लाश से पंगा मत लो
“धड़ाम....बड़ाम....धड़ाम....।” मेरे चारों तरफ धमाके से गूंजते चले गये थे। आग की लपटें लगा था जैसे आसमान को छू लेने को आतुर हो रही हों, धूल के गुब्बार थे कि बादलों के समान चारों तरफ फैलकर अपने आंचल में सभी कुछ समेटने को बेताब हो गये हों।
मिट्टी, पत्थर और रेत का गुब्बार धमाकों के साथ शर्तिया बहुत तेजी से चारों तरफ फैलता चला जा रहा था।
और मैं....मैं आपके सपनों की रानी, आपके दिलों की मल्लिका, आपके दिलों पर राज करने वाली आपकी चहेती, हिन्दोस्तान की लाडली मां भारती की अल्हड़ बेटी रीमा भारती, उन धमाकों के बीच फंसी उस चुहिया की भांति सहम गयी थी, जिसके चारों ओर अचानक ही ढेरों बिल्लियां आकर उसे तलाश रही हों।
और वह खुद को बचाने को बेताब, घबराई-सी बस छुपने की कोशिश कर रही थी ताकि वे दुश्मन रूपी बिल्लियां उसे ना देख लें।
तभी वातावरण में घायल सिंह की गर्जना जैसा स्वर उभरा था, लगा था जंगल का राजा शेर दहाड़ उठा हो—“रीमा भारती, हम जानते हैं तू यहीं छिपी है, हमारी सेना के जवानों ने इस जगह को पूरी तरह घेर लिया है, हम चाहें तो बम बरसाकर तेरा तिया-पांचा कर दें, मगर नहीं....हम ऐसा हर्गिज नहीं करेंगे, क्योंकि हमने तुझे जिन्दा पकड़ने की कसम खाई है, हम तुझे जिन्दा ही पकड़कर अपने महामहिम शलूका के पास ले जायेंगे, तू समझदार है हम नहीं चाहते कि तू हिदोस्तां की बेटी इतनी बुरी मौत मारी जाये....हम कभी नहीं चाहेंगे कि रीमा भारती का अन्त इतना छोटा हो, सो हमारे पांच गिनने तक तू हाथ उठाकर हमारे पास आ जा तो शायद हम तेरे साथ कुछ रियायत कर दें....तेरी जिन्दगी बख्श दें....वरना तो तू जानती ही है कि हम क्या करने पर उतारूं हैं और क्या कर सकते हैं....हमारी गिनती शुरू हो रही है रीमा भारती—एक दो....।” वह गिनने लगा था।
“मैं आ रही हूं कमाण्डर....!” मैंने फुर्ती से दुश्मन की गिनती पूरी होने के पूर्व ही कहा था।
“कोई गोली ना चलाये....।” कमाण्डर फुंकारता-सा चीखा था।
मैं उठकर खड़ी हो गयी।
दोनों हाथ उठाये मैं अब आगे बढ़ती उस तरफ जा रही थी, जिधर कमाण्डर अपनी जीप और अपने साथी सैनिकों के साथ खड़ा था।
रीमा भारती ने जब दोनों हाथ उठाये, तब उसने देखा था कि वाकई चारों तरफ छुपे खड़े सैनिक तुरन्त ही हथियार उठाये उन्हें तानकर खड़े हो गये थे।
कमाण्डर ने सही ही कहा था कि मैंने अगर उसकी बात ना मानी होती तो मैं अब तक लाश में बदल चुकी होती। यानि वे सैनिक मेरे जिस्म को छलनी कर चुके होते।
मगर मैं भी जानती थी कि इन लोगों के द्वारा पकड़े जाने पर मैं वाकई अपने जीवन के बचाव में प्रयत्न कर सकती थी।
कमाण्डर हकलान के आदेश पर मेरे दोनों हाथों को पीठ पर कसकर बांध दिया गया था, मैं बेबस होकर जीप में उनके द्वारा धकेले जाने पर गिर पड़ी थी, यानि मैं औंधी फर्श पर पड़ी थी। लपककर सैनिक गाड़ियों में समा गये थे।
देखते-ही-देखते वह काफिला चल पड़ा था।
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मैं एक सैनिक जेल में बन्द थी।
अगर उसे जेल ना कहकर नरक की-सी यातना कहा जाये तो काफी बेहतर होगा, नरक में तो फिर भी कुछ गुंजाइश रहती है, जहां यमदूत कुछ-ना-कुछ छूट कर देते हैं, मगर यहां के इन सैनिक दूतों ने तो मेरे लिये ऐसी व्यवस्था कर दी थी कि मैं सही ढंग से खड़ी भी नहीं हो पा रही थी।
मेरे दोनों हाथों को छत में लगे हुकों में लटकी जंजीरों की सहायता से बांध दिया गया था।
दीवारों में यानि चारों दिशाओं में चार नुकीले भाले बिल्कुल आमने-सामने लगे थे, वे भाले जिनकी नोक मेरे जिस्म से मात्र दो इंच दूर थी। अगर मैं जरा-सा भी इधर-उधर हिलती तो वे भालों की नोक मेरे जिस्म में चुभकर मुझे दर्द पहुंचाती थीं। या यूं कहा जाये कि मैं जख्मी होकर रह जाती थी।
अगर मैं जरा भी रेस्ट लेती तो तभी वे भाले अपना काम कर देने को व्याकुल नजर आते थे।
जबकि मेरा जिस्म पूरी तरह से दुखकर खड़े-खड़े अकड़कर रह गया था, मैं बुरी तरह अकड़ रही थी। इस अकड़न से मेरा जिस्म सुन्न होता जा रहा था। मैं एक पल के लिये भी हिल नहीं पा रही थी।
इसी अवस्था में मुझे खड़े-खड़े पूरा दिन गुजर गया था। मगर ना तो कमाण्डर हकलान आया था, ना ही कोई और जो वहां आकर मेरी स्थिति, मेरे मरने-जीने की खबर ले सकता।
मुझे इन्तजार करना था, वह इन्तजार जो ना जाने कितना लम्बा था, या वह खत्म भी होने वाला था या नहीं।
“आह....ऽऽ....।” विचारों में गुम मेरा जिस्म हल्का-सा ढीला क्या पड़ा मेरे जिस्म में भाले की नोंक चुभती चली गयी थी और होठों से चीख उभर पड़ी थी। मैंने जल्दी से स्वयं को सीधा किया था।
तभी मैंने महसूस किया कि कुछ लोग उसी गैलरी में घूम रहे हैं, जो अभी घूमने लगे थे।
“ऐ....मेरी बात सुनो....।” सामने से गुजरते सैनिक को मैंने पुकारा।
वह बस मुझे घूरकर चला गया था।
मैं समझ गयी थी कि हो या ना हो उन्हें ये ही आदेश दिये गये हैं कि वे मेरे साथ बातें ना करें।
मैंने अब खुद को वक्त के हाथों छोड़ दिया था। मैं इससे ज्यादा कर भी क्या सकती थी।
सहसा मैं उस वक्त के बारे में सोचकर वक्त गुजारने लगी, जिस वक्त मैंने चीफ के दबाव में आकर मिशन ‘द डैथ’ लिया था, ‘द डैथ’ यानि मौत। यही नाम चुना था मैंने इस खतरनाक मिशन का। जो वाकई सच होता लग रहा था।
मैं नहीं जानती थी कि किस मिशन का नाम ‘द डैथ’ रखा गया है यही मिशन आज मेरे लिये ‘मौत’ बनता जा रहा था।
मैं खुद उसी मिशन की गोद में खड़ी थी।
मैं खुद कांप रही थी, खुद को सम्भालने में मैंने पूरी ताकत लगा रखी थी, मैं नहीं चाहती थी कि वे भाले मेरे जिस्म को घायल कर दें या मैं परेशानी में फंस जाऊं।
मेरी आंखों के सामने सत्रह मई का वह सीन घूमता चला जा रहा था ठीक ऐसे जैसे मेरे सामने पर्दे पर फिल्म चलने लगी हो। मैं यादों के पूर्व विचारों के गर्त में डूबती जा रही थी।
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