खून की होली : Khoon Ki Holi by Anil Saluja
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दो करोड़ की डकैती पर आधारित प्रस्तुत उपन्यास में कई जगह ऐसी आएंगी, जहां पर आपको चार सौ चालीस वोल्ट के झटकों को सहना पड़ेगा। प्रकाश राय लुम्बा के बनाए तिलिस्म को तोड़ने के लिए बलराज गोगिया को बार-बार मौत से दो-चार होना पड़ा... और फिर अंत में ऐसा खून-खराबा हुआ कि हर तरफ लहू का रंग ही बिखरा नजर आ रहा था।
छ: नौसिखियों के जाल में बलराज गोगिया ऐसा फंसा कि...
खून की होली
अनिल सलूजा
दो करोड़ की ऐसी डकैती जिसका अंजाम खून-खराबे पर जाकर खत्म होगा।
खून की होली : Khoon Ki Holi
Anil Saluja
BookMadaari
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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खून की होली
अनिल सलूजा
“एक बात बता यारा।”
“क्या...?”
“क्या हम बेवकूफ हैं...?”
“मतलब?”
“मैं तेरे से पूछ रहा हूं...।”
“क्यों...?”
“अंडरवर्ल्ड के खलीफा हर बार हमी को ही अपने जाल में फांसते हैं... और जब उनका काम सिरे चढ़ जाता है तो वह हमारी जान के पीछे ऐसे पड़ जाते हैं जैसे हम उनके सबसे बड़े दुश्मन हों।”
बलराज गोगिया ने ठंडी सांस छोड़ी और उंगली ऊपर उठाते हुए बोला——
“यह सब ऊपर वाले के खेल हैं यारा। हम तो उसकी कठपुतलियां हैं... वह जैसे नचाता है... हम वैसे ही नाचते हैं।”
“मगर हमें तो यहां के खलीफा नचा रहे हैं।” राघव ने कुर्सी पर बैठे-बैठे ही कमर हिलाई।
“इसमें भी उसकी ही रजा है यारा...।” बलराज गोगिया गंभीरता से बोला——“अब देख ना... हमने कई बार भारत से निकलना चाहा... ताकि हम यहां के कानून की पहुंच से दूर निकल जाएं। इसके लिए हमने कई बार ऐसे काम भी किए, जिन्हें करने को हमारा जमीर इंकार करता था, लेकिन फिर भी हम बाहर नहीं जा पाए... क्यों...? क्योंकि ऊपरवाले को हमारा बाहर निकलना मंजूर नहीं।”
“तो फिर कब निकलेंगे हम हिंदुस्तान से बाहर?”
“जब उसकी मर्जी होगी।” बलराज गोगिया ने पुनः उंगली छत की तरफ उठाई।
“कब होगी उसकी मर्जी...?”
“यह तो वही जाने।”
कहते हुए बलराज गोगिया ने पहलू बदला।
दोनों इस वक्त मुंबई में दादर में एक सस्ते से रेस्टोरेंट में एक केबिन में कुर्सियों पर आमने-सामने बैठे थे। उनके बीच में रखी टेबल पर रखी खाली प्लेटें बता रही थीं कि वे अभी-अभी डिनर से फारिग हुए हैं।
फार्मूला लाने के लिए बलराज गोगिया को अमेरिकन गुप्तचर संस्था सी०आई०ए० ने मजबूर किया था... और उसी फार्मूले के लिए पाकिस्तान में उसका रीमा राठौर और सतीश रावण से टकराव हुआ था। अंत में फार्मूला रीमा राठौर के जरिए सरकार के पास पहुंच गया। सतीश रावण, बलराज गोगिया और राघव के डर से भाग निकला था... और सी०आई०ए० के भारत स्थित एजेंट ने उनका अड्डा ही उड़ा दिया, ताकि वे भारत सरकार के काबू में ना आ जाएं।
बलराज गोगिया और राघव वहां से हटे और लोकल ट्रेन में बैठकर दादर आ गए।
उस वक्त रात के दस बजे थे।
सो मुंबई से प्रस्थान करने से पहले उन्होंने पेट-पूजा कर लेना बेहतर समझा और वे करीब एक सस्ते से रेस्टोरेंट में घुस गए।
किसी की उन पर नजर ना पड़े... इसके लिए बलराज गोगिया ने एक केबिन लिया और उसमें बैठकर राघव के साथ डिनर किया।
केबिन क्या था... प्लाई का बना एक छोटा-सा बूथ था, जिसमें कि दो कुर्सियां और एक मेज थी। तीसरी कुर्सी के उसमें आने की संभावना बिल्कुल नहीं थी... यहां तक कि वेटर ने भी उन्हें दरवाजे में खड़े होकर ही सर्व किया था।
दरवाजे के नाम पर वहां सिर्फ एक मोटा पर्दा टंगा हुआ था।
“अब किधर रुख करना है...?”
थोड़ी देर बाद बलराज गोगिया राघव की तरफ देखते हुए बोला।
“मेरी तो यही सलाह है कि यहां से सीधा नेपाल जाया जाए... फिर वहां से किसी दूसरे मुल्क के लिए जाने का बंदोबस्त करेंगे।”
बलराज गोगिया के होठों पर मुस्कान फैल गई।
“किराया है तुम्हारे पास नेपाल तक का...?”
“यह एक रिवाल्वर है।” राघव ने अपने पेट पर पैंट की बेल्ट में फंसी रिवाल्वर को थपथपाया——“इसे बेचकर जुगाड़ हो ही जाएगा... वरना नकदी के नाम पर पांच सौ भी नहीं...।”
“रिवाल्वर को बेचोगे कहां...?”
“किसी भी आर्म्ड शॉप में आधे दाम पर तो बिक ही जाएगी।”
“बशर्ते कि वह चोरी का माल खरीदने वाला हो...।”
“वह तो ट्राई करने पर ही पता चलेगा।”
“और बाकी की रात कहां बिताओगे... क्योंकि दुकानें तो अब बंद हो चुकी होंगी। ऐसे में सुबह तक इंतजार करना पड़ेगा।”
राघव ने पहलू बदला और मुस्कुराया——
“जरूरी नहीं कि हमें रिवाल्वर इसी शहर में बेचनी है। हम दोनों के पास मिलाकर छः-सात सौ तो होंगे ही। इतने पैसों में हम मुंबई से काफी दूर जा सकते हैं।”
“छः-सात सौ में...!”
“हां।”
“और जेब से ठन-ठन गोपाल। कहीं टैक्सी की जरूरत पड़ी तो... या फिर खाना खाना हो तो कहां से लाओगे पैसा...?”
“तो फिर चार सौ रुपए की दूरी तय कर लेते हैं।” राघव बोला——“या फिर बिना टिकट ही चले जाते हैं... जो होगा देखा जाएगा।”
“नहीं... बिना टिकट सफर का रिस्क नहीं ले सकते हम...।”
“क्यों...?”
“अगर हम बिना टिकट यात्रा करते पकड़े गए तो पंद्रह दिन के लिए जेल यात्रा करनी पड़ेगी... और वहां हमें कभी भी किसी भी वक्त पहचाना जा सकता है।”
“ओह!”
“हम सौ-सौ की यात्रा करेंगे... और बाकी रात उसी स्टेशन पर बिताएंगे, जहां पर उतरेंगे... और सुबह किसी आर्म्ड शॉप पर रिवाल्वर बेचकर नेपाल के लिए रवाना हो जाएंगे...।”
राघव ने सहमति में सिर हिला दिया।
“तो फिर चलें...?”
जवाब देने की बजाय राघव मुस्कुराते हुए खड़ा हो गया।
दोनों केबिन से बाहर निकले और हॉल में आ गए।
हॉल में उस वक्त दस-पंद्रह आदमी बैठे खाना खा रहे थे। बाकी की टेबल खाली पड़ी थीं।
टेबलों के बीच से निकलते हुए दोनों काउंटर पर पहुंचे....जिसके पीछे बैठा साधारण शक्लो-सूरत का लड़का किसी से फोन पर बात कर रहा था।
उनके करीब पहुंचने पर लड़के ने रिसीवर रखा और उनका बिल बनाकर बलराज गोगिया के सामने कर दिया।
बलराज गोगिया ने बिल पर निगाह डालकर बिल पे किया और राघव को अपनी उंगली पकड़ा रेस्टोरेंट से बाहर आ गया।
उनके सड़क पर आते एक टैक्सी ऐन उनके सामने आकर रुकी।
“किधर चलना है साहब...?” टैक्सी ड्राइवर ने खिड़की में से गर्दन निकालकर बलराज गोगिया की तरफ देखा।
बलराज गोगिया ने गौर से टैक्सी ड्राइवर को देखा कि कहीं वह कोई गलत शख्स तो नहीं। उसका कारण यही था कि उसने टैक्सी को नहीं रुकवाया था... बल्कि टैक्सी खुद उसके सामने रुकी थी।
ऐसे में संदेह तो होना ही था उसे।
मगर ड्राइवर के चेहरे तथा आंखों से उसे संदेह पैदा करने वाली कोई चीज नजर नहीं आई।
“चल बेटा... बैठ।” कहते हुए बलराज गोगिया ने टैक्सी का पिछला दरवाजा खोला और राघव के साथ भीतर प्रवेश कर गया।
“स्टेशन चलो...।” वह टैक्सी ड्राइवर से बोला।
ड्राइवर ने मीटर डाउन किया और टैक्सी आगे बढ़ा दी।
“कहीं बाहर जा रहे हैं साहब...?” थोड़ी देर बाद ड्राइवर ने सामने सड़क पर निगाहें जमाए हुए पूछा।
“क्यों...?” बलराज गोगिया हल्के से चौंका... साथ ही उसकी पैनी नजर ड्राइवर की खोपड़ी के पृष्ठ भाग पर जम गई।
राघव भी सतर्क हो उठा।
कारण यही था कि ड्राइवर ने ऐसा सवाल क्यों पूछा।
“अगर आप कहीं बाहर जा रहे हैं तो सेंट्रल से चढ़िए...।” ड्राइवर बिना गर्दन पीछे मोड़े बोला——“दादर से ट्रेन में चढ़ेंगे तो सीट मिलना तो दूर...खड़े होने की जगह भी नहीं मिलेगी।”
“ओह!” बलराज गोगिया के मुंह से निकला।
राघव का तना हुआ जिस्म भी ढीला पड़ गया।
ड्राइवर ने उनके भले के लिए ही पूछा था। साथ ही उसका स्वार्थ भी छुपा था इसमें... दादर से सेंट्रल तक का किराया बनना था उसका।
उसने बलराज गोगिया की तरफ गर्दन उठाई और आंखों की भौंहों को प्रश्नभरे अंदाज में उछाला।
बलराज गोगिया मुस्कुराया और ड्राइवर की तरफ देखते हुए बोला——
“ठीक है... सेंट्रल रेलवे स्टेशन चलो। हम वहीं से ट्रेन पकड़ेंगे।”
ड्राइवर ने सिर हिला दिया।
थोड़ा आगे जाकर ड्राइवर ने स्टेयरिंग दाएं तरफ घुमाया और सेंट्रल जाने वाली सड़क पर आ गया।
इस वक्त रात के ग्यारह बज चुके थे।
सड़क पर आवागमन ना के बराबर था।
अभी टैक्सी एक-डेढ़ किलोमीटर ही आगे बढ़ी होगी कि एकाएक ही गली में से एक युवती बाहर निकली और दोनों हाथ फैलाए टैक्सी की तरफ भागी।
बलराज गोगिया बुरी तरह चौंका।
राघव चूंकि सीट पर बैठा हुआ था... इसलिए वह उस युवती को नहीं देख पाया।
ऊपरवाले ने उसे कद ही इतना दिया था कि वह नौ-दस साल के बच्चे जितना नजर आता था।
ऐसे में वह आगे वाली सीट की पुश्त के बाहर खड़ा होकर भी देख सकता था।
युवती बदहवासी की हालत में टैक्सी की तरफ बढ़ रही थी।
बलराज गोगिया समझ गया कि वह किसी मुसीबत में है।
ठीक तभी दो गुंडे टाइप के आदमी उसके पीछे-पीछे गली से बाहर निकले और युवती के पीछे भागे।
उनमें से एक के हाथ में रिवाल्वर थी।
रिवाल्वर देख बलराज गोगिया बुरी तरह से चौंका... साथ ही उसने राघव को कोहनी मारी।
राघव तुरंत खड़ा हुआ और सामने विंडस्क्रीन की तरफ देखा।
ठीक तभी टैक्सी ड्राइवर ने ब्रेक पैडल पर पैर जमा दिया।
युवती टैक्सी के करीब आ चुकी थी। अगर ड्राइवर ब्रेक नहीं मारता तो निश्चय ही युवती टैक्सी के नीचे कुचली जानी थी।
टैक्सी ऐन युवती के एक-डेढ़ फीट के फासले पर आकर रुकी।
इधर राघव अपनी रिवाल्वर निकाल चुका था।
युवती तेजी से ड्राइवर वाली खिड़की के सामने आई और गिड़गिड़ाते हुए बोली——
“मुझे बचा लो भैया... वह मेरी जान लेना चाहते हैं...।” कहते हुए उसने उंगली अपनी तरफ बढ़ रहे गुंडों की तरफ सीधी की।
“चल हट परे...।” ड्राइवर ने उसे पीछे धकेला——“खामाखां क्यों पचड़े में फंसा रही है मुझे...।”
युवती पीछे को लड़खड़ाई।
ठीक तभी बलराज गोगिया ने दरवाजा खोलकर युवती को पुकारा।
“अंदर आ जाओ।”
“यह आप क्या कर रहे हैं साहब? ऐसा तो आए दिन होता रहता है...क्यों अपने साथ-साथ मुझे भी फंसा रहे हो?”
लेकिन बलराज गोगिया ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया। वह युवती की तरफ देखता रहा, जो कि तेजी से उसकी तरफ बढ़ रही थी।
अभी वह दरवाजे में प्रवेश भी नहीं कर पाई थी कि दोनों गुंडे उसके सिर पर आ धमके।
“कल्लू कहार से बचकर तो भगवान भी नहीं बचा सकता हरामन...।”
युवती की चोटी पकड़ कर उसे पीछे खींचते हुए बोला।
युवती चीखते हुई पीछे गिर पड़ी।
इधर रिवॉल्वर वाले गुंडे ने बलराज गोगिया पर रिवॉल्वर तान ली।
“बाहर निकल बे हराम के।” वह फुंफकारा।
गाली सुनकर बलराज गोगिया का चेहरा सुर्ख हो उठा।
बड़ी मुश्किल से उसने खुद पर काबू पाया और बाहर आ गया।
राघव परली तरफ का दरवाजा खोलकर बाहर निकल आया।
“इस छोकरी को बचाना चाहता था तू...ले बचा इसे।”
कहते हुए गुंडे ने रिवॉल्वर का रुख युवती की तरफ किया और ट्रिगर दबा दिया।
“धांय...।”
खून का फव्वारा युवती के सीने से निकला और वह एक-दो झटके खाकर स्थिर हो गई।
यह सब कुछ इतनी तेजी से हुआ कि बलराज गोगिया को कुछ समझने का मौका भी नहीं मिला।
राघव उस वक्त डिग्गी के पीछे था।
युवती के मरते ही टैक्सी ड्राइवर ने एकदम से टैक्सी वहां से भगा दी और अगले ही पल यह जा...वह जा।
गुंडे ने रिवॉल्वर बलराज गोगिया पर तान दी और गुर्राया——
“अब तुझे तेरे किए की सजा मिलेगी...हमारे फटे में टांग अड़ाने वाले की बस एक ही सजा है।”
डायलॉग तो बोल दिया उसने...मगर ट्रिगर नहीं दबा पाया।
उससे पहले ही राघव का रिवॉल्वर गरज उठा।
“धांय...धांय...।”
दोनों गुंडों के हाथों के ऐन बीचो-बीच सुराख हो गए।
उनकी आंखें फट पड़ीं...और फटी आंखों में अविश्वास के और हैरानी के भाव साफ नजर आ रहे थे।
और फिर वह कटे वृक्षों की तरह मुंह के बल धड़ाम से सड़क पर आ गिरे।
मर चुके थे वे।
बलराज गोगिया अवाक-सा सड़क पर पड़ी तीनों लाशों को देख रहा था।
यह सारी घटना इतनी तेजी से घटी थी कि उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था कि यह हो क्या गया है?
“पींऽऽऽ...।”
तभी पुलिस के सायरन की तेज आवाज ने उसे बुरी तरह से चौंका दिया।
गर्दन उठाकर उसने सड़क पर निगाह मारी तो पुलिस की तीन गाड़ियां उसे अपनी तरफ बढ़ती नजर आईं।
“भाग यारा...।” वह जोरों से चीखा और वहां से भागा।
राघव उसके पीछे-पीछे भागा।
मगर दुर्भाग्य...दो गाड़ियां सामने से आती नजर आईं।
पुलिस की गाड़ियां।
बलराज गोगिया के चेहरे पर बेचैनी उभरने लगी।
हड़बड़ी में उसने दाएं-बाएं देखा।
निश्चय ही वह वहां से निकल भागने का रास्ता खोज रहा था।
शीघ्र ही उसकी नजर दाईं तरफ एक रेस्टोरेंट पर टिकी।
खुद को बचाने का बस एक ही रास्ता नजर आया उसे। उसने रेस्टोरेंट की तरफ दौड़ लगा दी।
राघव निरंतर उसके पीछे-पीछे था।
पुलिस की गाड़ियां अब काफी करीब आ गई थीं।
बलराज गोगिया ने जल्दी से रेस्टोरेंट का गेट खोला और राघव के साथ भीतर प्रवेश कर गया।
अंदर से रेस्टोरेंट बंद किए जाने की तैयारी चल रही थी। रेस्टोरेंट के कर्मचारी मेजें साफ कर रहे थे तथा काउंटरमैन अपने सामने रखी फाइलों को बंद कर रहा था।
एक आदमी और बच्चे को हॉल में दाखिल होते देख पहले तो कर्मचारी चौंके और जब उनकी निगाहें राघव के हाथ में थमे रिवॉल्वर पर पड़ीं तो सभी के चेहरों पर घबराहट उभर आई।
मगर बलराज गोगिया ने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया...वह सीधा उस दरवाजे की तरफ लपका, जिसके बाहर पीतल के अक्षरों में ‘मैनेजर’ लिखा था।
दरवाजे के सामने आकर उसने ठोकर मारकर दरवाजे को खोला और राघव के साथ भीतर प्रवेश कर गया।
भीतर शानदार ऑफिस टेबल के पीछे सिर से गंजा...गोरे रंग का एक सेहतमंद व्यक्ति बैठा था।
उस वक्त वह फोन पर किसी से बात कर रहा था।
दोनों को इस तरह भीतर प्रवेश करते देख वह हड़बड़ाया।
तुरंत उसने रिसीवर क्रेडिल पर रखा और गुर्राया——
“कौन हो तुम...?”
उससे आगे के शब्द नहीं बोल पाया वह...उससे पहले ही राघव का जिस्म रबर के बबुए की मानिंद उछला और उड़ता हुआ वह सीधा मैनेजर के कंधों पर जा सवार हुआ।
बुरी तरह से हड़बड़ा उठा मैनेजर।
“य...यह क्या...?”
राघव की रिवॉल्वर उसकी कनपटी से लग गई।
“आवाज नहीं...।” फुंफकार निकली उसके होठों से।
मैनेजर के होंठ वहीं भिंच गए। वह भय भरी निगाहों से बलराज गोगिया को देखने लगा।
बलराज गोगिया टेबल का घेरा काटकर मैनेजर के करीब आया और उसकी आंखों में झांकते हुए गंभीरता से बोला——
“पुलिस हमारे पीछे लगी है।”
“प-पुलिस...।” बुरी तरह से हड़बड़ाया मैनेजर।
“हां पुलिस...।”
“लेकिन मेरे भाई...मेरे सिर पर इस तरह क्यों सवार हो तुम...? मैंने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा...?”
“पुलिस ने हमें इस रेस्टोरेंट में घुसते देख लिया है।”
“ओह!”
“अब तू हमें पीछे के रास्ते से यहां से भगाएगा।” उसके कंधों पर बैठा राघव गुर्राया।
“लेकिन पीछे तो कोई रास्ता नहीं...।”
“तो फिर हम तुझे कवर करके यहां से निकलेंगे।”
“बलराज गोगिया...।” तभी स्पीकर में से निकली आवाज उसके कानों में पड़ी——“तुम पहचान लिए गए हो। तुम्हारी बेहतरी इसी में है कि तुम अपने साथ ही राघव के साथ खुद को कानून के हवाले कर दो। तुम्हारे बच निकलने के तमाम रास्ते बंद हो गए हैं। इस रेस्टोरेंट को पुलिस ने चारों तरफ से घेर लिया है। मैं दस तक गिनूंगा...अगर तुम दोनों बाहर नहीं निकले तो मैं फोर्स को आदेश दे दूंगा कि वह रेस्टोरेंट में प्रवेश कर तुम्हारी लाशें बिछा दें।”
बुरी तरह से उछल पड़ा मैनेजर।
“त...तुम बलराज गोगिया हो?”
“हां।” गंभीरता से बोला बलराज गोगिया।
“और मैं राघव...।” राघव उसकी कनपटी रिवॉल्वर की नाल से थपथपाते हुए बोला। सहसा ही मैनेजर के चेहरे पर छाया सारा खौफ उड़न-छू हो गया। उसके स्थान पर रहस्यमयी मुस्कान उसके होठों पर नाच उठी।
उसके चेहरे के बदलते भावों को देख बलराज गोगिया बुरी तरह से चौंका।
“एक...।” तभी स्पीकर से निकलती आवाज उसके कानों से टकराई।
गिनती शुरू हो चुकी थी।
“तुम तो गए बलराज गोगिया...।” मैनेजर मुस्कुराते हुए बोला।
“इतने सस्ते में नहीं जाएंगे...।” बलराज गोगिया बोला——“अपने साथ हम तुम्हें भी ले जाएंगे।”
“फिर भी तुम जाओगे तो ना।”
“क्या मतलब...?” बलराज गोगिया ने उसे घूरा।
“दो...।” बाहर से आवाज आई।
“अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हें बचा सकता हूं...।”
बुरी तरह से चौंका बलराज गोगिया।
राघव भी चौंक पड़ा।
“तुम बचा सकते हो...?” बलराज गोगिया बोला।
“हां...मैं बचा सकता हूं...।”
“कैसे...?”
“यह पूछने के बजाय तुम यह पूछो कि तुम्हारी जान के बदले मैं चाहता क्या हूं...?”
“तीन...।” बाहर से कड़कती आवाज आई।
बलराज गोगिया ने उसे घूरकर देखा।
“क्या चाहता है तू...?” वह गुर्राया।
“बस एक छोटा सा काम करना पड़ेगा तुम्हें...।”
“कौन सा काम...?”
“वही जिसमें तुम एक्सपर्ट हो...।”
“चार...।”
“हम तो हर काम में एक्सपर्ट हैं।” उसके कंधे पर बैठा राघव गुर्राया।
“मगर अंडरवर्ल्ड में तुम सबसे बड़े चोर के रूप में विख्यात हो। तुम्हारी बनाई स्कीम पूरी तरह से फुलप्रूफ होती है।”
“पांच...।”
“अगर हम इंकार कर दें तो...?”
“तो तुम्हारे बचने के सारे रास्ते बंद हैं। बाहर पुलिस खड़ी है, जो अपनी दस तक की गिनती पूरी होते ही भीतर घुस जाएगी...और फिर तुम्हारा क्या हश्र होगा...इसका अंदाजा तुम खुद ही लगा सकते हो।”
“छः...।”
“हमारा तो जो होगा सो होगा...उससे पहले तेरा क्या होगा...यह सोच।” राघव गुर्राया।
“क्या होगा?”
“मेरी रिवॉल्वर से निकली गोली तेरी खोपड़ी में सुराख कर देगी...।”
मैनेजर हंस पड़ा——“तो देर क्यों कर रहे हो...कर दो सुराख...।”
“मैं ट्रिगर दबाने जा रहा हूं।” सख्ती से बोला राघव।
“दबा दो...।” बिना किसी खौफ के मैनेजर बोला।
“सात...।”
राघव ने असहाय भाव से बलराज गोगिया की तरफ देखा।
“जल्दी से हां या ना में जवाब दो बलराज गोगिया। दस की गिनती पूरी होने जा रही है...।”
बलराज गोगिया ने असहाय भाव से राघव की तरफ देखा। बेबसी उसके चेहरे पर साफ नजर आ रही थी।
अच्छे-भले वे मुंबई से निकल रहे थे। खामाखां का रगड़ा गले पड़ गया। अगर वे दादर स्टेशन पहुंचते तो अब तक किसी ना किसी गाड़ी में सवार भी हो चुके होते।
मुंबई से निकलना तो दूर रहा...अब यहां उनकी अपनी जान के लाले पड़ गए थे।
जिस कीचड़ से निकलने के लिए वह कोशिश कर रहा था...उस मैनेजर ने उसे फिर से उसी कीचड़ में घुसने को मजबूर कर दिया था।
“आठ...।” तभी बाहर से आवाज आई।
“ठीक है...।” बलराज गोगिया ने बेबसी से भरी सांस छोड़ी——“हम तुम्हारा काम करने को तैयार हैं।”
“पहले वादा करो...।”
“वादा।”
“यह हुई ना बात...।” मैनेजर चहका——“बलराज गोगिया ने वादा किया...समझो काम हो गया।“
“तू बाहर निकाल हमें...।” राघव गुर्राया।
“नौ...।”
“नीचे उतरो...।”
राघव ने उसके कंधे से छलांग मारी और बलराज गोगिया के बराबर में आ खड़ा हुआ।
“एक बात कान खोलकर सुन ले...।” राघव उसे खा जाने वाली निगाहों से घूरते हुए गुर्राया——“अगर तुमने हमसे कोई खेल खेलने की कोशिश की तो तेरी वह हालत होगी कि तू अंदाजा भी नहीं लगा सकता।”
“डोंट वरी...मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं...।”
हंसा मैनेजर और खड़ा हो गया।
वह कुर्सी के बराबर आया और उसे तीन बार गोलाई में घुमाकर नीचे दबाया।
तुरंत बाईं तरफ फर्श पर एक हिस्सा अपने स्थान पर हट गया।
“दस...।” आवाज आई।
“जल्दी करो...पुलिस किसी भी वक्त रेस्टोरेंट में प्रवेश कर सकती है।”
मैनेजर जल्दबाजी में बोला।
दोनों यारों की निगाहें आपस में मिलीं...फिर दोनों तेजी से उस रिक्त स्थान की तरफ बढ़े।
वहां नीचे जाने के लिए लकड़ी की सीढ़ियां बनी हुई थीं।
सीढ़ियों पर पहले राघव उतरा...फिर उसके पीछे-पीछे बलराज गोगिया नीचे उतरने लगा।
“मैं थोड़ी देर बाद तुम्हारे पास पहुंच जाऊंगा...।” तभी मैनेजर बोला।
“कब...?”
“पुलिस को संतुष्ट करके पहुंच जाऊंगा।”
कहकर उसने पुनः कुर्सी को दबाया और फिर बाईं तरफ तीन बार घुमाया।
फर्श पहले की तरह हो गया।
मैनेजर के होठों पर विजयी मुस्कान फैल गई। उसने एक भरपूर निगाह फर्श के उस स्थान पर डाली जिसके नीचे बलराज गोगिया और राघव गायब हुए थे...फिर दरवाजे की तरफ कदम बढ़ा दिया।
¶¶
नीचे जिस बेसमेंट में बलराज गोगिया और राघव पहुंचे, वह हॉल तो नहीं था...हां उसे काफी बड़ा कमरा जरूर कहा जा सकता था।
कमरे की दाईं दीवार के साथ चार लोहे की अलमारियां खड़ी थीं। उनके अलावा तीन कुर्सियां और एक मेज कमरे के बीचो-बीच पड़ी थी। बाईं तरफ डीलक्स साइज का डबल बैड पड़ा था, जिस पर हल्के नीले रंग की सिल्क की चादर बड़े करीने से बिछी हुई थी।
अलमारियों में क्या था...यह जानने के लिए राघव अलमारियों की तरफ बढ़ा और पहले वाली अलमारी का हैंडल पकड़ कर उसे नीचे दबाया।
हैंडल नीचे नहीं हुआ।
मतलब वह लॉक था।
उसने बाकी की तीनों अलमारियों पर भी ट्राई की...मगर कोई भी अलमारी नहीं खुली।
हारकर वह मुड़ा और कुर्सियों की तरफ बढ़ गया, जहां पर कि बलराज गोगिया एक कुर्सी पर कब्जा कर चुका था।
“बुरे फंसे...।” एक कुर्सी पर बैठते हुए राघव ने गहरी सांस छोड़ी।
बलराज गोगिया ने भी गहरी सांस छोड़ी। बोला कुछ नहीं वह।
“ऐसा सिर्फ हमारे साथ ही क्यों होता है यारा...?”
“कैसा...?”
“कभी भी शरीफ आदमी नहीं टकराया हमसे...। अब देख...जान बचाने के लिए हमने इस रेस्टोरेंट में पनाह ली तो यहां का मैनेजर हरामी निकला और हमें बचाने की कीमत मांगने लगा।”
“ऊपरवाले की मर्जी...।” बलराज गोगिया फीकी मुस्कान के साथ बोला।
“अब देख लेना...वह हमसे कोई बहुत बड़ी चोरी करवाएगा।”
“देखो...क्या करवाता है?”
“क्यों ना हम मौका मिलते ही यहां से निकल जाएं...?”
बलराज गोगिया ने घूरकर उसे देखा।
हड़बड़ाया राघव।
“म-मैंने कुछ गलत कहा...?”
“तू जानता है कि बलराज गोगिया एक बार जो जुबान देता है...उसे अपनी जान देकर भी पूरा करता है। ले-देकर एक वादा ही तो है मेरे पास...।”
“और उसी वादे का यह हरामी लोग नाजायज फायदा उठाते हैं...।”
राघव ने बुरा मुंह बनाते हुए कहा।
“जैसी उसकी मर्जी...। अपना तो बस यही फर्ज है कि या तो जुबान ना दो...और अगर दो तो उसे पूरा करो।”
“तभी तो तेरा वादा अंडरवर्ल्ड में खोटे सिक्के की तरह चलता है।”
“छोड़ इसे।”
“छोड़ दिया...अब दूसरी बात पर आ।”
“कौन सी बात...?”
“मैनेजर के ऑफिस में तूने सुना था...पुलिस कह रही थी कि तुम पहचान लिए गए हो।”
“तो...?”
“पुलिस का एकदम वहां आ जाना और रेस्टोरेंट घेरकर तुझे नाम से पुकारना...क्या शक पैदा नहीं करता...?”
“कैसा शक...?”
“यही कि हमें किसी जाल में फंसाया जा रहा है।”
“बात तो तेरी ठीक है यारा...लेकिन यह भी तो हो सकता है कि यह महज एक इत्तेफाक हो।”
“क्या हमारा पहचाना जाना भी इत्तेफाक है?”
“हम दोनों की जोड़ी ही ऐसी है कि हम आसानी से पहचान में आ सकते हैं। हो सकता है किसी की नजर हम पर पड़ गई हो और उसने हमें पहचान लिया हो। सो उसने फौरन पुलिस को फोन कर दिया हो...। इत्तेफाक से हमारे साथ फौरन घटना घट गई और पुलिस हमारे करीब पहुंच गई...।”
“तू यह कहना चाहता है कि पुलिस पहले से ही हमारे पीछे लगी हुई थी?”
“क्या ऐसा नहीं हो सकता...?”
“होने को तो कुछ भी हो सकता है...।” राघव ने ठंडी सांस छोड़ी।
बीस मिनट बाद जाकर मैनेजर उन्हें बेसमेंट में उतरता नजर आया।
दोनों उसके करीब आने की प्रतीक्षा करने लगे।
मैनेजर उनके पास आकर गहरी सांस छोड़ते हुए कुर्सी पर बैठ गया।
उफ्फ...! बाल-बाल बचे।” वह बोला।
“चली गई पुलिस...?” राघव उसे गहरी निगाहों से देखते हुए बोला।
“बड़ी मुश्किल से गई। पूरा रेस्टोरेंट छानकर गई...पहले तो उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था...बड़ी मुश्किल से मैं विश्वास दिलाने में कामयाब हो पाया कि तुम दोनों या तो हमारे रेस्टोरेंट में घुसे ही नहीं...या फिर किचन के रास्ते से निकल गए हो।”
“किसी वर्कर से भी हमारे बारे में नहीं पूछा...?”
“जब मैं बोल रहा हूं तो नौकरों का कोई मतलब नहीं रह जाता।”
कहकर उसने बलराज गोगिया की तरफ देखा।
“तीन खून करके आए हो तुम...।”
“तीन नहीं दो...।” राघव बोला।
“मगर इंस्पेक्टर तो कह रहा था कि तुमने तीन खून किए हैं। एक लड़की का...और दो आदमियों का...।”
“लड़की का खून उन दोनों ने किया था जिन्हें हमने मारा था।”
बलराज गोगिया बोला और सारी बात बता दी।
“जानते हो...पुलिस हेडक्वार्टर यहां से कितनी दूर है...सिर्फ आधा किलोमीटर...किसी ने तुम्हें वे खून करते देख लिया और पुलिस हेडक्वार्टर फोन कर दिया।”
“ओह!”
“जब फोनकर्ता ने पुलिस को यह बताया कि खून करने वाला नौ-दस साल का लड़का है तो पुलिस कूदकर इस नतीजे पर पहुंच गई कि यह जोड़ी सिर्फ बलराज गोगिया और राघव की ही हो सकती है।”
“ओह!”
“तभी तो इतनी पुलिस आ गई...वरना दो-चार सिपाही ही एक इंस्पेक्टर के साथ घटनास्थल पर पहुंचते...।”
पुलिस ने उन्हें कैसे पहचाना...यह उनकी समझ में आ चुका था। सो दोनों एक-दूसरे को देखने लगे।
“ऊपरवाले का शुक्र मनाओ कि उसने तुम्हें मेरे पास भेज दिया...वरना अब तक तुम्हारी लाशें पोस्टमार्टम के लिए रवाना हो चुकी होतीं।”
बलराज गोगिया ने घूरकर उसे देखा।
“एहसान जता रहे हो?”
“फिलहाल तो एहसान ही किया है...और यह अहसास तभी उतरेगा...जब तुम मुझ पर एहसान करोगे।”
“बोलो...क्या अहसान करवाना चाहते हो...।” राघव खुरदरे स्वर में बोला।
“वह भी बोल दूंगा...ऐसी जल्दी भी क्या है?” मुस्कुराया मैनेजर——“फिलहाल तो रात तुम यहीं आराम करो—— सुबह आराम से बैठकर बात करेंगे। तब तक पुलिस को भी तसल्ली हो जाएगी कि तुम सचमुच यहां नहीं हो।”
“यानी अभी भी पुलिस को संदेह है कि हम यहां छुपे हो सकते हैं।”
“वह तो होता है। बेशक ऊपर से इंस्पेक्टर ने मुझ पर विश्वास जता दिया है…मगर फिर भी मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इस वक्त भी रेस्टोरेंट पर पुलिस की तीखी नजर है।”
“ओह!”
“खाना खा लिया...?”
“हां...।”
“पीने की इच्छा हो तो बोलो।”
“फिलहाल तो सोने की इच्छा है।”
“बैड उधर है।” मैनेजर ने बैड की तरफ इशारा किया——“आराम से रात गुजारो।”
बलराज गोगिया ने बिना बैड की तरफ देखे सिर हिला दिया।
“तो मैं चलूं...सुबह मिलेंगे।”
कहते हुए मैनेजर खड़ा हो गया।
“कुछ अपने बारे में तो बोल।” तभी राघव बोला।
“क्या...?”
“यही कि तू कौन है...तेरा असल धंधा क्या है...?”
“बंदे को कमल चौहान कहते हैं...।” मुस्कुराया मैनेजर——“और इस रेस्टोरेंट का मालिक-कम-मैनेजर मैं ही हूं...।”
“अपने नंबर दो वाले धंधे के बारे में बता...।”
“उसके बारे में सुबह बात करेंगे...।”
कहकर उसने सीढ़ियों की तरफ कदम बढ़ा दिए।
बलराज गोगिया और राघव उसे तब तक देखते रहे, जब तक कि उसकी टांगें ऊपर गायब नहीं हो गईं।
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Additional information
Book Title | खून की होली : Khoon Ki Holi by Anil Saluja |
---|---|
Isbn No | |
No of Pages | 270 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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