खून बनेगा तेजाब
सुनील प्रभाकर
'योर ऑनर, ये एकदम खुला केस है—अदालत के पास ढेर सारे सबूत भी हैं और गवाहों की भी कोई कमी नहीं है—अभियुक्त भरत कुमार ने अदालत में सब इंस्पेक्टर के होलेस्टर से रिवाल्वर निकालकर उन गवाहों को गोली मारी थी, जिन्होंने इसके खिलाफ गवाही दी थी—फिर उसने लाखों लोगों की भीड़ के सामने ही प्रदेश के मुख्यमंत्री समेत कई मंत्रियों की हत्या कर डाली—जब अभियुक्त भरत कुमार ने उन लोगों को मारा था तो वहां प्रेस फोटोग्राफर थे, जिन्होंने उस हादसे के फोटो लिए थे—वहां पर दूरदर्शन की टीम भी मौजूद थी—जो कि समाचार के लिए 'हाईलाइट' की कवरेज कर रही थी। रात को समाचार में उस जघन्य हत्याकांड को दिखलाया गया था—जिसे करोड़ों लोगों ने देखा था—यानी इसमें बाल बराबर भी संदेह की गुंजाइश नहीं है कि अभियुक्त हत्यारा है—शायद ये इस स्टेट का सबसे बड़ा और जघन्य हत्याकांड है—जिसकी गूंज पूरे विश्व में फैली हुई है—जिसने भी देखा और सुना, वो सन्नाटे की-सी स्थिति में रह गया—एक बार को कोई विश्वास भी नहीं कर सकता है कि कोई अकेला आदमी इतनी भीड़ और पुलिस फोर्स की मौजूदगी में प्रदेश के मुख्यमंत्री और मंत्रियों की हत्या भी कर सकता है—इसी बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस शख्स को अगर खुला छोड़ दिया जाए तो—ये एक सप्ताह में सारे प्रदेश की जनता को कच्चा ही खा जाएगा—मैंने किताबों में डायनासोर के बारे में पढ़ा है...वो विशालकाय जानवर जिस भी इलाके से गुजरता था तबाही मचाता चला जाता था—ये शख्स उससे भी अधिक खतरनाक जानवर है योर ऑनर।”
सरकारी वकील पूरा उत्तेजित था—और गला फाड़कर चीखा था, इसीलिए उसकी सांसें धौंकनी की भांति ही चलने लगीं।
उखड़ी हुई सांसों को समेटने पर वो हांफते हुए बोला—“इस शख्स ने यदि हजारों निर्दोष व्यक्तियों को जान से मार दिया होता तो...शायद इतना बड़ा पाप व अपराध नहीं होता—परंतु इसने इससे भी जघन्य अपराध किया है—इसने उन लोगों की जान ली है जो कि इस प्रदेश के शासन को चला रहे थे—जनता के प्रतिनिधि थे ये लोग—उनके साथ करोड़ों लोगों की आस्था, विश्वास और भावना जुड़ी हुई थी। उन महान विभूतियों की हत्या से न जाने कितने लोगों को दु:ख हुआ होगा—न जाने कितने लोग तो मारे दु:ख के मर ही गए होंगे—जैसे गांधी के मरने पर देश की जनता रो उठी थी, उसी तरह आज भी ढेर सारे दिल रो रहे हैं—फिर ये प्रदेश का नुकसान भी तो है। जबकि कानून की किताबों में फांसी से बढ़कर भी कोई सजा है तो मैं उसके लिए उसे सजा की प्रार्थना करता—मैं अदालत से यही प्रार्थना करूंगा कि इस दशक के सबसे दुर्दांत अपराधी को सख्त सजा सुनाई जाए—ताकि फिर कोई भी अपराधी ऐसा अपराध करने का मन में ख्याल भी ना ला पाए—दैट्स ऑल योर ऑनर।”
सरकारी वकील के बैठते ही अदालत कक्ष में फुसफुसाहट होने लगी, जो कि बढ़ते-बढ़ते शोर-शराबे में परिवर्तित हो गई।
“ऑर्डर...ऑर्डर।”
जज साहब ने मेज पर मुगरी मारते हुए शांति का आदेश दिया।
जब सन्नाटा व्याप्त हो गया तो जज साहब कटघरे में खड़े शख्स से संबोधित होकर बोले—“अभियुक्त भरत कुमार अदालत ने तुमसे वकील करने के लिए कहा था परंतु तुमने अपना वकील करने से इंकार कर दिया था परंतु अदालत हर किसी को अपनी सफाई देने का अवसर प्रदान करती है ताकि बाद में कोई भी ये ना कहे कि अदालत ने एकतरफा निर्णय सुना दिया। तुम पर जो अपराध लगाए गए हैं वे तुम स्वीकार करते हो? यदि नहीं तो...क्या तुम अपनी निर्दोषता का कोई प्रमाण प्रस्तुत करना चाहोगे?”
कटघरे में खड़े उस गोरे चिट्टे शख्स ने अपना चेहरा ऊपर उठाया। उसके सिर व दाढ़ी के बाल बगुले जैसे सफेद थे। उसके चेहरे पर एक तेज-सा था। आभा थी तथा लाल आंखों में हीरे जैसी चमक थी।
चेहरे पर कोई पश्चाताप या शर्मिंदगी नहीं थी। न ही आंखों में कोई भय अथवा चिंता थी।
“जज साहब!” मानो वो आवाज किसी बूढ़े शेर की थी—“मैं इस बात से कैसे इंकार कर सकता हूं कि मैंने हत्यायें नहीं की हैं। मैं अगर इंकार करता भी हूं तो इससे लाभ क्या होगा? क्या अदालत मान जाएगी कि मैं हत्यारा नहीं हूं। नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मैंने अदालत में ही आपकी आंखों के सामने उन गवाहों को मारा था। मैंने लाखों लोगों के सामने चीफ मिनिस्टर और मंत्रियों के अलावा पुलिस अफसर को भूना था।”
“यानी तुम अपना अपराध स्वीकार करते हो?”
“अपराध?” उसकी भाव-भंगिमायें कुछ ऐसी हो गईं मानो जज साहब ने उसे कोई गंदी गाली दे दी थी। वो कड़ी निगाहों से जज साहब को घूरते हुए खुरदरे स्वर में बोला—“किसने कहा आपसे कि अपराध किया है मैंने?”
“कमाल की बात करते हो तुम भरत कुमार—तुम एक तरफ ये भी स्वीकार करते हो कि तुमने हत्याएं की, परंतु ये भी नहीं मानते कि तुमने अपराध किया है?”
“बिल्कुल नहीं मानता हूं, मैंने कोई अपराध नहीं किया है।”
“अदालत जानना चाहेगी कि तुम अपने आप को निर्दोष कैसे मानते हो?”
वो जज साहब की आंखों में झांकते हुए बोला—“मैं आपसे कुछ सवाल करूंगा जज साहब! कृपया आप ईमानदारी के साथ हां या ना में उत्तर दीजिएगा। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम ने रावण का वध किया था। प्रभु श्री कृष्ण ने कंस को मारा था, विष्णु भगवान ने नरसिंह अवतार लेकर हिरण्यकश्यप का संहार किया था, तो क्या वो पर अपराधी थे?”
“परंतु वे तो...।”
“सिर्फ हां या ना में उत्तर दीजिए, जज साहब, जैसे आपके वकील साहब ने भी मुझसे सिर्फ हां या ना में जवाब मांगा था।”
“न...नहीं... किंतु उनकी और बात थी। उन्होंने जिन लोगों को मारा था वो पापी थे, उनके अत्याचारों से जनता परेशान थी।”
“मैंने भी जिन लोगों को मारा है वो पापी थे। झूठे और बेईमान थे।” वो उत्तेजित भाव से बोलता चला गया—“मुजरिम थे वे—अपराधी थे। भेड़ की खाल में छुपे भेड़िए थे वे, जो कि चुपचाप इंसानियत का खून पी रहे थे—समाज को बर्बादी की कगार पर ले जा रहे थे—देश की जड़ों में विनाश का बीज बो रहे थे—मां भारती की पीठ में छुरा घोंप रहे थे वे।”
“क्या तुम अपनी बात को सच साबित कर सकोगे?”
वो प्रत्येक शब्द को जैसे चबा-चबाकर बोला था—“अगर मेरे पास सबूत होता तो उन्हें अपने हाथों से मारने की जरूरत नहीं थी। घसीटते हुए अदालत में लाता और उन्हें फांसी पर चढ़ा देता।”
“माना कि वो वैसे ही थे, जैसे कि तुम बतला रहे हो—परंतु तुम्हें सजा देने का क्या अधिकार था?”
“मुझे वो अधिकार था, जो कि देश की सीमा पर दुश्मनों को मारने का अधिकार फौजी को होता है।”
“वो सरकारी नौकर होते हैं, उन्हें इस बात का अधिकार दिया जाता है परंतु किसी आम इंसान को किसी की जान लेने का कानून अधिकार नहीं देता है।”
“मैं आम इंसान नहीं हूं जज साहब।” वो भड़कते हुए चीखा—“आम इंसान नहीं हूं मैं अगर मैं अपना शरीर दिखाऊंगा तो ढेर सारे जख्म दिखलाई देंगे आपको—और वो जख्म आजादी की लड़ाई लड़ते हुए मिले थे। सिर पर कफन बांधकर आजादी की लड़ाई लड़ा था मैं। इस देश की गुलामी के खिलाफ जंग लड़ी थी मैंने। देश जब आजाद हुआ था तो मुझे राष्ट्रीय सम्मान मिला था। मुझे सत्ता सौंपनी चाही थी राजनीतिज्ञों ने, परंतु मैंने सत्ता को ठोकर मार दी थी। ये कहते हुए कि मैंने सत्ता का सुख भोगने के लिए आजादी की लड़ाई नहीं लड़ी—मैंने अपने वतन के लिए जो कुछ भी किया है उसकी कीमत नहीं चाहिए। हां, मैंने ये कल्पना अवश्य की थी कि गांधी का सपना साकार हो। अपने देश में राम राज्य की स्थापना हो परंतु ये भूल थी मेरी। हमने रावण रुपी अंग्रेजों को अवश्य मार भगाया था परंतु कुछ राक्षस इंसान की खाल ओढ़ कर रह गए थे। यहां जो तन से तो हिंदुस्तानी ही थे, परंतु मन और आत्मा से अंग्रेजी थे। जिनकी श्रद्धा अपने वतन में नहीं थी, अपने निजी स्वार्थ में थी। ऐसे ही एक राक्षस ने आजादी के इस दीवाने के खिलाफ साजिश का चक्रव्यूह रचा। मैंने राज्य का बदला हुआ रूप ही पाया। राम राज्य के सपने देखे थे मैंने, किंतु रावण राज्य की स्थापना हो गई थी। मैंने उस रावण राज को समाप्त कर दिया है। अदालत भले ही इसे मेरा अपराध माने, परंतु मैंने अपनी समझ में अपने राज्य को बेच खाने वाले शैतानों को मारा है, उन्हें मारने का रत्ती भर भी अफसोस नहीं है मुझे, यदि अदालत मुझे फांसी की सजा भी देती है तो मैं समझता हूं कि मैं शहीद हो गया हूं, मुझे भी वो इनाम मिल गया है जो भगत सिंह, राजगुरु तथा सुखदेव जी जैसे क्रांतिकारियों को मिला था।”
जज साहब भारत कुमार के शब्दों से थोड़ा प्रभावित दिखलाई पड़े तथा उससे बोले—“यदि वे लोग ऐसे थे तो तुम्हें चाहिए था कि कानून की मदद लेते। कानून के हाथों सजा दिलवाते उन्हें।”
“कानून के हाथों और उन सत्ताधारीयों को सजा?” वो व्यंग भरी मुस्कान के साथ बोला—“आप तो मजाक कर रहे हैं जज साहब—भला कोई आग सूरज को जला सकती है? क्या कोई कुआं समुद्र को अपने भीतर डुबो सकता है। अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि इस देश का कानून सत्ता का गुलाम है। कानून के रखवाले नेताओं से दबकर काम करते हैं...क्योंकि उन्हें अपनी नौकरी जाने का भय तथा तरक्की करवाने का लालच होता है। भले ही आप स्वीकार नहीं करें परंतु ये सच है कि अगर आपके पास किसी मिनिस्टर का फोन आ गया तो आप उसकी इच्छा अनुसार ही निर्णय करेंगे। मैं कानून की मदद नहीं ले सकता था क्योंकि कानून के रखवाले तो उन लोगों की जी हजूरी कर रहे थे। मुझ पर पुलिस ने उन लोगों के इशारे पर झूठा आरोप लगाकर अदालत में प्रस्तुत किया था। तभी मेरा आक्रोश फट गया था, मुझे लगा था कि अब कानून इंसाफ नहीं करेगा। उन दरिंदों को सजा नहीं देगा और उन्हें छोड़ देने का सीधा-सा मतलब इस राज्य की तबाही से था—सो मुझे ही कानून बनकर अपनी ही अदालत में उन लोगों को सजा देनी पड़ी। आप जरा इतिहास की किताबें उठाइए जज साहब...भारत की आजादी वाला चैप्टर पढ़िए। उसमें मेरा भी वर्णन मिलेगा आपको। फिर आप ये सोचना कि जो शख्स सिर पर कफन बांधकर मातृभूमि के लिए लड़ा था, भला वो किन्हीं निर्दोष व्यक्तियों की हत्या कर सकता है?”
जज साहब थोड़ा सोच में पड़ गए।
अदालत कक्ष में सन्नाटा व्याप्त था। प्रत्येक दर्शक स्तब्ध भाव से कटघरे में खड़े उस व्यक्ति को देख रहा था, जो कि अब कोई देवता प्रतीत होता था।
किसी का मन उस बात को मानना नहीं चाहता था कि वो दुर्दांत हत्यारा हो सकता है?
जज साहब के धीर-गंभीर स्वर में ही उस निस्तब्धता को भंग किया—“भारत कुमार...ये अदालत सारी बातें जानना चाहती है—तुमने जिन लोगों को मारा है, वे सभी के लिए अच्छे इंसान थे—कभी ऐसा कोई जिक्र भी नहीं हुआ कि उनमें कोई बुराई भी हो सकती है कि वो भीतरखाने खराब व्यक्तित्व वाले हों—अदालत अपना निर्णय सुनाने से पूर्व ये जानना चाहती है कि तुम्हारा उन लोगों से क्या लिंक था तथा तुमने उनकी हत्या क्यों कीं?
“यदि अदालत चाहे तो मैं अपनी सारी दास्तान सुनाना चाहता हूं जज साहब—इस दास्तान को थोड़ा पीछे से शुरू करना चाहता हूं—जब ये देश गुलाम था—अंग्रेजी हुकूमत हम हिंदुस्तानियों पर अत्याचार कर रही थी...।”
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