काला खून
अनिल सलूजा
‘ट्रिन...ट्रिन...।’
फोन की घण्टी घनघनाई।
इंस्पेक्टर शिन्दे ने अपने हाथ में पकड़े कागज को एक तरफ रखकर उस पर पेपरवेट रखा और रिसीवर उठाकर कान से लगाया।
“जयहिन्द.....इंस्पेक्टर शिन्दे स्पीकिंग...।” वह बोला।
“बलराज गोगिया को पकड़ना चाहते हो इंस्पेक्टर...?”
दूसरी तरफ से किसी औरत की आवाज आई।
बुरी तरह से उछल पड़ा इंस्पेक्टर शिन्दे। कलेजा उछल कर उसके हलक में आ फंसा।
“बलरा...ज....गोगिया....!”
“जी हां...बलराज गोगिया—वह बलराज गोगिया जिसके सिर पर लाखों का इनाम है। जिसे पकड़ने के लिए आधे हिन्दुस्तान की पुलिस मारी-मारी फिर रही है....और वह पुलिस को छका रहा है।”
“क...कहां है वो....?”
“वो भी बताऊंगी....पहले यह बताइये कि उस पर जो इनाम है....उसका क्या होगा?”
“वो सारा तुम्हें ही मिलेगा....ऊपर से अखबारों तथा टेलीविजन को इन्टरव्यू देने में तुम्हें जो कमाई होगी....वह भी तुम्हारी....तुम बस जल्दी से बताओ कि वो है कहां...?”
“मेरे बारे में नहीं पूछेंगे कि मैं कौन हूं....?”
“तुम....!”
“सुनीता है मेरा नाम और...।”
“तुम्हारे बारे में जानने में कहीं इतनी देर न हो जाए कि वह हाथ से ही निकल जाए....इसीलिए प्लीज...आप उसके बारे में फौरन बताइये...आपका इनाम आपको ही मिलेगा....यह मेरा वादा रहा आपसे....।”
“पुलिस वालों के वादे कैसे होते हैं....मैं खूब जानती हूं...मगर फिर भी आप पर भरोसा करते हुए बता रही हूं....बलराज गोगिया अपने दोस्त के साथ होटल नटराज में ठहरा हुआ है।”
“नटराज...।” शिन्दे ने उसका शब्द दोहराया।
“कमरा नम्बर तैंतीस...जाइये और पकड़ लीजिए उसे या फिर गोली मार दीजिए और मुझे वादे के अनुसार मेरा इनाम...।”
शिन्दे ने दूसरी तरफ से आने वाली आवाज का फौरन गला घोंट दिया।
रिसीवर रख दिया था उसने।
बिना कोई वक्त गंवाए वह कुर्सी से उठा और दरवाजे की तरफ लपका।
“भीम सिंह...!”
“ऑफिस से बाहर आकर उसने आवाज लगाई।
उसके ऐन सामने बरामदा पार करके मुन्शी का दफ्तर था।
फौरन उसमें से सब-इंस्पेक्टर की वर्दी पहने एक पुलिस वाला निकला।
“फौरन पांच आर्म्ड जवान तैयार करो....।”
आदेश दिया शिन्दे ने।
भीम सिंह ने यह नहीं पूछा कि कहां रेड मारनी है....बस बरामदे में तेजी से आगे बढ़ने लगा।
और करीब पांच मिनट बाद सशस्त्र पुलिस की भरी जिप्सी थाने के मेन गेट से निकलती नजर आ रही थी....जिसे इंस्पेक्टर शिन्दे खुद ड्राइव कर रहा था तथा सब-इंस्पेक्टर भीम सिंह उसके बराबर वाली सीट पर बैठा था।
¶¶
‘खट.....खट.....खट.....।’
दरवाजे पर दस्तक की आवाज सुनकर बलराज गोगिया और राघव की आंखें खुल गईं।
अभी थोड़ी देर पहले ही वे लंच करके अपने कमरे में आये थे और सुस्ता रहे थे।
दिल्ली में नीलम शांगला की लड़ाई लड़कर उन्होंने जोगिन्द्र जोगी का खात्मा किया था, मगर उस लड़ाई में नीलम शांगला की बलि चढ़ गई थी, लेकिन नीलम शांगला की बहन अपर्णा ने उन्हें निराश नहीं किया....उसने न केवल दोनों को पूरी इज्जत दी....बल्कि वो वादा भी निभाया जो नीलम शांगला ने उनसे किया था कि अगर उन्होंने जोगिन्द्र जोगी को मार दिया तो वह उन्हें हिन्दुस्तान से बाहर भेज देगी।
उसने दोनों के नकली पासपोर्ट तैयार करवाये और उनके लिए अफ्रीका का वीजा भी तैयार करवा दिया और फिर रवि किशन को उनके साथ यहां मुम्बई में भेजा।
यहां आकर रवि किशन ने पता लगाया तो उसे पता चला कि शिप रात को एक बजे बन्दरगाह छोड़ेगा।
सो बलराज गोगिया ने रवि किशन को दिल्ली वापिस भेज दिया और राघव के साथ यहां नटराज होटल में आ गया।
हालांकि रवि किशन ने बहुत कहा था कि वह भी उनके साथ रुकेगा...और उनके बन्दरगाह छोड़ने के बाद ही दिल्ली के लिए रवाना होगा...मगर दोनों यार नहीं माने।
और इस वक्त वे बैड पर आमने-सामने लेटे प्रश्नभरी निगाहों से एक-दूसरे को देख रहे थे।
दोनों की निगाहों में एक ही प्रश्न था।
दस्तक किसने दी है?
क्योंकि न तो उन्होंने कोई ऑर्डर दिया था....जो वेटर सामान लेकर आया होता...और न ही उन्होंने किसी को बुलाया था।
‘खट....खट....खट....।’
तभी पुन: दस्तक हुई।
“मैं देखता हूं।”
राघव बोला और बैड पर बैठकर किनारे की तरफ सरका और फिर हल्की-सी छलांग मारकर फर्श पर आ गया।
बलराज गोगिया बैड पर बैठ गया।
चूंकि दोनों प्लेन से मुम्बई आये थे....इसीलिए हथियार के नाम पर उनके पास कुछ भी नहीं था।
राघव दरवाजे के करीब आया और हल्की-सी छलांग मारकर सिटकनी को नीचे गिराया और फर्श पर आ गया। बेशक वह कद में नौ-दस साल के बच्चे के बराबर था....लेकिन उसने बड़े-से-बड़े मामले में भी कद को आड़े नहीं आने दिया। अपने छोटे कद के बावजूद भी वह हर वो काम आसानी से कर सकता था, जो कि सामान्य कद के कर सकते थे।
वैसे ही....जैसे उसने कब सिटकनी गिराई थी।
हैंडल पकड़कर उसने दरवाजा खोला।
सामने करीब तीस साल का साधारण कद-बुत और साधारण-सी ही पैंट-शर्ट पहने व्यक्ति खड़ा था।
“कहिए....।” राघव उसे प्रश्नभरी निगाहों से देखते हुए बोला।
उस व्यक्ति ने सामने बैड पर बैठे बलराज गोगिया की तरफ देखा, फिर राघव की तरफ देखा।
“मुझे तुमसे मिलना है।”
“मुझसे....?”
राघव ने हैरानी से अपनी छाती पर हाथ रखा।
“साथ में उनसे...।”
उसने बलराज गोगिया की तरफ इशारा किया।
“लेकिन अंकल....हम तो आपको जानते ही नहीं...।”
“मुझे अन्दर आने दो—फिर बताऊंगा।”
“लेकिन...।”
“इसे आने दो चिंटू...।” तभी बलराज गोगिया बोल पड़ा।
राघव को उसने जानबूझकर चिंटू के नाम से पुकारा था, ताकि आगन्तुक को कोई संदेह न हो।
राघव ने गर्दन मोड़कर एक बार बलराज गोगिया की तरफ देखा.....फिर वह एक तरफ हो गया।
आगन्तुक भीतर दाखिल हो गया।
राघव ने दरवाजा बन्द किया और वहीं खड़ा हो गया।
वह नहीं चाहता था कि देश छोड़ने के अन्तिम क्षणों में कोई गड़बड़ हो। इसीलिए उसने वहीं दरवाजे के पास खड़े रहना ही उचित समझा, ताकि अगर कोई गड़बड़ हो तो वह सम्भाल ले।
आगन्तुक बैड के करीब पहुंचा और बिना किसी हिचकिचाहट के बेड के किनारे पर बैड गया।
“कहो...।”
बलराज गोगिया उसे गहरी निगाहों से घूरते हुए बोला।
इस वक्त वह भीतर से पूरी तरह से सतर्क था।
“मेरा नाम संजीव है और...।”
“सिर्फ काम की बात करो....क्यों मिलना चाहते हो मुझसे...?”
“बीस हजार कमाने आया हूं।”
“बीस हजार....!”
“हां...बीस हजार....।” मुस्कराया संजीव।
“मगर मैं तो तुम्हें जानता ही नहीं....और न ही मैंने तुमसे कोई कर्जा वगैरह ले रखा है।”
“मगर मेरे पास एक ऐसी जानकारी है जो बीस क्या पचास हजार से भी ज्यादा है...मगर मैं ज्यादा लालची नहीं...इसीलिए सिर्फ बीस हजार ही मांग रहा हूं।”
“कैसी जानकारी...?”
“पहले बीस हजार...।” संजीव ने हाथ उसके आगे फैला दिया।
“पहले जानकारी दो।”
“लेकिन....।”
“खातिर जमा रखो....अगर तुम्हारी जानकारी अच्छी हुई, तो तुम्हारे बीस हजार पक्के।”
“जानकारी अच्छी है।”
“तो फिर तुम बीस हजार के मालिक हुए। अब बोलो...क्या जानकारी है?”
“तुम बलराज गोगिया हो।”
“क्या....?” बुरी तरह चौंका बलराज गोगिया।
“और वो तुम्हारा जोड़ीदार राघव है।” संजीव ने दरवाजे के पास खड़े राघव की तरफ इशारा किया।
राघव भी उछल पड़ा।
“लेकिन हम तो....।”
“तुम्हारी यहां मौजूदगी की खबर पुलिस को मिल चुकी है। अब तक तो पुलिस यहां के लिए रवाना भी हो चुकी होगी।”
बलराज गोगिया का रंग उड़ गया।
“प....पुलिस...!”
“हां....पुलिस...।” संजीव मुस्कराया—“अब बोलो तुम बलराज गोगिया नहीं हो और वो चिंटू है, राघव नहीं।”
बलराज गोगिया ने राघव की तरफ देखा...जैसे पूछ रहा हो कि अब क्या किया जाए।
राघव तेजी से संजीव के पास आया और उछलकर बेड पर चढ़ गया।
“तू कौन है?” वह गुर्राया।
“संजीव...।”
“तुझे कैसे पता चला कि पुलिस हमें पकड़ने के लिए आ रही है?”
“पकड़ने नहीं....खत्म करने आ रही है।”
“वही...तुझे कैसे पता लगा....?”
“उसने मेरे एस.टी.डी. बूथ से मेरे सामने पुलिस को फोन किया था।”
“उसने किसने...?”
“नाम तो नहीं जानता मैं उसका...मगर मुझे इतना पता है कि वो रण्डी है।”
“रण्डी...!”
“कोठे वाली नहीं...दूसरे वाली।”
“यानि कॉलगर्ल....।”
“वही....।”
“क्या कहा उसने....?”
उत्तर में संजीव ने बताया।
“और तू उसके बूथ से निकलते ही सीधा यहां आ गया।”
“हां....इनाम के लालच में.....।” संजीव ने बेशर्मी से दांत दिखाए।
“थाना कितनी दूर है यहां से...?” तभी बलराज गोगिया ने मुंह खोला।
“ज्यादा-से-ज्यादा दस मिनट दूर।”
“यानि छह-सात मिनट में पुलिस यहां आ जाएगी।”
“बिल्कुल....।”
बलराज गोगिया ने जेब से सौ-सौ की दो गड्डियां निकालीं और उसके आगे फेंक दीं।
संजीव ने फौरन नोट उठाए...और जेब में डालते हुए खड़ा हो गया।
“ऐसी ही एक गड्डी और मिलेगी तुम्हें...।” बलराज गोगिया बोला—“और उसके लिए तुम्हें हमें सिर्फ सात बजे तक छुपाना होगा।”
“मेरी बीवी मायके गई हुई है....चाहो तो मेरे घर रह सकते हो।”
संजीव आंखें चमकाते हुए बोला। सिर्फ कुछ घण्टों के उसे दस हजार और मिल रहे थे....भला वह क्यों छोड़ता उन्हें?
“साथ में उस रण्डी का पता भी बताना होगा।” राघव फुंफकारा।
“वो भी मिल जाएगा।”
“चल यारा....इससे पहले कि पुलिस आये...हमें यहां से निकल चलना चाहिए....।”
कहते हुए बलराज गोगिया खड़ा हो गया।
“तुम पीछे के रास्ते से निकलकर अमर चौक पहुंचो....मैं थोड़ी देर में वहीं पहुंच रहा हूं....।”
संजीव बोला।
“पीछे का रास्ता किधर से है?”
संजीव बताने लगा।
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