कातिल सनम : Katil Sanam by Sunil Prabhakar
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Description
मौहब्बत हो या नफरत, जब हदें पार करें तो पागलपन बन जाती हैं। तब इंसान कितना बड़ा गुनाह कर दे पता नहीं चलता। दो हंसों के जोड़े-सा दाम्पत्य जीवन जी रहे सुरजीत और मीनाक्षी के जीवन में दोस्त के रूप में जे.के. की एन्ट्री ने सबकुछ बदलकर रख दिया।
जे.के. की वासनात्मक मक्कारी ने मीनाक्षी को क्या खराब किया...मानो सब-कुछ तबाह हो गया। सुरजीत का सारा विवेक नफरत की आग में ऐसा स्वाह हुआ कि एक दयालु डॉक्टर नृशंस हत्यारा बन गया।
कातिल सनम : Katil Sanam
Sunil Prabhakar सुनील प्रभाकर
Ravi Pocket Books
BookMadaari
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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कातिल सनम
सुनील प्रभाकर
"कैसा लगा अपना यह आशियाना?" युवती ने उसकी ओर करवट ली थी। चेहरे पर प्यार-ही-प्यार बिखरा हुआ था।
साथ लेटे युवक को जैसे इसी क्षण का इन्तजार था।
उसने उसे अपनी बांहों में भींच लिया। फिर उसकी आंखों में आंखें डालता हुआ बोला—"बात आशियाने की नहीं तुम्हारी है मीनू और चूंकि तुम यहां हो इसलिये यह जगह मेरे लिये स्वर्ग से भी सुन्दर है—आशियाने की छोड़ो और यह बताओ मेरे बारे में तुम्हारी क्या राय है?"
"कोई खास नहीं है।" युवक की आंखों के भाव समझते ही युवती इठलायी थी।
"क्या मतलब?" युवक चौंका था।
"मतलब तुम बदमाश हो।" युवती की आंखों में शोखी उतर आयी।
"मैं और बदमाश—क्या कह रही हो डार्लिंग!" वह सकपकाया।
"ठीक ही तो कह रही हूं—वहां मेरठ में भरा-पूरा परिवार था—तुम भी शरीफ थे लेकिन यहां दिल्ली आते ही तुम्हें भी हवा लग गई है—तुम जरूरत से ज्यादा शरारती हो गए हो। कोई कहने वाला रोकने-टोकने वाला जो नहीं है, इसलिये जनाब ने बदमाशी के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं।"
"यार मीनू डार्लिंग, यह तो तुम मेरे ऊपर जबरदस्ती का झूठा इल्जाम लगा रही हो—मैंने तुम्हारे साथ कौन-सी बदमाशी...ओह अब समझा...।" वह चौंकते हुए बोला।
"शुक्र है समझे तो...।" वह हंसी थी।
"लेकिन डार्लिंग। जिसे तुम बदमाशी कह रही हो, वह तो मेरा प्यार है, मेरी दीवानगी है।"
"खाक दीवानगी है—प्यार जब राशन की चीनी की तरह हो तो उसकी मिठास ही कुछ और होती है लेकिन...।"
"लेकिन क्या...?" बांहों में समायी युवती को उसने अपने और करीब खींच लिया।
"तुम्हारा सिर—चलिये, अब छोड़िये मुझे।" युवती मचली थी।
"और अगर न छोड़ें तो?" युवक उस पर झुकता हुआ बोला।
"तो क्या—इस समय तुम्हारे कब्जे में हूं—लेकिन कल...। यह पोजीशन तो बहुत दूर की बात है—अपनी मीनू की उंगली तक छूने को तरस जाओगे मिस्टर—!" अपने आपको युवक को पकड़ से छुड़ाने की असफल कोशिश करती हुई युवती शोखी से बोली थी।
"तुम्हारी यह धौंस यहां नहीं चलेगी डार्लिंग—न तो यहां मां है और न रागिनी जिसे तुम टी०वी० सीरियल देखने के बहाने रात ग्यारह बजे तक अपने बेडरूम में बिठाये रखती थी और मैं यानी सुरजीत कुमार चक्रवर्ती अंगारों पर लोटते हुए पापा से राजनीति पर बहस करने का नाटक करता रहता था—यहां तो हमारे मजे हैं। बस ड्यूटी के वाद जैसे ही अपने आशियाने में घुसे हमारी मीनू डार्लिग हमारी बांहों में होती है।" कहते हुए सुरजीत ने उसके होंठ चूम लिये।
"तुम पागल तो नहीं हो गए हो—मैं कुछ पलों के लिये दुनिया से छिपकर मिलने वाली तुम्हारी प्रेमिका नहीं पत्नी हूं यार और कहीं भागी नहीं जा रही हूं।" उसने अपने गीले होंठ उसकी नंगी छाती से रगड़े थे।
"भागोगी कैसे डार्लिंग—हमारी बांहों के बन्धन तोड़ना इतना आसान नहीं है।" सुरजीत ढिठाई पर उतर आया था।
"मैं इस बन्धन को तोड़ना भी नहीं चाहती—यह तो मेरा सौभाग्य है—लेकिन...।"
"फिर लेकिन?" सुरजीत ने बुरा-सा मुंह बनाया।
"एक नहीं सैकड़ों लेकिन हैं—लेकिन कहने का मौका ही कहां है—बस हॉस्पिटल से आये और शुरू हो गए।"
"लो नहीं शुरू होते—अब जरा अपनी इन सैकड़ों लेकिनों में से एक आधी हमें भी बता दीजिये।" सुरजीत ने उसे अपनी बांहों की कैद से आजाद कर दिया।
"मन्जूर है।" उसकी शक्ल देख मीनाक्षी खिलखिलाई। फिर जाने लगी।
"एक मिनट...!" उसने रुकने का इशारा किया था।
"अब क्या है?" वह उसकी ओर देखने लगी।
"तुम शायद नहीं जानती जब दो पार्टियों में समझौता होता है तो दूसरी पार्टी की थोड़ी-बहुत बात मान ली जाती है।"
"दूसरी पार्टी क्या चाहती है?" उसके स्वर में शोखी उतर आयी।
"कड़क चाय का एक घूंट...।" उसने उसके होठों की ओर इशारा किया था।
"बदमाश कहीं के...!" झेंपी-सी मीनाक्षी रसोई की ओर बढ़ गई।
¶¶
"क्या हुआ...?" फ्लैट के बाहर निकलने के बाद ठिठकते सुरजीत को देख मीनाक्षी दरवाजा बन्द करते हुए रुकी थी।
"एक इम्पोर्टेंट चीज तो रह ही गई मीनू डार्लिंग...!" वह उसकी ओर बढ़ा था।
"कौन-सी चीज?" वह उसकी ओर देखने लगी।
"अब यहां दरवाजे पर खड़े-खड़े कैसे बता सकता हूं—अन्दर तो आने दो।"
"अन्दर...ओह अब समझी...!" अपने शरीर का भार डालते हुए उसने आधा बन्द दरवाजा मजबूती से थाम लिया।
"क्या समझी?"
"वही जो इस समय तुम्हारे दिल में है।" उसकी ओर शंकित निगाहों से देखती वह बोली।
"मेरे दिल की बात तुम समझ गयीं?" सुरजीत के होठों पर शरारत थी।
"बिल्कुल समझ गई।" वह सावधान स्वर में बोली।
"मीनू डार्लिंग तुम गलत समझी हो, मैं सचमुच...।"
"सॉरी जीतू साहब—मैंने आपका सारा सामान चैक करने के बाद ही बैग बन्द किया है। पैन आपकी शर्ट की ऊपरी जेब में है। रुमाल और पर्स पैन्ट की जेबों में है और आपको क्या चाहिये?" उसने आंखें तरेरीं।
"जो मुझे चाहिये वह यहां बताने का नहीं है यार...।"
"बताना तो यहीं पड़ेगा डॉक्टर साहब...।" वह शोखी से बोली।
"ऑल राइट—यह तो तुम अच्छी तरह जानती हो कि तुम्हारी मिसेज श्रीवास्तव को दूसरों की बातें छिपकर सुनने की आदत है—क्या पता वे इस समय भी अपने दरवाजे के पीछे कान लगाये खड़ी हों—नहीं भी होंगी तब भी कोई हर्ज नहीं है—मैं इतनी जोर से चिल्लाऊंगा कि वही क्या इस ब्लॉक के सारे लोग सुन लेंगे।" सुरजीत ने धमकी दी।
"अच्छा—जरा मैं भी तो सुनूं तुम क्या चिल्लाओगे?" मीनाक्षी हंसी थी।
"मैं चिल्लाकर कहूंगा मेरी बीवी मुझ पर अत्याचार करती है—हॉस्पिटल जाने से पहले मुझे पप्पी नहीं देती।" वह थोड़ा जोर-से बोला था।
"हे भगवान...!" मीनाक्षी हड़बड़ायी।
"भगवान इस मामले में तुम्हारी कोई मदद नहीं करेगा—बोलो शुरू करूं चिल्लाना?"
"पागल हो गए हो क्या?" वह सचमुच घबरा उठी।
"बिल्कुल हो गया हूं—करने वाली तुम हो, पहले आदत खराब करती हो फिर...!"
"धीरे बोलो जीतू—लगता है मिसेज श्रीवास्तव सचमुच अपने दरवाजे के पीछे हैं।" वह गैलरी के दूसरी ओर के बन्द दरवाजे की ओर देखती हुई बोली।
"फिर...!" सुरजीत के चेहरे पर शरारत थी।
"फिर क्या बेशर्मों से कोई जीत सका है—न जाने कैसे तुमने डॉक्टरी पास की होगी—यह तो बड़ा गम्भीर विषय है।"
"बिल्कुल है—लेकिन खूबसूरत बीवियों के सामने डॉक्टर क्या अच्छे-अच्छे फिसलकर भी देवानन्द बन जाते हैं।"
"ठीक है देवानन्द जी एक बात का ध्यान रखना—बेईमानी नहीं होनी चाहिये। बात सिर्फ एक की है...!" कहने के साथ ही दरवाजे पर से उसकी पकड़ ढीली हो गई। उसके दरवाजा छोड़कर पीछे हटते ही सुरजीत तेजी से अन्दर घुसा था।
पैर से ही उसने दरवाजा बन्द किया और फिर शर्म से सुर्ख हो आयी मीनाक्षी के चेहरे पर झुकता चला गया।
¶¶
सुरजीत जा चुका था। वह रसोई में काम करते हुए उसके और अपने विगत के बारे में सोच रही थी। वह मेरठ के पास के एक गांव की रहने वाली थी। पिता की तो उसे शक्ल भी याद नहीं। हां आज वह जो कुछ भी है इसमें सारा योगदान उसकी मां का था। उन्हीं की बदौलत उसने इन्टरमीडिएट तक शिक्षा प्राप्त की थी। लेकिन मां भी उसका साथ नहीं दे सकी थी।
आगे न पढ़ने की जिद के बाद वह नर्स की ट्रेनिंग के लिये मेरठ मेडिकल कॉलेज के नर्सेस हॉस्टल में शिफ्ट हुई थी और मां गांव चली गई थी—तभी वह हादसा हुआ था। हर महीने वह उससे मिलने मेडिकल कॉलेज गांव से आया करती थी लेकिन एक बार जब मेरठ आने के लिये बस स्टैण्ड जा रही थी तभी एक ट्रक ने उन्हें रौंद दिया था।
बेटी से मिलने की इच्छा लिये वे स्वर्ग सिधार गई थीं। उसे खबर मिली थी तो वह एकदम पत्थर होकर रह गई थी। अपनी उस कर्मयोगी मां को 'सुख' देने के लिये ही तो उसने आगे न पढ़ने की जिद की थी। जॉब पाने के बाद अपनी मां के बुढ़ापे का सहारा बनना चाहती थी लेकिन मां की आकस्मिक मौत ने उसके सारे सपनों को चूर-चूर करके रख दिया था। बहुत बुरी तरह टूटकर रह गई थी।
मां के अलावा उसका दुनिया में कोई नहीं था, जो थे उन्होंने पिता की मौत के बाद से उन लोगों से नाता तोड़ लिया था।
दुनिया में बिल्कुल अकेली होकर रह गई थी वह।
उस अकेली का दुःख बांटा था सुरजीत ने। वह मेडिकल कॉलेज में ही एम०बी०बी०एस० का कोर्स कर रहा था। उसकी ड्यूटी अक्सर डॉक्टर सुरजीत के साथ ही लगती थी। दोनों में काफी घनिष्ठता थी। अपने दुःख-सुख दोनों एक-दूसरे से कह लेते थे। मां की मौत के बाद वह उसके और निकट आ गया था और फिर यह निकटता न जाने कब प्यार में बदलती चली गई।
चौंकी तो वह उस दिन थी जब एकाएक सुरजीत ने उसके सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया था।
अवाक्-सी वह उसका चेहरा देखती चली गई थी।
सुरजीत उससे ऐसा प्रस्ताव भी कर सकता है, यह बात वह सपने में भी नहीं सोच सकती थी।
उसके और सुरजीत के स्तर में जमीन-आसमान का अन्तर था।
लेकिन सुरजीत के आगे उसकी एक भी नहीं चली थी।
डॉक्टर बनते ही परिवार के विरोध के बाद भी उसने उससे शादी कर ली थी। नयनों में रंगीले सपने लिये वह अपने पिया के घर आ गई थी। घर वालों ने मन से न सही उसे स्वीकार कर लिया था। अब यह बात और थी कि उसकी सास 'ताने' देने का कोई अवसर नहीं छोड़ती थी।
श्वसुर ने उसे अस्वीकार नहीं किया था लेकिन स्वीकार भी नहीं किया था—घर के मामलों में वे कम ही बोलते थे—सास अपनी आदत से मजबूर थी लेकिन उसकी नाराजगी ऐसी भी नहीं भी, जो वह बर्दाश्त न कर सके।
मां की मौत के बाद सास का मां जैसा प्यार उसे नहीं मिल सका था लेकिन रागिनी जैसी ननद पाकर वह निहाल थी—इकलौता देवर अमरजीत भी उसे बहुत आदर देता था—सुरजीत तो उसका दीवाना था ही। शादी के बाद उसका प्यार और ज्यादा गहरा हो गया था।
अपने पति की इस दीवानगी, इस प्यार पर वह दिलोजान से फिदा थी, अपने आपको दुनिया की सबसे ज्यादा सौभाग्यशाली समझती थी लेकिन अपनी यही भावना वह अपने जीतू पर जाहिर नहीं करती थी। अक्सर उसकी शरारतों की वजह से सुरजीत भिन्नाया रहता था। उसे एक ही शिकायत रहती थी कि शादी के इतने दिनों बाद भी वह उसे अपने ढंग से प्यार नहीं कर पाता। उसकी शिकायत गलत नहीं थी।
सभी के रहते तो दिन में जब सुरजीत मेडिकल कॉलेज से घर आ जाता था, वह अपने कमरे में नहीं जा पाती थी—रात में भी उसे कमरे में आने में ग्यारह बज जाते थे। एक कारण तो सास के तानों का भय था, दूसरा उसकी शरारत थी।
कमरे में घुसते ही अपने इन्तजार में तड़पते सुरजीत के बगल में लेटते हुए हुक्म दनदना देती—"आज बिल्कुल परेशान मत करना जीतू डार्लिंग—बहुत बुरी तरह थक गई हूं—रात में तुम मुझे सोने नहीं देते और दिन में...मम्मी के प्रेम विवाह और नर्सों की करतूतों के लेक्चर सुनने के साथ-साथ ढेर सारा काम भी करना पड़ता है और आपकी वह छोटी बहन जी—रागिनी के क्या कहने! वह इतनी भोली नहीं है जितनी तुम समझते हो और आपके भाई अमरजीत साहब—ऐसे-ऐसे मजाक करते हैं कि मेरी तौबा...।"
खूब परेशान करने के बाद ही वह सुरजीत को अपने पास फटकने देती थी।
इस तरह न जाने कितने दिन बीत गए थे लेकिन डॉक्टर बनने के बाद वह मेरठ नहीं रहना चाहता था। यही वजह थी कि जब सुरजीत को दिल्ली के एक प्राइवेट हॉस्पिटल 'ईश्वर नर्सिंग होम' में जॉब मिला तो उसने फौरन हामी भर दी।
पिछले महीने ही वह उसे लेकर दिल्ली आ गया था। आने से एक दिन पहले अपने कमरे में घुसते ही उसे अपनी बांहों में लेते हुए कहा था—"मैडम अब अपनी यह डिक्टेटरशिप तो तुम खत्म ही समझो क्योंकि मुझे दिल्ली में जॉब मिल गया है और हम कल ही वहां चल रहे हैं। फ्लैट अभी हॉस्पिटल की ओर से मिलने में दस-बारह दिन लगेंगे तब तक हम होटल में रहेंगे—वहां आपके पास कोई बहाना नहीं रहेगा। बस हम होंगे और हमारी बेगम मीनू डार्लिंग होगी—मतलब रातें तो हमारी होंगी ही मगर सुरजीत कुमार चक्रवर्ती दिन में भी हॉस्पिटल गोल कर जाया करेंगे—दो-तीन दिन नहीं जाने से मरीज मर नहीं जायेंगे। यहां सुहागरात ढंग से नहीं मन पायी थी अब दिल्ली चलकर सारी कसर निकालूंगा।"
उसने गलत नहीं कहा था।
हॉस्पिटल की तरफ से यह फ्लैट तो उसे एक हफ्ते पहले मिला था, वह यहां पिछले महीने आ गया था और ये दिन उसके कैसे कटे, यह सोचते ही उसका चेहरा सिन्दूरी हो उठा।
सचमुच उसका जीतू उसके लिये पागल हो उठा था।
इस फ्लैट में आने के बाद तो वह और ज्यादा शरारती हो गया था।
चार दिनों तक तो सामान सैट करने के बहाने ही हॉस्पिटल नहीं गया था।
आज भी वह थकावट का बहाना करके गोल करने के मूड में था, उसी ने जबरदस्ती उसे ठेल-ठालकर भेजा था।
जाते-जाते भी वह अपनी शरारत से बाज नहीं आया था।
मीनाक्षी के होंठ मुस्कराहट की शक्ल में खिंचे ही थे कि कॉल बैल बज उठी।
"कौन हो सकता है?" सोचते हुए उसकी आंखों के सामने अपने पति का ही चेहरा था।
एक पप्पी की जगह अन्दर आते ही उसने उसे बांहों में लेते हुए चुम्बनों की झड़ी लगा दी थी।
और फिर अड़ गया कि आज हॉस्पिटल नहीं जायेगा।
"वही होंगे...!" सोचते हुए वह दरवाजे की ओर बढ़ी।
उसका अनुमान गलत नहीं था। वह सुरजीत ही था।
"तुम...!" दरवाजा खोलते ही वह बड़बड़ायी थी।
"यार—ऐसे मत देखो—मैं हॉस्पिटल गया था लेकिन...!"
"क्या लेकिन?" उसने उसकी ओर शंकित निगाहों से देखा।
"मुझे मेरा बचपन का यार मिल गया—बहुत दिनों बाद हमारी मुलाकात हुई है—मैं तो उसे पहचान ही नहीं पाया था लेकिन जयकिशन ने मुझे देखते ही पहचान लिया—बेचारा बनना तो मेरी तरह डॉक्टर ही चाहता था लेकिन बी०एस०सी० करने के बाद आगे पढ़ ही नहीं सका फिर भी बहुत बड़ी मेडिकल कम्पनी गोपाल में रिप्रजेन्टेटिव है...अरे जयकिशन तू यहां क्यों खड़ा है यार—यहां तेरी भाभी के अलावा कोई और नहीं है भाई...!" उसने मुड़ते हुए किसी से कहा और फिर सुरजीत के पीछे उसे एक चेहरा और नजर आया था।
सांवले रंग का लम्बा और घुंघराले बालों वाला वह युवक मुस्कराती नजरों से एकटक उसी की ओर देखे जा रहा था।
मीनाक्षी उसकी चुभती आंखों की ताब नहीं ला सकी। उसने शीघ्रता से निगाहें हटायीं।
"भूल गया न सारी चौकड़ी—अरे हमारी जानम मीनू डार्लिंग है ही ऐसी—अच्छे अच्छों के होश उड़ा दे—भाई औपचारिकता के नाते नमस्ते तो कर ले—वरना हमारी मैडम बुरा मान जायेंगी।" सुरजीत हंसा था।
"ओह सॉरी यार—इस अशिष्टता के लिये आप भी क्षमा करें भाभी जी—सचमुच मुझे इस तरह आपको घूरना नहीं चाहिये था लेकिन देखिये न—इस अशिष्टता में मेरा कसूर कम और आपका ज्यादा है।" हाथ जोड़ते हुए जयकिशन नाम का वह युवक मुस्कराता हुआ एकदम उसके सामने था।
"मेरा...!" न चाहते हुए भी उसके मुंह से निकल गया था।
"जी हां आपका...!" जयकिशन की आंखें उसी के चेहरे पर थीं।
"क्या बक रहा है तू—घूरे तू और कसूरवार मेरी मीनू डार्लिंग—ऐसा कैसे हो सकता है?" सुरजीत बोला था।
"हो क्यों नहीं सकता?" जयकिशन की मुस्कराहट गहरी हो गई।
"कैसे—जरा हम भी तो सुनें?" सुरजीत ने उसकी ओर देखा था।
"बुरा तो नहीं मानोगे?" वह हंसा था।
"अब कह भी डाल—बेकार का सस्पेंस क्रियेट कर रहा है।"
"भाभी बहुत खूबसूरत हैं—इनकी ओर देखते हुए निगाहें हटाना आसान नहीं है—मुझे यह कहने में जरा भी हिचक नहीं है कि अपने प्रोफेशन की वजह से जगह-जगह घूमता हूं लेकिन आज तक इन-सा हसीन चेहरा नहीं देखा।"
"वाह बेटा—कॉलेज लाइफ के हसीनों की चापलूसी वाले लटके अभी तक तूने नहीं छोड़े—वैसे तेरे इस 'लटके' से यहां तेरी दाल नहीं गलने वाली क्योंकि इस तरकीब से छोरियां फंसती हैं बीवियां नहीं।"
"क्या बेकार की बात कर रहे हो तुम भी—किसी की बीवी को पटाने की बात सोचना भी मेरे लिये पाप है—तुम तो मेरे दोस्त हो—वैसे यह लटका नहीं हकीकत है—मैंने वही कहा है, जो सच है...!" वह जल्दी से बोला।
"यानी तेरा कोई और मतलब नहीं था?"
"एक है।" वह मुस्कुराया।
"क्या मतलब?" चौंका सुरजीत।
"मैं इनकी तारीफ करके इनका दिल जीतना चाहता हूं।"
"किसलिये मेरे भाई...?" सुरजीत ने बुरा-सा मुंह बनाया।
"अपनी सिफारिश करवाने के लिये।" जयकिशन की आंखों में चमक थी।
"कैसी सिफारिश?" सुरजीत उसकी ओर देख रहा था।
"अपनी शादी की।"
"शादी?" वह बड़बड़ाया।
"हां यार! आज तक इसे झंझट समझ कर दूर ही रहा था लेकिन अब भाभी जी को देखने के बाद जहां तेरी किस्मत पर ईर्ष्या रही है वहीं शादी का इरादा पक्का हो गया है—भाभी जी की कोई बहन...!"
"बेकार मेहनत कर रहा है तू।" सुरजीत ने उसकी बात काटी थी।
"क्या मतलब?" वह चौंका।
"एक ही है यार जयकिशन—हमारी ये जानम ओनली वन पीस थी, न कोई भाई न कोई बहन।"
"ओह बैड लक—लेकिन भाई अब मैं इतना भी बदनसीब नहीं हूं कि मुझे दरवाजे से ही टरका दिया जाये—भाभी जैसी बीवी न सही कम-से-कम इनके हाथ की एक कप चाय का हकदार तो हूं ही।" कहते हुए जयकिशन के होठों पर मुस्कराहट थी, जबकि निगाहें मीनाक्षी के चेहरे पर ही थीं।
"सॉरी दोस्त—बातों में भूल ही गया था—आ अन्दर आ जा!" कहते हुए सुरजीत ने उसका हाथ थामा था।
मीनाक्षी दरवाजा छोड़कर एक ओर हट गयीं।
जयकिशन ने उसके साथ कोई अशिष्ट मजाक नहीं किया था. फिर भी न जाने क्यों वह उसे पहली नजर में ही अच्छा नहीं लगा था।
दोनों के अन्दर आने के बाद उसने दरवाजा बन्द किया था और रसोई की ओर बढ़ गई। दोनों ड्राइंगरूम में जा बैठे थे लेकिन उसे लग रहा था जैसे जयकिशन की निगाहें अब भी उसका पीछा कर रही हैं।
¶¶
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Additional information
Book Title | कातिल सनम : Katil Sanam by Sunil Prabhakar |
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Isbn No | |
No of Pages | 272 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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