कृष्ण बना कंस : Krishna Bna Kans by Anil Saluja
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कृष्ण बना कंस : Krishna Bna Kans
Anil Saluja
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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कृष्ण बना कंस
अनिल सलूजा
“खट-खट-खट...।”
भारी बूटों की आवाजें सुनकर जेल में बन्द किशन की आंखें खुलीं, फिर बन्द हो गईं।
मगर आंखें बन्द करते वक्त, उसने अपनी पलकों के बीच इतनी झिर्री अवश्य रख ली थी कि वो सब कुछ देख सके।
लाल रंग के दो जोड़ी बूट, उसकी जेल के सामने आकर रुके।
उनके चेहरे देखने के लिए किशन ने पलकों को खोला नहीं। यूं भी वो जानता था कि उन बूटों पर कौन लोग खड़े हैं।
“सोया पड़ा है अपनी बहन का यार...।” तभी उसके कानों से आवाज टकराई।
ये शब्द किशन के कलेजे को भीतर तक चीरते चले गए।
पिछले डेढ़ महीने से वो जेल में बन्द था। तब से आज तक एक दिन भी ऐसा नहीं गुजरा था, जब उसके कानों में ऐसी ही गालियां न पड़ी हों और हर बार गाली सुनकर उसका कलेजा छलनी-छलनी हो जाता था।
“बहन का यार मत बोल यार...।” दूसरी आवाज उसके कानों में पड़ी।
“क्यों...?” पहली आवाज।
“बहन का यार कहने से तो इसकी बहन भी गुनाहगार हो जाती है। इसलिए इसे बहन का आशिक बोल...अपनी ही बहन पर चढ़ा था न ये...।”
किशन का दिल किया कि अभी जमीन फट पड़े और वो उसमें समा जाए...या फिर जेल की छत उस पर गिर पड़े, जिसके नीचे वो दब मरे।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
बड़ी मुश्किल से वो अपने दिल को संभाले हुए था।
पलकों की झिर्री वैसी ही बना रखी थी उसने।
“मैंने देखी थी इसकी बहन...।” पहले वाले की आवाज पड़ी किशन के कानों में——“साली बला ही ऐसी है कि किसी की भी राल टपक पड़े। ऐसा हुस्न तो माधुरी दीक्षित में भी नहीं...। कसम से… उसे देखते ही एक बार तो मेरा दिल भी किया था कि उसे वहीं जमीन पर पटक कर उस पर सवार हो जाऊं...।”
“अच्छा किया जो उसकी सवारी नहीं गांठी... वरना तू भी इसके साथ यहीं जेल में पड़ा सड़ रहा होता... और मैं तुझे खाना देने आता।”
“हा...हा...हा...।” पहले वाला हंसा।
“अब हंस मत...दरवाजा खोल...।”
फिर ताला खुलने की आवाज आई।
किशन मन-ही-मन सतर्क हो गया।
पलकों की झिर्री में से उसने जेल का दरवाजा खुलते देखा...फिर दो जोड़ी जूते खट-खट करते उसे अपनी तरफ बढ़ते नजर आए।
किशन अपने स्थान से हिला तक नहीं...वो वैसे ही लेटा रहा।
दोनों बूट उसके करीब आकर रुके।
“उठ बे हरामी के...रोटियां पाड़ ले।”
एक की आवाज आई...साथ ही उसके बूट की भरपूर ठोकर किशन के कूल्हे पर पड़ी।
किशन का शरीर एक बार हिला...फिर स्थिर हो गया।
बूट की ठोकर ने उसकी पसलियों को तोड़ डाला था...लेकिन अपने दर्द को उसने चेहरे पर नहीं आने दिया।
पलकों की झिर्री में से उसने दोनों को देखा।
वर्दी पहने दोनों वार्डनों में से एक राइफल पकड़े हुए था तथा दूसरा हाथों में थाली उठाए हुए था, जिसमें कि उसके लिए डिनर था।
“कहीं मर तो नहीं गया हरामी...।” राइफल वाला बोला——“साला ठोकर खाकर भी नहीं उठ रहा...देख तो।”
थाली उठाए वार्डन ने झुककर थाली किशन के करीब फर्श पर रखी और जैसे ही वो उसकी नब्ज टटोलने को हुआ——
जैसे कोई बिजली चमकी।
खाने की थाली पूरे वेग से राइफल वाले के मुंह से टकराई। उसके साथ ही, किशन पर झुका वार्डन कराहते हुए उछलकर पीछे जा गिरा।
किशन उछलकर खड़ा हुआ और जब तक दोनों में से कोई संभलता...वो राइफल वाले वार्डन की राइफल हथिया चुका था।
राइफल की नाल की तरफ से पकड़े हुए ही उसने बिना वक्त गंवाए वार्डन के सिर पर उसका बट दे मारा।
बिना आवाज किए वो वहीं बिछ गया।
अपने साथी की हालत देख दूसरे वार्डन का चेहरा खौफ से पीला पड़ गया।
नीचे पड़ा-पड़ा ही वो खौफजदा भाव से किशन की तरफ देखने लगा।
किशन ने देर नहीं की...न ही कोई डायलॉग बोला।
एक-एक पल की कीमती था उसके लिए...सो उसने दूसरे के सिर पर भी राइफल का बट दे मारा।
उसका सिर खुल गया और वहां से खून की धाराएं बह निकलीं।
फर्श पर लंबा होकर वो एक-दो बार छटपटाया...फिर शान्त हो गया।
किशन ने राइफल को नीचे रखा और तेजी से पहले वाले वार्डन पर झुका और उसकी वर्दी उलटने लगा।
कुछ ही देर में उसकी वर्दी एक तरफ पड़ी थी—— तथा वो अपनी कैदियों वाली वर्दी उतार रहा था।
अपनी वर्दी उतारकर उसने उसकी वर्दी पहनी और राइफल उठाकर जेल से बाहर आ गया।
दाएं-बाएं गलियारे में सावधानी से झांककर, उसने जेल का दरवाजा बन्द किया और बाईं तरफ गली में तेजी से आगे बढ़ने लगा, लेकिन अपनी चाल में उसने इतनी तेजी भी नहीं लाई कि किसी को उस पर संदेह हो।
अन्य बैंरकों के आगे से गुजरते वक्त कुछ कैदियों ने उसे आदतन गालियां भी निकालीं...लेकिन किशन ने उन पर कान नहीं धरे।
कुछ ही देर में वो जेल के फाटक के करीब था।
जेल का फाटक बन्द था।
किशन फाटक के करीब पहुंचा तो फाटक के करीब खड़े संतरी ने उसे टोका——
“अभी तो आपकी ड्यूटी खत्म नहीं हुई जनाब...इतनी जल्दी...।”
“घर से फोन आ गया था...जेलर साहब से इजाजत लेकर निकला हूं...।”
किशन अपने चेहरे को छुपाने की कोशिश करते हुए बोला।
जिस ढंग से वो बोला था...उसे सुन संतरी की आंखों में सन्देह जाग उठा।
पुलिसिया अंदाज ही कुछ दूसरा होता है...जबकि उसके सामने खड़ा वार्डन आम आदमी के लहजे में बोल रहा था...और अपनी सफाई ऐसे दे रहा था, जैसे वो उसका अफसर न होकर उसका मातहत हो।
हालांकि किशन के पीछे एक बल्ब जल रहा था...लेकिन चूंकि किशन की पीठ बल्ब की तरफ थी...इसलिए उसका चेहरा अंधेरे में था।
सो संतरी ने अपनी कमर से लटक रही टॉर्च पकड़ी और उसे ऑन करके जैसे ही किशन के चेहरे पर मारी—
बुरी तरह से उछल पड़ा।
“किश...न मल्होत्रा...।”
उसके होठों से अस्फुट स्वर निकला।
किशन का दिल जोरों से धड़क उठा।
वो पहचाना जा चुका था...सो बिना कोई देरी किए उसने राइफल का बट पूरे वेग से उसके सिर पर दे मारा।
बेचारा संतरी...
अपनी राइफल भी नहीं संभाल पाया और वहीं ढेर हो गया।
उस पर झुककर किशन ने तेजी से उसकी जेबों को टटोलना शुरू किया।
शीघ्र ही उसके हाथों में फाटक की चाबी नजर आने लगी।
आनन-फानन उसने ताला खोला, दरवाजा खोलकर जैसे ही वो बाहर निकलने को हुआ——
“पींऽऽऽ...।”
कैदी के भाग निकलने का सायरन गूंज उठा।
किशन ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वो समझ गया कि उसकी जेल में बन्द दोनों वार्डनों पर जेलकर्मियों की नजरें पड़ गई हैं।
तुरंत वो फाटक से बाहर निकला और फाटक को बन्द करके बाहर से कुंडा लगा दिया, ताकि जब तक भीतर से कुंडा खुलवाया जाए...वो ज्यादा से ज्यादा दूर पहुंच जाए।
कुछ ही देर में वो सड़क पर खड़ा, एक ट्रक को रुकने का इशारा कर रहा था।
ट्रक ड्राइवर ने उसे एक पुलिसिया ही समझा, सो उसने ट्रक उसके करीब खड़ा कर दिया।
किशन ने तुरन्त खिड़की खुलवाई और पायदान पर पैर रखकर ऊपर चढ़ गया।
“चलो...।” वो बोला।
ड्राइवर ने मन-ही-मन उसे गालियां निकालते हुए घूरा और ट्रक को आगे बढ़ा दिया।
¶¶
उस वक्त सिकंदर ठाकरे राउण्ड लगाकर लौटा ही था, जब फोन की घण्टी घनघना उठी।
'ट्रिन...ट्रिन...।”
उसने फोन की घण्टी बजने की परवाह नहीं की...बड़े इत्मीनान से उसने कुर्सी संभाली...कुर्सी के पुश्त पर लटका तौलिया उठाया...मुंह पोंछकर तौलिए को वापिस पुश्त पर लटकाया...फिर फोन की तरफ हाथ बढ़ाया।
“हेलो...सिकंदर ठाकरे स्पीकिंग...।”
“जेल सुपरिंटेंडेंट यशवंत लौहार बोल रहा हूं...।” दूसरी तरफ से गम्भीर आवाज आई।
“सर...!” सिकंदर ठाकरे एकदम से सीधा होकर बैठ गया। चेहरे पर छाया सारा आलस्य पलभर में ही काफूर हो गया।
“किशन जेल से फरार हो गया है।”
“किशन...?”
“वही, जिसने अपनी बहन के साथ रेप किया था और...।”
“वो फरार हो गया...?” जोरों से उछल पड़ा सिकंदर ठाकरे।
“न केवल फरार हो गया है, बल्कि एक वार्डन का खून भी कर डाला है उसने।”
“ओह नो...।”
“साथ में राइफल भी ले उड़ा है।”
“ओह।”
“मैंने कंट्रोल रूम फोन कर दिया है और तुम्हें इसलिए फोन कर रहा हूं कि पहले तुमने ही उसे गिरफ्तार किया था...इसलिए जाहिर है कि तुम उसके बारे में दूसरों से ज्यादा जानते हो।”
“मैं समझ गया सर...मैं अभी उसकी तलाश में निकल पड़ता हूं...।”
“गुड...।”
“कितना वक्त हुआ है उसे फरार हुए...?”
“पौने घण्टा होने वाला है।”
“फरार हुआ कैसे वो सर...?”
“वार्डन की वर्दी पहन कर...।” दूसरी तरफ से जेल सुपरिंटेंडेंट सब कुछ बताता चला गया।
“मैं अभी उसकी तलाश में निकलता हूं सर!”
कहकर सिकंदर ठाकरे ने रिसीवर क्रेडिल पर रखा...कुछ पलों तक सोचा...फिर रिसीवर उठाकर रीमा राठौर का नम्बर मिलाया।
दूसरी तरफ से मुरारी ने फोन उठाया और कहा कि रीमा राठौर बाहर गई है...आज लौट आएंगी।
सिकंदर ठाकरे ने गहरी सांस छोड़ते हुए पलंजर दबाया और कोई और नम्बर मिलाने वाला।
¶¶
“बस...और नहीं...थोड़ा दम लेने दो...थोड़ा ताजादम हो लूं...फिर अगला राउण्ड शुरू करेंगे।”
रमेश सहगल के नीचे दबी शिवानी हांफते हुए बोली।
शिवानी बला की खूबसूरत और हाय-हाय करा देने वाला हुस्न समेटे हुए थी स्वयं में।
उसके बदन पर इस वक्त कपड़े का एक रेशा तक नहीं था।
उसके ऊपर सवार रमेश सहगल भी शिवानी की तरह पूरी तरह से बेलिबास था।
रमेश सहगल करीब तीस साल का खूबसूरत और उम्र से कहीं ज्यादा जवान नजर आने वाला व्यक्ति था।
शिवानी का पति था वो।
“कमाल है!” रमेश सहगल उसके पहलू में गर्क होते हुए बोला——“अभी तो बारह भी नहीं बजे और तुम थक भी गई हो।”
शिवानी हौले से हंसी और बेड की पुश्त से टेक लगाकर टांगें लंबी कर बैठ गई।
“शराब ही इतनी ज्यादा पिला दी थी तुमने की...।” वो करीब रखे सिगरेट का पैकेट उठाते हुए बोली——“हिला भी नहीं जा रहा। ऊपर से तुम दो बार मुझ पर अपना बोझ डाल चुके हो। एकदम से इतनी जल्दी मत करो...। कुछ देर तो सब्र कर लो...फिर चढ़ जाना।”
“छः दिन बाद जाकर तो तुम मिली हो मुझे...?” रमेश सहगल उसके मादक उभारों को दबाते हुए बोला——“इतने दिनों की कसर तो निकालनी है न?”
“लेकिन छः दिन से मेरी जो कसर निकल रही है...उसका सोचा है तुमने...? एक रात भी ढंग से सो नहीं पाई। हर रात एक नया बोझ पड़ता रहा मुझ पर। पता भी है, सुबह उठने पर मेरी हड्डियां कड़कड़ाने लगती थीं। थकावट इतनी ज्यादा हो जाती थी कि दिल करता था कि वहीं पड़ी रहूं...।
“छः दिनों में कमाया भी तो खूब है तुमने।” हंसा रमेश सहगल और अपना सिर उसकी गोद में रख दिया——“पूरे दस लाख का मुनाफा हुआ है हमें।”
शिवानी उसके बालों में उंगलियां फेरने लगी। बोली कुछ नहीं वो।
रमेश सहगल ने उसकी नाभि को चूमा और फिर उल्टा लेटकर उसकी जांघों पर अपने गाल रगड़ने लगा।
शिवानी ने सिगरेट सुलगाई और लाइटर को सिगरेट के पैकेट के ऊपर रखते हुए एक लंबा कश लगाया।
“रमेश...!” वो मुंह से धुआं उगलते हुए सोच भरे स्वर में बोली।
रमेश ने उसकी कमर के गिर्द अपनी बांहों का घेरा बनाया और अपना मुंह उसकी जांघों में छुपा लिया।
“हूं...।” वो नाक से उसकी जांघों के जोड़ पर गर्म हवा फेंकते हुए बोला।
“छः दिन मैं अलग-अलग लोगों के नीचे पिसती रही...हर रात कोई नया शख्स मेरे खूबसूरत बदन को चाटता रहा और बदले में हमने कमाया तो सिर्फ दस लाख, जबकि टाइगर ने पूरे तीन करोड़ कमाए...।”
रमेश सहगल ने चौंककर उसकी तरफ देखा।
“तुम कहना क्या चाहती हो...?” वो उसे घूरते हुए बोला।
“मेरी बदौलत टाइगर ने तीन करोड़ कमाए...और मुझे मिला सिर्फ दस लाख...जबकि हिसाब से मैं कम-से-कम आधे की हकदार बनती हूं...।”
“ऐसी बात टाइगर के सामने भूलकर भी मत कहना शिवानी...!” रमेश सहगल उसे गहरी निगाहों से देखते हुए बोला——“मैं तुम्हारा पति हूं...इसलिए मैंने तुम्हारी बात चुपचाप सुन ली...लेकिन वो, तुम्हारी बात पूरी होने से पहले ही हम दोनों को गोली से उड़ा देगा...।”
“लेकिन...।”
“ट्रिन...ट्रिन...।”
फोन की घण्टी बज उठी।
शिवानी की बात बीच में ही रह गई। उसने सिगरेट का कश लगाते हुए, साइड स्टूल पर रखे फोन की तरफ देखा, फिर रमेश सहगल की तरफ...जो कि उसकी जांघों के ऊपर अपना पेट रगड़कर फोन की तरफ सरक रहा था।
रिसीवर उठाकर रमेश सहगल ने कान से लगाया।
“हेलो...!”
“रमेश सहगल...?” दूसरी तरफ से आवाज आई।
“जी हां...आप...।”
“मैं इंस्पेक्टर सिकंदर ठाकरे बोल रहा हूं...।”
सुनकर रमेश सहगल का कलेजा धड़क उठा...साथ ही वो फोन के और करीब आकर शिवानी की तरह बैड की पुश्त से टेक लगाकर बैठ गया।
“कहिए इंस्पेक्टर साहब...रात के इस वक्त...?”
“आपका साला किशन मल्होत्रा जेल से भाग गया है।”
बुरी तरह से उछल पड़ा रमेश सहगल...साथ ही उसके चेहरे पर आतंक भरे भाव उभर आए।
“क...क्या...?” उसके होंठों से अस्फुट स्वर निकला।
उसके चेहरे को देख शिवानी भी चौंकी...लेकिन बोली कुछ नहीं वो। बस उसे देखती रही।
“जी हां...हो सकता है वो आपके पास आए...इसलिए जैसे ही वो आपके पास आए...कानून की मदद करते हुए आप फौरन थाने फोन कर दें...।”
“ज-जी...।”
“थैंक्यू!”
दूसरी तरफ से सम्बन्ध-विच्छेद हो गया।
जोरों से थूक सटकते हुए रमेश सहगल ने रिसीवर रखा और शिवानी की तरफ देखा।
कुछ देर पहले जो शिवानी पर सवारी गांठने को बेकरार हो रहा था, वहीं अब वो पूरी तरह से ठण्डा पड़ चुका था।
“क्या हुआ...?” हैरानी से बोली शिवानी——“क्या कह रहा था इंस्पेक्टर...?”
रमेश सहगल ने थूक सटकी और बोला——
“किशन जेल से फरार हो गया है।”
एक तेज झटका लगा शिवानी को, साथ ही उसके शरीर के तमाम मसामों ने एक साथ ढेर सारा पसीना उगल दिया।
“व...वो भाग गया...?” उसके होंठों से थर्राया स्वर निकला। सिगरेट का कश लगाना भूल गया वो।
“हां...।” रमेश स्वयं को सम्भालते हुए बोला——“और देख लेना...वो सीधा इधर ही आएगा...इसलिए उसके आने से पहले ही हमें अपने बचाव के लिए कुछ कर लेना चाहिए। रिवाल्वर कहां है...?”
“अलमारी में...।” शिवानी तेजी से बोली और सिगरेट को फर्श पर फेंक अपने कपड़ों की तरफ लपकी।
रमेश सहगल बैड से उतरकर अलमारी की तरफ लपका।
कोई और वक्त होता तो रमेश को निर्वस्त्र अलमारी की तरफ बढ़ते देख शिवानी अवश्य ही हंस पड़ती।
लेकिन इस वक्त तो माहौल ही कुछ और था।
¶¶
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Additional information
Book Title | कृष्ण बना कंस : Krishna Bna Kans by Anil Saluja |
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Isbn No | |
No of Pages | 222 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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