कब सूरज निकलेगा
सुनील प्रभाकर
“मैं तुम्हारी बहन हूं या प्रेमिका?”
“ये क्या सवाल हुआ?”
“मेरे सवाल का जवाब दो कन्हैया। मैं तुम्हारी बहन हूं या प्रेमिका?”
“दोनों ही।”
“भला ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई औरत किसी मर्द की प्रेमिका भी हो तथा बहन भी?”
“तुम्हारे साथ तो ऐसा है ही। तुम रक्षाबंधन पर मेरी कलाई पर राखी बांधती हो कि नहीं?”
“बांधती हूं।”
“भैया दूज को टीका करती हो कि नहीं?”
“करती हूं बाबा, परन्तु...।”
“राखी कौन बान्धती है? टीका कौन करती है?”
“ब...बहन, परन्तु...।”
“तुम एकांत में अवसर मिलते ही मेरी बांहों में आती हो कि नहीं? मेरी सांसों में अपनी गर्म व महकी सांसों को घोलती हो कि नहीं? मेरे सीने पर अपना उन्नत सीना टीकाकर धड़कनों से धड़कनों के तार जोड़ती हो कि नहीं? बिस्तर पर वो सब करती हो कि नहीं—जो एक पत्नी अपने पति के साथ करती है?”
“करती हूं बाबा।”
“अर्थात तुम मेरी प्रेमिका भी हो।”
“किंतु मैं नहीं चाहती कि तुम्हारी बहन बनूं।”
“दुनिया को बेवकूफ बनाने के लिए ही तो हम भाई-बहन की एक्टिंग करते हैं। ऐसा न करें तो हम प्यार का खेल नहीं खेल सकते...।”
“फिर भी मुझे ये अच्छा नहीं लगता है कि मैं सबके सामने तुम्हें भाई साहब कहूं तथा तुम मुझे बहन कहो। भले ही हम ये सब दिल से नहीं कहते, परन्तु मुझे अच्छा नहीं लगता।”
“ये हमारी विवशता है नीरजा। हम दोनों विवाहित हैं। यदि कुंवारे होते तो ये सब ढकोसला करने की जरूरत नहीं होती। शादी करके मौज लेते। जैसा चल रहा है—चलने दो। फिल्मों में या ड्रामा में कलाकार पति-पत्नी का रोल करते हैं तो बहन-भाई का भी। हम भी ऐसे ही एक्टिंग करते रहेंगे। यदि हम बहन-भाई का ड्रामा नहीं करते तो ये मौज-मेला नहीं कर पाते। अब छोड़ो भी बोर टॉपिक को। बिस्तर हमारी प्रतीक्षा कर रहा है...।”
¶¶
“बिस्तर नहीं, मौत प्रतीक्षा कर रही है तेरी...।”
तीसरे धमकीपूर्ण स्वर ने दोनों को चौंक जाने पर विवश कर दिया—दोनों छिटककर एक-दूसरे से अलग हुए।
“रेशम सिंह तुम...?” वो बुरी तरह से बौखला उठा तथा थोड़ा चकित भाव से बोला—“तु...तुम भीतर कैसे आ गए?”
“खंभे से चढ़कर।” वो दोनों को घृणा भरी दृष्टि से घूरते हुए प्रत्येक शब्द को चबा-चबाकर बोला—“रंगे हाथों पकड़ने के लिए मुझे चोरों की भांति छत के रास्ते से आना पड़ा। तुम दोनों की बातें सुनने पर मेरा संदेह विश्वास में बदल गया...।”
“स...सन्देह...?”
“हां सन्देह।” रेशम सिंह कड़वाहट भरे स्वर में बोला—“उस रोज मेरा तथा नीरजा का झगड़ा हो गया था। नीरजा रोते हुए दूसरे कमरे में चली गई थी। तू मुझसे बोला कि छोटी-छोटी बातों के लिए झगड़ना ठीक नहीं है जीजा जी—मैं नीरजा बहन को भी जाकर समझाता हूं। तेरे जाने पर मेरा क्रोध शान्त हुआ तो मैंने भी यही सोचा कि मुझे नीरजा को यूं थप्पड़ नहीं मारना चाहिए था। नीरजा से क्षमा मांगने के लिए मैं जब 'इसी' कमरे के बाहर पहुंचा था तो ये नागिन तेरे सीने से लगी सुबकियां भर रही थी। मेरी उपस्थिति का आभास होते ही ये तेरे से यूं छिटककर दूर हुई कि जैसे अचानक ही तेरे में करण्ट प्रवाहित होने लगा था। तब एकदम से मुझे तेरे पर सन्देह नहीं हुआ। क्योंकि तुम दोनों को धर्म के भाई-बहन समझता था। तब मेरे मन में यही विचार आया कि ये चांडालनी भावुक होकर तेरे सीने से लगकर दिल का बोझ हल्का कर रही होगी। परन्तु...किन्तु बाद में मुझे वो स्थिति संदेहास्पद लगी। मेरे मस्तिष्क में शक का कीड़ा कुलबुलाने लगा। मैंने अपने सन्देह की पुष्टि करने का निर्णय किया तथा घर से निकलकर सामने वाले रेस्टोरेंट में जा बैठा। आधे घण्टे बाद तू आ पहुंचा। मैं घर के पिछवाड़े वाले कमरे से चढ़कर छत पर पहुंचा तथा फिर जीने से नीचे उतरा। तुम दोनों ने मेरी पीठ पर छुरा घोंपा है। मरने के लिए तैयार हो जाओ।”
कहने के साथ ही रिवाल्वर निकाली तथा दोनों पर तान दी।
रिवाल्वर देखते ही दोनों की हालत बुरी हो चली—चेहरों का रंग उड़ गया तथा आंखों में भय की स्याही घुल गई।
“तु...तुम गलत समझ रहे हो जीजा जी...।” सांवले रंग वाला कन्हैया होंठों पर जीभ घुमाकर बोला—“हम तो रिहर्सल कर रहे थे। छब्बीस जनवरी को स्कूल में ड्रामे होने हैं। तुम तो जानते ही हो कि मैं एक ड्रामे का डायरेक्टर हूं। उसमें मैं तथा नीरजा दोनों ही एक्टिंग करने वाले हैं। ड्रामे का शीर्षक 'कलयुग की नारी' है...।”
“भाई साहब सच बोल रहे हैं जी...।” नीरजा झट से बोली—“भाई साहब को कोई ऐसी औरत नहीं मिली—जो ड्रामे में नीरजा वाला रोल कर पाती। इन्होंने मुझसे रिक्वेस्ट की थी कि मैं नीरजा वाला रोल करूं। मेरा नाम भी यही है तो एक्टिंग भी नेचुरल कर सकूंगी...।”
“बकवास मत करो...।” वो गुर्राया—“मैं तुम दोनों के झांसे में नहीं आने वाला। मुझे पता नहीं क्या कि कन्हैया जिस ड्रामे का डायरेक्शन करेगा—उसका नाम 'दहेज की आग' है तथा उसके सभी कलाकार तय हो चुके हैं। रिहर्सल भी पूरी हो चुकी है।”
इस बार दोनों की सकपकाहट देखने योग्य थी।
“मुझे क्षमा कर दीजिए जी...।” जान बचने का कोई रास्ता न देखकर नीरजा त्रिया-चरित्र पर उतर आई—दौड़कर अपने पति की टांगों से लिपट गई तथा घड़ियाली आंसू बहाते हुए गिड़गिड़ाई—“मेरे कदम बहक गए थे। मैं कन्हैया के झांसे में आ गई थी। मैं कलंकिनी हूं...पापिन हूं। भगवान मुझे मेरे किए की सजा देगा। मैंने वासना के नशे में अपनी मर्यादा भंग की तथा सुहाग के साथ विश्वासघात किया। काश कि मैं आत्महत्या करके अपने घृणित पापों का प्रायश्चित कर पाती। अमोल व मुन्नी के लिए जीना चाहती हूं मैं। मेरे मरने से उन दोनों का जीवन तबाह हो जाएगा।”
रेशम सिंह ने निर्दयतापूर्वक नीरजा के सीने पर ठोकर जमाते हुए कहा—“साली...ड्रामा करती है। बेटे व बेटी की दुहाई देकर जान बचाना चाहती है। तुझे मेरे बच्चों की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। मुन्नी को तो जन्म होते ही मेरी बहन ने गोद ले लिया था। अमोल को भी दादी पाल लेगी।”
“ये तो सोचो कि...।” कन्हैया भयवश थरथर कांपता हुआ बोला—“हमें मारने पर तुम्हें कानून फांसी पर चढ़ा देगा।”
“जीने की इच्छा भी नहीं है अब। यदि मैं जीवित रहूंगा भी तो मुझे शान्ति या चैन की एक सांस भी नहीं मिलेगी। तुम दोनों के विश्वासघात को याद कर करके मेरी आत्मा खून के आंसू रोती रहेगी। मैं तुम दोनों को जान से मार कर फांसी के फंदे पर लटक जाऊंगा...।”
“न- नहीं...।” दोनों ही हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाए —“भगवान के लिए हमें क्षमा कर दो...।”
“नहीं, मैं तुम दोनों को क्षमा नहीं करूंगा...।” रेशम सिंह की चीख सुनकर सरला हड़बड़ाकर उठ बैठी—“दोनों को गोली से उड़ा दूंगा।”
“रेशम...।” चारपाई से उठकर उसने रेशम सिंह को झिंझोड़ दिया—“ये कैसी बात कर रहा है मेरे भाई? किसे गोली मारने को कह रहा है तू?”
रेशम हड़बड़ाते हुए उठ बैठा—कुछ देर तक वो मिचमिचाती आंखों से सरला को घूरता रहता था, फिर झेंपता हुआ सा बोला—“कुछ नहीं दीदी। ऐसे ही.. सपना देख रहा था।”
सरला सफेद साड़ी के पल्ले से रेशम का माथा पोंछते हुए बोली—“पसीने से बुरी तरह नहा उठा है तू तो रे। इसका मतलब कोई खतरनाक सपना था?”
“हां दीदी...।”
“मुझे नहीं बताएगा रे?”
“कुछ नहीं दीदी...आप सो जाइए।”
“नहीं। लगता है कि सपने के कारण तू परेशान हो चला है। मुझे बता देगा तो नींद ठीक से आएगी—वरना बाकी की रात करवटें ही बदलता रहेगा। बता ना...क्या देखा तूने?”
“मैंने नीरजा तथा कन्हैया को आपत्तिजनक स्थिति में देखा और उन्हें रिवाल्वर से शूट कर रहा था...।” रेशम सिंह ने दीवार घड़ी में टाइम देखा तथा बोला—“पसर का समय है दीदी। कहते हैं पसर का सपना सच्चा होता है। तो क्या...?”
“पागल तो नहीं हो गया रे तू...?” सरला के चेहरे पर हल्का-सा क्रोध झलका—“नीरजा ऐसी नहीं है। वो पतिव्रता औरत है। मैं उसे खूब पहचानती हूं। तू वहम का शिकार हो गया है। उस रोज तूने उसे कन्हैया के सीने से लगकर रोते देखा था। क्या कोई बहन अपने भाई के सीने से लगकर दिल का बोझ हल्का नहीं कर सकती? उस रोज तूने उसे पहली बार थप्पड़ मारा था। वो भी इसलिए कि तेरे शराब पीने पर उसने तुझे दो-चार बातें सुना दी थी। उसका दिल टूटा नहीं होगा क्या? इस वहम को मन से निकाल कर ही चंडीगढ़ जाना—वरना तेरे सुखी जीवन में आग लग जाएगी। इस वहम के कारण बहुत से घर उजड़ते देखे हैं मैंने। नीरजा तो देवी है मेरे छोटे भैया। मुझे तो आश्चर्य है कि तूने उस पर सन्देह कैसे किया!”
तभी मुन्नी जाग कर रोने लगी।
¶¶
“नमस्ते मौसी।”
“अरे रेशम बेटा तुम! कब आए अंबाला से?”
“अभी तो आया हूं मौसी।” वो मूढ़े पर बैठते हुए बोला—“घर पर ताला लगा हुआ है। सोचा था अभी नीरजा तुम्हारे पास बैठी होगी, परन्तु यहां तो नहीं है शायद बाजार से कुछ सामान लेने गई होगी। क्या तुम्हें चाबी देकर गई है?”
“नहीं, चाबी देकर तो नहीं गई। मैं एक कटोरा चावल उधार लेने के लिए सवेरे गई थी तो तब भी बाहर ताला पड़ा हुआ था।”
“यानी वो सवेरे से ही घर पर नहीं है? इनका मतलब वो कन्हैया के घर होगी। किन्तु उसे तुम्हें बताकर तो जाना चाहिए था।”
“अरे बैठ ना बेटा। तू अंबाला से लम्बा सफर तय करके आया है। थक गया होगा। मैं तेरे वास्ते चाय बनाती हूं।”
“नहीं मौसी।” मूढ़े से उठते हुए उसने कहा—“जब मैं चंडीगढ़ के लिए चला था तो अमोल को बुखार था। दीदी की चिट्ठी आई थी कि उन्हें हैजा हो गया है—सो मुझे उन्हें देखने जाना पड़ा। मेरा जी अमोल में अटका रहा। जब तक उसे देख नहीं लूंगा—चैन नहीं मिलेगा मुझे।”
“अरे सुन तो।”
वो दरवाजे पर पहुंचकर वापस घूमा।
अधेड़ा लपकते हुए उसके पास आई और समझाने वाले भाव से बोली—“तूने उस रोज बहू को थप्पड़ मारा था न। मुझे लगता है कि वो गुस्सा होकर कन्हैया के घर चली गई है—ताकि तू उसे मनाकर ले आए। उससे प्यार से बोलना और मनाकर घर ले आना। कभी वहां जाकर तू ऐंठने ही लगे।”
“नहीं मौसी...।” वो हंस दिया—“ऐंठूंगा नहीं। यदि वो मेरे से नाराज हुई तो थप्पड़ के लिए माफी मांग लूंगा।”
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