केशव पुराण
ब्रेकों पर फुल प्रेशर से दबाव पड़ते ही टायर चीख पड़े।
कार सड़क पर जाम हो गई।
अंकुश ने जिस कयामत को हेड लाइट्स की रोशनी में देखा उसके बाद तो वह खुद ही बेहाल हो गया। स्टेयरिंग पर हाथ थे, ब्रेकों पर पांव और जिस्म साकित। निगाह सामने थी। ऐसा लग रहा था जैसे धवल चन्द्रमा हेडलाइट की रोशनी में स्नान कर रहा हो। वह आकाश से उतरी थी या जमीन से उगी, यह फैसला अभी दूर की सोच थी और वह सोच ठस होकर रह गयी थी। वह अचानक ही गाड़ी के सामने प्रकट हो गई थी।
अंकुश उस वक्त खुद को संसार का सबसे धनवान व्यक्ति महसूस कर रहा था जो उस दिव्य नारी के दर्शन कर रहा था।
सघन जंघाओं वाली, दैवीय आभूषणों से लदी-फदी वह—संसार की सबसे हसीन किशोरी थी। वह दोनों हाथ अपने पुष्ट नितम्बों पर जमाए हुए खड़ी यूं मुस्करा रही थी जैसे पूछ रही हो—“हाल कैसा है जनाब का?”
लेकिन हैरानी की बात यह थी कि वह हजारों वर्ष पहले बीते हुए युग की तरुणी लगती थी और अंकुश यही सोच रहा था कि वह इस दौर की है ही नहीं। इस दौर की होती तो जीन्स-साड़ी-मिनी स्कर्ट या कोई बहुत ही माड होती तो ज्यादा से ज्यादा टूपीसयो होती। लेकिन वह तो अपने यौवनांगों को आभूषणों से ढांपे हुए थी। वस्त्र तो उसके शरीर पर था ही नहीं। कमर से नीचे चांदी के तारों की झालर थी।
अगर उसके जिस्म के कुल आभूषण का ही मूल्यांकन किया जाता तो लाखों या करोड़ों तक की सम्पत्ति जरूर होती। उसके गले में हीरों का जगमगाता हार ही बेशकीमती था।
अंकुश उस देवबाला को देखकर सम्मोहित होकर रह गया।
यूं तो अभी रात के ग्यारह ही बज रहे थे लेकिन जिस सड़क से अंकुश गुजर रहा था वहां रात के दस बजे के बाद सन्नाटा पसर जाता था। वह एक बाईपास रोड था जो हाल ही में बना था और आस-पास कोई आबादी भी नहीं थी। यह बोरीवली की पहाड़ियों से निकलकर विक्रोली की तरफ जाता था। अंकुश विक्रोली से बोरीवली जा रहा था कि अचानक यह माहजबीं गाड़ी के सामने प्रकट हो गई। और अब अंकुश एक दूसरी दुनिया में पहुंचा था।
'कहीं ऐसा तो नहीं कोई चुड़ैल हो'..... सहसा अंकुश के दिमाग में एक ख्याल-सा आया।
'परी भी हो सकती है!'
'आखिर इस वीराने में कहाँ से आ गयी?'
एक हल्की-सी सिहरन ने उसके जिस्म में लरजिश पैदा कर दी।
तभी शांत माहौल में जैसे हलचल हुई।
चांदनी में नहाती चांद झमक-झमक चलती, अदाओं के तीर चलाती, अंकुश के दिल की धड़कन बढ़ाती, कार के करीब आयी थी वह।
'खटाक!'
पैसेंजर सीट का दरवाजा स्वतः ही खुला।
कयामत पैसेंजर सीट पर आ गयी।
एक सुगन्ध जिसको वह कोई नाम नहीं दे सकता था, फैल गयी गाड़ी में।
“चलो.....।” आवाज सुरीली कोकिला-सी।
“कहां?” अंकुश हकलाया।
“स्वर्गलोक.....।” रमणी बोली और अंकुश के पांव ब्रेक से हट गए।
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“यही स्वर्गलोक है।” तरुणी का कर्णप्रिय स्वर अंकुश के कानों में नुपुर की तरह झंकृत हुआ और वह जैसे सोते से जागा। उसने अपने सिर को यूं झटका—फिर चिकोटी भी काटी—यूं जैसे वह ख्वाब से जाग जाना चाहता हो। लेकिन यह ख्वाब नहीं था।
उसे सहसा ख्याल आया कि वह अपनी कार से सफर कर रहा था। रात के ग्यारह बजे थे जब वह अप्सरा जैसी सुन्दरी अचानक सड़क पर उसकी कार के सामने आ गयी थी। फिर वह कार में आ बैठी थी और स्वर्गलोक चलने के लिए कहा था। उस वक्त अंकुश यही समझा कि शायद स्वर्गलोक कोई कालोनी होगी। उसने कार आगे बढ़ा दी थी। फिर न जाने क्या हुआ, उसे नींद-सी आ गयी थी शायद।
और आंखें खुलीं तो वह यहां मौजूद था।
उसने इधर-उधर निगाह डाली। वहां न तो उसकी कार मौजूद थी—न आस-पास कोई सड़क ही नजर आती थी। न जाने वह कहां आ गया था।
रमणी एक विशाल शाल्मकी वृक्ष के नीचे सूखे पत्तों पर लेट गयी। गदराये यौवन की पूरी डाल थी जो समर्पण की मुद्रा में लेटी उसे आमंत्रित कर रही थी। उसने इशारे से अंकुश को अपने करीब बुलाया। अंकुश धड़कते दिल से उसके पास पहुंचा।
“तू हैरान क्यों है—क्या सोच रहा है....?”
“म.....मैं.....मेरी कार कहां गयी? और यह रात से अचानक दिन कैसे हो गया?” अंकुश के मन में अनगिनत सवाल उठ खड़े हुए—“त....तुम क.....कौन हो?”
“तू शिकारी है और मैं तेरा शिकार.....रहा तेरी कार का सवाल....जहां हम आये हैं वहां तक आने के लिए कोई सड़क नहीं है इसलिए कार तो तेरी वहीं खड़ी है जहां मैं तुझे मिली थी और यह तो मैं तुझे बता चुकी हूं कि यह स्वर्गलोक है। मुझे भूख लगी है.....तू भी भूखा होगा.....वो देख कितने सारे हिरन हैं.....जा आखेट कर.....।”
“आखेट......!” अंकुश अब थोड़ा खौफजदा हो गया। वह समझ गया कि उसके साथ कोई बहुत बड़ी गड़बड़ हो गई थी।
“क्यों आखेट नहीं आता....।” वह हँस पड़ी—“तू कैसा शिकारी है; मुझे भूख लगी है और तू एक हिरन भी लाकर नहीं दे सकता.....।”
“हिरन का शिकार करना कानून की नज़रों में अपराध है।”
“अरे मूरख.......यह तेरी वह दुनिया नहीं है जहां तरह-तरह के कानूनों में इन्सान बंधा होता है......यहां तो जानवर क्या इन्सान को मारना भी अपराध नहीं होता। यह स्वर्गलोक का बाहरी आखेट वन है......तू कितना भाग्यशाली है जो मेरा स्पर्श पाकर जीते जी यहां चला आया अन्यथा यहां कोई भी मनुष्य जीवित आ ही नहीं सकता.....।”
अब अंकुश को पूरा यकीन हो गया कि सुन्दरी स्वर्गलोक की अप्सरा थी। उसने ऐसे बहुत से किस्से पढ़े थे जब परी इसी तरह किसी का हरण करके ले गयी थी और वह इन्सान परी के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाया।
“क्या.....त......तुम स्वर्गलोक की अप्सरा हो?” उसने अपने खुश्क होते गले को तर करते हुए कहा।
“तुमने सही पहचाना.....मैं तुम्हारे लोक में गमन कर रही थी, तभी मेरी नजर तुम पर पड़ गयी......बस तुम पसंद आ गए और यहां ले आयी.....क्या नाम है तेरा?”
“अंकुश।”
“चल अब देर क्यों कर रहा है, क्या मेरे लिए एक हिरण भी नहीं मार सकता.....?”
ѻ“म......मैं......हिरन का शिकार कैसे कर सकता हूं.....हिरण को मारने के लिए हथियार तो चाहिए.....मेरा मतलब पिस्तौल-बन्दूक वगैरह......।”
“पिस्तौल बन्दूक तो तुम्हारी दुनिया के शस्त्र हैं......यहां उनका क्या काम......यहां तो धनुष-बाण होते हैं......दिव्यास्त्र होते हैं......ले.......मैं तुझे धनुष-बाण दे देती हूं.......।”
किशोरी ने एक अंगड़ाई ली फिर उठकर खड़ी हो गयी। उसने अपना दायां हाथ बुलन्द किया। पलकों की ढाल नैनों पर गिरी और होंठ से कुछ पढ़ने लगी।
अगले ही पल उसके हाथ में धनुष प्रकट हो गया। उसने दूसरा हाथ उठाया तो एक तीर उसके हाथ में आ गया।
“ले.....इससे काम चला।”
उसने आगे बढ़कर धनुष अंकुश को थमा दिया—लेकिन धनुष इतना भारी था कि अंकुश वेट-लिफ्टर होते हुए भी उसका बोझ सहन न कर सका और धनुष नीचे गिर गया। धनुष का नीचे गिरना था कि रमणी को क्रोध आ गया।
“यह देवताओं का धनुष है......तूने नीचे गिरा दिया.....पापी।” उसने एक जोरदार लात अंकुश के सीने पर मारी और अंकुश हवा में उछलकर कलाबाजी खाता सीधा सरोवर में जा गिरा....अगर वह पानी में न गिरता तो न जाने कितनी चोटें लगतीं और न जो कितनी हड्डियां टूटतीं।
वह पानी में हाथ-पांव मारने लगा।
तैरना जानता था इसीलिए कोई दिक्कत नहीं हुई। हंस, चक्रवाक, सारस, फड़फड़ाकर उसके ऊपर उड़ने लगे।
“मैं ही कुछ प्रबन्ध करती हूं.....।” अप्सरा ने कहा और धनुष उठाकर चल पड़ी।
कुछ ही देर में वह हिरण को कंधे पर उठाकर ला रही थी।
तब तक अंकुश सरोवर से बाहर आ गया था और भागने का रास्ता तलाश कर रहा था......लेकिन उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह किस दिशा में भागकर अपनी जान बचा सकता था। फिर उसे एक और एहसास हुआ कि वह अगर भागना भी चाहेगा तो शायद उसका जिस्म उसका साथ नहीं देगा। न जाने क्यों उसे लग रहा था कि वह अप्सरा का कैदी था। वह भागना चाहे तब भी भाग नहीं सकता।
“चल आ जा.....।” अप्सरा ने उसे आवाज दी।
और वह सम्मोहित-सा, खामोशी के साथ अपने भीगे कपड़ों की परवाह किये बिना, उसके करीब आ गया।
तरुणी अरणी घिस रही थी।
सूखे ईंधन को अग्नि से प्रज्वलित किया। हिरण के मांस खण्ड उसने अपने खंजर से किये। मांस भूना जाने लगा। फिर दोनों ने मांस भून-भूनकर खाया। अप्सरा बहुत भूखी थी वह आधा हिरण चट कर गयी। कभी-कभी वह आधा मांस खण्ड खाकर अंकुश के मुंह में ठूंस देती कभी उसके हाथों से छीन कर स्वयं खा जाती।
खा-पीकर तृप्त होकर वह अंकुश की जांघ पर सिर रखकर लेट गई। दोनों भुजा ऊंची करके उसने अंकुश की कमर में फंसा दी।
“चिन्ता मत कर.....तू मेरे साथ रमण कर......तुझमें भरपूर ताकत आ जायेगी।
अंकुश तो अपने आपे में था ही नहीं। फूलों की पूरी डाल उसकी गोद में फैली हुई थी। उसने अपनी दोनों भुजाओं में उसे लपेटकर अपने वक्ष में समा लिया। उसकी सघन-जंघा को अपनी सपुष्ट जंघाओं में आवेषित करते हुए बोला—“अब तू मेरी ही रहेगी......कयामत के दिन तक मेरी ही रहेगी।”
“केवल आज की बात कर—आज मैं तेरी हूं। तू स्वच्छंद रमण कर......।”
“और उसके बाद.....?” अंकुश ने उसके कपोलों को चूमते हुए कहा।
“मेरा मन बहुत चंचल है रे......आज तू है.......कल कोई और.....।” उसने नेत्र मूंदते हुए अंकुश के कान में अधर लगाकर कहा—“अब उठ.....।”
अंकुश तो सब कुछ ही भूला हुआ था। वह उस समय मात्र एक फूल का रसास्वादन करने वाला भंवरा था।
अंकुश ने उसके होंठों पर होंठ रखकर वक्ष पर भार डालते हुए होंठों ही में कहा—“ठहर तनिक।”
“अब नहीं.....” उसने धीमे से गुनगुना कर कहा।
उसने खींचकर अंकुश को अपने से पृथक किया और हँसती हुई जल में धंस गयी।
दोनों प्राकृतिक अवस्था में जलक्रीड़ा का आनन्द उठाने लगे। यूं लग रहा था जैसे दोनों जन्म-जन्म के प्रेमी हों।
न जाने कितनी देर यह जलक्रीड़ा चलती रही। फिर वे थक-हार कर जल से बाहर निकले। जल के बिन्दु दोनों के अंगों से मोती की भांति इधर-उधर भूमि पर बिखरने लगे।
वह एक शिलाखण्ड पर अंसम भाव से उत्तान लेट गयी। अंकुश भी वहीं आ खड़ा हुआ। दोनों के शरीर पर कोई वस्त्र न था। वे रति और काम क्रीड़ा के ऐसे आनन्द में डूबे जा रहे थे, जहां के बाद सिर्फ स्वर्गिक आनन्द ही प्राप्त होता चला जाता है।
“मैं तेरी आत्मा में प्रवेश चाहती हूं।” रूप सुन्दरी बोली।
“सहर्ष......।”
“मैं तेरे शरीर को धारण करना चाहती हूं।”
“सिरोधार्य।”
“मैं तेरी बलि चाहती हूं।”
“शहस्त्र बार......मैं तेरा हूं.....तू मेरी है......इसके अलावा सारा संसार स्वप्न है।”
“खचाक्!”
अंकुश की गर्दन में एक खंजर पेवस्त हो गया।
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