खतरनाक शहर : Khatarnak Shahar by Sunil Prabhakar
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Description
वो शहर आम लोगों के रहने लायक नहीं था। जुर्म के शिकारी कुत्ते गली-गली में शिकार की तलाश में गुर्राते फिर रहे थे। जहां मन करता—रेप, डकैती, छीना-झपटी कर डालते थे। जो आवाज उठाने की कोशिश करता था उसे चीर-फाड़कर रख दिया जाता था। मगर उनका सुप्रीमो चौबा सिंह नहीं जानता था कि कई बार शिकारी कुत्तों का सामना आदमखोर शेर से भी हो जाता है।
ब्लेड जैसी पैनी एक रोमांचक,
तेज-रफ्तार मर्डर मिस्ट्री
खतरनाक शहर : Khatarnak Shahar
Sunil Prabhakar सुनील प्रभाकर
Ravi Pocket Books
BookMadaari
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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खतरनाक शहर
सुनील प्रभाकर
वह एक अधेड़ उम्र की महिला थी, जिसकी बगल में एक जवान और बेहद खूबसूरत लड़की बैठी हुई थी। उन दोनों के चेहरों से ही जाहिर था के लिए पूरी तरह आतंकित थी। उनका चेहरा पीला पड़ा हुआ था। होंठ सूख रहे थे और आंखों में आतंक के साए नजर आ रहे थे।
उन के ठीक सामने दस-ग्यारह वर्ष की उम्र का खूब तन्दुरुस्त लड़का बैठा हुआ था। उसके चेहरे पर उस महिला व युवती की तरह आतंक का कोई भाव नहीं था। वह बिल्कुल निडरता से बैठा हुआ था। अलबत्ता उन तीनों के मध्य एक अजीब-सी खौफनाक खामोशी थी।
अचानक ही दरवाजे पर दस्तक हुई तो उस महिला तथा युवती ने चिहुंककर दरवाजे की ओर देखा। आतंक के साए उनकी आंखों में और भी गहरे हो गए।
दस्तक दोबारा हुई।
“क...कौन?” महिला ने आतंकित स्वर में पूछा।
“मैं हूं...!” बाहर से एक मर्दाना स्वर सुनाई दिया—“दरवाजा खोलो।”
इस स्वर को पहचान कर उन्हें राहत महसूस हुई। युवती उठकर दरवाजे की ओर बढ़ गयी।
दरवाजा खुला और एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने अन्दर प्रवेश किया। चिंता की लकीरें उस व्यक्ति के चेहरे पर भी नजर आ रही थी।
थके-थके कदमों से चलता हुआ वह व्यक्ति उस लड़के की बगल वाली कुर्सी पर बैठ गया।
“क्या रहा जी?”
उत्तर में उस आदमी ने निराशापूर्ण अन्दाज में गर्दन हिलाई। जिसका शायद उस महिला को पहले ही अनुमान था और यह अनुमान उसने उस व्यक्ति की शक्ल देखकर ही लगा लिया था।
“क्या कहा उन लोगों ने?”
“कहना क्या था—?” उस व्यक्ति ने कहा—“कहते हैं हमें घबराने की जरूरत नहीं है।”
“घबराने की जरूरत कैसे नहीं है?”
“अब यह बात उनकी समझ में आए तब न?”
“अब उन्हें क्यों समझ में आएगी? मुसीबत तो हमारे ऊपर आई है न—ऐसी मुसीबत उनके ऊपर आई होती तब उन्हें इस बात का अहसास होता कि हमारे ऊपर क्या गुजर रही है।”
उस व्यक्ति ने कुछ नहीं कहा।
“आपने उस इंस्पेक्टर का पता नहीं किया—वह छुट्टी से कब लौट रहा है? वह कहीं तो होगा—उसे वहीं सम्पर्क करने की कोशिश करें हम लोग।”
“अब वह छुट्टी से लौटने वाला नहीं है।”
“छुट्टी से लौटने वाला नहीं है, क्यों?”
“क्योंकि उसका ट्रान्सफर हो चुका है। उसकी जगह दूसरे इंस्पेक्टर ने चार्ज सम्भाल लिया है।”
“यह तो हमारे लिए बहुत ही बुरी खबर है जी लेकिन उसकी जगह जो नया इंस्पेक्टर आया है, उसे पूरी बात बतानी चाहिए थी आपको।”
“मैंने उसे सब कुछ बताया है।”
“फिर क्या कहा उसने?”
“बस यही कि हमें घबराने की जरूरत नहीं है। वह हमारी मदद करेगा।”
“कब...?” महिला ने कहा—“कब करेगा वह हमारी मदद? तब करेगा जब हमें किसी मदद की जरूरत ही नहीं रह जाएगी?”
“अब उन्हें इस बात की क्या परवाह है?”
“वह इंस्पेक्टर उस समय तो बहुत बड़ी बातें कर रहा था। अब ट्रान्सफर करा कर भाग गया।”
“वह भाग नहीं गया है बल्कि उसका ट्रान्सफर किया गया है। वह छुट्टी पर भी अपनी मर्जी से नहीं गया था।”
“आपने उस विधायक से बात क्यों नहीं की जो उस समय आपकी पीठ ठोकने के लिए हमारे घर आया था? आपकी इतनी तारीफ कर रहा था। कह रहा था हमारे लिए अपनी जान की बाजी लगा देगा। अब तो वह मन्त्री भी बन गया है।”
“उससे बात करने से कोई लाभ नहीं।”
“क्यों कोई लाभ नहीं—आपको उससे बात तो करनी ही चाहिए थी।”
“मैंने कोशिश की थी उससे बात करने की।”
“फिर?”
“उससे मुलाकात ही नहीं हो सकी। उससे बात करने के लिए पहले से टाइम लेना होगा और मुझे बताया गया कि पूरे एक हफ्ते तक उससे बात करने का नम्बर ही नहीं आएगा। उसके बाद ही उससे मुलाकात हो सकती है।”
“एक हफ्ता? इतना लम्बा समय? एक हफ्ता उससे मुलाकात के लिए इन्तजार करना पड़ेगा। जबकि हमारे लिए एक-एक पल युगों की तरह बीत रहा है।”
“वहां किसी को इस बात की क्या परवाह है। उसके सेक्रेटरी ने कहा है कि वहां तो सभी इसी तरह अपनी मुसीबतें लेकर ही जाते हैं।”
“आपने उसे बताया होता कि आप उन लोगों में से नहीं हैं। मन्त्री जी आपको अच्छी तरह से जानते हैं। उन्होंने स्वयं कहा था कि आधी रात में भी आपको उनकी जरूरत होगी तो वह उसी समय आपसे मिलेंगे। आपकी हर तरह से मदद करेंगे।”
“इन बातों से कोई लाभ नहीं सरला।”
“क्यों कोई लाभ नहीं?”
“क्योंकि वहां पर इस तरह की बातें सुनने को कोई तैयार ही नहीं।”
“लेकिन उस समय तो?”
“उस समय वह हमारे यहां हमारी कोई मदद करने नहीं बल्कि अपनी राजनीति करने आया था। लोगों को प्रभावित करने आया था ताकि लोग समझ सकें कि वह जनता का कितना बड़ा हमदर्द है। ऐसा ड्रामा यह राजनीतिक इसलिए करते हैं ताकि इलेक्शन में लोग उन्हें वोट दें। उन्हें किसी के दु:ख-सुख से कोई लेना-देना नहीं। पहले तो उससे मिलना ही आसान नहीं और मिल भी गया तो वह हमारी कोई मदद नहीं करेगा।”
“नहीं करेगा? क्यों?”
“सुना तो यह गया है कि उस इंस्पेक्टर का ट्रान्सफर उसी विधायक के कहने पर किया गया है।”
“लेकिन उसने ऐसा क्यों किया?”
“क्योंकि उसके मन्त्री बनने में उन्हीं लोगों ने मदद की थी जो...अब उन लोगों के काम तो वह आएगा ही।”
“और वे लोग चाहे जनता को अपने पैरों से रौंदते रहें?”
“कुछ भी होता रहे—उन्हें तो अपनी राजनीति देखनी है न।”
“भाड़ में जाए ऐसी राजनीति।”
उस व्यक्ति ने कुछ नहीं कहा।
“तो क्या अब हमारे लिए कोई रास्ता नहीं बचा? क्या हम अपने आपको यूं ही इस मुसीबत के हवाले कर देंगे?”
“रास्ता क्यों नहीं बचा?”
“क्या रास्ता है आखिर?”
“हम अपनी मदद स्वयं तो कर सकते हैं।”
“अब तो आप बिल्कुल बच्चों जैसी बातें कर रहे हैं जी! हम भला उन लोगों के सामने क्या कर सकते हैं?”
“कुछ न कुछ तो करेंगे ही।”
“कुछ भी नहीं कर सकते हम। काश, उस समय आप ऐसा न करते तो आज हमारे सिर पर इतनी बड़ी मुसीबत आकर न खड़ी हो गयी होती।”
“उस समय मैंने जो कुछ किया, वह गलत नहीं था सरला! वह मेरा फर्ज था और उस बात पर मुझे कोई अफसोस नहीं है और न ही कभी होगा।”
“लेकिन और लोग भी तो थे—क्या उनका फर्ज नहीं था? ऐसे फर्ज को निभाने वाले आप अकेले तो थे नहीं।”
“औरों की बात मैं नहीं करता सरला! और लोग क्या सोचते हैं और क्या करते हैं, इससे मेरा कुछ भी लेना-देना नहीं है। लेकिन मैंने जो कुछ किया वह गलत नहीं किया। उस समय मुझे वही करना चाहिए था।”
“लेकिन अब...अब क्या करेंगे आप? अब हमारे ऊपर इतनी बड़ी मुसीबत आ गयी है तो लोगों का कोई फर्ज नहीं बनता। क्या अब हमारी मदद के लिए कोई आगे आएगा?”
“मैंने कहा न—लोग क्या करते हैं, उससे मेरा कोई लेना-देना नहीं है।”
“मगर आपको अपने से तो लेना-देना है न? हमारा क्या होगा अब?”
“अब जो भी होगा देखा जाएगा। हम हालात का मुकाबला करेंगे।”
“हम उन लोगों का मुकाबला नहीं कर सकते।”
“लेकिन इसके सिवा अब हमारे पास चारा भी क्या है?”
“चारा तो है लेकिन आप मेरी मानते कहां हैं?”
“क्या चारा है?”
“यही कि हम शहर को छोड़ दें।”
“शहर को छोड़ दें? यह कैसे सम्भव हो सकता है?”
“क्यों सम्भव नहीं हो सकता?”
“देखो सरला...!”
“देखिए अब आप जिद मत कीजिए। इस समय हमारे सामने अपने परिवार की सुरक्षा का सवाल खड़ा है। बाकी बातें तो उसके बाद की हैं। हमारा परिवार है। जवान बेटी है। हमारा बेटा है। हमें अपनी नहीं तो अपने बच्चों की तो चिंता करनी होगी।”
“आप बेकार में डर रही है मम्मी...!” इस बार दस-ग्यारह वर्ष के उस बच्चे ने कहा—“हम किसी से डरने वाले नहीं हैं।”
सभी ने उस बच्चे की ओर देखा।
“मैं जानती हूं बेटे कि तुम...!” उस महिला ने कहा—“बहादुर बच्चे हो। अपने पापा की तरह ही हो लेकिन बहादुरी के साथ-साथ सावधान रहना भी जरूरी होता है और इस मामले में हमें ही सोचने दो। तुम्हें बीच में नहीं बोलना चाहिए।”
बच्चा चुप हो गया।
“लेकिन शहर छोड़कर हम जाएंगे कहां?”
“आप इसकी चिन्ता न करें—इसका प्रबन्ध हो जाएगा।”
“क्या प्रबन्ध हो जाएगा?”
“हम कमला के यहां चलेंगे।”
“कमला के यहां?”
“हां!”
“लेकिन वह तुम्हारी छोटी बहन है। उसके ऊपर भार बनकर कैसे रह सकते हैं?”
“संकट के समय अपने ही तो काम आते हैं और फिर हम हमेशा के लिए तो उसके ऊपर भार बनकर रहने नहीं जा रहे। हमेशा दिन एक जैसे तो नहीं रह सकते। जैसे ही स्थिति सामान्य होगी तो हम कोई दूसरा प्रबन्ध कर लेंगे।”
“लेकिन हमारे कारण उन्हें...?”
“कोई कष्ट नहीं होगा—आप ऐसा क्यों सोच रहे हैं?”
“ठीक है...!” उसने कहा—“तुम कहती हो तो यही सही। लेकिन एक-दो दिन सोचने दो मुझे।”
“अब सोचने का वक्त नहीं है जी—अब हम एक पल का भी इन्तजार नहीं कर सकते। क्योंकि यह मुसीबत किसी क्षण भी हमारे ऊपर पहाड़ बनकर टूट सकती है।”
“लेकिन इसके लिए हमें कुछ समय तो चाहिए ही।”
“जिस मुसीबत से हम बचना चाहते हैं, यदि वह पहले ही आकर खड़ी हो गयी तो फिर कहीं जाने का हमारे लिए अर्थ ही क्या रह जाएगा?”
“लेकिन...!”
“लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। अब हम एक पल भी जाया नहीं कर सकते। मैं सारी तैयारी कर चुकी हूं।”
“सारी तैयारी कर चुकी!” उसने हैरत से सरला की ओर देखा।
“हां...!” सरला ने कहा—“क्योंकि मैं पहले ही जानती थी कि आप निराश होकर ही लौटने वाले हैं। इन हालातों में हमें कहीं से भी कोई मदद मिलने वाली नहीं है। इसलिए मैंने आपके जाने के बाद ही तैयारी आरम्भ कर दी थी। मैंने सारा जरूरी सामान पैक कर लिया है। हमारे फिलहाल के खर्चे के लिए पैसे घर में ही रखे हैं।
मैंने कमला को भी टेलीफोन करके अपने आने की सूचना दे दी है। इतना ही नहीं, मैंने पड़ोसी के नौकर को भेजकर रेलवे के टिकट भी मंगवा लिए हैं। गाड़ी का टाइम भी पता कर लिया है। हम स्टेशन पर पहुंचेंगे तो गाड़ी हमें तैयार मिलेगी।”
वह व्यक्ति हैरत से अपनी पत्नी की ओर देख रहा था, जिसने उससे पूछे बिना ही इतनी सारी तैयारी कर ली थी।
“लेकिन तुम्हें इतनी जल्दबाजी करने की क्या जरूरत थी? यह सही है कि खतरा हमारे सिर पर मंडरा रहा है, लेकिन ऐसी कोई मुसीबत पलक झपकते ही हमारे ऊपर आ जाएगी, ऐसा नहीं हो सकता। ऐसी कोई मुसीबत आते-आते ही आएगी।”
“आप ऐसा सोच सकते हैं, मैं नहीं।”
“तुम नहीं?”
“हां—खतरा हमारे सिर पर मंडरा रहा है, यह हम पहले ही जानते हैं। अब मैं इस बात को नहीं मान सकती कि ऐसा कोई खतरा आने से पहले हमें सावधान भी करेगा कि हम अपना बचाव कर ले। मुसीबत कभी भी सावधान करके नहीं आती। इसलिए मैं नहीं चाहती कि हम ऐसे किसी वक्त पर पछताने के सिवा कुछ भी न कर सके।”
“ठीक है...!” उसने कहा—“अब जब कि तुम सारी तैयारी कर ही चुकी हो तो मुझे क्या ऐतराज हो सकता है? लेकिन इससे पहले हमें कुछ सोचना तो चाहिए था।”
“फिलहाल हमारे सिर पर जिस तरह खतरे की तलवार लटक रही है उस माहौल में ठीक से कुछ सोच पाना भी हमारे लिए सम्भव नहीं है। सबसे पहले हमारे लिए अपने आपको उस खतरे से सुरक्षित करना ही जरूरी है। उसके बाद हमारे पास अवसर होगा कि हम अपने बचाव के लिए बेहतर ढंग से सोचकर कोई फैसला कर सकें और अपने बचाव का कोई रास्ता निकाल सकें।”
“ठीक है।”
“मैंने खाना भी पैक करके रख लिया है। रास्ते में ही खा लेंगे। आप टैक्सी स्टैण्ड फोन करके टैक्सी मंगवा लीजिए।”
“ठीक है...!” उसने कहा तथा टेलीफोन अपनी ओर खिसका कर टैक्सी स्टैण्ड का नम्बर डायल करने लगा।
¶¶
दो सूटकेस और एक भारी बैग के साथ वह परिवार घर से बाहर आया तो उस समय एक अन्य व्यक्ति भी उनके साथ था, जो कि उनका पड़ोसी था।
ड्राइवर ने टैक्सी की डिक्की खोलकर उस सामान को रखवाया तो उस व्यक्ति ने चाबियों का एक गुच्छा अपने साथ वाले व्यक्ति की ओर बढ़ाया।
“यह चाबियां आप रखिए मिश्रा जी और हमारे घर की देख-रेख करते रहिए।” उसके स्वर में भी उदासी थी।
“कितना बुरा वक्त आ गया है?” मिश्रा जी ने कहा—“आदमी अपने घर में भी अपने आपको सुरक्षित नहीं पा रहा।”
“आप ठीक कह रहे हैं मिश्रा जी...सच पूछो तो मैं आपको बुलाकर घर की देखभाल का जिम्मा सौंपने में भी इसलिए हिचक रहा था कि कहीं आप इसके लिए मना न कर दें।”
“ऐसा क्यों सोचते हैं आप?”
“किसी की मुसीबत में लोग मुसीबतजदा के साथ हमदर्दी प्रकट करने से भी डरते हैं। कहीं दूसरे की मुसीबत स्वयं उनके ही हाथ न जला दे।”
“यह सही है कि वक्त वाकई बुरा आ गया है लेकिन इतना भी बुरा नहीं कि पड़ोसी, पड़ोसी के साथ इतनी भी हमदर्दी से पेश न आ सके। यदि इसमें खतरा भी हो तो मैं कहूंगा कि वह खतरा उठा ही लेना चाहिए।”
“यह आपकी महानता है मिश्रा जी की आप ऐसा सोचते हैं।”
“अरे, इसमें महानता की क्या बात है? खैर छोड़िए इन बातों को। आप आराम के साथ अपना सफर कीजिए। घर की ओर से निश्चिंत रहिए। मैं ध्यान रखूंगा।
वैसे कभी-कभी इस तरह के विपरीत हालात आदमी के सामने आ जाते हैं। उन हालात में आदमी को साहस और धैर्य का साथ नहीं छोड़ना चाहिए। वक्त हमेशा एक जैसा नहीं रहता। भगवान आपकी मदद करेगा। मुझे आशा है कि आप बहुत जल्दी ही वापस लौट आएंगे।”
“भगवान करे ऐसा ही हो मिश्रा जी...अच्छा अब चलता हूं।” कहते हुए उसने मिश्रा जी के साथ बड़े ही अनमने ढंग से हाथ मिलाया।
इसके बाद मिश्रा जी ने सरला नाम की उस महिला की ओर देखते हुए अपने दोनों हाथ जोड़ दिए।
“अच्छा भाभी जी...नमस्ते!”
उत्तर में उसने भी अपने दोनों हाथ जोड़ दिए लेकिन शब्द उसके होठों से बाहर नहीं आ सके। ऐसा लगता था जैसे उसके लिए अपने आंसुओं को रोक पाना बहुत ही मुश्किल हो रहा था।
उसके बाद मिश्रा जी ने दोनों बच्चों के सिरों पर बड़े प्यार और अपनेपन से हाथ रखा।
फिर वह सब टैक्सी में सवार हो गए।
वह व्यक्ति ड्राइवर की बगल की सीट पर सवार हो गया तथा बाकी लोग पीछे वाली सीट पर बैठे। इसके साथ ही टैक्सी का इंजन स्टार्ट हुआ और टैक्सी आगे बढ़ गयी।
टैक्सी कुछ देर तक शहर की सड़कों पर दौड़ती रही।
टैक्सी में मौजूद परिवार के चेहरों पर आतंक के भाव तो अब भी नजर आ रहे थे लेकिन वह इतने गहरे नहीं थे जैसे कि उस समय नजर आ रहे थे जबकि वे अपने घर में बैठे हुए थे।
अचानक ही परिवार के मुखिया की, जोकि ड्राइवर की बगल वाली सीट पर बैठा था, आंखों में उलझन पूर्ण भाव पैदा हुए। उसने देखा कि टैक्सी अपने उस निर्धारित रूट पर नहीं जा रही थी, जो कि स्टेशन पर पहुंचता था।
उसने ड्राइवर की ओर देखा।
“ड्राइवर कहां जा रहे हो...?” उसने कहा—“यह रास्ता तो स्टेशन की ओर नहीं जाता। हमें तो स्टेशन पहुंचना है।”
“मैं आपको स्टेशन ही पहुंचा दूंगा साहब—बस थोड़ा चक्कर ज्यादा पड़ेगा लेकिन ज्यादा देर नहीं लगेगी क्योंकि आपकी गाड़ी के आने में अभी वक्त है।”
“लेकिन...!”
“बात यह है साहब कि—।” ड्राइवर ने उसका वाक्य पूरा हुए बिना ही कहा—“मुझे गाड़ी में तेल डलवाना है।”
“लेकिन पेट्रोल पम्प तो उस रोड पर भी कई पड़ते हैं।”
“पड़ते तो है साहब, लेकिन मैं तेल अपने निर्धारित पम्प से ही लेता हूं। एक तो उस पम्प के तेल में मिलावट नहीं होती और खास बात यह है कि वहां हमारा उधार चलता है।”
“यह बात थी तो तुम्हें पहले तेल लेकर आना था।”
“मैंने ऐसा इसलिए नहीं किया साहब कि घर पर आपको इन्तजार करना पड़ता। आपको दोबारा स्टैण्ड पर फोन करना पड़ता। इसलिए मैंने सोचा कि वापसी में ही तेल डलवा लूंगा।”
उसे ड्राइवर की यह हरकत अच्छी तो नहीं लगी लेकिन अब किया क्या जा सकता था। वैसे उसकी यह बात ठीक थी कि गाड़ी के आने में अभी वक्त था। इसलिए कोई खास परेशानी तो इससे थी नहीं।
टैक्सी अपनी उसी रफ्तार से दौड़ती रही।
फिर वह एक पेट्रोल पम्प पर रुकी। उसने वहां से गाड़ी की टंकी में तेल डलवाया तो उसके बाद फिर वह अपनी मंजिल पर रवाना हो गयी।
इस तरह उनके घर से स्टेशन का रास्ता काफी लम्बा हो गया था, जो कि काफी दूर तक एक ऐसे इलाके से होकर गुजरता था जहां शहरी आबादी बहुत कम थी। लगभग निर्जन-सा इलाका था वह।
लेकिन उन्हें जो गाड़ी पकड़नी थी उसके स्टैण्ड पर पहुंचने में अभी इतना वक्त था कि वहां आराम से पहुंचा जा सकता था।
इसलिए कोई जल्दबाजी वाली बात नहीं थी।
लेकिन अपनी रफ्तार से दौड़ते-दौड़ते टैक्सी अचानक ही रुक गयी। वह भी कम आबादी वाले सुनसान इलाके में। उसने ड्राइवर की ओर देखा।
“क्या हुआ—गाड़ी क्यों रोक दी?”
“रोकी नहीं साहब...!” ड्राइवर ने कहा—“रुक गयी।”
“क्या मतलब?”
“इंजन में कुछ गड़बड़ है।”
ड्राइवर के मुंह से यह शब्द सुनकर उसके चेहरे पर चिन्ता की लकीरें उभर आईं।
“यह तुम ठीक नहीं कर रहे।”
“मैं क्या कर रहा हूं साहब—मशीनरी है और मशीनरी खराब हो सकती है। इस पर किसका वश है?”
“लेकिन हमारा क्या होगा—गाड़ी निकल जाएगी। हमारा इसी गाड़ी से जाना जरूरी है।”
“आप चिन्ता क्यों कर रहे हैं साहब—गाड़ी में अभी वक्त है। मैं देखता हूं कि क्या गड़बड़ है। मामूली गड़बड़ होगी तो ठीक हो जाएगी।”
“और मामूली गड़बड़ न हुई तो?”
“अब इसका मेरे पास क्या जवाब हो सकता है साहब?”
“तुमने तो हमें बड़ी मुसीबत में फंसा दिया ड्राइवर! अब यहां से तो किसी दूसरी टैक्सी का भी इन्तजाम नहीं हो सकता।”
“आप तो ऐसे कह रहे हैं साहब जैसे मैंने जानबूझकर यह सब किया हो।”
“अब बहस ही करते रहोगे या देखोगे भी कि इंजन में क्या खराबी है?”
“वही तो करने जा रहा हूं।” कहते हुए वह दरवाजा खोलकर गाड़ी से बाहर आ गया।
गाड़ी की हैडलाइट्स बन्द हो चुकी थीं। ड्राइवर ने गाड़ी का बोनट खोलकर इंजन में लगा बल्ब जला लिया था। वह व्यक्ति सीट पर बैठा हुआ बेचैनी से पहलू बदल रहा था।
इंजन से उलझे हुए उसे लगभग दस मिनट हो चुके थे और यह दस मिनट उस परिवार के लिए बहुत ही भारी पड़ रहे थे।
“क्या हुआ ड्राइवर?” उसने फिर कहा—“क्या गड़बड़ है इंजन में?”
“चिन्ता मत कीजिए साहब...!” ड्राइवर की आवाज सुनाई दी—“मामूली गड़बड़ है। अभी ठीक हो जाता है।”
ड्राइवर के मुंह से यह सुनकर उसने राहत की सांस ली।
कुछ पल बाद ही गाड़ी का बोनट बन्द हुआ। ड्राइविंग सीट का दरवाजा खुला तथा वह गाड़ी के अन्दर आ गया। गाड़ी के अन्दर अन्धेरा था लेकिन यह नजर आ रहा था कि वह स्टेयरिंग सम्भाल रहा था।
उसी घड़ी दूसरी ओर का दरवाजा खुला और उस व्यक्ति को ढकेलते हुए एक अन्य व्यक्ति गाड़ी के अन्दर दाखिल हो गया। उस व्यक्ति ने उलझन पूर्ण नेत्रों से उसकी ओर देखा।
“कौन हो तुम और...!” उसने अपने स्वर को सख्त करते हुए कहा—“अन्दर कैसे आ गए?”
उसी घड़ी गाड़ी के अन्दर की लाइट जली और गाड़ी में रोशनी फैल गयी और इस रोशनी में जो कुछ नजर आया, उसे देखकर पूरे परिवार की आंखें हैरत व आतंक से फैल गईं।
इस समय गाड़ी का स्टेयरिंग सम्भाले जो व्यक्ति बैठा हुआ था, वह ड्राइवर नहीं बल्कि कोई और था। उसके अलावा एक अन्य व्यक्ति भी गाड़ी में मौजूद था और वह दोनों ही उस परिवार के लिए अजनबी थे।
लेकिन उनकी शक्ल देखकर कोई भी बता सकता था कि वह कोई शरीफ आदमी नहीं थे। उनके चेहरों पर उस समय व्यंगपूर्ण मुस्कुराहट थी।
“क...कौन हो तुम?”
“सोचो...!” ड्राइविंग सीट पर बैठे व्यक्ति ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा—“सोचो कौन हो सकते हैं हम लोग?”
“ड्राइवर कहां गया?”
“वह चला गया।”
“चला गया—क्यों चला गया?”
“क्योंकि उसका काम पूरा हो गया था।”
“काम पूरा हो गया था?”
“हां—उसका काम तुम्हें केवल यही तक पहुंचाना था। यहां से आगे तुम्हारी मंजिल तक पहुंचाने की जिम्मेदारी अब हमारी है।”
“क्या बकवास है यह?”
“बकवास? तुम इसे बकवास कह रहे हो?”
“आखिर तुम लोग हो कौन और क्या चाहते हो मुझसे?”
उत्तर में वे दोनों हंसे।
“देखो—हमें स्टेशन पहुंचने की जल्दी है। हमारी गाड़ी निकल जाएगी।”
“गाड़ी निकल जाएगी?” उसने कहा—“बहुत जल्दी है गाड़ी पकड़ने की?”
“तुम लोग आखिर चाहते क्या हो?”
“वही—जो हम कर रहे हैं।”
“जो कर रहे हो?”
“तुम जिससे डरकर भाग रहे थे ना जगत मंसाली...!” उस व्यक्ति ने कहा—“हम वही हैं।”
“क्या मतलब?”
“मतलब तुम जानते हो।”
“मैं कुछ नहीं जानता। मेरी समझ में नहीं आ रहा कि तुम क्या कह रहे हो? हम कहीं भाग नहीं रहे बल्कि अपने एक रिश्तेदार के यहां जा रहे हैं। लगता है तुम्हें हमारे बारे में कोई गलतफहमी हो रही है।”
“हमें गलतफहमी हो रही है?”
“मुझे ऐसा ही लग रहा है।”
“तब तो तुम यह भी कहोगे कि तुम्हारा नाम जगत मंसाली नहीं है।”
“ऐसा क्यों कहूंगा? मेरा नाम जगत मंसाली ही है लेकिन तुम मेरा नाम कैसे जानते हो?”
“हम तो तुम्हारी सारी जन्मकुण्डली जानते हैं। लेकिन तुम नहीं जानते कि हमारे हाथ कितने लम्बे हैं। तुम हमसे बचकर किसी रिश्तेदारी में भाग रहे हो। परन्तु तुम यह नहीं जानते कि धरती भी हमारे दुश्मनों को पनाह देने से मनाकर देती है।”
“देखो मेरी किसी से कोई दुश्मनी नहीं है। मैं किसी से डरकर नहीं भाग रहा। यदि तुम लूट के इरादे से आए हो तो हमारे पास ऐसा कुछ नहीं है।”
“कुछ नहीं है!” इस बार उसकी बगल वाले व्यक्ति ने कहा—“तुम्हारे पास तो ऐसा बहुत कुछ है, जिसके लिए किसी भी लुटेरे का मन मचल जाए।” कहते हुए उसने अश्लील ढंग से जगत मंसाली की बेटी की ओर देखते हुए कहा।
जगत मंसाली का चेहरा सुर्ख हो गया। उसका मन हुआ कि वह उस आदमी का चेहरा नोंच ले।
लेकिन तभी उस आदमी के हाथ में उसे रिवॉल्वर नजर आया और हालात ने उसे अपने जज्बात पर काबू करने पर मजबूर कर दिया।
“तूने एक कहावत तो सुनी होगी जगत मंसाली कि जब गीदड़ की मौत आती है तो वह शहर की ओर दौड़ता है। कितनी अजीब बात है कि तू स्वयं आकर हमारे पंजे में फंस गया।”
“देखो...!” जगत मंसाली ने कहा—“मेरी किसी से कोई दुश्मनी नहीं है। मैंने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा। हम लोग एक जरूरी यात्रा पर अपने रिश्तेदार के यहां जा रहे हैं। हमें जाने दो।”
“रिश्तेदार के यहां...!” उसने व्यंग्यात्मक स्वर में कहा—“रिश्तेदार के यहां मेहमानदारी में जा रहे हो। चले जाना—जरूर चले जाना। लेकिन एक बार हमें भी तो मेहमान नवाजी का मौका देकर देखो। सच कहता हूं—हमारी खातिरदारी से भी निराशा नहीं होगी तुम्हें।”
“नहीं!”
“क्या नहीं?”
“तुम इस तरह हमारे साथ जबरदस्ती नहीं कर सकते।”
“हम जबरदस्ती कहां कर रहे हैं? तुम अपनी खुशी से हमारी मेहमान नवाजी स्वीकार करोगे। एक बार हमारी मेहमान नवाजी स्वीकार करके तो देखो—तुम्हें लगेगा जैसे हम भी तुम्हारे सचमुच के रिश्तेदार हो गए हों।” कहते हुए उसने एक बार फिर अर्थपूर्ण अन्दाज में डरी-सहमी सी बैठी जगत मंसाली की बेटी की ओर देखा।
इसे सहनकर पाना जगत मंसाली के लिए मुश्किल हो रहा था लेकिन हालात उसे कुछ भी कहने की इजाजत नहीं दे रहे थे।
“तो चलें जगत मंसाली?”
“नहीं—तुम हमें जबरदस्ती कहीं नहीं ले जा सकते।”
“हम जबरदस्ती कहां कर रहे हैं? तुम तो अपनी मर्जी से हमारे साथ चल रहे हो।” कहते हुए उसने अपने रिवॉल्वर का रुख पीछे वाली सीट पर बैठी उसकी पत्नी व बेटी के बीच में बैठे उसके मासूम बेटे की ओर कर दिया।
“बस एक बात का ध्यान रखना जगत मंसाली कि चलती गाड़ी में ऊंची आवाज में मत बोलने लग जाना क्योंकि ऐसा होने पर मेरे हाथ से ट्रेगर दब जाता है। उस हालात में एक मासूम से बच्चे की लाश को हमें सड़क पर ही फेंकना पड़ेगा। आखिर मेहमानों की गाड़ी में लाश लेकर तो नहीं जाएंगे हम।”
जगत मंसाली के चेहरे पर क्रोध और बेबसी के भाव उभर आए लेकिन हालात ने उसे इस कदर मजबूर कर दिया कि उसके होठों से शब्द भी नहीं निकले।
उसी घड़ी गाड़ी का इंजन स्टार्ट हुआ।
¶¶
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Additional information
Book Title | खतरनाक शहर : Khatarnak Shahar by Sunil Prabhakar |
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Isbn No | |
No of Pages | 280 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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