कौन लड़ेगा वर्दी से
सुनील प्रभाकर
“लगता है, सब साले अन्धे हैं। किसी की....।”
“चुप.... चुप....। एक जा रहा है। उसकी नजर पड़ चुकी है।”
उन दोनों ने उस आदमी की ओर देखा, जो चौकन्ने भाव से फुटपाथ से सटकर बनी नाली के समीप रखी डोलची की ओर बढ़ रहा था।
“कमाल है! इतनी आमदरफ्त वाली सड़क पर भी लोगों को इतनी बड़ी डोलची दिखाई देने में पन्द्रह-बीस मिनट लग गए?”
“होता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है।”
“और लो। एक और भी पहुंच गया।”
“ये तो और भी अच्छा है।”
वे दोनों सड़क के दूसरी ओर फुटपाथ पर खड़े सिगरेटें फूंक रहे थे। दोनों में एक कुछ ज्यादा उम्र का और दूसरा युवक था। दोनों में से एक ने पैन्ट और चमड़े की जैकेट तथा दूसरे ने पैन्ट के साथ पूरी आस्तीन का स्वेटर पहन रखा था और सिर पर बालों वाली टोपी लगा रखी थी। स्वेटर वाला चालीस-पैंतालीस का था और युवक पच्चीस-छब्बीस का।
दोनों ने देखा की डोलची को लेकर दोनों में बहस होनी शुरू हो गयी है।
दिन के लगभग बारह बज रहे थे। सड़क पर अच्छा-खासा ट्रैफिक और लोगों की भीड़-भाड़ थी। सभी अपने-अपने में व्यस्त थे, भागे से जा रहे थे।
“अकरम, वहां तो दो और लोग पहुंच गये हैं।” पूरी आस्तीन का स्वेटर पहने शख्स ने सिगरेट का धुआं हवा में छोड़ा था।
“ये तो और भी अच्छा है।” युवक बोला,“इन चारों के झगड़े में अभी और भीड़ हो जाएगी.... तभी....।”
अचानक डोलची वाले स्थान से जोर-जोर से बातें करने की आवाजें सुनाई दीं।
“लो गुरु, मामला शुरू हो गया।” अकरम ने बचे सिगरेट का टुकड़ा एक ओर उछाल दिया।
गुरु का पूरा नाम गुरुपद था, लेकिन उसे गुरु के नाम से सभी पुकारते थे। उसने सड़क की दूसरी पट्टी की ओर देखा। उसके होठों पर एक वहशी मुस्कुराहट तथा आंखों में खूनी चमक आ गयी थी।
“अब तूफान उठने ही वाला है।” अकरम शब्दों को चबाकर बोला। उसके जबड़े भींच गये थे।
अब डोलची और उसके सामान को लेकर वहीं जुड़ी भीड़ आपस में ही भिड़ गये थे। लोग एक प्रकार से मारपीट पर उतारू हो गये थे और छीना-झपटी होने लगी थी।
सहसा भीड़ से निकलकर एक आदमी भागता नजर आया। उसके हाथ में चमकदार पैकेट था। उसके भागते ही, भीड़ के काफी लोग शोर मचाते हुए उसके पीछे भागे। पैकेट लेकर सबसे आगे भाग रहे व्यक्ति को अचानक ठोकर लगी। वो पैकेट सहित कलाबाजी खाकर सड़क पर गिरा। गिरने के कारण पैकेट उसके हाथ से छूटकर सड़क पर गिरा और फिर ऐसे लगा जैसे कहर बरपा हो गया।
एक भयानक धमाका हुआ तथा आग और धुआं वातावरण में फैल गया। उस आदमी के पीछे भागते लोग चीखें मारते हुए पलटकर इधर-उधर भाग लिए। उसी समय दूसरा धमाका हुआ। ये धमाका उस जगह हुआ, जहां डोलची पाई गयी थी और भीड़ जुटी थी।
चीख-पुकार! भगदड़! हड़बड़ी! दहशत! हंगामा!
धुआं। हवा में उड़ते, चीथड़ों में बदलते मानव शरीर।
हवा में मानव शरीर के जलने की चिड़ान्ध फैल गयी थी और उसी के साथ चलता-फिरता ट्रैफिक पहले तो थमा। फिर जिसको जिधर मौका मिला उधर ही भाग निकला।
सड़क के दोनों ओर बनी दुकानें फटाफट बंद होने लगीं।
देखते-देखते पलक झपकते सड़क पर मौत जैसी.... पड़े थे वीरानी छा गई। लम्बी-चौड़ी सड़क पर क्षत-विक्षत लाशें, मानव अंग और श्मशान जैसा सन्नाटा व्याप्त हो गया था।
अकरम और गुरुपद अपने स्थान से कब के गायब हो गये थे।
¶¶
उसने चारों ओर नजर दौड़ाई—— उसको लगा था कि कोई नहीं देख रहा है। सभी अपने-अपने में व्यस्त और भाग-दौड़ में लगे दिखाई दिए। बस स्टैण्ड का माहौल। लखनऊ वाली बस अभी क्षणभर पहले आकर खड़ी हुई थी। आधे से ज्यादा यात्री उतर चुके थे। जो बाकी थे, वो भी उतर-उतर के घर जा रहे थे। पुरुष, स्त्रियां, बच्चे। उसकी गिद्ध जैसी दृष्टि अटैची पर जमी थी—— जिसकी ओर किसी का भी ध्यान नहीं था। उसे हैरानी भी हो रही थी कि आखिर उसे किसने रखा और रखकर चला कहां गया?
वो चाय के सिप लेता हुआ नजर अटैची पर गड़ाए रहा और उस अज्ञात आदमी की तलाश में भी इधर-उधर देख लेता, जिसको आकर अटैची उठानी थी—— जिसकी होनी चाहिए थी।
उसी समय उसके कन्धे पर किसी का हाथ आ टिका था।
उसने गर्दन घुमाई। रघु को देखकर उसका चेहरा खिल गया,“अब दिखाई दे रहे हो? सुबह से कहां गायब था बे?”
“एक जरूरी काम से गया था।” रघु उसकी बगल में बैठते हुए बोला,“रात में जीजा जी अचानक बाहर से आ गये थे—— उनको ही भेजने गया था स्टेशन।”
“चले गए?”
“हां।”
“मैं सुबह से तेरे गायब हो जाने के बारे में सोच रहा था और तू है कि बिना बताए....।”
“यार, कहा तो।”
चाय का कप खाली करके उसने बेन्च के नीचे जमीन पर रख दिया,“चल मान गया। चाय लेगा?”
“नहीं—— जीजा जी ने स्टेशन पर पिला दी थी।”
“कैसे आये थे?”
“दीदी ने कोई सामान भेजा था—— वही देने आये थे। अब मुरादाबाद गये हैं—— दुकान के लिए माल बुक करवाने। वहां से सीधे वापस लौट जाएंगे। उनका धन्धा बढ़िया चल रहा है। बहुत मजे में....।” रघु का चेहरा एकाएक सिकुड़ गया। वो बोलते-बोलते ठिठका, फिर उसकी दृष्टि ने बद्री की निगाहों का पीछा किया था। उसकी आंखें भी बस के पीछे रखी अटैची पर जा टिकीं।
“तो ये बात है?” उसने धीरे से कहा।
“हां—— अटैची देखी?” बद्री फुसफुसाया।
“देख रहा हूं।”
“पता नहीं कौन रख गया है? आधे घण्टे से देख रहा हूं। कोई उठाने ही नहीं आ रहा है।”
“पक्का?”
“एकदम पक्का—— कोई उसके पास फटका तक नहीं है। मुझे खुद आश्चर्य हो रहा है।”
“कमाल है!”
“एकदम नई अटैची है।”
“सो तो नजर आ रही है।”
बद्री और रघु दोनों ही अटैची चोर थे। यूं तो चैन स्नैचिंग, राहजनी जैसा काम भी गाहे-बगाहे कर लेते थे, मगर मुख्य धन्धा अटैची चोरी का ही था। बस स्टैण्ड, रेलवे स्टेशन, टैक्सी स्टैण्ड जैसे स्थान उनके धन्धे का केन्द्र थे।
उनका पूरा गिरोह था, जिसके वे सदस्य थे।
गिरोह का मुखिया था आफताब काना।
माल उड़ाकर गिरोह के सभी सदस्य ठीहे पर पहुंचते थे। वहां जैसा सामान अटैचियों से निकलता आफताब काना उसकी हिसाब से हिस्सा लेता था।
गिरोह में आठ युवक थे। सभी होशियार और अपने काम में माहिर। ऐसा नहीं था पुलिस के हत्थे कभी चढ़ते ही न हों—— लेकिन जब भी कोई पकड़ा जाता आफताब काना कभी थाने, कभी कोर्ट से जमानत करवा लेता। वैसे भी नजदीक के थानों को समय से उनका हिस्सा पहुंचा देने के कारण पुलिस की पिटाई वगैरह नहीं हो पाती थी।
“तू जाएगा या मैं जाऊं?” बद्री ने रघु की ओर देखा,“मुझे लगता है अटैची रखने वाला जल्दी में रहा होगा और सामान ज्यादा होने के कारण भूल गया।”
“मैं जाता हूं। तू देखता रहना।”
“चिन्ता मत कर। मेरी आंखें तुम पर रहेंगी।”
“चलना कहां होगा?”
“सीधे ठिकाने चलेंगे। उस्ताद तो अड्डे पर ही होगा। इसे वहां रखकर फिर वापस लौट आएंगे। वैसे काफी माल होना चाहिए इसमें।”
“होना तो चाहिए लेकिन, नाम बड़े और दर्शन छोटे वाला हिसाब रहता है। हां, देहातियों की गठरियों और बक्सों में जरूर माल मिल जाता है। कभी-कभी जरूर किसी अटैची में मजे का माल निकल आता है।”
रघु उसके पास से उठ गया।
बद्री भी उठा। उसने चाय वाले को पैसे दिए और जेब से सिगरेट का पैकेट निकालकर एक सिगरेट सुलगा लिया और फिर आराम से टहलता हुआ बस की ओर बढ़ा। रघु बस के समीप पहुंच गया था। एकदम अधिकारिक भाव से चलता हुआ वो अटैची के पास से निकट गया, लेकिन अटैची जमीन से उठकर उसके हाथ में आ गयी थी।
उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था। वो आगे बढ़ा।
उसी समय एक गड़बड़ हो गई।
अचानक सामने खड़े तीन-चार आदमियों में झगड़ा होने लगा। वे पहले से ही वहां खड़े जोर-जोर से बातें कर रहे थे।
रघु ठिठका। उसने झगड़ा करने वालों की ओर एक नजर देखा।
“साले, हरामी—— आपस में बेईमानी करता है?” एक ने चिल्लाकर कहा और जिससे कहा था, उसको जोर से छाती पर हाथ मारकर धक्का दिया।
धक्का खाने वाला संभल नहीं पाया और रघु से आ टकराया और फिर जाने क्या हुआ कि रघु और वो शख्स दोनों ही जमीन पर गिरे।
बद्री फुर्ती से आगे बढ़ा।
धक्का देने वाला और उसके दोनों साथी भी लपके।
तभी—— तभी कानों के पर्दे फाड़ देने वाला धमाका हुआ। आग की लपटें बारूद की गंध के साथ ही हृदय-विदारक चीखें हवा में बुलन्द हुई।
आगे की ओर लपकता बद्री तेज झटका खाकर उछला और सड़क पर फैल गया। क्षणभर तो उसकी समझ में ही नहीं आया कि मामला क्या हुआ है। उसने फुर्ती से उठने की कोशिश की तभी उसकी नजर सामने गई। दहशत और आतंक से उसकी आंखें कटोरों से बाहर निकलने को हो गईं।
वो दोनों हथेलियों में चेहरा छुपाकर हिस्टीरियाई अन्दाज में चिल्लाता चला गया फिर उसका मस्तिष्क अन्धेरों में गुम हो गया था।
उधर, वहां हाहाकार मच गया था।
शोर की आवाजें, लोगों के झुण्ड बस स्टेशन के कर्मचारी वहां भाग-भाग कर आने लगे थे।
¶¶
बशीर ने हांफते हुए बादशाह के ढाबे पर रिक्शा रोका और ब्रेक कसने के बाद रिक्शे से उतरकर पायदान पर पड़े सूटकेस को उठाकर ढाबे में समा गया। उसका दिल बल्लियों उछल रहा था। आज लगभग दो हफ्ते बाद बहुत कोशिशों के बाद सवारी को चकमा देकर हाथ मार पाया था। सवारी के रख-रखाव और कपड़ों से जितना अन्दाज उसे लगा था—— उसके हिसाब से सूटकेस में खासा माल होना चाहिए था। पिछली बार लगभग दस-बारह हजार का माल हाथ आया था।
शरीर से मजबूत बशीर के लिए रिक्शा चलाना एक आड़ जैसा था। वो रात में ही रिक्शा चलाता था। शाम को पांच-छः बजे रिक्शा लेकर निकलता और रात बारह-एक बजे लौटकर रिक्शा खड़ा कर देता था। इतनी देर में अगर कोई हाथ मारने को मिल जाता तो ठीक वर्ना कमाई तो हो ही जाती थी और उसके अकेले के लिए उतना काफी होता।
बादशाह उसके लिए प्रोटेक्शन का काम करता था।
प्रत्यक्ष रुप से तो बादशाह ढाबा चलाता था। ढाबा चलता भी बढ़िया था। ढाबे के पीछे मलिन बस्ती थी। वहां के काफी निवासी उसके ढाबे में सुबह-शाम खाना खाते थे और चूंकि सड़क भी खूब चलती थी—— इसलिए ट्रक-टैक्सी वाले तथा सामान्य ग्राहक भी खाना खाने आ जाते थे। चाय और नाश्ते का भी इन्तजाम एक साइड में अलग से कर रखा था। अतः जिनको भोजन नहीं करना होता था—— वे चाय पीने के बहाने आ जाते थे। इसके अलावा अवैध शराब और दूसरे मादक पदार्थों की बिक्री भी करता था, उससे भी अच्छी-खासी आमदनी हो जाती थी।
बशीर काउंटर पर पहुंचा।
बादशाह ने शायद उसे देख लिया था।
काउंटर पर बशीर रुका नहीं बल्कि अन्दर वाले उस कमरे की ओर बढ़ गया—— जो बादशाह का पर्सनल कमरा था और जहां बादशाह दोपहर में आराम और रात में सोता था।
“लगता है लम्बा हाथ मारा है आज।” बशीर के पीछे-पीछे अन्दर आते हुए बादशाह ने कहा।
अन्दर का कमरा खूब आरामदेह, सजा-सजाया और सभी जरूरी सामानों से लैस था। देखकर कोई कह नहीं सकता था की ढाबे वाले का कमरा है। वरन् किसी रईस आदमी के बेडरुम का आभास कराता था। पूरे कमरे में कत्थई रंग का कारपेट, दीवारों पर बढ़िया पेंटिंग्स, दीवारों से लगे दो जोड़ी सोफा सेट, एक ओर बड़ा वाला फ्रिज, कोने में रखा इक्यावन इंच वाला एल०जी० का रंगीन टी०वी०। खिड़की के समीप डबल बेड वाला पलंग, जिस पर तकिए, तोशक करीने से रखे थे। दरवाजे और खिड़कियों पर कीमती पर्दे, छत पर खूबसूरत फानूस, दीवारों पर दो ओर रॉड।
बादशाह ने दरवाजा बन्द किया और पलटा।
साढ़े पांच फीट का कद। गेहुआ रंग। सिर पर घुंघराले बाल। चेहरे पर करीने से तलाशी हुई काली दाढ़ी और मूंछ। चेहरा आकर्षक, शरीर मजबूत।
बशीर ने सूटकेस मेज पर रख दिया।
बादशाह बैठा नहीं। उसने अपनी चमकीली काली आंखें बशीर पर गड़ा दीं,“खोलकर देखा इसे?”
“नहीं, मौका ही नहीं मिला। बस भागम-भाग सीधे यहीं आया हूं। रास्ते में कई सवारियों ने बुलाया भी—— मगर रुका नहीं।” बशीर धीरे से हंसा,“लेकिन, माल काफी होना चाहिए।”
“कोई जरूरी है?”
“वजन से तो लगता है।”
“कुछ और भी हो सकता है इसके भीतर—— जिसको तू ये समझकर उठा लाया कि माल होगा।” बादशाह ने भावहीन स्वर में कहा।
बशीर चौंक गया।
उसने ध्यान से बादशाह की ओर देखा और बोला,“क्या बात है? आज बड़ी विचित्र बात बोल रहे हो।”
बादशाह ने ठण्डी सांस ली,“तुझे पता है, आज शहर में क्या हुआ है?”
“नहीं तो—— क्या हुआ?”
“तुझे कुछ पता नहीं है?”
“नहीं तो।” बशीर मन ही मन चौंका,“क्या हो गया शहर में? मुझे सचमुच नहीं पता।”
“सूटकेस से कोई छेड़छाड़ तो नहीं की?”
“अल्लाह कसम। सवारी ने ही पायदान पर रखा था। अभी यहीं हाथ लगाया है मैंने। लेकिन बात क्या है बादशाह भाई? तुम्हारी बातों से तो कुछ अजीब-सा डर पैदा हो गया है।”
“इसे उठाकर मेरे साथ आओ।” बादशाह ने गंभीर होकर कहा,“इसको यहां नहीं खोलना है।”
“फ—— फिर....?” बशीर ने चकित होकर बादशाह को देखा।
“अगर मेरा अनुमान सही निकला तो समझ ले आज तू भी बच गया और मैं भी।”
बशीर की आंखें चौड़ी हो गईं।
“तुम्हारा कहने का मतलब क्या है बादशाह भाई?” वो घबड़ाए स्वर में बोला,“तुम साफ-साफ क्यों नहीं बताते, क्या बात है? कहां तो मैं ये सोच रहा था कि लम्बा हाथ मारा है और यहां तुम रहस्यमयी बातें करके मेरी जान निकाल ले दे रहे हो।
“मैं समझाता हूं तुम मौत का सामान लेकर आये हो अपने साथ में। इस सूटकेस में माल नहीं—— आर०डी०एक्स० से बना बम होना चाहिए। हम दोनों इसको खोलते ही चीथड़ों में बदल जाएंगे और इस ढाबे की जगह खण्डहर नजर आएगा। जो लोग यहां मौजूद हैं, उनमें से कोई नहीं बचेगा।”
बशीर का चेहरा काटो तो खून नहीं जैसा हो गया। वो फटी-फटी आंखों से बादशाह को स्तब्ध खड़ा देखता रहा। उसकी सोचों में सवारी घूम गई। पूरी बांह का सफारी सूट पहने कितना आकर्षक आदमी था? हंसमुख, बातूनी। हावभाव से रईसी टपक रही थी साले के और इतना खतरनाक।
बादशाह ने एक सिगरेट सुलगाया और दो-तीन कश लेकर बोला,“उठाओ इसे—— अभी मालूम कर लेते हैं चलकर—— पता चल जाएगा कि इसमें क्या है? अगर नहीं हुई कोई खतरनाक चीज तो कोई बात नहीं और अगर निकलती है तो समझ ले कि जानबख्शी हो जाएगी।”
“ल—— लेकिन त.... तुमको कैसे पता चला कि इसमें ऐसा कुछ हो सकता है।” उसने हकलाते हुए प्रश्न किया।
बादशाह ने उसके चेहरे पर नजरें गड़ा दीं,“आज शहर में पूरे दिन में लगभग एक दर्जन विस्फोट हुए हैं—— जिनमें पच्चीस आदमी मारे गये और तीस-चालीस घायल हो गये हैं। जो घायल हुए हैं उनमें भी कुछ की हालत बहुत खराब है। खास बात ये है कि जहां-जहां विस्फोट हुए हैं—— इसी प्रकार के सूटकेसों, ब्रीफकेसों, बैगों और पैकेटों से हुए हैं। पुलिस ने लोगों को होशियार किया है कि कहीं भी कोई सामान लावारिस पड़ा हुआ मिले तो उसको छुएं नहीं—— न छेड़ें बल्कि पुलिस को सूचना दें।”
बशीर को अपना गला सूखता और पैरों के नीचे से जमीन निकलती मालूम हुई थी। उसने बोलने की कोशिश की तो गले से खरखराहट भर निकली।
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admin –
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