कब्र मेरी मां
सुनील प्रभाकर
सुचित्रा कमरे में प्रविष्ट हुई।
उसका छोटा भाई गूंगी कैनवास पर जुटा अपनी चित्रकारी में डूबा हुआ था।
सुचित्रा के माथे पर बल पड़ गए।
“अरे गूंगी भैया! तुम उठे नहीं है अभी...! ढाई बज गए और तुमने अभी तक खाना नहीं खाया। कितनी बार कहा कि समय पर खाने-पीने का ध्यान रखा करो किन्तु तुम्हें तो चित्रकारी के अतिरिक्त और कुछ याद ही नहीं रहता।”
प्रत्युत्तर में गूंगी घूमा।
उसके चेहरे पर भोलापन था।
वही भोलापन जो उस जैसे सरल हृदय कलाकारों के चेहरों पर स्वाभाविक रूप से मौजूद रहता है। एक मोटी लट माथे पर झूल रही थी। कपड़े अस्त-व्यस्त!
उसने होंठों पर एक उंगली रखकर सुचित्रा को खामोश रहने का इशारा किया।
अन्दाज अनुनय भरा ही था।
सुचित्रा का दिल भर आया।
उसे ये अहसास भीतर तक कचोटता चला गया था कि वो बोल नहीं सकता।
सुचित्रा कुछ कहने वाली थी कि सहसा गूंगी ब्रश कलर में डुबोने के लिए घुटनों के बल नीचे बैठा। कैनवास पर बनी तस्वीर सुचित्रा की आंखों के सामने नुमाया हो उठी।
अगले ही पल सुचित्रा यूं उछली थी जैसे उसके कूल्हे से बिजली का नंगा तार छू गया हो।
आंखें फैलकर कैनवास से जा चिपकी थीं।
यही नहीं अपितु उसकी रीढ़ की हड्डी में ठण्डी लहरें-सी दौड़ने लगी थीं।
कैनवास पर एक इम्पोर्टेड कार के बोनट से चार-पांच साल के बच्चे को टकराकर हवा में उछलते हुए दिखाया गया था।
बच्चे की आंखें आतन्क व वेदना की अधिकता से फटी हुई थीं।
बच्चे के चेहरे पर दृष्टि पड़ते ही उसकी ये दशा हुई थी।
उस बच्चे की शक्ल हू-ब-हू सुरेन्द्र पाल सान्याल के पोते गट्टू से मिलती-जुलती थी।
राई-रत्ती भी फर्क नहीं—ऐसा लगता था जैसे गट्टू ही उस तस्वीर में जीवन्त हो उठा हो।
तभी गूंगी उसके मनोभावों से अन्जान कैनवास के सामने से हटा।
पूरी तरह!
सुचित्रा के कण्ठ से घुटी-घुटी सी आतंकित चीख निकल गई।
नीचे गट्टू की लाश पड़ी थी।
फुटपाथ पर...!
उसका सिर बुरी तरह फटा हुआ था।
गूंगी उसके कण्ठ से निकली चीख सुनकर घूमा।
उसकी आंखों में हैरानी के भाव थे।
जबकि सुचित्रा की हालत बदतर हो चली थी।
गट्टू उसके मालिक सुरेन्द्र सान्याल का पोता जरूर था किन्तु सच्चाई ये थी वो उसे भी जान से अधिक प्यारा था।
उसमें सुरेन्द्र सान्याल के परिवार के साथ-साथ घर के अन्तरंग नौकरों के भी प्राण बसते थे।
पूरे घर का खिलौना था गट्टू! उसी गट्टू की ऐसी तस्वीर...!
तभी गूंगी ने उसे कन्धों से पकड़कर झकझोरा—यूं जैसे उसे उसकी इस स्थिति का सबब समझ में ना आया हो।
“ये...ये तुझे क्या हुआ गूंगी? तूने गट्टू...की ऐसी तस्वीर क्यों बनाई? तुझे ऐसा करते शर्म नहीं आई?” वो चीख पड़ी।
गूंगी ने ऐसा इशारा किया जैसे पूछ रहा हो कि कौन गट्टू...?
“वो गट्टू जिसे तूने एक्सीडेंट होकर मरते दिखाया है। उफ्...! कहीं मालिक या किसी ने ये तस्वीर देख ली तो न जाने क्या सोचने लगें। उफ् गूंगी भैया! ये क्या बना डाला तुमने...?”
प्रत्युत्तर में गूंगी भौंचक्का-सा उसे देखता ही रह गया।
यूं जैसे उसे कुछ भी समझ में ना आया हो।
“फाड़ दे...! फाड़ दे ये तस्वीर...! वरना अगर किसी ने देख लिया तो गजब हो जाएगा।” कहते हुए सुचित्रा तेजी से आगे बढ़ी।
उसने कैनवास की ओर हाथ बढ़ाना चाहा—किन्तु तभी गूंगी बीच में आ गया।
वो हाथ जोड़कर उसे वैसा करने से रोक रहा था।
इशारे से समझाने की चेष्टा कर रहा था कि पूरे दिन की मेहनत व्यर्थ हो जाएगी।
उसे ठिठकना ही पड़ा।
“तूने ये तस्वीर बनाई क्यों?” सुचित्रा धीमे से गुर्राई थी—“क्या तुझे ये मालूम नहीं था कि ये बच्चा मालिक का पोता है?”
प्रत्युत्तर में उसने इंकार में गर्दन हिलाई, फिर टेबल पर रखा पैड उठा लाया।
उसने उस पर तेजी से लिखा—
मुझे नहीं मालूम कि ये बच्चा कौन है। कारण ये कि ये मेरी कल्पना की उपज मात्र है।
“ऐसी बेहूदा तस्वीर तूने बनाई क्यों?” सुचित्रा गुर्राई थी।
प्रत्युत्तर में उसने लिखा—
मैंने सोचा कि अभिभावकों के लिए एक ऐसा डिजाइन तैयार किया जाए जो देखने में भले ही कड़वाहट लिए हुए हो किन्तु उसमें कठोर सच्चाई हो—जिससे कि वे अभिभावक—जो खासतौर पर सड़क व आवागमन वाली गलियों में रहते हैं—अपने बच्चों पर ध्यान दें, इस सच्चाई को कण्ठ से नीचे उतार सकें कि जरा-सी असावधानी से उनके बच्चे का ये अन्जाम हो सकता है।
“तेरा दिमाग खराब है। खबरदार...जो इसे लेकर कहीं गया। इस पर कपड़ा डाल दे।”
प्रत्युत्तर में उसने जल्दी-जल्दी सिर हिलाया। सहमति में...और पर्दा खींच दिया।
“चल खाना खा...!” सुचित्रा उसे खींचती हुई बोली।
वो खिंचता चला गया।
गूंगी—उसका इकलौता भाई—जान की तरह अजीज! पति की मौत के बाद सुचित्रा के जीवन में यही तो एक सहारा बचा था—।
वो उसे लेकर किचन में पहुंची और उसे खाना देने के बाद पुनः गूंगी के कमरे में आई और उस तस्वीर को अच्छी तरह कपड़े से ढक दिया।
¶¶
सुरेन्द्र सान्याल अपनी गाड़ी से उतरकर जुहू बीच की ओर बढ़ा ही था कि एक फकीर जैसा व्यक्ति ना जाने किस ओर से निकलकर सामने आ खड़ा हुआ।
लम्बी सफेद दाढ़ी—सिर के बाल उलझे हुए।
माथे पर त्रिपुण्ड!
आंखें लाल...रुद्राक्ष की माला—हाथ में त्रिशूल!
वो एकदम सुरेन्द्र सान्याल के रास्ते में आकर अड़ गया था इसलिए सुरेन्द्र सान्याल को रुकना पड़ा।
तभी उसे एहसास हुआ कि फकीर जैसा व्यक्ति अपनी सुर्ख आंखों से उसे ही घूर रहा है।
उसके चेहरे को...!
सुरेन्द्र सान्याल के माथे पर बल पड़ गए।
स्पष्ट था कि यूं रोका जाना उसे नागवार गुजरा था—फिर भी उसका हाथ जेब की ओर रेंगा।
उसका हाथ बाहर आया तो उसमें दस का एक नोट था।
उसने नोट फकीर की ओर बढ़ाया, जिससे कि वो नोट लेकर उसका रास्ता छोड़ दे।
जाहिर था कि यूं रोके जाने का कारण उसने वही समझा था।
भीख मांगने के नए-नए तरीके—तरह-तरह की वेशभूषाओं से वाकिफ था वो। हालांकि भीख देने के वे सख्त खिलाफ थे किन्तु ऐसे वक्त पर वो सामने आया था जब वो घूमने के मूड में था—इसलिए वे अपने मूड का सत्यानाश करने के पक्ष में नहीं थे।
किन्तु!
उसने नोट की ओर देखा भी नहीं था और उसकी आंखें उनके मस्तक पर स्थिर थीं।
एकटक!
“विनाश! महाविनाश! मौत का ताण्डव...!” सहसा फकीर अपनी लाल-लाल आंखें उसके माथे पर स्थिर किए-किए ही बोला था।
स्वर ऐसा था कि सुरेन्द्र सान्याल को अपनी रीढ़ की हड्डी में सिहरन-सी दौड़ती महसूस हुई।
“तुम्हारे ऊपर शनि की छाया है वत्स...! इधर भाग्य क्षीण...उधर अनर्थ...! मौत का ताण्डव...! सर्वनाश...!”
“मिस्टर...!” सुरेन्द्र सान्याल हौले से गुर्राया था—“नोट पकड़ो और दफा हो जाओ यहां से...!”
“मैं तो चला जाऊंगा...किन्तु तेरा दुर्भाग्य...! वो कहां जाएगा?” साधु विचित्र स्वर में बोला था—“वो तो तेरे आगे-आगे चलेगा—मौत की धूल उड़ाता हुआ। उस काली धूल के बवंडर में तेरा पूरा परिवार छुपकर रह जाएगा। कोई नहीं बचेगा। यत्न कर...! कोशिश कर...! शनि शान्ति का उपाय...वरना...! वरना सब डूब जाएगा। तू भी...!”
“मिस्टर...!” सुरेन्द्र सान्याल गुर्रा पड़ा था—स्वयं को सम्भालते हुए—“तुम होश में तो हो—ये नोट पकड़ो और मेरा रास्ता छोड़ो।”
“गुर्रा मत बच्चा...! अब गुर्राने का वक्त तेरा नहीं रहा। अब तो किस्मत तुझ पर गुर्राएगी और तू सिर झुकाकर सुनेगा। खून की नदियां बहेंगी तेरे घर में—तू...तू अपने ही लहू में डूबकर रह जाएगा। तेरी छटपटाहट...! तेरी पीड़ा का पारावार ना होगा।”
उस साधु ने कुछ ऐसे अन्दाज में कहा कि सुरेन्द्र सान्याल के हाथ में थमा नोट कांप उठा।
सर्द झुरझुरी-सी उठी शरीर में...!
उस फकीर के स्वर में ऐसा ना जाने क्या था कि वो भीतर तक कांप गया।
तभी फकीर घूमा और छलावे की तरह भीड़ में लुप्त हो गया। नोट की ओर उसने देखा भी नहीं था।
सुरेन्द्र सान्याल ठगा-सा उधर देखता ही रह गया जिधर वो गायब हुआ था।
कुछ देर बाद।
“स...सर...! आप यहां...!”
उसके पीछे एक मधुर स्वर उभरा।
वो चौंक पड़ा।
उसने देखा उसकी पी०ए० नलिनी खड़ी किंचित विस्मय से उसे व उसके हाथ में थमे नोट को देख रही थी।
वो सचेत हुआ तो स्वयं पर खीझ उठा।
उसका शरीर पसीने से भरभराया हुआ था।
वो पछताने लगाकर कि व्यर्थ में ही वो उस बूढ़े फकीर की बातों में उलझ गया था।
“स...सर...! बात क्या है...?” तभी नलिनी उसकी आंखों में झांकती हुई बोली थी—“बात क्या है? आप कुछ परेशान दिखाई दे रहे हैं और ये हाथ में दस का नोट...?”
“ओह...हां...!” सुरेन्द्र सान्याल नोट छुपाने का असफल प्रयास करता बोला था—“रास्ते में एक पागल भिखारी आ निकला था। मैंने उसे पैसे देकर पीछा छुड़ाना चाहा था किन्तु वो अनर्गल प्रलाप करने लगा।”
“ओह...लेकिन आप यहां...?”
“घूमने...!” सुरेन्द्र सान्याल का स्वर उखड़ चला था—“थोड़ा घूमने व एकान्त में बैठने के उद्देश्य से मैं यहां आया था...किन्तु अब मुझे लगता है कि आदमी कहीं भी जाए, आदमियों से मुलाकात जरूर होगी।”
“आप ठीक कहते हैं सर...आदमी सबसे अधिक डिस्टर्ब आदमियों से ही होता है, ये भी एक कठोर सच्चाई है।” कहते हुए नलिनी हंसी।
सुरेन्द्र सान्याल ने सहमति में सिर हिलाया—किन्तु सच्चाई ये थी कि नलिनी की बात उसे नागवार गुजरी थी।
वो गाड़ी की ओर घूमा।
“आप चल दिए सर...?” नलिनी उसके पीछे लपकती हुई बोली थी—“मेरी बात का बुरा मान गए सर...?”
“नहीं—ऐसी बात नहीं है नलिनी। वास्तव में उस भिखारी ने मूड बिगाड़ दिया। अच्छा मैं चलता हूं...।” कहने के साथ ही उसने प्रतीक्षा नहीं की।
वो गाड़ी में समाया और उसकी गाड़ी ये जा-वो जा।
नलिनी!
वो अवाक्-सी उसे जाता देखती रही।
उसे आश्चर्य था।
उसका बॉस सुरेन्द्र सान्याल—जिसकी आंखों में वो अपनी सुंदरता के प्रति अक्सर प्रशंसा के भाव देखा करती थी—तथा ये महसूस करती थी कि उसका बॉस उसे चोरी-छुपे निहार रहा है—तथा उसकी निगाह उठते ही सकपका उठता था—यूं खुश्की से भर उठेगा, उसने सोचा भी नहीं था।
उधर सुरेन्द्र सान्याल अनमना-सा गाड़ी ड्राइव कर रहा था।
वो भिखारी के शब्दों को जितना ही भुलाना चाहता, उसके कठोर शब्दों की गूंज उसकी स्मृति में और भी घनी होती जाती थी।
वो जानता था कि ऐसे साधु व भिखारी जनता के पैसे ऐंठने के लिए किया करते हैं—ऐसे नाटक जिनसे उसे सख्त चिढ़ थी किन्तु इन सबके बावजूद न जाने क्यों वो उन लोगों की जमात का नहीं लग रहा था।
क्योंकि अगर ऐसा होता तो उसके हाथ में थमे नोट की ओर उसका ध्यान जरूर जाता।
किन्तु ऐसा नहीं था।
उसने नोट की ओर ध्यान भी नहीं दिया था।
तो फिर?
वो सोचता रहा।
गाड़ी दौड़ती रही।
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