कानून का पंडित
“कुछ सुना तुमने?” एक वकील ने दूसरे से पूछा।
“क्या?”
“एक मुकदमें के दौरान ‘कानून का पंडित’ आज नरेंद्र आनंद के सामने जाकर खड़ा हो गया और उनके मुवक्किल के खिलाफ दलीलें देने लगा।”
“सुना ही नहीं, वह नजारा मैंने अपनी आंखों से देखा भी था।"
“तुमने?”
"हां...उस वक्त मैं अदालत में ही था।"
“ओह!” पहले वकील के मुंह से ‘आह’-सी निकली। अफसोस मनाने के-से लहजे में बोला वह—"दुख है कि उस वक्त मैं वहां नहीं था।”
दूसरे ने गर्व से कहा— “अगर होते तो देखते कि कानूनी नुक्ते किन्हें कहते हैं। तुम तो जानते ही हो कि नरेंद्र आनंद को दिल्ली का सबसे बड़ा वकील माना जाता है—हमारी बार एसोसियेशन के मंत्री भी हैं वे—उनकी जिरह और दलीलें सुनकर न्यायाधीश तक रोमांचित हो उठते हैं—मगर आज उस समय ‘आनंद साहब’ की बौखलाहट देखने लायक थी, जब कानून का पंडित कोर्ट में उनके सामने आ खड़ा हुआ—आनंद साहब के एक-एक पॉइंट, एक-एक दलील की धज्जियां उड़ाकर रख दीं उसने।”
"अच्छा!”
"हां।” दूसरा वकील कहता चला गया—“आनंद साहब को कोर्ट में पहले कभी किसी ने इतना नर्वस नहीं देखा होगा, जितने आज थे।”
"जरूर रहे होंगे। कानून के पंडित को यकीनन कानून के बारीक- से-बारीक नुक्ते की जानकारी है।”
“सो तो ठीक है, मगर...।”
"मगर?”
“समझ में नहीं आता कि कानून की इतनी डीप नॉलेज’ उसे है कैसे? जबकि एलoएलoबीo पास तक नहीं की है उसने।”
"सुना है कि दसवीं फेल है।”
"हां।"
“फिर भी कानून के बारे में वह इतना सब जानता है!”
“सुना है कि दसवीं फेल होने के बाद से वह लगातार दस साल तक सिर्फ और सिर्फ कानून की किताबें ही पढ़ता रहा—एलoएलoबीo की डिग्री भले ही उसके पास न हो, परंतु नॉलेज आनंद साहब से भी ज्यादा रखता है।”
“म....मगर यह तो वकीलों का सरासर अपमान है न?”
“वह कैसे?”
“उसके पास एलoएलoबीo की डिग्री नहीं है, एडवोकेट नहीं है वह, फिर भी कोर्ट में लोगों के केस लड़ता है।”
“कोई भी मुलजिम अपने बचाव के लिए कोर्ट में किसी भी ऐसे व्यक्ति को अपना पक्ष रखने के लिए खड़ा कर सकता है, जिस पर उसे विश्वास हो कि वह उसका बचाव भली- भांति कर सकता है। उसका वकील होना जरूरी नहीं है। और मुलजिमों में कानून के पंडित की ख्याति दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है।”
“सो तो ठीक है, मगर यदि इस तरह बिना पढ़े-लिखे लोग कोर्ट में मुलजिमों के मुकदमे लड़ने लगे तो हम वकीलों का क्या होगा?”
"यह वाकई सोचने वाली बात है। समझ में नहीं आता कि कमबख्त ने कचहरी परिसर में जगह कैसे हथिया ली—अपने कमरे के बाहर बड़ा-सा बोर्ड भी लटका रखा है उसने। बोर्ड पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है—' कानून का पंडित’—नीचे अपेक्षाकृत छोटे अक्षरों में लिखा है—‘यहां से आप प्रत्येक केस के संदर्भ में कारगर कानूनी सलाह ले सकते हैं।”
पहला वकील मेज पर कोहनियां टिकाकर दूसरे वकील के कान पर झुकता हुआ रहस्यमय स्वर में फुसफुसाया—“मैंने अपनी कचहरी के कई जाने-माने वकीलों को कानूनी सलाह लेने छुपकर उसके कमरे में जाते देखा है।”
“हां, मैंने भी देखा है।” दूसरे वकील ने भी सुर में सुर मिलाया।
“क्या कानून में ऐसी कोई धारा नहीं है, जिसके बूते पर कचहरी परिसर में खुली उसकी दुकान को हटवाया जा सके?"
“है क्यों नहीं? एडवोकेट मिश्रा ने उस पर केस तो कर रखा है, मगर...।”
“क्या मगर?”
“कानून के पंडित ने ‘स्टे ऑर्डर' ले लिया है......यानी जब तक केस का फैसला नहीं हो जाता, तब तक कचहरी परिसर से उसकी दुकान कोई भी नहीं हटा सकता।”
“हम वकीलों के गले में अटक गया है वह।”
“कुछ भी कहो मगर है ‘चीज’—आज आनंद साहब को उसने नचाकर रख दिया।”
इस तरह कैंटीन में बैठे उन दो वकीलों ने ही नहीं, बल्कि लगभग सारी कचहरी ने आज का ‘लंच’ कानून के पंडित की चर्चा में ही गुजार दिया था।
लंच-समाप्ति पर वे उठे।
जानबूझकर वे उस चैंबर के आमने से गुजरे, जिसके मस्तक पर लटके बोर्ड पर लिखा था—‘ कानून का पंडित।’
ठीक उसी वक्त एक चमचमाती टोयटा कानून के पंडित के चैंबर के बाहर रुकी और उसमें से निकलकर जिस व्यक्ति ने चैंबर में कदम रखा, अधेड़ आयु का होने के बाबजूद वह बेहद आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी था। चौड़े मस्तक, गोरे रंग और नीली आंखों वाले उस व्यक्ति की आंखों पर मोटे लैंसों वाला चश्मा था।
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