खून बहेगा सड़कों पर : Khoon Bahega Sardkon Pe by Rakesh Pathak
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Description
सुपरिन्टेन्डेण्ट ऑफ पुलिस सुदर्शन मलिक का ट्रांसफर विजय नगर में हुआ तो उसका सामना वहां के भगवान भूतनाथ से हुआ। शहर का कानून जिसके सामने नतमस्तक था, सुदर्शन मलिक ने उसके सामने झुकने से मना किया तो उसका जीवन जहन्नुम बन गया। वो ना केवल तबाह हो गया बल्कि उसकी पत्नी तथा नवजात बेटे को भी बेरहमी के साथ मार दिया गया।
भूतनाथ के नाम का शहर में इतना भयंकर आतंक था कि हर शहरी उसे हर चीज के लिए टैक्स देता था। भूतनाथ के बेटे प्रेतनाथ की जिस लड़की पर नजर पड़ती थी, उसका रेप करके उसे मार डालता था। शहर में जो भी उसके खिलाफ आवाज उठाता था उसका खून सड़क पर बहा दिया जाता था।
वहीं पर अमरकान्त और कृष्णकान्त अपना पुराना हिसाब सुदर्शन मलिक से चुकाने के लिए आये थे मगर...।
उन्हें सुदर्शन के कन्धे-से-कन्धा मिलाकर मैदान-ए-जंग में उतरना पड़ा।
फिर विजय नगर की सड़कों पर इतना खून बहा कि वहां की सड़कें खून की नदियां बन गईं।
खून बहेगा सड़कों पर : Khoon Bahega Sardkon Pe
Rakesh Pathak
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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खून बहेगा सड़कों पर
राकेश पाठक
“हैल्लो...सुपरिन्टेन्डेण्ट ऑफ पुलिस सुदर्शन मलिक स्पीकिंग—हू आर यू—?”
“भूतनाथ—।”
“भू—भूतनाथ...!” चिहुंका एस०पी० सुदर्शन मलिक।
रिसीवर वाला हाथ तनिक थरथराया।
पेशानी पर तत्काल उभर आईं मोटी सिलवटों की नालियों में पसीना भरता चला गया।
“हां भूतनाथ...।” दूसरी तरफ मानो कोई मुर्दा कफन फाड़कर बर्फ-सी ठण्डी आवाज में बोल रहा था—“विजय नगर का बेताब बादशाह—जिसकी इजाजत से हवा चलती है—पंछी पंख फड़फड़ाते हैं—जिसकी चिंघाड़ पर चिता पर लेटे मुर्दे भी घबराकर चीख उठते हैं और उठकर भाग खड़े होते हैं—जिसकी आमद भयंकर तूफान से कम नहीं होती है—सड़कें दहलने लगती हैं—इमारतें कांपने लगती हैं—जिसके हाथों में पूरे विजय नगर का भाग्य बन्द रहता है—तू अभी नया-नया आया है—शायद किसी ने तेरे को हमारे बारे में बतलाया नहीं है एस०पी० कि हम क्या बला हैं?”
“मालूम है मुझे...।” स्वयं को नियन्त्रित करते हुए बोला वह—“जब मैं फुलत सिटी में था—तभी तेरे बारे में सारी बातें मालूम हो गई थीं मुझे भूतनाथ—हालांकि तेरे खौफ की वजह से विजय नगर के रिपोर्टर्स कभी भी तेरे खिलाफ अखबारों में नहीं लिखते हैं—पहले जिन साहसी लोगों ने तेरे खिलाफ अखबार में छापा था उन्हें तूने, तेरे गुण्डों ने दुनिया से ही उठा दिया था—लेकिन फिर भी तेरे काले कारनामों का जिक्र मेरे सामने होता रहा था—विजय नगर से ट्रांसफर होकर जाने वाले मेरे डिपार्टमेन्ट के लोगों ने बताया था कि विजय नगर में तेरी समानान्तर सरकार चलती है—यानि पूरे स्टेट में भले ही किसी की भी सत्ता हो लेकिन विजय नगर में भूतनाथ की ही हुकूमत चलती है—।”
“फिर तो तेरा दम निकल गया होगा एस०पी०—जब तेरा ट्रांसफर विजय नगर के लिए हुआ होगा...।” ईयर फोन पर उभरने वाली आवाज में व्यंग का पुट शामिल हो गया—“तूने काफी भागा-दौड़ी की होगी—अफसरों के आगे सिर पटके होंगे—मिन्नतें की होंगी कि तुझे विजय नगर नहीं भेजा जाये—।”
“कोई सवाल नहीं बनता है—मेरा ट्रांसफर तो रामगढ़ के लिए हुआ था लेकिन मैंने रिक्वेस्ट करके अपनी पोस्टिंग विजय नगर में लिए करवाई—।”
“ओह, आत्महत्या के लिये? जिन्दगी से आज़िज आ गया है क्या, जो तूने अपना सिर ओखली में रख दिया है—?”
“नहीं...।”
“तो फिर तूने हमारे आदमियों को गिरफ्तार क्यों कर लिया? हमारे आदमी से रिश्वत ना लेकर उसे डांट-डपटकर भगा क्यों दिया? ओह, समझे हम—।”
“क्या समझे तुम भूतनाथ—?”
“तू अपनी कीमत बढ़वाना चाहता है—शायद तुझे वो रकम कम लगी थी—अब दिमाग में बात आयी कि तूने अपनी पोस्टिंग विजय नगर में मोटा नावा पीटने के लिए ही...।”
“अपनी काली जुबान को लगाम दे भूतनाथ...।” एस०पी० सुदर्शन मलिक क्रोधातिरेक से थर-थर कांपते हुए बोला—“तूने अगर मेरी हिस्ट्री मालूम कर ली होती तो ऐसी गलत बात अपने सड़े हुए मुंह से निकाली नहीं होती—मेरे चार्ज लेने के चौबीस घण्टे के भीतर ही इलाके के मुजरिमों को मालूम हो जाता है कि एस०पी० मलिक को मां-बहन की गाली तो बर्दाश्त हो जाती है लेकिन रिश्वत का नाम भी बर्दाश्त नहीं होता है—रिश्वत लेकर आने वाला कभी भी अपने पैरों से चलकर नहीं लौटता है, उसे हॉस्पिटल की एम्बुलेन्स ही ले जाती है—तेरे भेजे हुए गुण्डों का नसीब बढ़िया था—मेरी बीवी मां बनने वाली है, हॉस्पिटल जाने से पहले उसने मेरे से वचन लिया था कि मैं अपने गुस्से पर काबू करके रखूंगा और किसी के हाथ-पैर नहीं तोड़ूंगा—अगर मैं वचन की डोर से बंधा नहीं होता तो रिश्वत लेकर आने वाला तेरा वो गुण्डा इमरजेंसी वार्ड में जिन्दगी और मौत के बीच झूला-झूल रहा होता—।”
“तू कहना क्या चाहता है एस०पी० ...?” दूसरी तरफ से बोलने वाला तैश में आ गया था—“साफ-साफ बोल कि तेरे इरादे क्या हैं? तू हमारे आदमियों को छोड़ेगा कि नहीं? लेकिन रुक...थम जा—जवाब देने में इतनी जल्दी मत करना—अपनी जुबान को ब्रेक लगा—पहले सोच-समझ ले—पहले अपने स्टाफ के लोगों के साथ सलाह-मशविरा कर ले—वो तेरे को हमारे बारे में ठीक-ठीक समझा देंगे—शायद हमारे बारे में पूरी जानकारी मिलने पर तेरा जोश बीयर के झाग की मानिन्द बैठता चला जाये—और तू हमारे कदमों में गिरकर अपनी भूल की माफी...।”
“भूल की माफी...?” एस०पी० सुदर्शन मलिक का चेहरा विकृत हो चला—वह होठों को भींचकर वितृष्णा भरे स्वर में बोला—“वो भी तुझ जैसे मुजरिम से? नामुमकिन—ये मेरी वर्दी किसी वेश्या का लिबास नहीं है कि किसी ऐरे-गैरे के कदमों में बिछ जाये—मेरी वर्दी गंगाजल की तरह पवित्र है—जिसमें कर्त्तव्य परायणता के धागे लगे हैं और जिसे ईमानदारी की मशीन से सिला गया है—किस बात की माफी मांगूंगा मैं तेरे से? मैं कोई मुजरिम हूं और तू कोई जज है?”
“हां—विजय नगर की अदालत के हम जज ही हैं एस०पी० मलिक—।” दूसरी तरफ से भूतनाथ फुंफकारते हुए बोला—“इस इलाके में हमारा ही कानून लागू होता है—हमारी ही अदालत चलती है—यहां के हुक्मरान हैं हम—कोई साला हमारे खिलाफ चलने की जुर्रत करता है तो हम उसे अपना मुजरिम घोषित कर देते हैं—बड़ा ही अभागा और बदनसीब होता है वह शख्स, जिसे भूतनाथ मुजरिम करार देता है क्योंकि हम उसकी जिन्दगी को तबाही के ताबूत में बन्द करके मौत की कीलें ठोंक देते हैं—वह पहले जल बिन मछली की मानिन्द ही छटपटाता है—उसकी मदद भगवान भी नहीं कर पाता है क्योंकि विजय नगर के भीतर सिर्फ जुर्म के मन्दिर ही स्थापित हैं और उनमें भूतनाथ भगवान बनकर बैठा हुआ है—हम तेरे से आखिरी बार पूछ रहे हैं कि तू हमारे आदमियों को छोड़कर हमसे माफी मांगेगा कि नहीं?”
“माफी तो तू मांगेगा भूतनाथ—कानून से और अदालत से—तूने इस अभागे शहर की रगों में जुर्म का जहर भर दिया है—इंसानियत को फाड़कर खा गया है तू—तूने प्रजातन्त्र के बाजार से धर्म और पुण्य के सिक्के गायब कर दिये हैं और अपनी जुर्म को टकसाल में बने जुल्मो-सितम के सिक्के चला रहा है—तेरे गुण्डों ने विजय नगर के लोगों का जीना मुहाल कर दिया है—जैसे यहां सरकार या कानून नाम की चीज ही नहीं रही है—तेरे गुण्डे अपनी मनमानी करते हैं—किसी का भी कत्ल कर देते हैं—किसी को भी लूट लेते हैं—किसी भी अभागी की लाज सरेआम नीलाम कर दी जाती है—जुल्मो-सितम की चक्की में पिसने वाले अभागे लोग रो-पीटकर रह जाते हैं—उनकी फरियाद सुनने वाला कोई नहीं है—उनकी सुनवाई नहीं होती है—अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि पुलिस वाले भी तेरे या तेरे गुण्डों के खिलाफ कार्रवाई करना तो दूर रहा—रिपोर्ट भी नहीं लिखते हैं—उल्टे फरियादी को ही मार-पीटकर भगा देते हैं—थाने कानून की सुरक्षा और जनता की सेवा करने के लिए नहीं हैं—बल्कि इलाके में चल रहे नम्बर दो के धन्धों को प्रोटेक्शन देने और कमीशन खाने के लिए ही रह गये हैं—कुल मिलाकर मेरे डिपार्टमेन्ट के लोग वर्दी कानून की पहनते हैं लेकिन चाकरी तेरी करते हैं—।”
“देख ले एस०पी० कितनी बड़ी ताकत है हमारे पास—पुलिस वाले हमारे नौकर बनकर काम कर रहे हैं—कानून की वर्दी पहनकर और सरकार से तनख्वाह लेकर कानून का गला घोंटने वाले हाथों को ही मजबूत कर रहे हैं—वो अपने फर्ज के साथ गद्दारी करके बड़े ही खुश हैं क्योंकि उन्हें हमसे मोटी कमाई होती है—क्या होती है खाली तनख्वाह से—बीवी-बच्चों को ढंग का खाना और कपड़े भी नहीं मिल पाते हैं—गाड़ी और बंगला एक ख्वाब ही बनकर रह जाते हैं—घर में कोई बीमार पड़ जाये तो उसका नर्सिंग होम में इलाज भी नहीं करवा सकते हैं। जिन्दगी की गाड़ी दौड़ने की बजाय घिसटती ही है। मिलता भी क्या है ईमानदारी से ड्यूटी करने के बदले? प्रमोशन के नाम पर बढ़े हुए पचास-सौ रुपये—अगर जांबाजी दिखलाते हुए किसी मुजरिम के हाथों हलाल हो गये तो नाम के साथ शहीद शब्द जुड़ जायेगा और रिश्तेदारों को हकीर-सी रकम के साथ कोई मेडल या सर्टीफिकेट दे दिया जाता है—फिर कोई भी शहीद के परिवार की खैर-खबर नहीं लेता है कि वो कहां मर-खप रहा है। जबके हालात से समझौता करने वाले और दौलत की पूजा करने वाले लोग समझदार होते हैं—वो चांदी काटते हैं—वो ऐश भरी जिन्दगी जीते हैं—अपने परिवार की तमाम इच्छाओं को पूरा करने में सक्षम होते हैं—वो अपने ख्वाबों को हकीकत का जामा पहना देते हैं—उन लोगों की कैटेगरी में शामिल हो जा तू एस०पी०—हम दावे के साथ कह सकते हैं कि तेरी बीवी बच्चा जनने के लिए सरकारी अस्पताल में ही एडमिट हुई होगी—उसे आम औरतों के बीच ही किसी सड़े हुए बिस्तर पर डाल दिया गया होगा—तेरे पास इतने पैसे नहीं होंगे कि उसे किसी प्राइवेट मेटरनिटी हॉस्पिटल में एडमिट करवा पाये—अपने बच्चे को तू कुछ भी तो नहीं दे पायेगा—उसे ढंग का खाना-पीना भी नसीब नहीं होगा—कॉन्वेंट स्कूल की बजाय वह नगरपालिका के स्कूल में गन्दे और सड़े हुए बच्चों के बीच बैठकर ही पढ़ेगा—जबकि हमारा ताबेदार बनने पर तू अपने बच्चे को राजकुमारों वाली लाइफ दे सकेगा—तेरी बीवी के जिस्म पर खूबसूरत लिबास और गहने होंगे—कहीं आने-जाने के वास्ते रिक्शा की बजाय शानदार मर्सिडीज गाड़ी होगी—हमसे दुश्मनी लेने पर तुझे नसीब होगी सिर्फ कुत्ते वाली मौत—तेरी बीवी बेवा होकर लोगों के जूठे बर्तन मांजेगी या फिर अपनी जरूरतों को पूरा करने के वास्ते उसे गैर मर्दों के बिस्तर गर्म करने...।”
“जुबान को लगाम दे कुत्ते...।”
“ना एस०पी० ना...गर्म मत हो—अपना टेम्पर डाउन ही रख—हम हकीकत बयान कर रहे हैं—तेरा बच्चा अनाथ होकर या तो भीख मांगेगा—या फिर लोगों के जूते पॉलिश करेगा—सुना है कि तेरी बीवी ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है—वर्ना सरकार उस पर तरस खाकर कोई छोटी-मोटी नौकरी ही दे देती—हां, सुनने में आया है कि वह काफी खूबसूरत है—उसे कोठे की कोई बाई ही मर्दों को खुश करने वाली नौकरी...।”
“अगर तूने अपनी गंदी जुबान से एक लफ्ज भी और निकाला तो मैं तेरी जुबान काटकर चील-कव्वों को खिला दूंगा भूतनाथ...।” एस०पी० सुदर्शन मलिक अंगारों पर लेटता हुआ-सा बोला—“मत भूल कि तू एक एस०पी० से बात कर रहा है—जो जिले का सबसे बड़ा पुलिस अफसर होता है...।”
“विजय नगर से बाहर होता होगा—विजय नगर के भीतर नहीं होता है...।” रिसीवर के ईयर फोन से भूतनाथ की रेगमाल जैसी खुरदरी आवाज खारिज हुई—“विजय नगर में सरकारी पद कोई मायने नहीं रखता है। यहां पर सिर्फ भूतनाथ द्वारा प्रदान किए गये पद ही अहमियत रखते हैं—किसी एस०पी० या डी०एस०पी० से ज्यादा उन कांस्टेबल की अहमियत होती है—जिसे भूतनाथ का आशीर्वाद हासिल होता है—हमारे आशीर्वाद को हासिल करने वाला कोई चपरासी डी०एस०पी० से ज्यादा पॉवर रखता है क्योंकि वह जो चाहेगा वो ही होगा—वह जो नहीं चाहेगा, वो कतई नहीं होगा—हमारे आशीर्वाद के बिना तेरा कोई ऑर्डर मान्य नहीं होगा—जबकि हमारा कोई थानेदार या कांस्टेबल जो भी चाहेगा, उसे तू या तेरा कोई बड़ा अफसर भी नहीं रोक पायेगा। तूने हमारी बात ना मानकर बहुत बड़ी भूल की है—बेवकूफी का परिचय ही दिया है तूने क्योंकि ट्रेन की पटरी पर बंधा हुआ कोई शख्स ट्रेन से दुश्मनी मोल लेकर फायदे में नहीं रहता है—मगरमच्छ से बैर लेने वाली कोई मछली लाभ में नहीं रहती है—अब अपनी कमर कस ले—बीमा करवा ले—अपने भगवान को याद कर ले—तेरी जिन्दगी का तिनका भूतनाथ की जुर्म की नदी में उसके गुस्से के भंवर में फंस चुका है—भूतनाथ की अदालत तुझे मौत की सजा सुनाती है—थोड़ी देर बाद ही तुझ तक हमारा परवाना पहुंच जायेगा—हम तेरे लिए ऐसा तोहफा भिजवा रहे हैं—कि जो तुझे किसी ने नहीं दिया होगा अभी तक—न ही तूने ऐसे तोहफे की कभी कल्पना भी की होगी—गुडबॉय, एस०पी० ...।”
और इसी के साथ दूसरी तरफ से फोन डिस्कनेक्ट हो गया।
“उल्लू का पट्ठा...!” एस०पी० सुदर्शन मलिक रिसीवर को इस्टूमेन्ट के क्रेडिल पर पटकते हुए बड़बड़ाया था—“अपने आपको ना जाने कौन-सी तोप समझता है—मैंने बड़े-बड़े मुजरिमों को सीधा कर दिया है—जुर्म का ऊंट जब कानून के पहाड़ तले आएगा तो अपनी औकात उसे मालूम होगी—मैं तेरा खात्मा करके ही चैन की सांस लूंगा—।”
¶¶
एस०पी० सुदर्शन मलिक ने कॉफी का घूंट भरा ही था कि कानों में ढोल व नगाड़ों की आवाजें पड़ने लगीं—
ढोल व नगाड़ों की आवाज निरन्तर तेज होती चली गई और लगा कि ढोल-नगाड़े वाले ऑफिस की तरफ ही चले आ रहे थे।
माजरा समझ से बाहर था—तो वह उठा और ऑफिस से बाहर निकला।
ऑफिस के दरवाजे पर ही काले-कलूटे और खूंखार सूरत वाले युवक ढोल व नगाड़ा बजा रहे थे—एस०पी० मलिक को देखकर उनके हाथ दुगने जोश से काम करने लगे।
आवाजें कर्णभेदी हो चली थीं।
“स्टॉपऽऽऽ!” वह कानों में उंगलियां डालकर चिल्लाया—“बन्द करो ये शोर—।”
ढोलकिया और नगाड़ची ने मानो कुछ सुना ही नहीं—उनके हाथ और तेजी से चलने लगे।
आवाजें तेज हो चलीं—बर्दाश्त से बाहर।
एस०पी० मलिक ने ऑफिस के बाहर तैनात दोनों कांस्टेबिलों को आग्नेय दृष्टि से घूराजो कि चुपचाप खड़े तमाशा देख रहे थे।
“तुम दोनों बुत बने क्यों खड़े हो—?” वह गला फाड़कर दोनों पर बरसा—“इन लोगों को भीतर आने ही क्यों दिया गया? अगर आ भी गये तो इन्हें बाहर खदेड़ा क्यों नहीं? तुम दोनों के रिश्तेदार लगते हैं क्या ये—?”
कांस्टेबल शान्त रहे—उनके कानों पर जूं नहीं रेंगी।
मानो पाषाण प्रतिमा में तब्दील हो चुके थे।
सुदर्शन मलिक के तन-बदन में आग लग गई—तमाम नसों में खून की बजाय मानो तेजी के साथ तेजाब गर्दिश करने लगा।
जूनियर्स द्वारा आज्ञा की अवहेलना होने के कारण वह अपमान की आग में झुलसने लगा—मारे पीड़ा के चेहरा लाल भभूका हो चला और आंखों में चिंगारियां भड़कने लगीं।
“बहरे हो गए हो क्या तुम दोनों...?” वह दोनों हाथों से दोनों कांस्टेबिलों के गिरेहबान थाम कर गुर्राया—“अपने सीनियर अफसर की आज्ञा क्यों नहीं मान रहे हो तुम लोग—तुम दोनों सस्पेण्ड होना चाहते हो क्या? इन लोगों को फौरन ही धकेल कर बाहर निकालो...दिस इज माई ऑर्डर—।”
दोनों कांस्टेबिलों की नजरें आपस में मिलीं।
संकेतों का आदान-प्रदान हुआ।
दोनों ने झटके के साथ सुदर्शन मलिक के हाथों को हटाकर अपने गिरेहबान छुड़ाए और उनमें से एक रुखेपन से बोला—“होश की दवा करो एस०पी०—ये लोग भूतनाथ जी के आदमी हैं—हमें इन्हें छेड़कर अपने लिए मुसीबत खड़ी नहीं करनी है—तुमने अपने बेवकूफी से ही ऐसी नौबत आने दी है—उसे भुगतो अपनी ऐंठ और सड़ोध का खमियाजा—आ गए हैं मौत का परवाना लेकर—।”
तभी चार खूंखार शक्ल वाले लोग कन्धों पर खाली अर्थी लिए हुए आ पहुंचे—उनके साथ कम-से-कम एक दर्जन हथियारबन्द कमाण्डोज थे—जिन्होंने चमड़े की काली ड्रेसें पहनी हुई थीं—उनके पेट पर हैण्ड ग्रेनेड वाली बेल्ट बन्धी हुई थीं—।
काली पोशाक वाले कमाण्डोज ने एस०पी० सुदर्शन मलिक को अर्धवृत्ताकार घेरे में ले लिया और उस पर ए०के० छप्पन रायफलें तान दीं।
बाकी चार जनों ने अर्थी को फर्श पर रख दिया।
ढोल-नगाड़ा बजने बन्द हो गए।
“ये...ये क्या हिमाकत है...?” एस०पी० मलिक इतने जोर से गला फाड़कर चीखा कि चेहरे का रंग गिरगिट की मानिद ही बदल कर सिन्दूरी हो गया—“इस बदतमीजी का मतलब क्या है? कौन लोग हो तुम—?”
‘ढम’ से ढोल पर हाथ मारकर ढोल वाला व्यंगपूर्ण मुस्कान के साथ बोला—“अभी भी नहीं समझा है तू एस०पी० कि हम लोग भूतनाथ जी के आदमी हैं और जानी-मानी परम्परा को निभाने के लिए आये हैं—।”
“कौन-सी परम्परा—?”
नगाड़ची हौले-हौले नगाड़े पर थाप मारते हुए बोला—“भूतनाथ जी अपने जिस दुश्मन पर कुपित हो जाते हैं—उसकी मौत का फर्मान जारी कर देते हैं—उनके फर्मान का मतलब होता है कि शिकार को चौबीच घण्टे के भीतर मौत—हम डंके की चोट पर शिकार के पास जाकर उसे अर्थी के रूप में मौत का परवाना देते हैं—अर्थी उसकी मौत होने की तस्दीक करती है—फिर हमारे ये ब्लैक कमाण्डोज शिकार को घेर लेते हैं—उसके इर्द-गिर्द मौत का ऐसा जाल डाल देते हैं कि वह चौबीस घण्टे के भीतर ही मारा जाता है—चौबीस घण्टे का वक्त शक्ति परीक्षण के लिए होता है—हमारे मालिक...हमारे भगवान भूतनाथ जी किसी को भी ये कहने का मौका नहीं देना चाहते हैं कि उसे कोई मौका दिया बिना ही मार दिया गया—भूतनाथ जी अपने दुश्मन को जान बचाने का या कुछ करने का मौका देते हैं—।”
“लेकिन सिर्फ चौबीस घण्टे ही...।” एक काली ड्रेस वाला ए०के० छप्पन रायफल को लहराते हुए चेतावनी के लहज़े में बोला—“और हम शिकार को विजय नगर से बाहर जाने का मौका नहीं देते हैं—अगर वह शहर से भागने की चेष्टा करता है तो उसे चौबीस घण्टे पूरे होने से पहले ही कहीं पर हलाल कर दिया जाता है—अब तेरे पास सिर्फ चौबीस घण्टे ही हैं एस०पी०—देखना है कि तू अपनी जान बचाने के लिए क्या करता है। मियाद खत्म होने पर हम लोग तुझे इस अर्थी पर जिन्दा हालत में ही लिटाकर भूतनाथ जी के पास ले जाएंगे—वहां पर तेरे को मौत की सजा दे दी जाएगी—अगर हमें लगेगा कि तुझे अर्थी पर डालकर भूतनाथ जी के पास ले जाना मुमकिन नहीं है तो हम तुझे मारकर तेरी लाश को ही भूतनाथ जी के पास ले जाएंगे...क्या?”
“शट अप...।” मलिक गला फाड़कर चीखा—“ज्यादा बकवास की तो तुम लोगों को गिरफ्तार कर लिया जाएगा—बल्कि तुम लोग अपने-आपको कानून की हिरासत में ही समझो—तुमने एक पुलिस ऑफिसर के ऑफिस में दाखिल होकर उसे जान से मारे की धमकी दी है—उस पर हथियार तानने का गुनाह किया है—यू आर अण्डर अरेस्ट—तुम लोग क्या समझते हो कि कानून तुम्हारे बाप की जागीर हो गया है और कानून की वर्दी अहमियत ही नहीं रखती है? अगर गुण्डे कानून पर हावी होने लगेंगे तो फिर अवाम का क्या होगा? मत भूलो कि मैं सुपरिन्टेंडेन्ट ऑफ पुलिस हूं, कोई मामूली कांस्टेबल या आम नागरिक नहीं हूं—विजय नगर जिले की तमाम पुलिस मेरे अण्डर में है—तुमने या तुम्हारे बॉस ने मेरे से टकराकर बहुत बड़ी भूल की है—माना कि भूतनाथ ने कुछ पुलिस वालों को लालच देकर खरीदा हुआ है और वो लालच में आकर मुजरिमों का साथ दे रहे हैं लेकिन हैं तो वे पुलिस वाले ही—जब उन पर दबाव पड़ेगा तो वो अपनी ड्यूटी करेंगे—मैं यहां भूतनाथ को नेस्तनाबूद करने के इरादे से ही आया हूं—उसे गिरफ्तार करके अदालत के हाथों सजा दिलाऊंगा—।”
भूतनाथ के गुण्डे एकबारगी को तो एस०पी० की हिम्मत पर हत्प्रभ से रह गए—उस पर कई हथियार तने हुए थे—फिर भी वो घबरा नहीं रहा था—दबाव नहीं मान रहा था—।
फिर वो लोग मजाक उड़ाने वाले अन्दाज में हंसने लगे मानो किसी चूहे द्वारा धमकी मिलने पर बिल्लियों का झुण्ड उसकी नादानी पर हंसने पर मजबूर हो गया था।
तब तक वहां कई पुलिस वाले भी आ गए थे—जिसमें एक थानेदार और दो सब-इन्सपेक्टर भी थे।
“शर्म आनी चाहिए तुम लोगों को...।” अपनी बेबसी पर अपने मातहतों को मुस्कराते हुए पाकर सुदर्शन मलिक आग-बबूला होकर बोला—“ये लोग हम पर हथियार ताने खड़े हैं—तुम लोगों की मौजूदगी में हमें जान से मारने की धमकी दे रहे हैं—तुम्हारे सीनियर ऑफिसर पर हंस रहे हैं ये गुण्डे—तुम लोग भी हमारी बेबसी पर मुस्कराकर इन मुजरिमों का साथ दे रहे हो—मत भूलो कि तुमने कानून की वर्दी पहनी हुई है—जिसे धारण करते वक्त तुम लोगों ने कानून की रक्षा करने की सौगन्ध खाई थी—क्या रिश्वत का नाग तुम लोगों के जमीर को डंस गया है? क्या तुम्हारी आत्माओं पर बेगैरत और जुर्म का इतना मुलम्मा चढ़ गया है कि तुम लोग अपना फर्ज भी भूल गए हो—तुम्हें अब तक इन गुण्डों को हिरासत में ले लेना चाहिए था—खून क्यों नहीं खौला तुम्हारा, अपने अफसर का...इस पवित्र वर्दी का अपमान होते देखकर?”
पुलिस वाले ‘हो-हो’ करके हंसने लगे।
मारे अपमान व क्रोध के सुदर्शन मलिक की मुट्ठियां भिंचती चली गईं—चेहरा हलवाई की भट्टी की मानिन्द ही दहकता चला गया—उसके हलक से मानो शब्दों के रूप में अंगारे ही बरसने लगे—“डूबकर मार जाओ तुम लोग—तुम लोग पुलिस डिपार्टमेन्ट के नाम पर कलंक हो—कानून के नाम पर एक मवाद युक्त कोढ़ी हो—चन्द रुपयों की खातिर तुम लोगों ने अपना जमीर। अपनी आत्मा को बेच खाया है—तुम जैसे पुलिस वालों के काले कारनामे देखकर ही लोगों का पुलिस पर से भरोसा उठने लगा है—लोग खाकी वर्दी को शक की नजरों से देखने लगे हैं—नफरत करने लगे हैं पुलिस के नाम से भी—पुलिस वाले को देखकर नफरत से कहने लगे हैं कि...देखो, पुलिस का कुत्ता आ रहा है—किसी पर कोई मुसीबत आ जाये तो वह थाने में जाते हुए कतराता है—डरता है कि पुलिस वाले इंसाफ देने की बजाय उसे तंग करेंगे—रिश्वत मांगेंगे या उसे ही किसी झूठे-सच्चे केस में फांस देंगे—हालात ऐसे बनते जा रहे हैं कि आम नागरिक ही पुलिस से डरते हैं—जबकि मुजरिम पुलिस वालों से दोस्ती होने का दम भरते हैं—कोई औरत फरियाद लेकर थाने में जाते हुए डरती है कि कहीं उसके साथ कुछ हो ना जाए—कई ऐसे केस हो भी चुके हैं कि औरतों की थानों में लाज लूटी गई—हालांकि सारे पुलिस वाले ऐसे नहीं हैं—आज भी ईमानदारी से अपना फर्ज निभाने वालों की कोई कमी नहीं है—पुलिस डिपार्टमेन्ट में ऐसे लोग भरे पड़े हैं जो सिर पर कफन लपेटकर कानून और जनता की हिफाजत करते हैं—वो रिश्वत के बदले अपनी आत्मा और वर्दी का सौदा नहीं करते हैं, अपनी जान की बाजी लगाने से पीछे नहीं हटते हैं लेकिन तुम जैसी चन्द गन्दी मछलियों ने पूरे तालाब को गन्दा किया हुआ है—तुम लोग जब बेईंमानी के जूते पहनकर भ्रष्टाचार की कीचड़ में कूदते हो तो कीचड़ की छींटे दूसरे ईमानदार लोगों को भी सान जाती हैं—मेरी एक बात याद रखना तुम लोग—ये गुण्डे और मुजरिम किसी के सगे नहीं होते हैं—ये लोग मतलबी और खुदगर्ज होते हैं—जब काम निकल जाता है तो ये अपने बाप को भी दुत्कार देते हैं—फिर ये लोग तो जुर्म के समुद्र पर तैरते वो जहाज हैं—जिनके तले में कई-कई छेद होते हैं...ये बाद में डूबेंगे—पहले तुम जैसे लोग डूबते हैं—रिश्वत की रेत से बनी ईंटों का महल स्थाई नहीं होता है—जब तूफान उठता है तो ताश के पत्तों की तरह ही महल ढेर हो जाता है और उसमें रहने वाले लोग दबकर मर जाते हैं—रिश्वत और बेईमानी के घी के बने परांठे को खाने वाले को स्वाद तो बहुत आता है लेकिन जब कमजोर आंते उसे पचा नहीं पाती हैं तो हमेशा के लिए दर्द बन जाता है—जबकि ईमानदारी के पसीने से गूंथी गई रोटी न सिर्फ पचती बल्कि आत्मा को भी तृत्त कर देती है—तुम लोग जुर्म के तेजाब में कूदकर झुलसने के सिवाय कुछ भी हासिल नहीं कर पाओगे—अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है—अभी तुम्हारे कर्त्तव्य की बेटी घर में ही है—भले ही तुमने उसे जुर्म के दूल्हे के साथ रिश्वत की अग्नि के गिर्द फेरे करवा दिये हों लेकिन अभी वह तबाही की डोली में बैठ कर विदा नहीं हुई—तुम लोगों के पास जुर्म की बारात को वापस लौटाने का मौका है—तुम लोग जुर्म के दूल्हे और फर्ज की दुल्हन का तलाक करवा कर अपने पापों का प्रायश्चित कर सकते हो—वर्ना दुल्हन जल जायेगी और तुम्हें खून के आंसू बहाने पड़ेंगे—।”
“तुम इन लोगों के जमीर के जिन घड़ों पर नसीहत का पानी डाल रहे हो एस०पी०, उन पर रिश्वत का इतना तेल चुपड़ दिया गया है कि एक बूंद भी ठहरने वाला नहीं है...।” एक कमाण्डो हंसते हुए बोला—“ये लोग भूतनाथ जी के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाएंगे—अगर तुमने इनके जमीर के घड़ों पर लगा लालच का तेल उतार भी दिया तो ये हमारे खिलाफ जाने की जुर्रत नहीं कर पाएंगे क्योंकि इन्हें मालूम है कि भूतनाथ जी के खिलाफ जाने वाले का अन्जाम क्या होता है। अब तुम्हारे पास सिर्फ चौबीस घण्टे हैं—तुम्हें अपनी जान बचाने का उपाय कराना है—बहुत शेखी बघार रहे हो—भूतनाथ जी को नेस्तनाबूद करने का इरादा बनाकर यहां आये हो—तो दिखलाओ अपना दम-खम, अपनी जान बचाकर भूतनाथ जी के खिलाफ कुछ करके दिखलाओ एस०पी०—देखना है कि तुम चौबीस घण्टे के भीतर कौन-सी तोप चलाते हो। हम लोग अर्थी को छोड़ कर बाहर जा रहे हैं—चौबीस घण्टे तक हम परछाई बनकर तुम्हारे इर्द-गिर्द ही मंडराएंगे—तुम्हें विजय नगर के भीतर कहीं भी आने-जाने की छूट होगी लेकिन शहर से बाहर निकलने की भूल मत करना—वर्ना तुम पर चारों दिशाओं से गोलियां बरसने लगेंगी—एस०पी० हो—बहुत बड़ा औहदा होता है—हमारे बॉस ने तुम्हें चौबीस घण्टे बाद मारने का ऐलान कर दिया है—हमारे बॉस का बाल भी बांका करके दिखलाओ—अगर तुमने अपने आपको बचाकर भी रख लिया तो ये तुम्हारे लिए बहुत ही बड़ी उपलब्धि होगी—तुम्हारा ये कारनामा इतना ही बड़ा माना जायेगा—जितना कि किसी एक सैनिक द्वारा दुश्मन देश के सैनिकों की बटालियन धराशाई करना—ओ०के० हम चलते हैं—।”
फिर वो लोग बाहर चले गए।
सुदर्शन मलिक ने अर्थी पर कूद-कूद कर उसका पुर्जा-पुर्जा बिखेर दिया।
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Additional information
Book Title | खून बहेगा सड़कों पर : Khoon Bahega Sardkon Pe by Rakesh Pathak |
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Isbn No | |
No of Pages | 208 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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