Kala Baccha : काला बच्चा
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Description
एक ऐसे मनहूस बच्चे की कहानी जिसे मौत के खौफ ने मौत बना दिया।
Kala Baccha : काला बच्चा
Deva Thakur
Ravi Pocket Books
BookMadaari
प्रस्तुत उपन्यास के सभी पात्र एवं घटनायें काल्पनिक हैं। किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से इनका कतई कोई सम्बन्ध नहीं है। समानता संयोग से हो सकती है। उपन्यास का उद्देश्य मात्र मनोरंजन है। प्रस्तुत उपन्यास में दिए गए हिंसक दृश्यों, धूम्रपान, मधपान अथवा किसी अन्य मादक पदार्थों के सेवन का प्रकाशक या लेखक कत्तई समर्थन नहीं करते। इस प्रकार के दृश्य पाठकों को इन कृत्यों को प्रेरित करने के लिए नहीं बल्कि कथानक को वास्तविक रूप में दर्शाने के लिए दिए गए हैं। पाठकों से अनुरोध है की इन कृत्यों वे दुर्व्यसनों को दूर ही रखें। यह उपन्यास मात्र 18 + की आयु के लिए ही प्रकाशित किया गया है। उपन्यासब आगे पड़ने से पाठक अपनी सहमति दर्ज कर रहा है की वह 18 + है।
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काला बच्चा
देवा ठाकुर
वह जैसे ही घर में दाखिल हुआ, उसकी बीवी शारदा देवी उसे देखकर परेशान हो गयी।
"क्या बात है शंकर? तुम इतने बदहवास क्यों हो रहे हो...कुशलता है ना?" शारदा ने पूछा।
"हां कोई खास बात नहीं। दुकान पर बैठे-बैठे तबियत खराब हो गयी थी।" शंकर ने जवाब दिया और बेटे की तरफ आकर्षित हो गया। बेटा क्या था...बस तवे की तरह काला था। वह उसी वक्त अपने कमरे से निकलकर वहां आ गया था। अब तक यह बच्चा इस घर में न जाने क्यों तिरस्कार का शिकार हुआ था? मां-बाप गोरे-चिट्टे थे, मगर बच्चा...बस काला बच्चा था। इन लोगों ने इस बच्चे का कोई बाकायदा नामकरण संस्कार भी नहीं किया था...उसे काला बच्चा कहने लगे और यह तिरस्कृत बच्चा काला बच्चा के नाम से ही पहचाना जाने लगा। यों बाप को यूं लगता था, जैसे यह बच्चा उनका नहीं, बल्कि कहीं से उठाकर ले आये हैं और इसी कारण उसे मां-बाप की ममता नहीं मिली थी, बल्कि उसे तो वे लोग मनहूस ही समझते थे। बच्चे को भी धीरे-धीरे इसका एहसास होने लगा था...अक्सर गुमसुम रहता और सोचा करता था कि आखिर उससे क्या खता हो गयी है। वह कोई ऐसा काम करना चाहता था, जिससे मां-बाप का लाडला बन जाये...इस कोशिश में कभी-कभार उससे ऊट-पटांग हरकतें भी हो जाती थीं।
श्यामसुन्दर शंकर रात को घर आते हुए आमतौर पर फल-वगैरह ले आया करता था, लेकिन आज वह खाली हाथ था। कमसिन काला बच्चा ने भी ताड़ लिया था कि आज उसका डैडी कुछ परेशान है...इसलिए उसने पूछा भी नहीं कि खाली हाथ क्यों आया है...कहीं डांट पड़ गयी तो।
"अच्छा तुम मुंह-हाथ धोकर कपड़े बदल लो। मैं खाना लगाती हूं।" शारदा यह कहते हुए किचन की तरफ चली गयी।
शंकर कमरे में आ गया। वह चन्द लम्हे कमरे में खड़ा रहा और फिर बाथरूम में घुस गया। लगभग दस मिनट बाद वह बाहर निकला तो शारदा मेज पर खाना लगा चुकी थी। काला बच्चा वहां पहले से बैठा था।
"लगता है, आज तुम्हें बहुत भूख लग रही है।" शंकर ने आज पहली मर्तबा बेटे को स्नेह भरी दृष्टि से देखते हुए कहा।
"जी डैडी! आज आपने बहुत देर कर दी।" काला बच्चा ने जवाब दिया।
"आज तो मैंने दुकान भी जल्दी बन्द कर दी थी, लेकिन रास्ते में काम पड़ गया, जिसकी वजह से देर हो गयी। अच्छा चलो अब खाना शुरू करो।"
शारदा भी शंकर के सामने कुर्सी पर बैठ चुकी थी। वे लोग खाना खाने लगे। शंकर ने अभी चन्द लुक्मे (निवाले) खाये थे कि लाउन्ज में रखे हुए टेलीफोन की घण्टी बजने लगी। शंकर ने अपनी जगह से उठना चाहा, मगर शारदा पहले ही उठ गयी।
"आप खाना खाइये... मैं देखती हूं।" शारदा उठकर लाउन्ज में आ गयी। फोन की घण्टी बज रही थी। उसने हाथ बढ़ाकर रिसीवर उठा लिया—"हैल्लो।" वह माउथपीस में बोली, लेकिन जवाब में खामोशी रही। उसने दूसरी बार हैल्लो कहा तो जवाब में ऐसी आवाज सुनाई दी, जैसे कोई गहरी सांस ले रहा हो—"कौन बद्तमीज है?" शारदा के स्वर में तल्खी थी। इस बार भी रिसीवर पर गहरे सांसों की आवाज सुनाई दी तो शारदा ने रिसीवर पटक दिया और दोबारा खाने की मेज पर आ गयी।
"कौन था?" शंकर ने पूछा।
"पता नहीं, कौन बद्तमीज था?" शारदा ने जवाब दिया—"मैंने पूछा कौन है, तो जवाब में गहरे-गहरे सांसों की आवाज सुनाई देने लगी।"
वे अभी बातें कर ही रहे थे कि टेलीफोन की घण्टी दोबारा बजी। शारदा ने दोबारा उठना चाहा, लेकिन इस बार शंकर पहले उठ खड़ा हुआ और लाउन्ज में आकर फोन का रिसीवर उठा लिया।
"हैल्लो।" वह माउथपीस में बोला। जवाब में गहरे-गहरे सांसों की आवाज सुनाई देने लगी और फिर ऐसी आवाज सुनाई दी जैसे कुत्ता गुर्रा रहा हो। शंकर का चेहरा धुआं हो गया। उसने रिसीवर रख दिया। उसके दिल की धड़कनें एकदम तेज हो गयी थीं। वह कुछ देर वहीं खड़ा रहा, फिर खाने की मेज पर आ गया।
"क्या हुआ...कौन था? तुम एकदम परेशान क्यों हो गये हो?" शारदा ने पूछा। शंकर के चेहरे के भाव देखकर उसे समझने में देर नहीं लगी कि कोई गड़बड़ जरूर है।
"कुछ नहीं।" शंकर अपनी मानसिक स्थिति पर काबू पाने की कोशिश करते हुए बोला—"पता नहीं कौन बद्तमीज है...बहरहाल तुम खाना खाओ।"
उसके बाद फोन की घण्टी नहीं बजी। खाना खत्म करने के बाद वे लाउन्ज में आ गये। काला बच्चा उनके साथ था। वह सुमझदार बच्चा था। अपने मां-बाप को परेशान देखकर वह भी उलझन में पड़ गया।
"अरे तू यहां क्या कर रहा है।" शारदा बोली—"जाकर सो जा। सुबह स्कूल भी जाना है। ऐसे आकर खड़ा हो गया जैसे हमारी सारी मुश्किलें तू ही हल करेगा।"
काला बच्चा ने बारी-बारी दोनों को देखा और फिर खामोशी से उठकर अपने कमरे में चला गया।
"क्या बात है शंकर?" शारदा उसके चेहरे पर नजरें जमाती हुई बोली—"जब से तुम घर में दाखिल हुए हो, तुम्हें परेशान देख रही हूं। इस फोन कॉल के बाद तुम्हारे चेहरे पर अजीब-से भाव उभर रहे हैं। तुमने आज तक मुझसे कुछ नहीं छिपाया, लेकिन आज कोई ऐसी बात जरूर है, जो तुम मुझसे छिपाने की कोशिश कर रहे हो।"
"नहीं शारदा! मैं तुमसे कोई बात नहीं छिपाऊंगा।" शंकर ने गहरी सांस लेते हुए कहा।
"तो फिर बताओ...क्या बात है?" शारदा ने सवालिया निगाहों से उसकी तरफ देखा।
"तुम्हें मलिक नवाजिश अली याद है?" शंकर ने पूछा।
"उस शैतान को मैं कैसे भूल सकती हूं?" शारदा ने गहरी सांस लेते हुए जवाब दिया—"उस खबीस (दुष्ट) की वजह से ही तो हमें न सिर्फ अपना घर, बल्कि अपना वतन छोड़ना पड़ा। मुझे अच्छी तरह याद है...काला बच्चा उस वक्त सिर्फ एक महीने का था कि हम पर आफत के पहाड़ टूट पड़े थे। जब से यह संतान पैदा हुई, हमने क्या-क्या नहीं सहा? हमारा सब कुछ हमसे छूट गया। उस शैतान को मैं कैसे भूल सकती हूं। लेकिन आज तुम्हें मलिक नवाजिश अली कैसे याद आ गया?"
"जिस तरह बारह साल गुजरने के बाद हम मलिक नवाजिश अली को नहीं भूले, उसी तरह शायद वह भी हमें नहीं भूला।" शंकर ने कहा।
"क्या मतलब? क्या कहना चाहते हो?" शारदा का चेहरा एकदम धुआं हो गया।
"अगर तुम मलिक को नहीं भूलीं तो तुम्हें दारा भी याद होगा।" शंकर बोला।
"दारा!" शारदा के चेहरे के भाव बदरंग हो गये—"वह तो इन्सान नहीं दरिन्दा है। उसे तो मैं कभी नहीं भूल सकती। उसने हमारे घर में आग लगाकर हमें जिन्दा जलाने की कोशिश की थी। हम आग में घिरे हुए थे और वह कहकहे लगा रहा था। उसके शैतानी कहकहे तो आज भी मेरे कानों में गूंज रहे हैं। उस वक्त अगर पुलिस मौके पर न पहुंच जाती, तो हम भी उस मकान के साथ जलकर राख हो गये होते।"
"मैं उसी दारा की बात कर रहा हूं।" शंकर ने कहा—"आज वह मेरी दुकान पर आया था। उसके साथ एक और आदमी था, जिसे मैं नहीं जानता। पहले तो मैं यही समझता था कि शायद उसने मुझे नहीं देखा, क्योंकि उसके दुकान में दाखिल होने से पहले ही मैंने उसे देख लिया था और काउन्टर से उठकर पिछले कमरे में चला गया था। दारा पांच-छह मिनट तक दुकान में रहा था और स्टेट एक्सप्रेस का डिब्बा खरीदकर वापस चला गया। मेरा ख्याल था कि उसका मेरी दुकान पर आना महज इत्तेफाक था और उसने मुझे नहीं देखा, लेकिन यह टेलीफोन कॉल्स...मुझे यकीन है कि फोन उसी ने किया था। हालांकि उसने जुबान से कुछ नहीं कहा, लेकिन उसने मुझे सिंगापुर में अपनी मौजूदगी का एहसास दिला दिया है।"
"अब क्या होगा?" शारदा का चेहरा एकदम पीला पड़ गया—"क्या हमें यहां से भी भागना पड़ेगा...यह काला बच्चा क्या हमें बिल्कुल ही तबाह करके छोड़ेगा?"
"इसमें उसका क्या कुसूर है?"
"तुम मानो या ना मानो, हमारे घर में मनहूस औलाद पैदा हुई है। अब यह घर भी छूटेगा...कितनी मेहनत से बनाया हमने यह सब, लेकिन...।"
"कुछ नहीं होगा...यह इंडिया नहीं सिंगापुर है। यहां का कानून बड़ा सख्त है। दारा अगर हमारी तलाश में यहां आया है तो यहां उसे कुछ करने का मौका नहीं मिल सकेगा। यह जोधपुर नहीं है।"
"यह मत भूलो कि दारा एक जरायमपेशा इन्सान है और ऐसे लोग हर जगह अपना काम कर गुजरते हैं।" शारदा ने कहा, फिर चन्द लम्हे खामोश रहने के बाद बोली—"मेरी मानो तो इस काला बच्चा को यहां से किसी दूसरे मुल्क में जाकर छोड़ आओ...तुम बैंकाक तो जाते ही रहते हो। यह अपने घर में नहीं रहेगा तो इसका मनहूस साया भी हम पर नहीं पड़ेगा...या फिर इसे सरदार प्रताप सिंह को दे दो, वह तुम्हारा दोस्त है...उसकी कोई औलाद भी नहीं है...वह इस काला बच्चा को बहुत दुलार करता है...इसे कहां-कहां घुमाता रहता है। प्रताप सिंह इसे अमृतसर भेज देगा...हमारे संकट टल जायेंगे।"
"प्रताप सिंह क्या सोचेगा...हम कैसे मां-बाप है और फिर हमारी कोई दूसरी औलाद भी तो नहीं है...लेकिन एक काम हो सकता है...हम इसे हॉस्टल में रखेंगे...और यह इण्डिया में रहकर भी परवरिश पा सकता है...हम उसका खर्चा भेजते रहेंगे।"
"तुम इसे लेकर वापस इण्डिया जाओगे?"
"यह काम प्रताप कर देगा।"
वे अभी बातें कर ही रहे थे कि दरवाजे की कॉलबैल बजी। खामोशी में घण्टी की आवाज उन दोनों के लिए बम के धमाके से कम नहीं थी। वे दोनों उछल पड़े। जिस किस्म की सूरतेहाल से वे दो-चार थे, उसके पेशेनजर उनका खौफजदा हो जाना स्वाभाविक बात थी। शारदा को यों लगा जैसे उसका दिल उछलकर हलक में आ गया हो। शंकर के दिल की धड़कन भी तेज हो गयी। वे दोनों उठकर खड़े हो गये थे।
"तुम यहीं रुको... मैं देखता हूं...।" शंकर दरवाजे की तरफ बढ़ा।
शारदा अपनी जगह पर खड़ी रही। वह जैसे ही कमरे के दरवाजे से बाहर निकला, शारदा ने बड़ी फुर्ती से आगे बढ़कर ड्रेसिंग टेबल की सबसे नीचे वाली दराज खोली और उसमें रखा हुआ पिस्तौल निकाल लिया। यह जर्मन ल्यूगर पिस्तौल उन्होंने अपनी हिफाजत के लिए रखा हुआ था। उसके इस्तेमाल की नौबत यद्यपित कभी नहीं आई थी, लेकिन शंकर समय-समय पर उसकी सफाई करता रहता था। शारदा पिस्तौल लेकर कमरे से बाहर आ गई और दबे कदम चलती हुई लाउन्ज के पीछे खड़ी हो गई।
शंकर कम्पाउंड से कदम उठाता हुआ बाहरी दरवाजे के समीप पहुंच चुका था। इस दौरान में कॉलबैल एक मर्तबा और बज चुकी थी।
"कौन है...बाहर कौन है?" शंकर ने दरवाजे के समीप रुककर पूछा।
"मैं हूं यार!" बाहर से सरदार प्रताप सिंह की आवाज सुनाई दी—"दरवाजा खोलो...सो गये थे क्या?"
"ओह!" शंकर के मुंह से बेइख्तियार एक गहरी सांस निकल गयी और उसने आगे बढ़कर दरवाजा खोल दिया।
प्रताप सिंह के अन्दर आने के बाद शंकर ने दरवाजा बन्द कर दिया और वे दोनों बातें करते हुए अन्दर की तरफ आने लगे। शारदा ने भी प्रताप की आवाज सुन ली थी। उसके मुंह से भी बेइख्तियार गहरी सांस निकल गयी। वह दीवार के साथ टेक लगाये खड़ी रही। पिस्तौल उसके हाथ में था। दरवाजे में दाखिल होने के बाद सरकार प्रताप सिंह इधर-उधर देखने लगा।
"यह खामोशी कैसी है? भाभी सो गयी है क्या?" उसने पूछा।
"नहीं... शारदा भी जाग रही है।" शंकर ने जवाब दिया।
"आज तुम मेरे यहां नहीं आये। सोचा में ही चक्कर लगा लूं।" प्रताप सिंह ने कहा, फिर कपड़ों की सरसराहट सुनकर उसने पीछे मुड़कर देखा। शारदा के हाथ में पिस्तौल देखकर वह चौंके बगैर न रह सका था।
"की गल है पाभी?" प्रताप सिंह बोला—"आज यह असलाह क्यों उठाया हुआ है?"
"ओह कुछ नहीं भाई जी।" शारदा मुस्कुराने की कोशिश करते हुए बोली—"ऐसे ही...मैंने सोचा कोई चोर-डाकू न हो, इसलिए मैंने...।"
"वाह पाभी वाह...!" प्रताप ने उसकी बात काट दी—"हमें ही चोर-डाकू समझ लिया।"
"नहीं भाई जी...यह बात नहीं है।" शारदा जल्दी से बोली—"बात ही कुछ ऐसी हो गयी है कि हमें सावधानी से काम लेना पड़ रहा है।"
"क्या बात है भाई शंकर!" प्रताप शंकर की तरफ घूम गया। उसके लहजे में एकदम संजीदगी आ गयी थी—"क्या प्रॉब्लम है, मुझे नहीं बताओगे? अपने यार को? अगर कोई ऐसी वैसी बात है तो जल्दी बताओ, सौं रब दी...।"
"एक गम्भीर समस्या पैदा हो गयी है।" शंकर ने उसकी बात काटते हुए कहा—"मैं कुछ देर में तुम्हारी तरफ आने वाला था। आओ, ड्राइंगरूम में बैठते हैं। शारदा! तुम चाय बनाकर वहीं ले आओ।"
शारदा किचन की तरफ चली गयी और वे दोनों ड्राइंगरूम में आ गये। प्रताप सिंह इधर-उधर देखता हुआ एक सोफे पर बैठ गया।
"हां भई शंकर जी महाराज! अब बताओ क्या बात है? प्रताप सिंह ने पूछा।
"प्रताप सिंह...।" शंकर उसकी तरफ देखते हुए कहने लगा—"तुम्हें अच्छी तरह मालूम है कि मैं कब और किन हालात में यहां आया था। यहां आकर तुम मेरी मदद न करते तो न जाने मुझ पर क्या बीत चुकी होती। मेरी तुमसे कोई बात छिपी हुई नहीं है। मैंने तुम्हें यह भी बताया था कि मैं अपनी बीवी और एक माह के बच्चे के साथ इण्डिया से भागकर यहां क्यों आया था, अगर मैं अपने एक दोस्त की मदद से इण्डिया से फरार होने में कामयाब न होता तो मलिक नवाजिश अली हम तीनों को खत्म कर देता।" शंकर चन्द लम्हे के लिए खामोश हो गया। उसी दौरान शारदा चाय लेकर कमरे में दाखिल हुई। उसने एक-एक कप उन दोनों के सामने रख दिया और एक कप खुद लेकर बैठ गयी।
"मुझे मालूम है।" प्रताप सिंह ने शंकर की तरफ देखते हुए कहा—"तुमने मुझे अपने बारे में सब कुछ बता दिया था और मैं तुम्हारी सच्चाई से ही मुतासिर हुआ था, लेकिन यह तो पुरानी बात हो चुकी है। अब क्या मुआमला है।"
"हालांकि बारह साल का लम्बा अरसा गुजर चुका है, लेकिन जिस तरह हम मलिक को नहीं भूले, उसी तरह मलिक नवाजिश अली ने भी हमें फरामोश (याद से उतरा हुआ) नहीं किया।" शंकर बोला।
"क्या वह यहां आ गया है?" प्रताप ने सवालिया निगाहों से उसकी तरफ देखा।
"मलिक नवाजिश अली नहीं, मगर उसके आदमी यहां पहुंच गये हैं।" शंकर ने कहा, फिर उसे दारा के बारे में बताने लगा। आखिर में वह कह रहा था—"मेरा ख्याल था कि शायद उसने मुझे नहीं देखा, लेकिन अब मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि उसने न सिर्फ मुझे देखा है, बल्कि मेरे बारे में कुछ मालूमात भी हासिल कर चुका है। उसने मेरा फोन नम्बर मालूम कर लिया है और शायद वह घर भी देख चुका है।" शंकर ने कहा और फोन कॉल्स के बारे में बताने लगा।
"हो सकता है, तुम्हें गलतफहमी हुई हो।" प्रताप सिंह ने उसके खामोश होने पर कहा—"मेरा मतलब है, उसे वाकई तुम्हीं ने देखा हो और वह फोन कॉल्स भी किसी की शरारत हो।"
"नहीं प्रताप सिंह।" शंकर ने कहा—"मैं किसी खुशफहमी में नहीं रहना चाहता। मैंने तुम्हें यह सब कुछ इसलिए बताया है कि मैं तुमसे मशवरा लेना चाहता हूं कि इन हालात में मुझे क्या करना चाहिए? क्या सिंगापुर छोड़ दूं?"
"मेरे ख्याल में तुम्हें डरने की जरूरत नहीं है।" प्रताप सिंह ने कहा—"आज यहां से भाग जाओगे तो कल कहीं और से भी भागना पड़ेगा, अगर दारा ने वाकई तुम्हें देख लिया है तो उससे डरने की जरूरत नहीं। छिपने या भागने की बजाए हालात से मुकाबला करो...यह इण्डिया नहीं, सिंगापुर है। यहां आकर कोई जुर्म करता है तो उसे पहले दस मर्तबा सोचना पड़ता है। इतने अरसे में तुम भी देख चुके हो कि यहां कानून की गिरफ्त बड़ी सख्त है। दारा ऐसी कोई मूर्खता नहीं करेगा कि कानून के जाल में फंस जाए, लेकिन इसके साथ ही मैं तस्वीर के दूसरे रुख को भी नजरअन्दाज नहीं करूंगा। अगर तुम्हें उससे अपनी जान का खतरा है, तो तुम्हारी हिफाजत का भी बन्दोबस्त हो सकता है। मैं सुबह ही अपने दो बन्दे तुम्हारी हिफाज़त के लिए मुकर्रर कर देता हूं, वे दोनों आदमी असलाह से लैस होंगे और चौबीस घण्टे तुम्हारे साथ रहेंगे। इसके साथ ही मैं अपने दोस्त च्यांग शो को सूरतेहाल से आगाह कर देता हूं। च्यांग शो को तुम जानते ही हो। वह एक जिम्मेदार पुलिस ऑफिसर है। वह तुम्हारी हिफाजत का बन्दोबस्त कर देगा।"
"लेकिन यह हिफाजती इन्तजाम कब तक रहेंगे?" शंकर ने कहा—"मैं सारी जिन्दगी तो पुलिस और बॉडीगार्ड्स को अपने साथ नहीं रख सकता।"
"घबराओ नहीं यार जी।" प्रताप सिंह बोला—"चार रोज की बात है। दारा जब तुम्हारे हिफाजती प्रबन्ध देखेगा तो खामोशी से वापस चला जायेगा। वह जब तक यहां रहेगा, तुम्हारी तरफ आंख उठाकर देखने की जुर्रत नहीं करेगा, अगर उसने कोई ऐसी हरकत की तो सौं रब दी, वह जिन्दा बचकर नहीं जा सकेगा।"
प्रताप सिंह की बातों से शंकर और शारदा को बड़ा हौसला मिला था।
"तुम फिक्र न करो पाभी!" प्रताप शारदा की तरफ देखकर बोला—"दारा तुम लोगों का कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा और शंकर भाई...।" वह उसकी तरफ मुड़ गया—"तुम भी अपने दिमाग से खौफ निकालकर सुबह दुकान पर जाओ और तसल्ली से अपना कारोबार करो, किसी खौफ को दिल में जगह न दो।"
फिर शारदा ने काला बच्चा वाली बात छेड़ दी।
"हम चाहते हैं कि उसे अपने से दूर रखें...जो भी खर्चा होगा कर देंगे। आप उसे अपने पिंड अमृतसर भेज दें तो कैसा रहेगा?"
"काला बच्चा बड़ा प्यारा बच्चा है, उसे आप अपने से दूर क्यों करना चाहते हैं?"
"इसके दिमाग में एक वहम पल गया है कि वह मनहूस है, बल्कि यह तो यह भी कह रही थी कि उसे तुम गोद ले लो।"
"मैं तो दोनों तरह से तैयार हूं...सोचना आपको है।"
"अगले हफ्ते उसका जन्मदिन है...वह तेरहवें साल में कदम रखेगा और तेरह का अंक बड़ा अशुभ होता है...हम उसे उसी दिन आपके सुपुर्द करना चाहते हैं। फिलहाल उसे आप अमृतसर भेज दें...बाद में देखेंगे, हमें क्या करना है?"
"ठीक है, लेकिन बच्चे को महसूस न हो...कम-से-कम इस बार तो आप उसका जन्मदिन ठीक-ठाक ढंग से मना ही दें।"
प्रताप सिंह उनकी घरेलू बातों से वाकिफ था। वह जानता था काला बच्चा मां-बाप के साये में पलने वाला एक अनाथ बच्चा है, लेकिन काला बच्चा बहुत जहीन बच्चा था। धीरे-धीरे उसे भी इसका एहसास होने लगा था।
प्रताप सिंह रात को एक बजे वहां से निकला। उसके जाने के बाद शंकर ने दरवाजे लॉक किए और शारदा के साथ बैडरूम में आ गया। वे बिस्तर पर लेटे देर तक बातें करते रहे। नींद दोनों में से किसी को भी नहीं आ रही थी। प्रताप ने यद्यपि उन्हें भरपूर तसल्ली थी और उनकी हिफाजत का बन्दोबस्त भी कर दिया था लेकिन शंकर संतुष्ट नहीं था। वह मलिक नवाजिश अली को अच्छी तरह जानता था। उसके कारिन्दों को भी जानता था। दारा उसका सबसे विश्वसनीय ख़तरनाक साथी था। अत्यन्त क्रूर और बेरहम इन्सान, बल्कि उसे इन्सान कहना भी इंसानियत की तौहीन थी। बारह साल पहले शंकर उससे बच निकला था। सिंगापुर आने के बाद उसने संतोष की सांस ली थी कि मलिक नवाजिश के कारिन्दे उसका सुराग नहीं लगा सकेंगे, लेकिन बारह साल बाद उन्होंने उसे ढूंढ निकाला। दारा जितना बेरहम था, उतना ही अय्यार (चालाक) भी था।
शंकर रातभर सोचता रहा और आखिर उसने प्रताप सिंह के सुझाव पर अमल करने का फैसला कर लिया। प्रताप सिंह ने ठीक ही तो कहा था। बारह साल पहले वह उनसे डरकर अपना वतन छोड़ आया था...आज उनके खौफ से सिंगापुर छोड़ देगा। कल उसे किसी और जगह से भी भागना पड़ेगा। क्या वह उनके खौफ से जिन्दगी भर भागता रहेगा।
"नहीं...अब ऐसा नहीं होगा।" वह बड़बड़ाया। डर के साये में जिन्दगी नहीं गुजारी जा सकती। उसे यह खौफ दिल से निकालना होगा। निडर होकर सूरतेहाल से मुकाबला करना होगा। वह यहां से नहीं भागेगा। इस फैसले पर पहुंचने के बाद उसे यों महसूस हुआ जैसे सर से बहुत बड़ा बोझ उतर गया हो। वह अपने आपको पुरसुकून महसूस करने लगा। उसकी पलकें नींद के बोझ से झपकने लगीं और वह नींद की पुरसुकून वादी में पहुंच गया।
सुबह नाश्ता कर रहा था कि टेलीफोन की घण्टी फिर बज उठी।
"हैल्लो।" वह पुरसुकून लहजे में माउथपीस में बोला।
जवाब में पहले गहरी-गहरी सांसों और फिर कुत्ते की गुर्राने की आवाज सुनाई दी। शंकर के दिल की धड़कनें तेज हो गयीं, लेकिन उसने जल्दी से अपने पर काबू पा लिया। उसे समझने में देर नहीं लगी कि यह दारा ही था। शंकर का दिल चाहा कि फोन पर ही उसे खरी-खरी सुना दे, लेकिन उसने रिसीवर पटक दिया।
"कौन था?" शारदा ने सवालिया निगाहों से उसकी तरफ देखा।
"वही कुत्ता।" शंकर ने जवाब दिया—"लेकिन तुम्हें डरने की जरूरत नहीं है। मैं अभी प्रताप सिंह से बात करता हूं। वह च्यांग शो को फोन करके एक-दो पुलिस वालों को यहां बुला लेगा, वे पुलिस वाले तुम्हारी हिफाजत के लिए यहां रहेंगे...तुम्हें खौफजदा होने की जरूरत नहीं है। प्रताप ठीक कहता है, दारा हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। अच्छा अब मैं चलता हूं।"
"अपना ख्याल रखना।" शारदा ने उसके साथ बाहरी दरवाजे की तरफ बढ़ते हुए कहा।
शंकर ने मुस्कुराकर उसकी तरफ देखा और दरवाजे से बाहर निकल गया। साथ वाला मकान प्रताप सिंह का था। शंकर ने कॉलबैल बजाई, फौरन ही दरवाजा खुल गया और प्रताप सिंह अन्दर की तरफ खड़ा हुआ दिखाई दिया। उसने ऊंची लुंगी बांध रखी थी। ऊपर बनियान थी और सर के बाल जालीदार टोपी में लपेटे हुए थे।
"मैं तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा था शंकर भाई।" प्रताप बोला—"मैंने आधा घण्टा पहले च्यांग शो को फोन कर दिया है। उसके भेजे दो कांस्टेबिल यहां पहुंचने ही वाले हैं। तुम इत्मीनान से दुकान पर जाओ। मेरे दो आदमी तुम्हारी दुकान पर पहुंच जायेंगे। सोतर सिंह को तो तुम जानते ही हो ना। उसके साथ एक और आदमी होगा। डरने की जरूरत नहीं... शेर बनकर जियो।"
"हां...अब मैंने शेर बनकर ही जीने का फैसला किया है।" शंकर ने कहा।
"खुश कित्ता ओये...वाहे गुरु दी सौं...तुमने दिल खुश कर दिया। जाओ...अब दुकान पर जाओ। तुम्हें देर हो रही है।"
शंकर उससे हाथ मिलाकर मकान से बाहर निकल गया। गली से निकलते ही उसे ट्रीशा मिल गया और वह अपने रुटीन के अनुसार सिर्फ पांच मिनट देर से दुकान पर पहुंच गया। उसके थोड़ी देर बाद सोतर सिंह और उसका एक साथी भी आ गया। वह दोनों लम्बे-तड़ंगे जवान थे। उनमें से एक दुकान के बाहर खड़ा हो गया और दूसरा अन्दर।
उस रोज शंकर दुकान पर सहमा-सहमा बैठा रहा। उसके दिल में खौफ था। वह बार-बार अपनी सीट पर बेचैनी से पहलू बदलता रहा। दुकान के सामने से गुजरने वाले हर शख्स को शक की दृष्टि से देखता रहा। अगले तीन दिन भी इसी खौफ के आलम में गुजर गये। इस दौरान में न तो दारा नजर आया था और न ही उसका वह अजनबी साथी और घर में भी उसकी कोई फोन कॉल नहीं आई। अब शंकर को यकीन हो गया था कि दुकान पर दारा का आगमन केवल संयोग था और उसने उसे नहीं देखा था। वह खामोश फोन कॉल्स भी किसी की शरारत थी। एक सप्ताह गुजर गया। च्यांग शो के पुलिस वाले बराबर उस के मकान की सुरक्षा कर रहे थे।
प्रताप सिंह के आदमी उसके बॉडीगार्ड का फर्ज अंजाम दे रहे थे और इस दौरान में कोई ऐसी बात नहीं हुई थी, जिसे गैरकानूनी करार दिया जाता। अंततः शंकर इस नतीजे पर पहुंचा कि उसे कोई खतरा नहीं है और इसलिए उसे अपनी या घर की हिफाजत के लिये किसी की जरूरत नहीं है। खौफ उसके दिल से निकल चुका था और फिर उसने प्रताप से कहकर वह सारा प्रबन्ध हटा दिया।
शंकर अब पहले की तरह अपना वक्त गुजारने लगा। उसके दिल में किसी किस्म का खौफ नहीं रहा था...लेकिन काला बच्चा को यह बता दिया गया था कि वह जल्द ही उनसे दूर भेजा जाने वाला है। उसकी उदासी बढ़ गयी थी।
वह इतवार का दिन था और उस रोज काला बच्चा की सालगिरह थी। अगले ही रोज उसके जाने की व्यवस्था हो चुकी थी। प्रताप सिंह उसे खुद लेकर अमृतसर जाने वाला था। हवाई जहाज से दो टिकट बुक हो चुकी थीं। यह काला बच्चा की अपने घर में, आखिरी शाम थी। उसकी सालगिरह थी और वह चुप था। उसने यह भी नहीं पूछा कि उसे क्यों दूर भेजा जा रहा है...क्यों मां-बाप के साये से महरूम किया जा रहा है। उसकी जिन्दगी का तेरहवां साल शुरू होने वाला था। वे अपने बेटे की सालगिरह कभी नहीं मनाते थे, लेकिन आज यह सालगिरह इस तरह मनायी जा रही थी जैसे कुर्बानी के बकरे की पूजा हो रही हो। उस रोज वह सुबह से ही सन्तोशा जजीरे पर चले गये। दिन भर उस जजीरे में पिकनिक मनायी गयी। शाम को कुछ देर आराम किया गया और फिर होटल रायल हॉलीडे इन में डिनर का प्रोग्राम बना लिया।
स्काट्स रोड पर स्थित रायल हॉलीडे इन होटल तक जाने में तो उन्हें कोई दुश्वारी पेश नहीं आई थी। घर से कुछ ही दूर जाकर टैक्सी मिल गयी थी, लेकिन रात ग्यारह बजे जब वे होटल से बाहर निकले तो संयोग से स्टैंड पर या उसके आसपास कोई टैक्सी नहीं थी। उन्हें आर्चर रोड के चौराहे तक पैदल आना पड़ा। वह काला बच्चा की जुदाई की यह शाम इस तरह गुजार रहे थे जैसे बहुत खुशी का दिन आया हो। था तो यह खुशी का दिन ही, लेकिन उनके लिए वह दूसरे ही किस्म की खुशी थी...एक मनहूस बच्चे से निजात पाने की खुशी। डायना सिटी होटल के सामने उन्हें टैक्सी मिल गयी। होटल में ही काला बच्चा का केक कटा था...उस वक्त काला बच्चा को अपने जन्मदिन की कोई खुशी नहीं थी। वह तो अन्दर-ही-अन्दर आंसू पी रहा था।
अपने बंगले के सामने टैक्सी से उतरकर शंकर ड्राइवर को किराया अदा कर रहा था। तभी एक कार तेजी से उस गली में मुड़ी और उनकी टैक्सी के करीब रुक गयी। स्याह रंग की उस कार के दरवाजे खुले और चार आदमी कार से उतरकर शंकर, शारदा और काला बच्चा की तरफ बढ़े। उनमें सबसे आगे वाले आदमी को देखकर शंकर का दिल उछलकर हलक में आ गया और सीने में सांस रुकती महसूस होने लगी।
वह दारा था। मौत के फरिश्तों को अपने सामने देखकर शंकर और शारदा की हालत बिगड़ गयी। काला बच्चा का चेहरा भी धुआं होने गया। उसे सूरतेहाल का अन्दाजा लगने में दुश्वारी पेश नहीं आई थी। कार रुकते देख पहले तो वह समझा था कि शायद उसके डैडी के दोस्त आये हैं, लेकिन वे लोग जिस अन्दाज में कार से उतरे थे, वह अन्दाज दोस्ताना नहीं था, फिर दोस्तों के हाथों में असलाह नहीं होता। टैक्सी ड्राइवर ने भी परिस्थिति भांप ली थी। टैक्सी का इंजन स्टार्ट था और उसने अभी तक किराया नहीं लिया था, लेकिन कार से उतरने वाले उन लोगों के हाथों में असलाह देखकर उसकी छठी इन्द्री ने खतरे की घण्टी बजा दी और उसने किराया लिए बगैर बड़ी फुर्ती से गाड़ी को गेयर में डाला और उसे झटके से आगे बढ़ा दिया।
यह परिस्थिति देखकर शंकर के रोंगटे खड़े हो गये थे। वह पिछले बारह साल से जिन लोगों से छिपने की कोशिश कर रहा था, आज अंततः उन्होंने उसे घेर लिया था।
उनकी संख्या पांच थी। एक कार के स्टेयरिंग के सामने बैठा हुआ था। कार का इंजन स्टार्ट था। चार आदमी कार से उतरे थे। उनमें सबसे आगे दारा था, जिसके हाथ में रिवाल्वर था। उसके साथ कार से उतरने वाले तीन आदमियों में से दो तो चीनी थे और एक कदाचित यूरेशियन था। उन सबके हाथों में चाकू और खंजर थे और चेहरों पर बेपनाह सफ्फाकी (क्रूरता) थी। शंकर को समझने में देर नहीं लगी कि यह सब किराये के गुंडे थे और दारा ने भारी मुआवजा देकर उनकी खिदमत हासिल की होगी।
शंकर का दिल बड़ी शिद्दत से धड़क रहा था। उसने गर्दन घुमाकर शारदा और काला बच्चा की तरफ देखा, फिर दूसरे ही लम्हे चीख उठा—"भाग जाओ...तुम लोग भाग जाओ।"
"भागकर कहां जाओगे?" दारा ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए कहा। चेहरे की तरह उसके लहजे में भी बेपनाह क्रूरता थी—"अपने आपको बहुत चालाक समझते थे, लेकिन आखिर हमने तुम्हें तलाश कर ही लिया। तुम्हें दुनिया के किसी कोने में पनाह नहीं मिल सकती। तुम अगर पाताल में भी छिपे होते तो हम तुम्हें ढूंढ निकालते।"
"त...तुम क्या चाहते हो दारा?" शंकर हकबकाया।
"यह भी कोई पूछने की बात है।" दारा ने कहा—"तुमने मलिक नवाजिश अली के साथ गद्दारी की थी। उसे धोखा दिया था। उसे करोड़ों का नुकसान पहुंचाया था। हालांकि तुम मुल्क छोड़कर भाग निकले थे, मगर नवाजिश अली तुम्हें नहीं भूला था। तुम्हारी तलाश जारी रही और आखिर हमने तुम्हें ढूंढ ही लिया। मरने के लिए तैयार हो जाओ श्यामसुन्दर शंकर।"
"मुझे मारकर तुम लोगों को क्या मिलेगा?" शंकर ने अपने आप पर काबू पाने की कोशिश करते हुए कहा—"मैं तुम लोगों से बिल्कुल दूर हो चुका हूं। मुझसे अब तुम लोगों को कोई खतरा नहीं है। मेरा अब इण्डिया आने का कोई इरादा नहीं है...मैं...।"
"तुम हमारे लिए खतरा बन सकते हो, क्योंकि तुम हमारे धन्धे से वाकिफ हो।" दारा ने उसकी बात काट दी—"हमने आस्ट्रेलिया में अपने माल की खेप के लिए एक नयी मंडी तलाश की है। सिंगापुर को हम इलाकाई हैडक्वार्टर के तौर पर इस्तेमाल करने का इरादा रखते हैं और तुम जैसे लोग यहां हमारे लिए खतरा बन सकते हो। वैसे भी तुमसे तो पुराना हिसाब चुकाना है। तुम्हें जिन्दा नहीं छोड़ा जा सकता। चीफांग!" वह एक चीनी गुंडे की तरफ मुड़ा—"खत्म कर दो इसे।"
"नहीं...।" शारदा चीखती हुई आगे आ गयी।
दारा रिवाल्वर लिए खड़ा रहा और तीनों गुंडों ने खंजरों से शंकर पर हमला कर दिया। शारदा अपने पति को बचाने की कोशिश कर रही थी। खंजर के कई वार उसके जिस्म पर भी लगे। शारदा और शंकर अपने आपको बचाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन खंजर का हर वार उन्हें चीखने पर मजबूर कर देता। उनकी चीखों की आवाजें फिज़ा में गूंज रही थीं।
काला बच्चा एक तरफ खड़ा यह सब कुछ देख रहा था। उसकी आंखें खौफ व दहशत से फैली हुई थीं। एक गुंडे ने उस पर भी हमला करना चाहा, मगर ऐन उसी वक्त शंकर सामने आ गया।
"भाग जा काला बच्चा...अरे मनहूस भाग जा...।" शंकर चीखा।
काला बच्चा चीखता हुआ एक तरफ भाग खड़ा हुआ, लेकिन वह ज्यादा दूर नहीं गया। एक बंगले के सामने लॉन में छिप गया और उस तरफ देखने लगा। वे तीनों गुंडे शंकर और शारदा पर खंजरों से वार कर रहे थे और वे दोनों बुरी तरह चीख रहे थे। उनकी चीखें दूर तक गूंज रही थीं, लेकिन कोई उनकी मदद के लिए बाहर नहीं आया। पास खड़ा दारा रुक-रुककर रिवाल्वर से फायर कर रहा था। फायरिंग की आवाज ने ही लोगों को अपने घरों में बन्द रहने के लिए मजबूर कर रखा था।
चीफांग नामक गुण्डा शारदा को पकड़े हुए था। शारदा का जिस्म लहूलुहान हो रहा था। उसके जिस्म पर कई गहरे जख्म आ चुके थे, जिनसे खून बह रहा था। वह अपने आपको छुड़ाकर एक तरफ दौड़ी। चीफांग भी खंजर लिए उसके पीछे लपका। शारदा प्रताप सिंह वाले बंगले के सामने लॉन की बाड़ से उलझ कर गिरी। उसने उठने की कोशिश की, लेकिन चीफांग ने उस पर छलांग लगा दी और उसके सीने पर वार करने लगा।
शंकर जख्मों से चूर होने के बावजूद अपने आपको बचाने की कोशिश कर रहा था। आखिर उसे भी मौका मिल गया और वह एक तरफ भाग खड़ा हुआ, लेकिन जख्मों से चूर होने के कारण वह ज्यादा दूर नहीं जा सका और लड़खड़ाकर सामने वाले बंगले के लॉन के करीब गिर पड़ा। एक हमलावर खंजर ताने उसकी तरफ लपका, लेकिन ठीक उसी वक्त पिछले मोड़ से एक गाड़ी गली में मुड़ी।
"भागो।" दारा चीखा—"चीफांग भागो। गाड़ी में...।"
वे सब अपनी कार की तरफ लपके। कार हरकत में आ गयी थी। वे दौड़ते हुए कार में घुस गये और कार तेज रफ्तारी से अगला मोड़ घूम कर निगाहों से ओझल हो गयी। दूसरी कार गली में चन्द कदम आगे आ चुकी थी।
काला बच
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Additional information
Book Title | Kala Baccha : काला बच्चा |
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Isbn No | |
No of Pages | 270 |
Country Of Orign | India |
Year of Publication | |
Language | |
Genres | |
Author | |
Age | |
Publisher Name | Ravi Pocket Books |
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