कत्ल का जादूगर
राकेश पाठक
“चलो—रामप्रसाद की बेटी को छेड़ते हैं आज यारो!”
“कौन रामप्रसाद?”
“अरे, वही स्वतन्त्रता सेनानी रामप्रसाद!” काली रंगत वाला युवक सुल्फे वाली सिगरेट में कश मारते हुए बोला - “जो इस मौहल्ले का महात्मा गांधी कहा जाता है—भाई ने कभी महात्मा गांधी के साथ आन्दोलन में भाग ले लिया होगा, बस, गांधीवादी बन गया वो—उस रोज मैंने कल्लू नाई की लौण्डिया को छेड़ा था—तभी रामप्रसाद आ गया और देने लगा भाषण—नशे में था—सो उसे थप्पड़ जड़ दिया था...।”
“तूने थप्पड़ मार दिया था...?” दूसरा मवाली नजर आने वाला युवक उससे सिगरेट लेते हुए बोला—“वो भले ही बूढ़ा हो गया हो—लेकिन तेरे से तो, चार गुना तगड़ा होगा—फिर तो उसने तेरी धुनाई कर डाली होगी।”
“क्या बात करता है यार धगड़ू—गुस्सा तो आया ही नहीं उसे—मुस्कुराते हुए बोला कि बेटे दूसरा गाल भी हाजिर है—उसने सचमुच ही अपना दूसरा गाल पेश कर दिया था।”
“तूने शर्मिन्दा होकर माफी मांग ली होगी।”
“क्या बात करता है धगड़ू—ये महात्मा गांधी वाला टैम थोड़े ही है कि दूसरा गाल पेश करने पर थप्पड़ मारने वाला शर्मिन्दा हो जाएगा—मैं समझ गया था कि वो बुजदिल किस्म का शख्स है—मैंने दूसरे गाल पर दो थप्पड़ मारे थे—अगर वो तीसरा गाल भी पेश कर देता तो, तीन रहपटे और मार देता।”
“फिर क्या हुआ था वीरू?” तीसरे युवक ने पूछा।
“फिर उसका बेटा आ गया था।”
“अरुण—जो हीरा बना घूमता है।”
“हां—वो शर्ट की आस्तीनें चढ़ाकर मेरी तरफ बढ़ा ही था कि उसके बाप यानी रामप्रसाद ने उसे अपनी कसम देकर रोक लिया था और अपने साथ ले गया था—अगर वो न रोकता तो अरुण कौन-सा तीर मार लेता—कॉलेज में हम उसे गधा बनाकर उसकी सवारी लेते थे—वो तो गीदड़ भभकी दे रहा था—उसे मालूम तो था ही कि उसका बाप रोक लेगा उसे।”
“इसमें तो कोई शक नहीं कि रामप्रसाद की लौण्डिया गजब की खूबसूरत है—अगर फिल्मों में चली जाए तो, श्रीदेवी और माधुरी दीक्षित की छुट्टी कर दे—नागिन-सी लहराती हुई चलती है—जवान दिलों पर बिजलियां-सी गिराते हुए—नाम याद नहीं आ रहा है उसका।”
“दीपिका है यार!”
“हाय दीपिका...!” गुण्डों वाली सूरत का मालिक सीने पर हाथ मारते हुए सड़क छाप मजनूं के स्टाइल में बोला—“फुलत सिटी की सबसे हसीन कुड़ी—मिस इण्डिया बनने से उसे कोई न रोक पाएगा, रघु दादा का प्रस्ताव तो बढ़िया है—उसे छेड़ते हैं—ज्यादा कुछ करने का चांस मिला तो वो भी कर लेंगे।”
“वो नौ बजे कॉलेज के वास्ते निकलेगी...।” रघु सिगरेट फेंक कर उठ खड़ा होते हुए बोला—“हम लोग चौपले पर उसका इन्तजार करते हैं—हम आज से उसे तंग करना चालू करेंगे—उसका बाप और भाई तो हमारे खिलाफ कुछ कर नहीं पाएंगे—तब उसे झक मारकर हमारी शर्त माननी ही होगी—हम उसे अपने बिस्तर पर लाकर ही दम लेंगे।”
“उसे उठा क्यों नहीं लेते हो रघु दादा! उठाकर यहां लाएंगे और मौज-मस्ती करके छोड़ देंगे।”
“नहीं—उसके साथ कोई जोर जबरदस्ती नहीं—वो प्यारी गर्ल है—उसके साथ जोरा-जोरी करने को मन नहीं मानता है—हम उसे अपने बिस्तर पर आने को मजबूर करेंगे—चलो, चौपले पर चलते हैं।”
वे गिनती में सात जने थे—सूरत से ही छंटे हुए मालूम पड़ते थे—उनकी करतूतों से पूरा मौहल्ला परेशान था—लेकिन कोई मारे डर के उनका विरोध नहीं करता था।
वे चौपले पर पहुंच गए और बेताबी के साथ दीपिका का इन्तजार करने लगे।
¶¶
“हमारा बेटा आप से नाराज है जी।”
“क्यों?” रामप्रसाद ने अखबार पर से निगाहें हटाकर, अपनी धर्मपत्नी सीता को देखा।
“अरुण को अच्छी भली नौकरी मिल रही थी—लेकिन आपकी वजह से न मिली—अरुण का नाराज होना वाजिब ही है।”
“क्या बात करती हो तुम सीता—वो पाटेकर का बच्चा नौकरी देने के बदले रिश्वत मांग रहा था—हम इस भ्रष्टाचार को कैसे बर्दाश्त कर सकते थे—हमने पाटेकर को पकड़वाकर अपना फर्ज निभाया था—बापू ने रामराज्य का सपना देखा था—लेकिन देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को देखकर आत्मा दु:खी हो जाती है—बापू जी आज जिन्दा होते तो, देश की हालत देखकर खून के आंसू रोते।”
“जैसे मैं रो रहा हूं बापू जी...!” लम्बे कद का और खूबसूरत युवक भभकी हुई आवाज में बोला—“आपने इस देश को रामराज वाला बनाने के चक्कर में मेरे रोजगार पर तलवार चला दी—पाटेकर को जेल भेजा जाता तो, मुझे नौकरी मिल जाती—उस नौकरी को पाने वाले बीस लड़के थे—पाटेकर से पांच हजार रुपये लेकर मुझे नौकरी देने को तैयार था—आज से दो हजार रुपये कमा रहा होता—आपने पांच हजार रुपये बचाने के वास्ते मुझे नौकरी से वंचित कर दिया...।”
तनिक भी क्रोध या रोष नहीं आया रामप्रसाद के गौरवर्ण वाले तेजस्वी चेहरे पर—वो होठों पर पावन-सी मुस्कान सजाए हुए बोला—“पांच हजार क्या बेटा... हमारी तमाम सम्पत्ति तुम्हारी ही है—हमने तो तुमसे कई बार छोटी-मोटी दुकान खोल लेने को भी कहा—लेकिन तुमने हर बार सर्विस की ख्वाहिश जाहिर की—तुम पांच हजार की बात करते हो—हम पाटेकर को रिश्वत के नाम पर पांच रुपये भी नहीं देते—मेरिट के हिसाब से नौकरी पर तुम्हारा हक बनता था—फिर पाटेकर को रिश्वत मांगने का क्या हक था? उसने अपराध किया था, तो उसे सजा भुगतने के वास्ते जेल जाना पड़ा—तुम चिन्ता क्यों करते हो बेटा—तुम्हारा बाप अध्यापक है—इतनी तनख्वाह मिल जाती है कि हम सबकी जरूरतें पूरी हो जाए—जब तक तुम्हें नौकरी नहीं मिल जाती है—तुम शॉर्टहैण्ड टाइप सीखते रहो—ऐसा करो कि कम्प्यूटर क्लास भी ज्वाइन कर लो—शायद हम तुम्हें पॉकेट मनी कम देते हैं—इस महीने से दोगुनी कर देते हैं।”
“न- नहीं बाबूजी, मेरा मतलब ये नहीं था।” अरुण शर्मिन्दा होते हुए बोला—“मेरा मतलब तो ये था कि मैं बड़ा हो गया हूं—मैं परिवार की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर लेना चाहता हूं—आपकी और मां की सेवा करना चाहता हूं—आपने मेरे और दीपिका के वास्ते क्या नहीं किया है—सारी तनख्वाह हम पर ही खर्च कर देते हैं—अपना और मां का तो ख्याल किया ही नहीं आपने कभी?”
रामप्रसाद ने कुछ कहने को मुंह खोला ही था कि दीपिका को प्रविष्ट होते देखकर मुंह बन्द कर लिया।
सीने पर फाइल लगाए हुए, दीपिका सिर झुका कर चुपचाप भीतर वाले कमरे में चली गयी।
“दीपिका वापस क्यों आ गयी सीता?”
“क्या मालूम जी—शायद तबीयत खराब हो गयी?”
तभी दीपिका की सिसकियों ने उन तीनों को चिहुंका दिया।
¶¶
“क्या हुआ दीपिका बेटी...?”
“तुम क्यों रो रही हो?”
लेकिन बिस्तर पर औंधी लेटी दीपिका ने अपनी मां व भाई के सवालों का जवाब न दिया।
“दीपिका...!” तब रामप्रसाद बिस्तर पर बैठा और उसके सिर पर स्नेह भरा हाथ फिराते हुए बोला—“अपने बाबू जी को भी नहीं बताओगी की क्या बात है? तुम हमारी बहादुर बेटी होकर भी रोती हो—हमारी बात भूल गयी कि आंसू बुजदिलों की निशानी होती है—फौरन ही आंसू पौंछो और बताओ की प्रॉब्लम क्या है?”
दीपिका उठ बैठी—उसने दुपट्टे के छोर से आंखें और गाल पौंछे तथा बोली—“चौपले पर रघु और उसके गुण्डे दोस्त खड़े थे बाबूजी...!”
“क्या उन लोगों ने...?” अरुण मुट्ठियों को कसते हुए गुर्राया—“तुम्हारे साथ कोई बदतमीजी की?”
“हां—अरुण भैया—उन्होंने मुझ पर गन्दी फब्तियां कसी—अश्लील गाने गाए—मैंने बचकर निकल जाना चाहा तो, उन्होंने मेरे इर्द-गिर्द घेरा बना लिया और गन्दी ऑफर रखने लगे—रघु ने कहा कि वो लोग मुझे तब तक तंग करते रहेंगे—जब तक कि मैं उनकी बात नहीं मान लेती हूं।”
“उन हरामजादों की इतनी हिम्मत...।” अरुण मारे क्रोधातिरेक सूखे पत्ते-सा कांपने लगा—उसके चेहरे पर मानो सुर्ख चीटियों का झुण्ड दौड़ लगाने लगा था—गुलहड़ के फूल-सी सुर्ख हो चली आंखें कमरे में खूंटी पर टंगी तलवार पर गड़-सी गयी।
लपक कर उसने तलवार उतार ली और दरवाजे की तरफ बढ़ते हुए बोला—“आज नहीं छोडूंगा उन्हें—सबको काट डालूंगा।”
“लेकिन।”
दरवाजे पर किसी दीवार की भांति रामप्रसाद आ खड़ा हुआ।
“मेरा रास्ता छोड़ दीजिए बाबूजी—आज आप मेरे क्रोध की आंधी नहीं रोक पाएंगे।”
“क्रोध और इन्तकाम हमेशा नुकसानदाई होते हैं बेटा...।” शान्तभाव से बोला रामप्रसाद—“इंसान अपना ही नुकसान कर बैठता है—क्योंकि क्रोध विवेक को फूंक देता है—तलवार रख दो—फिर ठण्डे दिमाग से सोचते हैं कि हमें क्या करना चाहिए।”
“आपकी बुजदिली मेरे समझ से परे है बाबूजी...।” कसमसाते हुए और छटपटाते हुए बोला—“आपके जिस्म में खून है कि बर्फ भरा हुआ है—उस रोज आपको उस गुण्डे ने तमाचा मारा था—लेकिन आपने अपना दूसरा भी गाल उसे पेश कर दिया था—क्या नतीजा निकला था—वो शर्मिन्दा होकर आपके चरणों में गिर गया था क्या? अपनी धृष्टता की क्षमा याचना की थी क्या उसने? नहीं न—उसने आपको दूसरे गाल पर भी थप्पड़ जड़ दिया था—उससे और थप्पड़ खाने का तीसरा गाल कहां से लाते आप? अब ये वो वक्त नहीं रहा है जब दूसरा गाल पेश कर देने पर थप्पड़ मारने वाला शर्मिन्दा हो जाएगा—अगर उसमें इतनी तमीज हो तो, वो पहला थप्पड़ ही क्यों मारेगा—आज की तारीख में हद से ज्यादा अहिंसा या सज्जनता, बुजदिली की निशानी मानी जाती है—सामने वाला समझ जाता है कि आप बुजदिल हैं—तब तो थप्पड़ की बजाय घूंसे मारने की सोचता है—इंसान को वक्त के साथ ही चलना चाहिए—अगर कोई आपको थप्पड़ मारता है तो, आपको उसे फौरन ही करारा जवाब देना पड़ेगा—उसका हाथ तोड़ देना होगा—वरना वो उस हाथ का दोबारा भी इस्तेमाल करेगा—खैर, उस रोज आपने अपनी कसम दे डाली थी और मैं खून का घूंट भरकर रह गया था—लेकिन आज तो आपको ऐसा नहीं करना चाहिए—आज उन गुण्डों ने हमें बुजदिल समझकर ही दीपिका के साथ बदतमीजी की है—दीपिका को ये कहा है कि जब तक ये उनकी ख्वाहिश पूरी नहीं कर देगी इसे ऐसे ही तंग करते रहेंगे—उनकी ऑफर राखी बंधवाने कि नहीं होगी दीपिका से—आप भी समझते होंगे कि वो गुण्डे मेरी बहन और आपकी बेटी से क्या चाहते हैं? इस पर भी आप मुझे रोक रहे हैं बाबू जी? उस रोज आपने रघु दादा के थप्पड़ खाकर दूसरा गाल पेश किया तो, उसने आपको दूसरा थप्पड़ मारा था—आज उसने दीपिका के साथ बदतमीजी की है—अगर आज भी आपने बुजदिली का लबादा ओढ़े रखा तो गुण्डों के हौसले आसमान की बुलन्दियों तक जा पहुंचेगे—हो सकता है कि कल दीपिका अपनी लाज लूटवाकर खून के आंसू रोते हुए वापस लौटे।”
“अरुण... क्या बकवास कर रहा है तू अपने बाबू जी से—शर्म नहीं आती है तुझे—क्षमा मांग अपने बाबूजी...।”
“नहीं, इसे बोलने दो सीता—जब हम गुलाम थे तो, तब भी देश में दो विचारधाराएं पल रही थीं—एक तरफ अहिंसावादी स्वतन्त्रता सेनानी थे—दूसरी तरफ उग्र विचारों वाले क्रान्तिकारी थे—जो मरने और मारने में ही यकीन रखते थे—अरुण भी अपनी जगह ठीक है—लेकिन उन गुण्डों से झगड़ा मोल लेने का परिणाम क्या निकलेगा? उनके पास हथियार है—ताकत है—ऐसा नहीं है कि हमारे जिस्म में ताकत नहीं है—मां भारती की सौगन्ध खाकर बोलते हैं कि अगर हमने रघु को थप्पड़ का जवाब दे दिया होता तो, वो जिन्दा नहीं जाता—लेकिन फिर क्या नतीजा निकलता—हम जेल में चले जाते—हमारे पीछे रघु के साथी तुम लोगों का जीना हराम कर देते...।”
“लेकिन आपकी चुप्पी का भी क्या परिणाम निकला बाबूजी—अगर वो गुण्डे चुप्पी साध जाते तो, मैं आपकी विचारधारा के सामने नतमस्तक हो जाता—मान लेता कि आपने दो थप्पड़ों के बदले गुण्डे-मवालियों को सीधी राह पर ला दिया—लेकिन आपकी सज्जनता के दुष्परिणाम ही निकले हैं—आपकी बेटी के साथ बदतमीजी कर डाली उन गुण्डों ने—क्या आप अपने दूसरे गाल की ही भांति दीपिका को उनके सामने पेश कर देंगे? ये सोचकर कि वो शर्मिन्दा हो जाएंगे? नहीं, ऐसा नहीं होगा बाबूजी—जिस तरह रघु ने आपके दूसरे गाल पर भी थप्पड़ मार डाला था—उसी तरह वो दीपिका के साथ भी अभद्र व्यवहार करेगा—अगर आप मेरी बात से एग्री नहीं हैं तो, आजमा कर देख लीजिए—ले जाइए मेरी बहन को पकड़कर उनके पास—फिर देखिए कि वो क्या करते हैं? दावा करता हूं बाबूजी...।” अरुण छाती पर हाथ मारते हुए बोला—“वो गुण्डे दीपिका को बहन मानकर इससे राखी नहीं बंधवानी है—वो दीपिका को गन्दे दृष्टिकोण से ही लेंगे—वे गुण्डे जहरीले नाग है—उनके सामने हाथ करोगे तो डसेंगे ही—क्योंकि डसना नाग की फितरत होती है—वो दूध पीकर भी जहर उगलता है—नाग अगर मन्दिर में भी हो तो, दूर से प्रणाम करना चाहिए—लेकिन अगर कोई नाग आपके घर में दाखिल होकर फुंफकारे तो, उसका फन कुचलने में ही समझदारी है।”
“नहीं बेटे—नाग का फन कुचलने के चक्कर में इंसान मात खा जाता है—बेहतर यही होता है कि किसी सपेरे को बुलवाकर उसे पकड़वा देना चाहिए।”
“अगर कोई सपेरा न मिले तो...?” अरुण भभके स्वर में बोला—“क्या नागों के पीछे सपेरे तैनात रहते हैं—अगर किसी को नाग डसने वाला हो तो, उसे सपेरे का इन्तजार करना चाहिए।”
“नहीं... उसे रिस्क लेना चाहिए—जब मौत निश्चित हो तो, उसका सामना करना चाहिए—लेकिन अगर नाग के फन पर हाथ डालेंगे तो वो डसेगा—तब होशियारी के साथ उसे पकड़कर बाहर फेंकने में या उसे मारने में ही समझदारी है—हम मानते हैं कि रघु और उसके साथियों ने दीपिका के साथ अभद्र व्यवहार करके जघन्य अपराध किया है—उनको सजा भी मिलनी चाहिए—लेकिन सजा देने का अधिकार हमें या तुम्हें नहीं है बेटा—अगर तुम तलवार लेकर उन्हें सजा देने गए तो, परिणाम बुरा निकलेगा—वो तुम्हें भी घायल कर सकते हैं—अगर तुमने उन्हें मार दिया तो जेल जाना पड़ेगा—बेहतर यही होगा कि हमें पुलिस स्टेशन चलकर उसके खिलाफ कम्प्लेंट दर्ज करानी चाहिए—पुलिस उनसे स्वयं निपट लेगी।
अरुण सोच में पड़ गया।
“बाबूजी ठीक ही बोलते हैं भैया...।” दीपिका बिस्तर से उठकर आयी और उनके कन्धे पर हाथ रखते हुए बोली—“आप उन गुण्डों से नहीं उलझेंगे, ख्वामखाह ही बात का बतंगड़ बन जाएगा।”
“ठीक है बाबूजी...।” वो दीर्घ श्वास छोड़ते हुए बोला—“हम पुलिस स्टेशन चलकर रिपोर्ट कर देते हैं।”
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