खेल-खेल में खून
सुनील प्रभाकर
वो एक बच्चा था!
खूबसूरत गोल-मटोल बच्चा!
सिर के बाल घुंघराले—आंखें बड़ी व काली—गाल इतने मुलायम की गुलाब की पंखुड़ियां छू लें तो फफोले पड़ जाएं।
सुर्ख होठों पर छाई रहने वाली प्यारी-सी इतनी मासूम मुस्कुराहट कि अगर शैतान भी उस मुस्कुराहट को देख ले तो मोम की तरह पिघल जाए।
वो घुटनों के बल चलता हुआ लॉन में घूम रहा था। शानदार ड्राइव 'वे' पर चलता हुआ वो मुलायम घास पर पहुंचा था और कूल्हों के बल बैठकर अपने छिले हुए घुटनों को देख रहा था।
उसके घुटने ड्राइव-वे पर चलने के कारण शायद छिल गये थे—तभी वो बुरे-बुरे से मुंह बना रहा था।
“कू...ऊं...ऊं...!”
सहसा निकट ही कहीं कोयल-सी कूहकी।
वो चौंक पड़ा।
उसने घूमकर उस दिशा में देखा तो होठों पर मुस्कान उभर आयी।
वो पुनः घुटनों के बल चलता हुआ उधर बढ़ा।
उधर—जिधर फूलों की क्यारियां थीं—उनमें ना-ना प्रकार के फूल खिले हुए थे।
क्यारियों के निकट वो पहुंचा और उसने अपने सिर की सीध में मौजूद एक फूल की ओर अपना हाथ बढ़ाया ही था कि उसके पीछे आहट-सी हुई।
वो चौंका।
उसका पुनः चौंकना साफ-साफ जाहिर करता था कि वो ना केवल अतिसंवेदनशील बालक था वरन् एक जीनियस बच्चे की तरह निर्णय लेने की क्षमता इतनी कम उम्र में ही उसमें विद्यमान थी।
वो घूमा तो पाया कि एक काला हाथ एक बड़ा-सा खंजर थामे हुए था।
चमकता पैना खंजर!
जिसकी धार छुटपुट अन्धेरे में भी चमक रही थी।
उसकी आंखों में कौतूहल के भाव उभरे और उसकी कोमल उंगलियां उठीं।
उसे छूने के लिए।
शायद वो ये देखना चाहता था कि वो चमकती चीज है क्या? सहज बाल सुलभ जिज्ञासा।
किन्तु तभी!
वो चमकती चीज हवा में लहराई और बच्चे के सीने की ओर बढ़ी।
बच्चा कौतूहल भरी नजरों से उसे अभी भी देख रहा था। किन्तु वो अधिक समय तक ना देख सका क्योंकि तभी वो चीज जो कि वाकई एक तेज धार खंजर था, उस मासूम के सीने में पेवस्त हुआ और आर-पार निकल गया।
खून का फव्वारा-सा उछला और वो हत्यारा हाथ उस मासूम के खून से नहा गया।
उस मासूम के कण्ठ से ह्रदय-विदारक चीख निकली और आंखें निस्तेज होकर पथरा गयीं।
“शुभम्...! नहीं...!”
उससे भी तेज चीख ऐलन के मुंह से निकली थी।
उस मासूम की चीख से भी ह्रदय-विदारक।
उस मासूम की चीख से भी करुण।
¶¶
रणजीत सिक्का ने चाय का प्याला हाथ में लिया और निकट ही बालकनी में कसरत कर रहे अपने बड़े बेटे राजीव पर दृष्टि टिकाई।
राजीव का बदन कसरती था।
कमर चीते-सी!
मसल्स फौलादी रूप अख्तियार किए हुए।
वो अपनी कसरत में व्यस्त था।
ना जाने क्यों रणजीत सिक्का अपने इस बेटे को जब भी देखता था गर्व से फूल उठता था।
उसने तो कभी कसरत नहीं की—ना ही वक्त मिला। किन्तु उसके अन्तर्मन में बॉडी बिल्डिंग की इच्छा उस समय जरूर उठी थी जब वो परसदा के एक मामूली से कॉलेज में पढ़ता था।
उस कॉलेज का प्रिंसिपल 'मधुकर' तो ठीक-ठाक आदमी था किन्तु उसका लड़का बड़ा ही चालाक-चांगली था।
बाप ने पैसा कमाने के लिए कॉलेज में नकल की सुविधा दी थी तो उसके उस बेटे ने उसकी इस इच्छा को परवान चढ़ाया।
वो लड़कों को पास कराने के ठेके लेता था तथा अपने कॉलेज को नर्सिंग होम करार देता था। उसका कहना था कि जिस प्रकार नर्सिंग होम में वांछित सुविधाएं मिल जाया करती हैं—नोटों के दम पर—उसी प्रकार नकल की सुविधा वे देते हैं।
हर वर्ष लाखों के वारे-न्यारे—एग्जाम के समय में बाप-बेटों की आंखों पर लालच की पट्टी बंध जाती थी और जमकर नावां खींचते थे।
जिले के जांच अधिकारियों को भी रिश्वत पिला दी जाती थी—वे आंखें मूंदे रहते थे। आते थे तो केवल हाथ-पांव फटकार कर चले जाते थे।
शिष्य नकल करना चाहता हो—गुरु करवाता हो तो इसमें उन्हें हस्तक्षेप की जरूरत ही क्या थी?
स्टूडेण्ट को किस प्रकार भविष्य बनाना है—ये वही जानें। ऐसे स्कूल में पढ़ा था वो।
वहां रहते हुए उसने एक बात सीखी थी कि कैसे भी हो, पैसा कमाना चाहिए। आज के युग में जिसके पास पैसा हो वही दानिशमन्द है।
जिसके पास पैसा ना हो वो मूर्ख—जो पैसा ना कमाए वो मूर्ख!
फिलहाल...! वो पच्चीस-तीस साल पुरानी बात थी। 1970-72 की बात—उसके बाद वो पैसा कमाने की होड़ में लग गया था।
किन्तु अब जब वो राजीव को देखता था तो उसे लगता था कि उसकी जवानी लौट आयी हो—उसका एक सपना साकार हो रहा हो।
“डैडी...! आपको एक नमूना दिखाऊं?”
सहसा राजीव उसे अपनी ओर देखता पाकर बोला था।
रणजीत सिक्का कुछ नहीं बोला था।
राजीव ने दो फुट के फासले पर दो ईंटें खड़ी कीं और उनके बीच में एक लोहे की रॉड रख दी।
अब रॉड के दोनों छोरों के नीचे ईंट थी बीच में केवल रॉड।
फर्श से नौ इंच ऊपर को उठी हुई।
रणजीत सिक्का की आंखों में दिलचस्पी के भाव उभरे थे।
क्योंकि कभी-कभार राजीव केवल ईंटों को तोड़ने का कमाल दिखाता था।
किन्तु आज लोहे की रॉड भी।
वो उसे देखता रहा।
उसे उसी प्रकार जमाने के बाद वो पीछे हटा।
उसने कराटे की मुद्रा में हथेली खड़ी की।
हाथ ऊपर गया।
बाजू के मसल्स अन्तिम छोर तक तने।
और फिर!
उसने वार किया।
रणजीत सिक्का के दिल की धड़कनें रुक-सी गयीं।
जरूर उसका बेटा—उसका बहादुर बेटा अपनी हथेली तोड़ बैठा होगा।
किन्तु ये क्या?
वो सही सलामत खड़ा था।
दोनों पैरों पर...!
हाथ सीधे और चमकती आंखें रॉड पर स्थिर...!
रणजीत सिक्का ने भी देखा।
उसकी आंखों में हैरानी के भाव उभरे जो कि शीघ्र ही राजीव की प्रशंसा में तब्दील हो गये।
हुआ ये था कि रॉड बीच से यूं टेढ़ी हो गयी थी कि बीच का हिस्सा लगभग फर्श को छूने लगा था।
“शाबाश बेटा...!” बोला था रणजीत सिक्का—“वाकई तेरा प्रदर्शन बढ़िया रहा।”
“थैंक्यू डैड...!”
इससे पहले कि रणजीत सिक्का कुछ और कहता—सहसा एक तेज चीख गूंजी।
“शुभम्...! नहीं...!”
“ये कौन चीखा...?” रणजीत सिक्का तेज स्वर में बोला था।
“शायद... मॉम...! चीख आपके कमरे से उभरी है डैडी...!”
“ओह......!”
और फिर दोनों आंधी-तूफान की तरह कमरे की ओर दौड़े।
कमरा निकट ही था।
बेड पर पड़ी खूबसूरत युवती तकिए को बांहों में दबोचे 'नहीं... नहीं' चीख रही थी।
उसका पूरा शरीर पसीने से तर व आंखें बन्द थीं।
दोनों ने उसे कन्धों से थामा और कसकर झकझोर दिया।
¶¶
ऐलन ने आंखें फाड़कर सामने खड़े रणजीत सिक्का को देखा फिर उसके कण्ठ से फटा-फटा-सा स्वर निकला—“आप... यहां...?”
“क... क्या मतलब? क्या मैं अपने बेडरूम में नहीं आ सकता?”
“म... मेरा मतलब ये नहीं था।”
“तो फिर?”
“वो...वो खंजर...! वो कातिल और शुभम्...!”
“श...शुभम्...!”
“हां शुभम्...अरे...! कहां है शुभम्...?”
वो उठकर भागी।
दरवाजे की ओर!
गाउन में ही।
दोनों हक्के-बक्के...!
रणजीत सिक्का झेंपा।
गाउन के नीचे उसने संक्षिप्त कपड़े पहनने की चेष्टा जरूर की थी किन्तु असफल रही थी।
कारण स्पष्ट था।
देर रात तक रणजीत सिक्का व्हिस्की के नशे में उसे सताता रहा था और वो जमकर जवाब देती रही थी।
फिर दोनों लिपटे-चिपटे सो गये थे।
उसने बेटे के चेहरे की ओर देखा तो पाया कि राजीव ने इस बात का नोटिस नहीं लिया है।
यही नहीं वरन् ऐसा लगता था जैसे राजीव ने ऐलन की कंचन काया देखी ही ना हो।
ये स्वाभाविक भी था।
वो सौतेला सही किन्तु ऐलन का बेटा था।
ऐलन उसकी हमउम्र सही किन्तु उसकी दिवंगत मां से भी अधिक प्यार करती थी उसे।
दिलो-जान से चाहती थी।
दोनों लपके।
उधर जिधर संजीव का कमरा था।
शुभम्...!
रणजीत सिक्का के दूसरे नम्बर के बेटे का बेटा।
“राजीव...!” रणजीत सिक्का तेज स्वर में बोला था—“शायद 'ऐलन' ने कोई बुरा ख्वाब देखा था। लपककर उस गधे संजीव को जगाओ...! वो अभी भी सो रहा होगा।”
राजीव पिता का इशारा समझ गया।
संजीव दंपति एक ही कमरे में एक ही बेड पर होगा—वो भी ना जाने किस स्थिति में?
जबकि ऐलन की मनोदशा ऐसी नहीं थी कि वो दरवाजे पर दस्तक देती।
वो छलांग लगाकर दरवाजे पर पहुंचा।
ऐलन से पहले।
और फिर!
उसने दरवाजा पीटा।
“संजू...संजू...! दरवाजा खोल...!”
“क्या बात है ब्रदर...? सुबह हो गयी क्या?”
“दरवाजा खोल...! सम्भल...क्विक...!”
राजीव बोला ही था कि ऐलन ने जोर से दरवाजे को धक्का दिया।
“भड़ाक...!”
दरवाजा खुला।
राजीव के साथ-साथ रणजीत सिक्का भी भन्ना गया। बेड पर संजीव व पुष्पा लिपटे पड़े थे।
संजीव उठने की नाकाम कोशिश कर रहा था जबकि पुष्पा उसकी कमर में हाथ डालकर उसे खींच रही थी।
यूं दरवाजा खुलने पर दोनों उछल पड़े।
“कम्बख्त आलसियों...!”
रणजीत सिक्का भुनभुनाया।
किन्तु ऐलन ने उनकी ओर देखा भी नहीं और पालने की ओर झपटी—जिसमें शुभम् मजे से सो रहा था।
ऐलन ने जल्दी से उसके वक्ष का कपड़ा हटाया—सब ठीक-ठाक था।
उसने उसे उठाकर सीने से लगाया और फूट-फूटकर रोने लगी।
“माई सन...!”
“माई हार्ट...! स्वीट हार्ट!” वो उसे चूमते हुए कह रही थी।
रणजीत सिक्का व राजीव के साथ-साथ संजीव दम्पत्ति भी अवाक्...!
हत्प्रभ!
माजरा क्या है? सबकी समझ के बाहर था जबकि ऐलन शुभम् को यूं चूम रही थी कि शुभम् भी घबराकर जाग गया था और रोने लगा था।
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