कानून की देवी
राकेश पाठक
सम्मिलित ठहाका सुनते ही वह बुरी तरह चौंका।
वह इस भ्रम में था कि शिवाय उसके, शिकारगाह के उस सौ वर्षीय बूढ़े खण्डहर में अन्य कोई नहीं है।
यूं तो कोई चौंकने वाली बात भी नहीं थी क्योंकि उस वीरान खण्डहर में उसकी तरह कोई भी आ सकता था परन्तु वातावरण की निस्तब्धता उसके अकेले होने का बोध करा रही थी और यही गलतफहमी उसने मस्तिष्क के एक कोने में कैद कर ली थी।
ठहाका किन्ही पांच या छह लड़कियों या औरतों ने टूटे-फूटे कमरे के भीतर लगाया था। वह उस कमरे के पिछवाड़े था। भीतर की उपस्थिति 'अटेण्डेन्स' कम अथवा ज्यादा भी हो सकती थी।
न जाने क्यों उसके कदम में वहीं पर स्थिर हो गए।
उसके दाएं कान के ठीक सामने छोटे से सुराग से कमरे का अन्धकार, बाहर की रोशनी झटने की असफलतम चेष्टा कर रहा था। उसी सुराख के माध्यम से ठहाके के पश्चात कुछ आवाजें बाहर अवतरित हो रही थी।
उसका शरीर मशीनी ढंग से दीवार की तरफ मुड़ा। जूतों के साथ पैर आगे बढ़े।
और दाईं आंख सुराख के होठों से जुड़ गई।
शायद कमरे की छत में कोई बड़ा सुराख था—तभी तो भीतर का सब कुछ दृष्टिगोचर हो रहा था। कमरे के टूटे हुए और दरवाजे विहीन रास्ते से रोशनी नहीं आ रही थी। कमरे से बाहर भी कोई कमरा था।
पुरानी और दरार खाई दीवारों पर कुछ अंग्रेज अफसरों की धूमिल पेंटिंग बनी हुई थी। उन्हें पेंटिंग का अवलोकन कर रही थीं वह सातों नवयुवती व युवती। आंखों के अलावा उन अप्सराओं के रसीले होंठ भी बिजी थे बात करने में।
वे संभ्रान्त परिवार की थीं। उन सबका पहनावा उच्च स्तरीय था।
तीन लड़कियों ने पूरे बाजू का बनियान और पेन्ट पहनी हुई थी। वे सत्रह और बीस के मध्य की उम्र वाली थी।
और बाकी चार युवतियों ने कीमती साड़ी पहनी थी। वे बीस-से-पच्चीस वर्ष तक की थी।
हर किसी ने थरमस—मैट—बास्केट इत्यादि सामान उठा रखा था। स्पष्ट था कि वे पिकनिक के लिए आई थी।
उनमें एक युवती किसी अप्सरा से कदापि कम सुन्दर न थी। देखने वाला उसे टीनएजर ही जांचे। वास्तविकता यह थी कि वह बाईस-तेईस वर्षीय थी।
काली साड़ी और ब्लाउज ने उसके गुलाबी शरीर और कुन्दन से दमकते यौवन को निखार डाला था।
उसके चेहरे पर मां मरियम की थी मासूमियत थी और यौवन की गीता की-सी पवित्रता थी।
“अब यहां से चलो ना—पेट की आंतें गुड़-गुड़ करने लगी हैं। झील के किनारे चलकर ब्रेकफास्ट लेते हैं। कहने वाली युवती उस अप्सरा को झंझोड़ते हुए बोली—“कहां खो गई तुम? सुना नहीं, मैंने क्या कहा।”
“चलो, चलते हैं।” सुराहीदार गले से मानो कोई कोयल कूकी थी।
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शिकारगाह के खण्डहर से करीब सौ मीटर पर एक नीले रंग के मीठे जल वाली झील थी। जिसके सपाट सीने को समीर के अदृश्य हाथ थपथपा रहे थे।
नंगी घास पर बैठ गईं वे सभी। एक ने छोटा-सा जापानी टेप रिकॉर्डर चालू कर डाला, जिसमें से 'हम दिल दे चुके सनम' के गाने बाहर निकल रहे थे।
नाश्ते के बीच में हंसी-मजाक चलती रही। वह रूपसी अप्सरा उनका केन्द्र थी। हर कोई उसकी तरफ आकृष्ट थी। जबकि वह थोड़ा उदास थी और जब एक लड़की ने उससे उसकी उदासी का कारण पूछा तो—
“डैडी ने मुझसे प्रॉमिस किया था कि वह नैनी में अपने क्लाइंट से मिलकर सीधे यही चले आएंगे। हमें यहां पर आए चार घंटे होने को आए हैं और डैडी का कोई पता नहीं है।” कहने पर उसने हल्की सांस उगल दी।
“क्यों घुली जा रही है।” एक बोली—“क्या तमाम उम्र अपने डैडी से ही चिपकी रहेगी? ये माना कि आण्टी की डेथ के पश्चात अंकल ने तुझे ढेर सारा दुलार दिया है।”
“इसके डैडी इलाहाबाद कोर्ट के जीनियस पब्लिक प्रॉसिक्यूटर हैं और हाल ही में उनकी पचास लाख की लॉटरी भी निकली है। किसी भी राजकुमार को खरीद लाएंगे और घर दामाद बनाकर रखेंगे।
“ओफ्फो...तुम्हें फालतू बातें सूझ रही हैं। डैडी ने आज तक किसी प्रॉमिस को झूठा नहीं किया है। वे...।”
एक पेड़ के तने के साथ उसकी पीठ सटी हुई थी। न जाने क्यों उसकी आंखें भर्ती चली गई।
उसकी दृष्टि एक चरवाहे लड़के पर जाकर अटक गई। वह जल्दी से कोई निर्णय लेने लगा।
“मेम साहब।”
एक नई आवाज ने उसका ध्यान आकृष्ट किया।
वह बारह-तेरह वर्ष का चरवाहा लड़का था। जिसने बटन टूटी कमीज और शायद अपने बाप का खाकी नेकर पहना था, जो उसके घुटने से भी नीचे लटका हुआ था।
“क्या है रे?” एक युवती ने उसे झिड़का।
“मुझे काली साड़ी वाली से बात करनी है।” चरवाहे ने तने हुए चेहरे से कहा।
“मु...मुझसे!” वह रूपसी अप्सरा तनिक चौंकी—“कह, क्या कहना है?”
“इनके सामने नहीं।” लड़का स्पष्ट बोला—“अकेले में बात करनी है।”
“मैं सुन ही लेती हूं, इसकी बात।” निर्णय लेते हुए वह अपनी सहेलियों से बोली—“न जाने क्या बात है।”
“मुझे तो कोई खतरा लगता है।” एक ने बुदबुदाकर आशंका व्यक्त की।
“तारा! तू डरपोक ही रहेगी। भला इस बच्चे से मुझे क्या खतरा हो सकता है।”
वह लड़के की बात सुनने को उठ खड़ी हुई।
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