लहू से लिख दो जय हिन्द
उस युवती का रंग गोरा था।
खूब गोरा—किन्तु हल्की-सी सुर्खी लिए हुए।
ऐसा लगता था जैसे ताजे मक्खन भरे थाल के निकट से कोई होली खेलने के मूड में आया शैतान बच्चा गुलाल उड़ाता हुआ गुजर गया हो।
युवती की उम्र अधिक से अधिक चौबीस साल की थी। किन्तु उसके चेहरे की मासूमियत व बदन की कामनीयता उसे बीस वर्ष की दर्शा रही थी।
युवती की आंखें वीरान थीं, उनमें सोचों के साये थे। उसकी आंखें उस चार वर्षीय गोल-मटोल बच्चे को घूर रही थीं, जो कि एक बड़ी-सी रंगीन बॉल के पीछे यूं दौड़ रहा था जैसे अब गिरा....तब गिरा।
वह बॉल के निकट पहुंचता और झुककर बॉल पकड़ना चाहता। किन्तु बॉल उसके पांव की ठोकर पहले ही खा जाती और दूर चली जाती।
मनोहारी दृश्य था। केवल वही उस मनोहारी दृश्य में नहीं डूबी हुई थी।
बल्कि रीमा भी एक बेंच पर बैठी दिलचस्पी से उस दृश्य को देख रही थी।
रीमा!
भारत की सर्वश्रेष्ठ किन्तु गुप्त जासूसी संस्था आई.एस.सी. की नम्बर वन एजेंट, जो कि इन दिनों फ्री होने के कारण तफरीह के मूड में थी तथा अपने एक मित्र की प्रतीक्षा कर रही थी।
बॉल निकट आई, बच्चा भी निकट आया।
“सू....ऽ....ऊ......ऽ......।”
तभी रीमा के कानों में एक बेहद धीमा विचित्र-सा स्वर पड़ा।
रीमा चौंक गई।
अपने अनुभव के आधार पर उसने अनुमान लगाया कि वह हवा में प्रक्षेपित कोई नुकीली चीज थी, जो कि हवा को चीरते हुए गोली की गति से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रही थी।
रीमा की दृष्टि घूमी तो वह अवाक् रह गयी। वह एक तीन इंच लंबा नुकीला तीर था, जो कि बॉल के ऊपर झुके बच्चे की सीध में आगे बढ़ रहा था।
रीमा हतप्रभ! बेहद कम समय! वह चाहकर भी कुछ न कर सकती थी।
किन्तु तभी बच्चा झटके से सीधा हुआ। तीर उसके पांव की ठोकर खाकर ऊपर उठी बॉल में जा धंसा था।
“फर!” गुब्बारा फूटा। ढेर सारी गैस बच्चे के चेहरे से टकराई। बच्चे के लिये यह एक नया अनुभव था।
वह डरा।
कंठ से घुटी-घुटी सी चीख निकली। वह पीछे को गिरा। तभी!
“शू.....ऊं.......ऊं......ऽ.......!” पुनः वही स्वर और दूसरा तीर जो कि उसके सिर की सीध में आ रहा था। लेकिन कुछ दूर जमीन में जा धंसा था।
रीमा के जेहन में छनाका सा हुआ।
वो तीर बच्चे के सिर को लक्ष्य करके आया था, किन्तु बच्चे के गिर जाने के कारण वार खाली गया था।
रीमा की गरदन द्रुतवेग से उधर घूमी जिधर से वे छोटे-छोटे करिश्माई तीर आये थे।
रीमा की दृष्टि वहीं ठिठककर रह गई थी, जहां से तीर आये थे।
उसकी दृष्टि एक घने पेड़ पर टिक कर रह गई। वहां इतनी घनी टहनियां थीं कि देखकर यही अनुमान होता था कि एक साथ कई व्यक्ति वहां स्वयं को छुपा सकते थे।
जाहिर था कि वो तीर वहीं से छोड़े गये थे।
वहां कोई था। कोई ऐसा जिसका निशाना अचूक था।
उसी ने तीर चलाये थे। तीर का लक्ष्य बच्चे का सिर था किन्तु बॉल से निकली गैस से डरकर पीछे को उलट गया था और बच गया था।
“ऐ.....ऽ......।”
चीखते हुए रीमा ने उस पेड़ की ओर छलांग लगा दी थी।
“शूं.....ऊ.....!”
उसका हल्का-सा स्वर पुनः उभरा।
रीमा ने देखा।
रीमा की सांस फेफड़ों मे फंसती चली गई। जिस बच्चे को बचाने के लिये उसने छलांग लगाई थी, वह एक बार फिर मौत के जाल में फंस चुका था।
पुनः चला तीर उसके सिर की सीध में जा रहा था।
उधर बैंच पर बैठी वो युवती, जो कि उस बच्चे की मां अथवा आया थी, को कुछ पता न था। वो इस समय दूसरी तरफ देखने लगी थी।
किन्तु!
एक कहावत है कि जाको राखे साइयां! मार सके न कोय।
यही हुआ, एकाएक बच्चा उठ बैठा था।
अतः तीर उसके बालों को छूता जमीन में वहीं जा धंसा, जहां पहला तीर धंसा था।
बच्चा उठा।
इधर वो औरत भी उठी।
किंतु!
औरत वर्तमान स्थिति से अनजान थी। मौत किन-किन रूपों में बच्चे पर हाथ डाल चुकी थी।
वह इस बात से पूरी तरह अनजान थी कि कोई बच्चे की जान लेना चाहता है।
इधर महिला बच्चे तक पहुंची।
उसने उसे अंक में भरा। चूंकि उनकी पीठ उधर हो गयी जिधर से तीर चल रहे थे।
अब बच्चा पूरी तरह उसके अंक में सुरक्षित था।
उधर!
रीमा के हाथ जमीन से टकराये ही थे कि उसने उस पेड़ पर से एक व्यक्ति को छलांग लगाकर भागते देखा।
हालांकि बाहर अभी अंधेरा उतना घना नहीं हुआ था किन्तु पेड़ों की छांव में अंधेरा अपने पांव पसार चुका था।
वह कूदकर उधर आया जिधर पेड़ों का झुरमुट था।
“ऐ......!” रीमा दहाड़ उठी—“रुक....वरना...!”
प्रत्युत्तर में दौड़ते हुए वह घूमा।
रीमा ने देखा।
उसके हाथ में एक लंबी नाल का विचित्र-सा रिवॉल्वर था।
उसकी नाल उसकी रिवॉल्वर से लंबी थी।
और फिर!
उसने दो बार ट्रेगर दबाये।
“सांय.....सांय....!”
दो तीर छूटे।
रीमा सावधान थी।
ऐसे संवेदनशील अवसरों पर उसके शरीर का एक-एक रोयां सतर्क होता है मित्रों। वह ऐसे समय में साक्षात् रणचण्डी का रूप धारण कर चुकी होती है।
रीमा भारती!
भारत की सर्वाधिक गुप्त व महत्वपूर्ण जासूसी संस्था आई.एस.सी. की नंबर वन एजेंट।
एक सर्वश्रेष्ठ ऐयारा।
जिसके नाम का जिक्र मात्र उसके मित्रों की तबियतें मालामाल कर दिया करता था, जबकि दुश्मनों के खेमों में उसके पांवों की हल्की सी आहट खलबली-सी मचा दिया करती थी।
वही रीमा भारती इस वक्त फ्री थी और जैसा कि स्वाभाविक है कि फ्री होते ही रीमा सबसे पहले अपने दोस्तों की खबर लिया करती थी।
उसने वही किया था।
उसे प्रेम प्यारे परदेसी की याद आई थी। किन्तु उसकी याद आते ही दोहरी घटना घटी थी।
उसी वक्त स्वयं प्यारे का फोन उसके पास आ गया। रीमा ने फोन रिसीव किया।
वह फौरन रीमा भारती से मिलना चाहता था।
प्यारे ने रीमा को मिलने के लिए गुलमोहर पार्क में बुलाया था। चूंकि वहां गुलमोहर के पेड़ों की बहुतायत थी इसलिये उसे गुलमोहर पार्क कहा जाता था।
फिलहाल!
रीमा वहां पहुंची थी। किन्तु परदेसी अभी न आया था।
प्रेम प्यारे....उसका मित्र !
पूरा नाम प्रेम प्यारे परदेशी!
जो कि कभी अण्डरवर्ल्ड से ताल्लुक रखता था किन्तु उसका वास्ता रीमा से पड़ा तो रीमा की प्रेरणा से उसने जुर्म की दुनिया को अलविदा कह दिया।
इसके अतिरिक्त रीमा के साथ मुंबई चला आया वह।
रीमा की सोहबत रंग लाई थी। किन्तु!
अब प्रश्न ये उठता था कि प्रेम की आजीविका कैसे चले?
प्रत्येक व्यक्ति के पास जिंदा रहने के लिये कोई न कोई धंधे का होना जरूरी होता है।
तब!
रीमा ने सलाह दी थी। यही नहीं, बल्कि उसे पैसा देकर एक बार ऐण्ड रेस्टोरेंट खुलवा दिया था।
खैर! प्रेम ने छः बजे आने का वायदा किया था। छः बज चुके थे किन्तु वह नहीं आया था और उसकी प्रतीक्षा के दरम्यान ही पार्क के भीतर ये घटना घट गई थी।
परिणामस्वरूप हालात ये थे कि दो तीर उसकी ओर झपटे थे। ठीक गोली की गति से।
रीमा!
उसने छलांग लगाकर अपना स्थान छोड़ा।
“सांय....सांय....।”
दोनों तीर हवा को काटते निकल गये थे।
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