कलयुग का अर्जुन
“टन...न...न...न...।”
स्कूल की आधी छुट्टी की घण्टी बजी तो बैंच पर बैठी गौरी अपनी किताब को अपने मैले से पुराने बैग में डालने लगी।
वह नीले रंग की स्कर्ट पहने थी—जो कि उसके घुटनों तक मुश्किल से पहुंच रही थी। सफेद शर्ट पहने थी वह, जो कि स्कर्ट के भीतर थी और ऊपर बेल्ट बंधी हुई थी।
तब दसवीं में पढ़ती थी वह। उम्र अभी सोलह साल की भी नहीं हुई थी। मगर ऊपर वाले की कृपा उस पर साफ नजर आ रही थी। उसके उभार काफी उठ गये थे—जो कि शर्ट के स्कर्ट के भीतर होने की वजह से और भी ज्यादा उभरे नजर आ रहे थे। गालों पर जवानी की चमक नजर आने लगी थी। आंखों में ऐसा नशा था कि देखने वाला उस में डूब कर रह जाये। बालों की दो चोटियां कर रखी थीं उसने—जो कि रिबन की मदद से बांधी गई थीं।
वह अपना बैग सम्भाले हुए दूसरे बच्चों के साथ क्लास से निकली और स्कूल में ही बने पार्क में आकर एक कोने में घास पर बैठी और अपने बैग में से अखबार में लिपटी रोटी निकाल कर रोल की हुई रोटी को खोला तो उसमें थोड़ा अचार रखा हुआ था।
रोटी और अचार से ही पता चल रहा था कि उसके घरेलू हालात कैसे हैं। बाप था नहीं—मां दूसरों के घरों में चूल्हा-चौका करके जैसे-तैसे उसे पढ़ा रही थी।
अपनी गरीबी से बहुत ही आहत थी वह। दूसरों के अच्छे-अच्छे कपड़े पहने, उन्हें बढ़िया खाना खाते और गाड़ियों में घूमते देख उसका दिल जलता था। उसका दिल करता था कि वह उसके कपड़े छीन कर खुद पहन ले—खाना हड़प ले और उसे गाड़ी से धक्का देकर खुद उसकी जगह बैठ जाये।
मन ही मन उसने यह तय भी कर रखा था कि अगर कभी उसे आगे बढ़ने का छोटा-सा भी मौका मिला तो वह उसे हर हाल में लपक लेगी।
अभी तक जेब-खर्ची का उसे कभी दस रुपया भी नहीं मिला था। कभी-कभी उसकी मां उसे दो तीन रुपये या बड़ी हद पांच रुपये दे देती थी। सौ का नोट तो वह तभी देखती थी—जब वह स्कूल में फीस लेकर आती थी। वर्ना सौ का नोट जेब में रखना उसके लिये सपना भर था। पांच सौ या हजार के नोट की तो दूर की बात थी।
पढ़ाई का यह उसका आखिरी साल था। उसके बाद उसे नौकरी ढूंढनी थी। ऐसा उसकी मां उससे कहती थी।
मगर उसके सपने तो बहुत ऊंचे थे। वह महंगी गाड़ियों में घूमना चाहती थी। बढ़िया कपड़े पहनना चाहती थी। महलों में रहना चाहती थी और यह सब नौकरी से तो हरगिज नहीं मिल सकता था।
उसकी ऊपरी क्लास में एक लड़का था—जो उस पर मेहरबान था।
दिनेश नाम था उस लड़के का। कभी-कभी वह स्कूल में मोटरसाईकिल पर आता था। कपड़े भी अच्छे पहनता था—और उसके पास हर वक्त दो सौ रुपये भी रहते थे।
कोई खास खूबसूरत नहीं था दिनेश मगर उसकी सेहत अच्छी थी। कद-बुत भी ठीक था। और स्कूल में उसकी धाक भी थी।
वह गौरी का दोस्त बना हुआ था—और गौरी भी जानती थी कि उसकी दोस्ती के पीछे उसका मकसद क्या है।
ऊपर वाले ने उसे बेशक गरीबी दी थी, मगर हुस्नो शबाब की कोई कमी नहीं रहने दी थी। और अपनी खूबसूरती और चढ़ती जवानी के
बारे में वह भी जानती थी। मगर उसने जानबूझकर इस तरफ कभी ध्यान नहीं दिया था।
शरारत व इठलाना भी तभी अच्छा लगता है जब जेब में पैसा हो—ऐसा उसका सोचना था।
एक रोटी खाकर उसने बाकी दो रोटियां अखबार में लपेटीं और उन्हें बैग में रखकर खड़ी हो नल की तरफ बढ़ गई, जो कि पार्क के कोने में लगा था।
वहां उसने पानी पिया और वापिस अपनी जगह आकर बैग में से रोटी निकाली और उसे फिर से खाने लगी।
रोटी खाते हुए उसकी नजरें दिनेश पर पड़ीं, जो कि उसी की तरफ बढ़ रहा था।
नजरें मिलते ही उसके होठों पर मुस्कान फैल गई।
दिनेश उसके पास आया और उसके सामने बैठ गया।
इस वक्त गौरी पालथी मारे बैठी थी। ऐसे में उसकी स्कर्ट काफी ऊपर चढ़ गई थी—और नीचे उसकी काले रंग की कच्छी नजर आ रही
थी।
दिनेश की निगाहें सीधी वहां जा पहुंचीं।
गौरी ने उसकी निगाहों को देखा तो उसने तुरंत अपनी पालथी तोड़ी और स्कर्ट को दुरुस्त करते हुए बोली—
“तूने खाना खा लिया?”
“नहीं। मैं अभी घर जा रहा हूं।” वह उसके चेहरे को देखते हुए बोला।
“क्यों?”
“मम्मी-पापा बाहर गये हैं। वो कल आयेंगे। अब घर का भी तो ध्यान रखना है...।”
“तो फिर सुबह नहीं आना था। क्या जरुरत थी आने की?”
“तेरे लिये आया था।” दिनेश मुस्कुराया।
“मेरे लिये?” गौरी ने रोटी निगलते हुए सीने पर हाथ रखते हुए हैरानी जताई।
“हां...तेरे लिये।” दिनेश की निगाहें उसके भारी उभारों पर जा टिकीं।
“मेरे लिये क्यों?” गौरी अभी भी हैरान थी।
“टेलीफोन लगवाया है हमने।”
“टेलीफोन?” गौरी ने आंखें चौड़ी कीं।
“कभी देखा है टेलीफोन?”
“हां...प्रिंसीपल के ऑफिस में देखा है। मगर आज तक उसे कभी छुआ नहीं।”
“तेरे को वही दिखाने ले जाना है। वहां तू उसे छूकर देख सकती है। किसी से बात करना चाहे तो वो भी कर लेना।”
औरत चाहे पागल भी क्यों न हो, मर्द की नजर पहचानने का गुण उसमें पैदाइशी होता है।
गौरी को समझते देर नहीं लगी कि दिनेश की नीयत खराब है। उसके मां-बाप घर में नहीं हैं, जिसका वह पूरा फायदा उठाना चाहता है।
मगर टेलीफोन उठा कर नम्बर मिलाने की और बात करने की चाहत ने उसे दिनेश की नीयत से आंखें मूंद लेने की प्रेरणा दी।
“ले...रोटी खा।” वह एक रोटी उसे देते हुए बोली।
“फेंक उसे। सुबह मां बना कर रख गई थी। घर चल कर खायेंगे। मीट बना हुआ होगा। खायेगी न?”
गौरी ने सिर हिलाते हुए रोटी एक तरफ फेंक दी।
“तू बैठ, मैं मैडम को एप्लीकेशन देकर आती हूं।”
“क्या जरूरत है! सुबह मैडम को कह देना कि मां की तबीयत खराब हो गई थी, सो जाना पड़ गया।”
सहमति में सिर हिलाते हुए गौरी अपना बैग उठाते हुए खड़ी हो गई।
“तू निकल...और रामलाल चौक पहुंच! मैं अपनी मोटरसाईकिल लेकर आता हूं।”
गौरी ने पुनः सिर हिलाया और स्कूल के गेट की तरफ बढ़ गई।
पहली बार वह मोटरसाईकिल पर बैठने जा रही थी—ऐसे में वह काफी एक्साईटिड हो रही थी।
¶¶
admin –
Aliquam fringilla euismod risus ac bibendum. Sed sit amet sem varius ante feugiat lacinia. Nunc ipsum nulla, vulputate ut venenatis vitae, malesuada ut mi. Quisque iaculis, dui congue placerat pretium, augue erat accumsan lacus