लाश की गवाही
सुनील प्रभाकर
“मुझे तुम पर क्रोध आ रहा है यार शर्मा।”
“क...क्यों?” अधेड़ शर्मा सकपकाया—“क...कैसी बात कर रहे हो गुप्ता भाई—मैं तो सोच रहा था कि तुम ये सब देखकर प्रसन्न हो जाओगे—पूरे पचास रुपए खर्च करके और रिस्क उठाकर ये ब्लू फिल्म लाया। वीडियो लाइब्रेरी भारत चौक पर है। जहां से झगड़े का आरंभ हुआ। और कोई होता तो वो कर्फ्यू उठते ही घर के आवश्यक सामान लेने के लिए भागता, किंतु मैं कैसेट लेने के लिए भागा। ये सोच कर कि बीवी-बच्चे तो दिल्ली गए हैं। तुम्हे बुलाकर इकट्ठे ही 'रेप-सीन' से आंखें सेकेंगे। मेरे विचार से तो 'मूवी' में कोई कमी नहीं है।”
“मूवी तो एक्सीलेंट है। कैमरामैन 'न्यूड सीन' संसेशनल तरीके से क्रिएट कर रहा है...।”
“फिर भी तुम्हें मुझ पर क्रोध आ रहा है?” शर्मा ने हैरानी व्यक्त की।
“उसका कारण दूसरा है यार।” बोलने वाले अधेड व काले गुप्ता की आंखें वी०सी०आर० पर चल रहे 'रेप-सीन' पर टिकी थीं—“और वो ये कि मैं विधुर हूं। दो वर्ष हुए तुम्हारी भाभी को 'एक्सपायर' हुए। इस कम्बख्त कर्फ्यू के कारण 'कोठे' पर भी नहीं जा सकता। ऊपर से तुमने ये ब्लू फिल्म चला दी। समूचे शरीर में तेजाब-सा तैरने लगा है।”
शर्मा 'हो हो' करके हंस दिया और फिर अपने पड़ोसी राम प्रसाद गुप्ता की पीठ पर धौल जमाते हुए बोला—“आयम सॉरी गुप्ता भाई, इस बारे में तो सोचा ही नहीं था मैंने। लो...मैं बंद किए देता हूं।”
“न-नहीं...।” रामप्रसाद ने शर्मा के हाथ से रिमोट छीना और 'प्ले स्विच' पुश करते हुए बोला—“अब तो पूरी ही चलेगी।”
“किंतु..।” शर्मा के सांवले होठों पर कुत्सित व अर्थपूर्ण मुस्कान रेंग उठी—“बाद में क्या होगा प्यारे? कर्फ्यू के कारण कोठे पर तो जा नहीं सकोगे।”
कोई उत्तर नहीं दिया राम प्रसाद गुप्ता ने—पूर्ण तन्यमयता से वी०सी०आर० पर चल रहे 'रेप सीन' को देखता रहा बस।
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शर्मा के मकान की छत से अपने मकान की छत पर उतरकर रामप्रसाद जीने की सीढ़ियों से अपने कमरे में पहुंचा।
“बहू...।” पलंग पर बैठ कर जूते उतारते हुए चीखा—“खाना ले आओ। बड़े जोरों की भूख लगी है।”
“खाना ले आई हूं बाबूजी...।”
“आं...!” स्वयं को संभालते हुए बोला—“मेज पर रख दो बहू।”
मेज पर कुछ पत्रिकाएं व अन्य सामान बिखरा पड़ा था—राम प्रसाद की विधवा बहू ने खाने की थाली स्टूल पर रखी और फिर झुककर मेज का सामान उठाने लगी।
यकायक ही सफेद साड़ी का आंचल सिर से खिसककर फर्श पर झूल गया—उसने सकपकाकर आंचल को दोबारा सिर पर रखा।
इस बीच रामप्रसाद की आंखों ने ब्लाउज के गले से बाहर झांकते दूधिया उरोजों को देखा—उसके मस्तिष्क में छनाका-सा हुआ और समूचे शरीर पर चीटियां-सी दौड़ गईं।
“कुछ और चाहिए बाबूजी?”
“आं...?” पहली बार उसकी दृष्टि 'बहू' के गुलाबी चेहरे पर 'स्टिकर' की भांति चिपकी—काजल विहीन आम की फांक सी आंखों में जाम झलक रहे थे—लिपस्टिक के बिना भी गीले व गुलाबी होंठ बहुत प्यारे लगे।
उसकी कनपटी पर हथौड़े-से पड़ने लगे—शरीर कुछ चिपचिपा-सा गया—गले में कांटे से चुभने लगे—थूक निगलते हुए फंसे-से स्वर में बोला—“क...कुछ नहीं...तु...तुम जाओ बहू...।”
“जी...।” वो पलटी और कमरे से बाहर चली गई।
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“ये...ये मुझे क्या हुआ था आज?” खाना खाते हुए वो सोचे जा रहा था—“बहू को देखकर मेरा ऐसा हाल क्यों हुआ? छः माह पूर्व एक्सीडेंट के फलस्वरूप राजेंद्र की डैथ होने पर बहू मेरे पास आ गई थी। इसका कोई सगा-संबंधी, यहां तक कि कोई सखी-सहेली भी नहीं। छः मास से मेरे साथ ही रहती चली आ रही है। इससे पूर्व तो मेरे मन में ऐसी भावना नहीं आई।”
निवाला वापस थाली में फेंकते हुए वो बड़बड़ा उठा—“कितना नीच व कमीना इंसान है तू रामप्रसाद! बहू के अंगों को देखकर तेरे मन में पाप जागा। वो...वो तेरे बेटे की विधवा है। तेरी बेटी के समान है। याद है तुझे वो क्षण...जब राजेंद्र उसे ब्याह कर लाया था? कमलेश तेरे सीने से लगकर रो पड़ी थी। बोली थी कि मुझ अभागिन ने तो अपने माता-पिता की सूरत भी नहीं देखी...आप ही आज से मेरे माता-पिता हैं। तूने भी तो इसके सिर पर ममत्व-भरा हाथ फिराकर भर्राए स्वर में कहा था कि अब तुम अनाथ नहीं हो बहू...तुम्हें बाप मिल गया और मुझे बेटी...।”
“उफ्फ...!” वो आंदोलित हो चला।
फिर लपककर उसने सेफ खोलकर 'बिन्नी' का हाफ निकाला और गटागट करके काफी सारी पी गया।
पलंग पर लेटकर सोने की चेष्टा करने लगा, किंतु नींद नहीं आ सकी—बहू का दूधिया शरीर, कजरारी आंखें व सुर्ख होंठ मानस पटल पर थिरकने लगे—एल्कोहल ने उसके मस्तिष्क में कैद वासना के शैतान को फिर जगा दिया—उसने स्वयं को रोकने की काफी चेष्टा की, किंतु सफल नहीं हो सका।
झटके के साथ पलंग से उठकर नीचे उतरा और कदमों को घिसटाते हुए कमरे से बाहर निकल गया।
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कमलेश के दरवाजे पर पहुंचकर वो ठिठका—दिल ने कहा—“वापिस लौट चल रामप्रसाद। ये तू कैसा अनर्थ करने जा रहा है नीच इंसान। क्या बेटी समान बहू के मुख पर ही वासना की कालिख पोत देगा?”
उसके कदम वापस मुड़े।
“बेटी समान ही तो है...बेटी तो नहीं...।” शैतान ने कानों में फूंक-सी मारी—“तू अपनी भूख मिटाने के लिए कोठे पर जाता है। हजारों रुपए खर्च करके सड़े-गले शरीरों को भोगता है। जबकि तेरे घर में ही स्वादिष्ट भोजन से भरी थाली है। फिर...फिर क्यों तू अपनी भूख को मारता है पगले!”
“न-नहीं...!” वो बड़बड़ाया—“ये...ये पाप है...।”
“कोई पाप नहीं है बुद्धू।” मस्तिष्क में कैद शैतान फुसफुसाया—“घर में छप्पन भोग के होते हुए भूखा मरने वाला बेवकूफ होता है।”
“कि...किंतु...ये बलात्कार होगा। ये पाप भी होगा और अपराध भी। कमलेश पुलिस में रिपोर्ट...।”
“क्या बच्चों जैसी बातें सोचता है तू भी नादान। कमलेश पुलिस में रिपोर्ट तो क्या करेगी...वो किसी से जिक्र भी नहीं करेगी...।”
“क...क्यों?”
“क्योंकि वो भी तेरी ही भांति भूखी है। छः महीनों से वो पुरुष स्पर्श के लिए तड़प रही है। तू बूढ़ा हो चला है किंतु औरत का शरीर भोगने के लिए तुझे कोठे पर जाना पड़ता है। जबकि कमलेश तो जवान है अभी। ये उसकी विवशता है कि औरत होने के कारण वो घर की सीमा को नहीं लांघ सकती। एक बात कहूं?”
“बो...बोल।”
“वो तेरा कतई भी विरोध नहीं करेगी। तड़पकर तेरे सीने से लिपट जाएगी और...।”
“और...?” वो व्याकुल हो चला।
“और तुझे पूरा सहयोग देगी...।”
“यदि न दिया तो...?” उसने थूक-सा निगला।
शैतान फुसफुसाया—“हो सकता है कि औरत होने के कारण वो विरोध करने का ढोंग रचे, किंतु मन-ही-मन में वो प्रसन्न होगी। ये भी हो सकता है कि वो सीरियसली तेरा विरोध करे और तुझे 'को-ऑपरेट' न करे, किंतु...।”
“किंतु...?”
“बाद में उसकी सुस्त भावनाएं भड़क उठेंगी। उसे आभास होगा कि तुझसे समझौता करके उसके नीरस व उबाऊ जीवन में बाहर आ सकती है। वो फिर तेरी होकर रह जाएगी। फिर वो होगी और तू होगा। तुझे इधर-उधर जाने की आवश्यकता नहीं होगी। हर रात उसकी बाहों में गुजरा करेगी। अब देरी मत कर पगले। पहले उसे 'को-ऑपरेट' के लिए राजी कर। यदि नहीं माने तो उसे जबरन अपनी बना ले। वो यही सोचेगी कि वो झूठी तो हो गई...रिश्ते की मर्यादा तो भंग हो ही गई। फिर क्यों वो इस अलौकिक सुख से वंचित रहे।”
रामप्रसाद कुछ क्षणों तक अनिश्चय व दुविधा के चक्रव्यूह में फंसा रहा—फिर वो दौड़कर अपने कमरे में पहुंचा—सेफ खोलकर उसने 'बिन्नी' का हाफ निकाला और बची-खुची शराब को उदरस्थ करके गहरी-गहरी सांसों से फेफड़ों को सेंकने लगा।
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