स्वर में जमाने भर की क्रूरता सिमट आई।
उस बांस जैसे व्यक्ति ने यशवन्त कोठारी को उछाल दिया। वो पोर्टिको को में गिरा। उसके कण्ठ से पीड़ा भरी चीख निकल गई।
“सुना तूने?” बांस जैसा व्यक्ति पोर्टिको की सीढ़ियां उतरता हुआ गुर्राया—“मैडम की बात दिमाग में रख ले। अगर जिन्दा रहना चाहता है तो बंगले के आस-पास भी नहीं फटकना।”
यशवन्त कोठारी शारीरिक पीड़ा भूलकर जल्दी से खड़ा हो गया और चिल्लाता हुआ बोला—“ये तुमने अच्छा नहीं किया सुनीता। मैं तुम्हारे पास अपनी भूल की माफी...।”
“जोरावर!” सुनीता गुर्राई।
बांस जैसा शख्स तेजी से लपका।
यशवन्त कोठारी पूरी ताकत से भागा गेट की ओर।
वो समझ गया था कि जोरावर के हाथ लग गया तो उसकी हड्डी-पसली एक हो जाएगी। जोरावर के दुबले-पतले शरीर में फौलाद जैसी ताकत थी। हालांकि वो कमजोर नहीं था मगर जोरावर का सामना करने की शक्ति उसमें नहीं थी। उसके सामने वो भुनगे से ज्यादा कुछ नहीं था।
गनीमत थी कि गेट पर जिस गनमैन को भीतर आते समय देखा था उसने—वो इस समय गेट पर नहीं था वर्ना निकल भागना मुश्किल हो जाता।
वो गेट के बाहर निकलता चला गया।
¶¶
“माई गॉड—ये तो जान छोड़कर भागा जा रहा है।”
“जैसे भूत पीछे लगे हो।”
“लंगड़ा भी रहा है।”
“कार स्टार्ट कर।”
ड्राइविंग सीट पर बैठे व्यक्ति ने कार स्टार्ट कर ली।
यशवन्त कोठारी भागता हुआ कार के समीप पहुंचा ही था कि पिछला दरवाजा खुल गया।
कोठारी चूहे की तरह कूदकर भीतर समा गया।
“कार आगे बढ़ाओ।” वो हांफते हुआ बोला।
कार आगे बढ़ गई।
उसने पीछे नजर मारी।
बांस जैसे जोरावर को सड़क पर खड़ा देखकर उसने झुरझुरी ली।
“बाप रे—राक्षस है राक्षस।” यशवन्त सीट की पुश्त से पीठ टिकाकर राहत भरे स्वर में बोला—“बाल-बाल बच गया। भागता नहीं तो टूटा-फूटा सड़क पर पड़ा होता।”
कार के चारों व्यक्तियों ने भी जोरावर को देखा।
यशवन्त सहित कार में पांच व्यक्ति थे।
जो कार चला रहा था उसका नाम नासिर था। कार चलाने में, ठीक करने में मास्टर था। उसकी बगल में फ्रन्ट सीट पर बैठा शख्स जगताप था। सिर के बाल छोटे, रंग गेहुआं, क्लीन शेव, आंखें सख्त, चेहरा कठोर।
पीछे की सीट पर रामेन्द्र चौधरी और सुदर्शन गुलाटी थे। रामेन्द्र चौधरी को सभी चौधरी के नाम से जानते थे। बेहद हिम्मती, हर स्थिति में हौसला रखने वाला, सांवला रंग, स्वस्थ शरीर, होंठ मोटे, चाकूबाजी में माहिर सुदर्शन गुलाटी—गोरा रंग, भूरी आंखें, आकर्षक व्यक्तित्व, औरतों का रसिया, मार्शल आर्ट का जानकार, अपने हाथों को ही हथियार मानता था, वैसे रिवॉल्वर भी रखता था।
यशवन्त कोठारी ताला खोलने में माहिर था। कैसा भी ताला हो—उसके हाथ लगते ही जैसे जादू के जोर से खुल जाता था। जगताप मास्टरमाइण्ड शख्स था। उसका दिमाग बहुत तेज काम करता था। वो प्लानर बहुत अच्छा था।
“उस बांस जैसे आदमी से डरकर भागे थे?” सुदर्शन गुलाटी ने तिरस्कार से कहा।
“उसमें राक्षस जैसी ताकत है। उसने एक हाथ से उठाकर मुझे ऐसे फेंक दिया जैसे खिलौना होऊं।” यशवन्त ने बांह से चेहरे का पसीना पौंछा।
“उस बांस ने?” जगताप ने हैरानी जाहिर की।
“उसका नाम जोरावर है।”
“होगा साला।” चौधरी गुर्राया—“मैं होता तो साले की मुण्डी कलम कर देता।”
“ऐसा मौका ही नहीं मिलता।”
“चिन्ता मत कर।” गुलाटी ने यशवन्त का कन्धा थपका—“अभी बहुत मौके आएंगे साले को निपटाने के।”
“अबे ये बोल कि बीवी से मुलाकात हुई?” नासिर ने कार बाएं मोड़ दी।
“हुई।”
“क्या हुआ?” चौधरी ने पूछा।
“मुझे इस प्रकार अचानक पाकर हक्की-बक्की रह गई। उसने मुझे साफ-साफ पहचाना।”
“फिर क्या हुआ?”
“हरामजादी ने इंकार कर दिया।” यशवन्त भुनभुनाया।
“क्या इंकार कर दिया?”
“यही कि मैं उसका खसम हूं।”
“अरे!” चारों चौंक पड़े।
“सच कह रहा हूं।”
“फिर क्या हुआ?” जगताप ने पूछा।
“फिर वही हुआ जो होना था। वो साला जोरावर पता नहीं कब पीछे आकर खड़ा हो गया था। साले ने एक हाथ से हवा में उठा लिया और पोर्टिको में फेंक दिया।
“कमाल है!” गुलाटी बोला।
“भागता नहीं तो हड्डी-पसली तोड़ देता।”
“ये सुनीता ने किया? तेरी पत्नी ने किया?”
यशवन्त ने होंठ काट लिए।
“उसने!” वो भारी स्वर में बोला—“जोरावर को आदेश दे दिया है कि अगर मैं बंगले के आस-पास भी नजर आऊं तो मेरे हाथ-पैर तोड़ दिया जाऐं।”
“बहुत कमीनी निकली।” नासिर ने कहा।
“मैंने भी तो उसे धोखा दिया था।” उसने ठण्डी सांस ली—“लौटकर उसकी खोज-खबर भी नहीं ली। जाहिर है उसको यही व्यवहार करना था।”
“फिर भी वो तेरी बीवी है।” गुलाटी ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा।
“है नहीं—थी। पांच साल वो मेरी बीवी नहीं रही।” यशवन्त ने ठण्डी सांस ली—“जब मैं उसे छोड़कर गया था—वो गर्भवती थी। मैं उसे मुसीबत में छोड़कर भागा था। अगर नहीं भागता तो मार डाला जाता। अमानत में खयानत की थी मैंने—जैकी के आदमी मेरी तलाश में थे। मेरे सामने जान बचाने का यही एक रास्ता था कि मैं शहर छोड़ दूं।”
“कितने का माल लेकर भागा था?”
“पांच लाख का लेकिन बाद में सोचा तो लगा कि वो मेरा लालच था जिसने मुझे फंसा दिया। छह महीने पहले मुझे सूचना मिली कि जैकी गैंगवार में मारा गया और उसका गिरोह छिन्न-भिन्न हो गया है। उस सूचना के बाद मेरी लौटने की हिम्मत हुई। यहां आया तो तुम लोगों से मुलाकात हुई। जैकी तो नहीं है। उसका डर भी नहीं है। लेकिन सुनीता शायद हाथ से निकल गई है। वैसे भी उससे मेरी शादी विधिवत नहीं हुई थी। मैं उसे लखनऊ से भगाकर लाया था। अपने साथ वो लाखों का माल लाई थी। नकदी... जेवर वगैरह...। उस दिन संयोग से उस पर नजर न पड़ी होती तो शायद पता ही नहीं होता कि वो अभी भी है और एक अमीर औरत बनकर ठाठ से जीवन जी रही है। मैंने तो समझ लिया था कि कहीं मर-खप गई होगी।”
“वो बंगला ही पचास-साठ लाख का होगा।” जगताप ने कहा।
“जिस ऑफिस में बैठती है वो इमारत ही कम-से-कम पांच करोड़ की होगी।” यशवन्त ने धीरे से कहा—“पता नहीं बाघमारे इण्डस्ट्रीज के सर्वेसर्वा कैसे बन गई। कोठारी से बाघमारे हो गई। पता चला है कि वाघमारे ने उसे गोद ले लिया था। मरते समय उसे उत्तराधिकारी बना गया। अब सदाशिव की सारी चल-अचल संपत्ति की वहीं वारिस है।”
“वाघमारे के अपना कोई नहीं था?”
“क्या पता?”
“अबे तू उसका पति है।” नासिर बोल उठा—“इत नाते तेरा हक भी उस प्रॉपर्टी पर है।”
“बशर्ते सुनीता मुझे अपना पति स्वीकार करे—जिसकी दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है। उसने आज जो बर्ताव किया है उसको देखते हुए नहीं लगता है कि कुछ हो सकेगा।” यशवन्त के स्वर में निराशा थी।
जगताप की आंखों में एक खतरनाक चमक आई—“निराश होने की जरूरत नहीं है। अभी भी बहुत कुछ हो सकता है।”
“सुनीता नहीं मानेगी।”
“उसे मानना पड़ेगा।”
“मैं नहीं समझता कि ऐसा कोई रास्ता है।”
“तुम एक काम करो।”
“क्या?”
“देखो—जब तुम भागे थे—वो गर्भवती थी न?”
“हां।” यशवन्त ने असमंजस से सिर हिलाया।
“तब तुम एक काम करो।”
“क्या?”
“ये पता लगाओ कि अगर उसकी डिलीवरी हुई थी तो क्या हुआ था? बच्चा या बच्ची जो भी हुआ होगा—अब वो लगभग पांच साल का होगा। वो कहां है? अगर उसके पास ही है तब तो कोई बात नहीं। हो सकता है किसी हॉस्टल में रखा हो।”
यशवन्त का दिल धड़क उठा।
जगताप की बात का अर्थ उसकी समझ में आ गया था।
“तुम क्या करने की सोच रहे हो?”
“तुम्हारा भला और तुम्हारे साथ ही अपना भी भला।”
“एक बच्चे के द्वारा?”
“हां।” जगताप ने कठोरतापूर्वक कहा—“सुनीता को रास्ते पर लाने का यही एक तरीका है। और उसे ही क्यों, किसी को भी झुकाना है, अपनी बात मनवानी है, रास्ते पर लाना है तो उसकी कमजोर नस का पता लगाओ। सुनीता की कमजोरी उसका बच्चा हो सकता है। उसी के द्वारा वो काबू में आ सकती है। एक मां के लिए उसकी सन्तान सबसे कमजोर नस होती है।”
“इससे तो सुनीता मुझसे और भी ज्यादा नफरत करने लगेगी।”
“और झुकेगी भी।”
कार में सन्नाटा छा गया।
जाने क्यों हर यशवन्त का दिल दहल गया।
“तुम करना क्या चाहते हो जगताप?” चौधरी ने पूछा।
“मैं कोठारी को करोड़पति बनाना चाहता हूं।” वो क्रूरतापूर्वक बोला—“सुनीता इसकी पत्नी है। इसके सैकड़ों गवाह मिल जाएंगे। सुनीता की लाख कोशिशों के बाद भी—गवाहों के बल पर साबित किया जा सकता है कि वो यशवन्त की पत्नी है। एक बार साबित हो जाने के बाद यशवन्त करोड़ों में खेलने लगेगा। उस पर दबाव बनाने के लिए सन्तान काम आयेगी!”
जगताप की खोपड़ी ने अपना कमाल दिखा दिया था।
यशवन्त को लग रहा था कि ये ठीक नहीं होने जा रहा है। मगर तीर कमान से निकल चुका था।
एक अनदेखे, अन्जाने भय से उसका मन घिर गया।
वो जानता था कि चारों किसी शैतान से कम नहीं है। वो चाह कर भी उनका विरोध करने की हिम्मत अपने में नहीं पाता था।
कार भागी जा रही थी।
एक भयानक षड्यन्त्र जन्म ले चुका था।
¶¶
रात के सन्नाटे में उस पतली चीख ने दूर-दूर तक पूरे माहौल को झकझोर कर रख दिया।
कार ड्राइव कर रहे दिलीप शाण्डिल्य और उसकी बगल में फ्रन्ट सीट पर बैठे बबूना—दोनों ने उस चीख को सुना। एकदम साफ-साफ सुना। चीख पास से ही आयी थी।
दिलीप शाण्डिल्य का पैर स्वतः ब्रेक पेडल पर चला गया।
तेजी से जाती कार धीमी हो गई। उसने कार को सड़क से उतार कर बाईं ओर लिया तथा फुटपाथ से सटाकर रोक दिया।
“तुमने चीख सुनी बबूना?”
“सुनी तो लेकिन अनुमान नहीं लगा सका कि किधर से आयी है?” बबूना ने चारों तरफ दृष्टि दौड़ाते हुए उत्तर दिया।
दिलीप ने इग्नीशन को घुमाकर इंजन बन्द किया और दरवाजा खोलता हुआ बोला—“आओ देखते हैं। ऐसा लगता है चीखने वाली का मुंह दबा दिया गया है।”
बबूना कुछ बोला नहीं।
दिलीप के साथ वो भी कार से उतर आया।
हर तरफ खामोशी और सन्नाटे का साम्राज्य था।
सड़क के दोनों तरफ ऊंची-ऊंची इमारतें खड़ी थीं—अन्धेरे में डूबी। स्ट्रीट लैम्प किसी संन्यासी की तरह चुपचाप खड़े थे। हवा में ठण्डक थी। अक्टूबर का अन्तिम सप्ताह चल रहा था। सर्दी ने अपने पैर जमाने शुरू कर दिए थे।
सहसा दोनों ने विचित्र-सी आवाज सुनी। ऐसी आवाज जो छीना-झपटी तथा उठा-पटक से उत्पन्न होती है।
बबूना की नजर एक गली पर जा टिकी। सड़क के दूसरी तरफ दो इमारतों के बीच की गली।
“गड़बड़ उसी गली में है।” उसने कहा—“वो कार भी खड़ी है। शायद किसी लड़की को अगवा करने की कोशिश की जा रही है और वो लड़की विरोध कर रही है।”
“यार कारें तो कई खड़ी हैं।”
“लेकिन नीले रंग वाली ठीक मुहाने के सामने ही खड़ी है। दूसरी कारें तो फुटपाथ पर हैं।”
दिलीप ने सिर पर हाथ फिराया।
बबूना की बात सही थी।
“चलो देखते हैं।”
दोनों ने तेजी से सड़क पार की। कार के समीप पहुंचकर ठिठके ही थे कि सहसा धमाके की आवाज सुनाई दी। उसी के साथ किसी के कदमों की भागने की आवाज उभरी और फिर गली के मुहाने पर एक युवती नजर आयी बदहवास अवस्था में।
“पकड़ो उस हरामजादी को।” कोई पुरुष स्वर दहाड़ा।
लड़की भागी। पता नहीं उसने दिलीप और बबूना को देखा था या नहीं क्योंकि वो दिलीप से टकराई। दिलीप ने संभाला उसे। फिर बांह थाम ली उसकी। तभी गली के मुहाने पर दो व्यक्ति नजर आये। दोनों भीतर से लगभग दौड़ते हुए आये थे।
उन दोनों ने युवती और दिलीप तथा बबूना को देखा।
“ऐ—लड़की के पास से हट जाओ।” एक गुर्राया।
उसी समय उन दोनों के बीच एक दूसरा व्यक्ति नमूदार हुआ। वो टी-शर्ट और पेंट में था। बाकी दोनों शर्ट पैन्ट में थे। चेहरों से तीनों ही गड़बड़ लग रहे थे।
युवती ने सलवार सूट पहन रखा था जो जगह-जगह से मसला और फटा था। दुपट्टा गायब था। भय और आतंक से उसका सुंदर चेहरा सफेद पड़ा हुआ था।
“म... मुझे बचाइए...।” वो घिघियाकर बोली—“ये लोग मेरी इज्जत लूटना चाहते हैं। मुझे जबरदस्ती उठाए लिए जा रहे थे।”
“घबराओ नहीं... अब कुछ नहीं होगा।” दिलीप ने शांत और स्थिर स्वर में कहा—“तुम सड़क के पार खड़ी मारुति में चलकर बैठो आराम से।”
“ऐ छोकरों !” इस बार पीछे खड़ा शख्स आगे बढ़ा—“तुमने सुना नहीं—हमारे और छोकरी के बीच में मत आओ—उसे छोड़कर अपना रास्ता नापो।”
“हम रास्ता नापने का काम नहीं करते।” दिलीप ने सपाट आवाज में कहा।
“बल्कि तुम जैसों की गर्दन नापने का काम करते हैं।” बबूना प्रसन्न स्वर में बोला—“क्यों बड़े भाई?”
“एकदम ठीक कहा छोटे।”
“ये तीनों तो पिद्दी लग रहे हैं।”
“बल्कि पिद्दी का शोरबा।”
“साले एक लड़की को काबू में नहीं कर पाए।”
“जनखे हैं साले।”
“बड़े भाई, ये जनखे क्या होता है?”
“अरे वही—जिनको छक्के कहा जाता है। इस बार तो मध्य प्रदेश से एक विधायक और एक सभासद भी बन गया है।”
“यानी ये लोग उनसे भी गए बीते हैं।”
“और क्या?”
“खामोश!” टी-शर्ट वाला दहाड़ा। उसके दाएं हाथ में रिवॉल्वर नजर आने लगा उसने अपने दोनों साथियों का आदेश दिया—“छोकरी को पकड़ो!”
दोनों आगे बढ़े। उनके चेहरों के भाव अच्छे नहीं थे।
“देखो भाई लोगों—जरा सोच समझकर आगे बढ़ना।” बबूना ने तीखे स्वर में कहा—“अगर कोई टूट-फूट हो गई तो मेरी जिम्मेदारी नहीं।”
टी-शर्ट वाले ने दांत पीसे—“मैं आखिरी बार कहता हूं—छोकरी को छोड़कर अलग हट जाओ वर्ना मैं गोली मार दूंगा।”
“बड़े भाई।” बबूना ने डरने का अभिनय किया—“ये हरामी तो गोली मारने की धमकी दे रहा है।
“गधा है। इसको मालूम नहीं है कि हम लोग कौन हैं।”
तभी टी-शर्ट वाले का रिवॉल्वर वाला हाथ ऊपर उठा। मगर सिर्फ उठकर ही रह गया। फायर नहीं कर पाया। बबूना का शरीर कब अपनी जगह से उछला, कब उस तक पहुंचा और कब उसके हाथ से रिवॉल्वर निकल गया—उसको तब पता चला जब उसका शरीर हवा में उड़ता हुआ गली के मुहाने पर खड़ी कार से टकराकर जमीन पर गिरा और उसके कण्ठ से पीड़ा भरी तेज कराह निकली।
सबकुछ पलक झपकते हो गया था।
उसके दोनों साथी मूर्खों की तरह खड़े देखते रह गए।
“बड़े भाई इसका बल्ब को फ्यूज हो गया।” बबूना का उपहास भरा स्वर उभरा।
“इन दोनों का भी फ्यूज उड़ा ही समझो।” दिलीप ने अपनी जगह से उछाल ली।
वे दोनों जब तक ये समझ पाते कि उनके साथ क्या होने जा रहा है—दिलीप के दोनों टांगे उनसे शरीरों से टकराई। हवा में विचित्र-सी चीखें उभरीं और वे दोनों दस-दस फुट दूर जा गिरे।
“ये दोनों भी गए?” बबूना ने मासूमियत से पूछा।
“ठीक कहा छोटे—ये दोनों भी गए।” दिलीप ने बेचारगी से कन्धे उचकाए।
टी-शर्ट वाला लड़खड़ाते हुए उठकर बोला—“तुम दोनों ठीक नहीं कर रहे हो। अपनी मौत को दावत दी है तुमने।”
“अबे तू भगवान है क्या जो किसी को मारना न मारना तुम्हारे हाथ में है?” बबूना ने घुड़का—“अभी तुझे नहीं मालूम कि हम क्या चीज हैं?”
उसी समय एक विचित्र घटना घटी।
ऐसी घटना जिसने उन दोनों को भी स्तब्ध कर दिया।
अचानक ही दो तेज रफ्तार गाड़ियां वहां आकर रुकी। उनके रुकने से पूरा माहौल जैसे थर्रा गया।
गाड़ियों के रुकते ही धड़ाधड़ उनके दरवाजे खुले। दोनों ही गाड़ियों से हथियारबन्द लोग बाहर निकले। डील-डौल, चेहरे-मोहरे और हाव-भाव से वे सब अत्यन्त हिंसक मूड में थे।
सभी के हाथों में ऑटोमेटिक हथियार थे।
पूरे वातावरण में तनाव भरी दहशत फैल गई।
“लोबो...।” युवती उन लोगों में से एक शख्स की ओर लपकी।
“तुम कार में बैठो बेबी।”
लोबो उन सब में लम्बा-चौड़ा, काला भुजंग शख्स था। उसका चेहरा आबनूस की लकड़ी की तरह चमक रहा था।
“लोबो।” युवती जल्दी से बोली—“इन दोनों ने मुझे बचाया है। इनसे कुछ मत कहना।”
लोबो के चेहरे पर कोई भाव नहीं उभरा।
उसकी नजर टी-शर्ट वाले के साथ ही उसके दोनों साथियों पर गई। दोनों पत्थर के बुत की तरह खड़े रहे। आतंक ने उनको जड़ बना दिया था।
¶¶
उन लोगों के इस प्रकार आ जाने से दिलीप और बबूना, भी सकपका गए थे। उनको नहीं मालूम था कि वो लोग कौन थे? वो युवती कौन थी, मगर इतना समझ गए थे कि लड़की किसी महत्वपूर्ण शख्स की बेटी थी और लोबो सहित बाकी लोग उस शख्स के नौकर। सम्भवतः वे सब शहर के अपराध जगत से सम्बन्धित थे।
“तुम कार में जाओ बेबी।” लोबो फिर बोला।
“लेकिन।” युवती ने कहना चाहा।
“इन दोनों को कुछ नहीं होगा।”
युवती ने राहत की सांस ली थी।
“वो कार तुम दोनों की है?” लोबो ने दिलीप तथा बबूना की ओर देखा।
“हां।” दिलीप ने सिर हिलाया।
“तुम लोग भी जाओ।”
“तुम क्या करने जा रहे हो?”
“बेबी के साथ ऐसा व्यवहार करने वालों के साथ क्या किया जा सकता है? या क्या करना चाहिए?”
“इनको पुलिस को सौंप दो।”
“पुलिस...।” लोबो के सफेद दांत चमके—“पुलिस क्या करेगी? हम लोग अपने मामले में पुलिस को नहीं डालते।”
“लेकिन कानून को अपने हाथ में लेना गलत है।”
“फिर ये तीनों क्या कर रहे थे?” लोबो का स्वर सख्त हो गया—“बेबी के अपहरण की कोशिश, उसके साथ बदसलूकी, उसकी इज्जत लूटने की कोशिश—ये कानून हाथ में लेना नहीं है?”
“मगर कुछ हो नहीं पाया।”
“हो जाता तो?”
“कैसे होता?” बबूना ने छाती फुलाई—“मां बदौलत जो ऐन टाइम पर पहुंच गए—और जहां हम लोग पहुंच जाते हैं किसी की मजाल है जो कुछ कर सके। इन तीनों की हालत नहीं देख रहे हो—सालों की दूर से ही मिट्टी खराब लग रही है।”
“तू बहुत बोलता है।” लोबो ने घूरा उसे।
“क्यों, बोलने पर भी पाबंदी है क्या?” बबूना ने उसकी आंखों में झांकते हुए कहा—“माई डियर लोबो—इस देश में प्रजातन्त्र है और प्रजातन्त्र का मतलब...।”
“ये बहुत बोल रहा है लोबो।” तभी बीच में ही एक व्यक्ति बोल पड़ा—“छटांक भर का तो है। इन दोनों को भी तीनों के साथ निपटा दो—झगड़ा खत्म।”
“वाह-वाह... क्या बात कही है...!” बबूना ने बोलने वाले की ओर सिर घुमाकर देखा—“किस खेत की मूली हो भई—बहुत कड़वे लगते हो।”
“लोबो!” एकाएक युवती ने तेज आवाज में हस्तक्षेप किया—“यहां से चलो। रुकने से कोई फायदा नहीं है। गश्ती पुलिस आ सकती है।”
और फिर जो हुआ उसकी कल्पना तक नहीं थी दिलीप या बबूना को। लोबो ऐसे हिला जैसे जाने के लिए पलट रहा हो। दिलीप और बबूना ने भी समझा कि चलो तीनों की जान बची। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। हुआ ये कि लोबो ने कब रिवॉल्वर निकाली—कब फायर किया ये उन दोनों को तब पता चला जब तीन धमाके हुए और वे तीनों कटे वृक्ष की तरह जमीन पर ढेर हो गए।
उसके बाद वे सब बिना कुछ बोले पलटे और युवती सहित कारों में समा गए।
देखते-देखते दोनों कारें हवा से बातें करती वहां से रवाना हो गईं।
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Additional information
Book Title | महाबली : Mahabali by Sunil Prabhakar |
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Isbn No | |
No of Pages | 288 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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